31.7.08

टेलीविज़न सत्याग्रह के वे दिन

बाप्सी सिध्वा पाकिस्तान मूल की चर्चित अंग्रेज़ी लेखिका हैं. आईस कैंडी मैन, द पाकिस्तानी ब्राइड, द क्रो ईटर्स जैसे मशहूर उपन्यास बाप्सी के खाते में दर्ज है. फिलवक़्त बाप्सी कोलंबिया विश्वविद्यालय, राइस यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ ह्यूस्टन में अध्यापन कर रही हैं. लेखन तो साथ-साथ चलता ही रहता है. हफ़्तावार के पाठकों के लिए पेश है मीडियानगर01:मीडिया विमर्श://हिन्दी जनपद में छपा लेख टेलीविज़न सत्याग्रह के वे दिन. इसके लिए दीवान टीम और विशेष रूप से अनुवाद के लिए रविकांत और टंकण के लिए अपने मित्र चन्दन शर्मा का आभार. इस लेख पर सीधे लेखिका तक अपनी राय पहुंचाने के लिए मेल करें bsidhwa@aol.com

हिन्दुस्तानी टीवी के पास एक चीज़ थी जो पाकिस्तानी टीवी के पास नहीं थी। इसके पास भारतीय फ़िल्मों का एक ऐसा बड़ा ज़ख़ीरा था जिसे पाकिस्तानी जनता ने नहीं देखा था। लिहाज़ा अपनी पुरानी ख़ामियों की भरपाई करने के लिए हिन्दुस्तानी टीवी ने हिन्दुस्तानी फ़िल्मों की बाढ़ ला दी। और जिस फ़िल्म से यह सब शुरू हुआ, वह थी मशहूर फ़िल्म ‘पाकीज़ा’। मीना कुमारी और राजकुमार अभिनीत इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के ढेर सारे गाने थे। इसको लाहौर में इतनी ख्याति मिल चुकी थी कि कुछ लाहौरियों ने तो बाक़ायदा वीज़ा लेकर अमृतसर जाकर इसे देखने की ज़हमत क़बूल कर ली थी।



एक बार जब फ़ैसला ले लिया गया तो हमने राहत की सांस ली। बहस-मुबाहिसों और गलबात का वह छूटा हुआ सिलसिला शिद्दत से याद आने लगा और हमने जो खो दिया था उसको पा लेने की हड़बड़ी मच गई। सन् 1965 की शरद ऋतु के शुरुआती दिन थे और नवम्बर में सफ़ेद-स्याह टीवी को पाकिस्तान में अपना प्रथम दर्शन देना था। तो वक़्तन-फ़वक़्तन ‘स्टैंड’ लेने वाले मेरे शौहर नौशीर ने तय किया कि वे टेलीविज़न सेट नहीं ख़रीदेंगे; हमें ‘बुद्घू बक्से’ की लत नहीं लगानी है।
उन दिनों मेरे अपने भी कुछ ख़याल थे और मैंने इस फ़ैसले में अपनी हामी भर दी। लाहौर में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था। अपने बीच टेलीविज़न के चमत्कार को लेकर लगाई जा रही अटकलों के साथ-साथ विकसित दुनिया में शुमार होने का ख़याल संतोषप्रद था। लेकिन हमारे परिवार ने चौतरफ़ा बढ़ते दबावों को ख़ामोश घृणा से नज़रअंदाज़ किया। नौकरों की फुसफुसाहट में भी जो दबे-ढंके इल्ज़मात थे, उनकी अनसुनी करते हुए हम टीवी-विहीन रहने के अपने निश्चय पर अटल रहे।
कुछ सालों बाद, हिन्दुस्तान ने अभी अपने प्रारंभिक टीवी स्टेशन स्थापित किए और लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब अमृतसर टीवी चैनल लाहौर में दिखने लगा। हालाँकि इसमें ताज्जुब जैसी कोई बात नहीं थी — टीवी तरंगें तो कहाँ-कहाँ नहीं जातीं और अमृतसर से लाहौर तो महज़ बीस मील है। लेकिन अमृसर तो पास होते हुए भी हमारे लिए जैसे अलास्का में था। दोनों सरकारों की सख़्त पाबन्दी के चलते दो पड़ोसी शहरों के बीच संचार न के बराबर था। तो, जैसे ही अमृतसर से हिन्दुस्तानी समाचार और डॉक्युमेंटरी हमारे टीवी के पर्दों पर आने लगे, यह खाई अप्रत्याशित रूप से पट गई।
हालाँकि हम राजनीति और ख़बरों के पुराने आदी थे — यहाँ ह्यूस्टन में भी हमारी शामें आमतौर पर राजनीतिक गपशप ही रंगीन करती हैं — नौशीर और मैंने अपना बहिष्कार जारी रखा। मुझे मान लेना चाहिए कि उसके इस ‘स्टैंड’ के पीछे जो ठीक चिंता या समझ थी उसे ठीक-ठीक समझने में मुझे थोड़ा वक़्त लगा। गप्प देना उसकी आदत है और इसी गप्पबाज़ी के लिए बंबई में पारसियों को ‘कागरा-खाव’ या कौआ-ख़ोर की उपाधि से नवाज़ा जाता है — मुझे लगता है कि टीवी दोस्तों के साथ होने वाली उसकी बैठक के बहस-मुबाहिसों में ख़लल डालेगा, इसका उसे डर था। उसने यह कहा भीः टीवी सभ्य वाद-विवाद का ख़ात्मा कर देगा। उसके शाम के दोस्तों को ख़ामोश और बेवकूफ़ पुतलों में तब्दील कर देगा। उसका कहना इतना ग़लत भी नहीं था। तब से लेकर अब तक, केबल और विडियो के अतिरिक्त दबाव ने महिलाओं की पर-निंदा-पर-चर्चा और गलबाती सत्रों तथा पुरुषों के सियासी मुबाहिसों में अच्छी सेंध लगाई है। मनोरंजन के ताज़ातरीन साधन होने की वजह से पाकिस्तानी टेलीविज़न पाकिस्तानी सिनेमा की पारंपरिक रूढ़ियों से आज़ाद था। पाकिस्तानी सिनेमा की तमाम अभिनेत्रियाँ जहाँ सिर्फ़ हीरा मंडी की नर्तिकयाँ होती थीं, टीवी ने अच्छे-भले घरों की प्रतिभाशाली महिलाओं को आकर्षित किया। सच तो यह है कि इन नई प्रतिभा के साथ-साथ रचनात्मकता ने पाकिस्तानी टीवी को भारतीय टीवी की नाटक-आदि प्रस्तुतियों की स्पर्धा में सालों तक बेहतर स्थिति में रखा।
लेकिन हिन्दुस्तानी टीवी के पास एक चीज़ थी जो पाकिस्तानी टीवी के पास नहीं थी। इसके पास भारतीय फ़िल्मों का एक ऐसा बड़ा ज़ख़ीरा था जिसे पाकिस्तानी जनता ने नहीं देखा था। लिहाज़ा अपनी पुरानी ख़ामियों की भरपाई करने के लिए हिन्दुस्तानी टीवी ने हिन्दुस्तानी फ़िल्मों की बाढ़ ला दी। और जिस फ़िल्म से यह सब शुरू हुआ, वह थी मशहूर फ़िल्म ‘पाकीज़ा’। मीना कुमारी और राजकुमार अभिनीत इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के ढेर सारे गाने थे। इसको लाहौर में इतनी ख्याति मिल चुकी थी कि कुछ लाहौरियों ने तो बाक़ायदा वीज़ा लेकर अमृतसर जाकर इसे देखने की ज़हमत क़बूल कर ली थी।
यह अफ़वाह 70 लाख लाहौरियों में बिजली की तरह फैल गई कि उस ख़ास जुमेरात को अमृतसर टीवी ‘पाकीज़ा’ दिखाएगा। कई दिनों तक कोई और चर्चा नहीं हुई। पहले से लोकप्रिय इसके तराने हर घर, गाड़ी और दुकानों के बाहर सुने जा सकते थे। टीवी सेटों की बिक्री में इज़ाफ़े के साथ सड़कों पर टेलीविज़न सेटों के गत्ते के कार्टनों से लदी-फदी गाड़ियों और ठेलों का कारवां दीखने लगा।
जिनके पास अभी तक टीवी सेट नहीं थे —ज़्यादातर लोगों के लिए टीवी निहायत महँगा था — उन्होंने क़िस्मत वाले दोस्तों और परिचितों के यहाँ फ़िल्म देखने की लंबी-चौड़ी योजना बना डाली थी। हमारी ज़िद से हमारे नौकर विस्मित और परेशान थे और उन्होंने अब तक इस विषय पर बमुश्किल मुँह खोला था। लेकिन उन्होंने भी पूरी ढिठाई के साथ पूछना शुरु कर दिया कि फ़लां-फ़लां ने ले लिया, हम टीवी कब ले रहे हैं। वे अपने क्वॉर्टर्स में मंडली जमाकर या दोस्तों के ड्राइवरों के इर्द-गिर्द जमा होकर हमारे दिवालियापन के बारें में अटकलें लगाते होंगे, ऐसा मेरा अंदाज़ा है। ‘पाकीज़ा’ दिखाए जाने के एक हफ़्ता पहले उनकी सेवाएँ पहले तो अज़ीब ढंग से मुस्तैद और शालीन हो गईं और जब इससे कुछ बनता न दिखा तो घरेलू काम करते हुए उनके चेहरे लटकने लगे। माहौल से बग़ावत की बू आने लगी। कभी इन्हें इस घर में काम करने का ग़ुमान था लेकिन अब टीवी वाले पड़ोसियों से ईर्ष्या और हमसे जुड़े रहने में अपमान महसूस होने लगा। हम उनकी नज़रों से बचने लगे। और अपना रवैया कड़ा कर लिया।
जुमेरात की शाम आई और नौकर उड़न छू! फ़ोन या दीगर ज़रिए से दोस्तों से संपर्क करना दूभर हो गया। ख़ुद को तन्हा

ज़ोहरा ने अपने मैले-कुचैले दुपट्टे की गाँठ खोली और मुड़े-तुड़े एक रुपये के नोट को सीधा करते हुए मेरे पति के सामने डायनिंग टेबल पर रख दिया। इतने में चिमटा हाथ में लिए बावर्ची रसोई से प्रकट हुआ और उसने उतनी ही संजीदगी से एक और नोट हमारे सामने रख दिया। उसके बाद बैरे शुकरदीन, माली और झाड़ू-पोंछा वालों की बारी थी। जुम्मे का दिन था, इसलिए धोबी भी वहीं था और उसे भी नोटों के इस बेढ़ब ढेर के ऊपर अपना नोट रखकर समारोह में शिरकत की। फिर वे सब अदब के साथ, पर बेचैन अंदाज़ में, टेबल के दूसरी ओर खड़े हो गए। तभी आमतौर पर उनकी अगुआई करने वाली, बड़बोली ज़ोहरा ने बाक़ायदा समारोहपूर्वक उनकी नुमाइंदगी करते हुए घोषणा कीः यह हमारा योगदान है। हम सब आपको हर महीने तब तक चंदा देंगे जब तक आपके पास टीवी ख़रीदने के पूरे पैसे न हो जाएँ!

और त्यक्त तथा इस एतिहासिक-से लगते अवसर से वंचित महसूस करते हुए हमने कैंटोमेंट में अपने टीवी-दार दोस्तों नीलोफ़र फ़ख़र मजीद के यहाँ जाने का फ़ैसला किया। जब फ़ैसला हो गया, तो एक फ़ौरी सुकून मिला और आख़िर वह दिन आ ही गया — शरद का वह वीरवार जब शाम 7.00 बजे ‘पाकीज़ा’ दिखाई जानी थी। छोटे-छोटे ढ़ाबों और चाय की दुकानों ने अपने अहातों के आगे सूरजमुखी छाप शामियाने-तंबू टांग लिए, और समोसा-चाय आदि पीने के लिए अतिरिक्त कुर्सियाँ डाल दी। जिनकी इतनी औक़ात भी नहीं थी उनके खड़े होने या बैठने की जगह का बंदोबस्त किया गया।
फ़क़त चार मिल की वह यात्रा याद रहेगी। चुप्पी की चादर लपेटे हुए लाहौर जैसे भूतों का शहर हो गया था। हमारे घर के पास ही मेन गुलबर्ग मार्केट था पर मार्केट की गहमागहमी नदारद थी। हमारी वोक्सी गाड़ी को छोड़कर चीज़ निस्पंद। आमतौर पर खचाखच ट्रैफ़िक वाली सड़को पर न तो बच्चे थे, न एक भिखारी और न ही कोई कुत्ता। हमें कर्फ़्यू में चलने का अहसास हुआ। तो उसी आलम में हम शहर-व्यापी जलवे में शिरकत करने के लिए जल्दी-जल्दी निर्जन गलियों में बढ़ते गए।
कैंटोनमेंट में हमारा स्वागत कालीन-बिछे, भीड़-भरे
, ख़ामोश कमरे ने किया और हमने जैसे-तैसे ठंस-ठंसाकर अपने लिए दरी पर जगह बनाई। हमने पूरी फ़िल्म देखी — एक ख़ामोश दृढ़ता के साथ। पर्दे पर सफ़ेद-स्याह, आड़ी-तिरछी रेखाओं और बर्फ़ानी बूंदों के झटकों के बीच कभी-कभार कोठे पर अश्रूपूरित आँखों और हसीन अदाओं वाली मीना कुमारी की झलक दीख जाती थी। हमारे मेज़बान ट्रैंकिंग नॉब को दाएँ-बाँए घुमा रहे थे और दर्शक दीर्घा उनको मददगार सलाह देती जाती। बड़े ही सही ठिकाने पर अवस्थित एक लड़का — जो पर्दे पर नज़र रखे हुए जब चाहे बाहर निकल सकता था — छत पर खड़े ऐंटिना दुरुस्त करते हुए दूसरे लड़के से सतत संवाद कर रहा था। फ़िल्म अचानक साफ़ आने लगी और छत के लड़के को चिल्लाकर बताया गया कि ऐंटिना स्थिर हो गया, और दर्शकों ने अपनी हसरत पूरी होने पर ठंडी साँस ली। लगा कि पूरे शहर ने हसरत पूरी कर ली हो और मेलोड्रामा के प्रवाह और मीना कुमारी से सहानुभूति में रोने में जुट गया हो।
अगली सुबह नाश्ते पर मौक़े के मुताबिक़ संजीदा दीख रही हमारी आया ज़ोहरा ने अपने मैले-कुचैले दुपट्टे की गाँठ खोली और मुड़े-तुड़े एक रुपये के नोट को सीधा करते हुए मेरे पति के सामने डायनिंग टेबल पर रख
दिया। इतने में चिमटा हाथ में लिए बावर्ची रसोई से प्रकट हुआ और उसने उतनी ही संजीदगी से एक और नोट हमारे सामने रख दिया। उसके बाद बैरे शुकरदीन, माली और झाड़ू-पोंछा वालों की बारी थी। जुम्मे का दिन था, इसलिए धोबी भी वहीं था और उसे भी नोटों के इस बेढ़ब ढेर के ऊपर अपना नोट रखकर समारोह में शिरकत की। फिर वे सब अदब के साथ, पर बेचैन अंदाज़ में, टेबल के दूसरी ओर खड़े हो गए। तभी आमतौर पर उनकी अगुआई करने वाली, बड़बोली ज़ोहरा ने बाक़ायदा समारोहपूर्वक उनकी नुमाइंदगी करते हुए घोषणा कीः यह हमारा योगदान है। हम सब आपको हर महीने तब तक चंदा देंगे जब तक आपके पास टीवी ख़रीदने के पूरे पैसे न हो जाएँ!
और हमारे घर अगले ही दिन टीवी लग गया।
अनुवाद: रविकान्त
सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

30.7.08

टेलीविज़न सत्याग्रह के वे दिन

बाप्सी सिध्वा पाकिस्तानी मूल की मशहूर अंग्रेज़ी लेखिका हैं। आईस कैंडी मैन, पाकिस्तानी ब्राइड, क्रो ईटर्स जैसे चर्चित उपन्यास इनके नाम दर्ज हैं. फिलहाल बाप्सी कोलंबिया विश्वविद्यालय, राइस यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ ह्यूस्टन में अध्यापन कर रही हैं. रचना कर्म तो चलता ही रहता है. पेश है दीवान-ए-सराय01:मीडिया विमर्श//हिन्दी जनपद में प्रकाशित उनका लेख टेलीविज़न सत्याग्रह के वे दिन. साभार: लेखक, संपादक, प्रकाशक और सहकर्मी चन्‍दन शर्मा.

एक बार जब फ़ैसला ले लिया गया तो हमने राहत की सांस ली। बहस-मुबाहिसों और गलबात का वह छूटा हुआ सिलसिला शिद्दत से याद आने लगा और हमने जो खो दिया था उसको पा लेने की हड़बड़ी मच गई। सन् 1965 की शरद ऋतु के शुरुआती दिन थे और नवम्बर में सफ़ेद-स्याह टीवी को पाकिस्तान में अपना प्रथम दर्शन देना था। तो वक़्तन-फ़वक़्तन ‘स्टैंड’ लेने वाले मेरे शौहर नौशीर ने तय किया कि वे टेलीविज़न सेट नहीं ख़रीदेंगे; हमें ‘बुद्घू बक्से’ की लत नहीं लगानी है।

उन दिनों मेरे अपने भी कुछ ख़याल थे और मैंने इस फ़ैसले में अपनी हामी भर दी। लाहौर में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था। अपने बीच टेलीविज़न के चमत्कार को लेकर लगाई जा रही अटकलों के साथ-साथ विकसित दुनिया में शुमार होने का ख़याल संतोषप्रद था। लेकिन हमारे परिवार ने चौतरफ़ा बढ़ते दबावों को ख़ामोश घृणा से नज़रअंदाज़ किया। नौकरों की फुसफुसाहट में भी जो दबे-ढंके इल्ज़मात थे, उनकी अनसुनी करते हुए हम टीवी-विहीन रहने के अपने निश्चय पर अटल रहे।

कुछ सालों बाद, हिन्दुस्तान ने अभी अपने प्रारंभिक टीवी स्टेशन स्थापित किए और लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब अमृतसर टीवी चैनल लाहौर में दिखने लगा। हालाँकि इसमें ताज्जुब जैसी कोई बात नहीं थी — टीवी तरंगें तो कहाँ-कहाँ नहीं जातीं और अमृतसर से लाहौर तो महज़ बीस मील है। लेकिन अमृसर तो पास होते हुए भी हमारे लिए जैसे अलास्का में था। दोनों सरकारों की सख़्त पाबन्दी के चलते दो पड़ोसी शहरों के बीच संचार न के बराबर था। तो, जैसे ही अमृतसर से हिन्दुस्तानी समाचार और डॉक्युमेंटरी हमारे टीवी के पर्दों पर आने लगे, यह खाई अप्रत्याशित रूप से पट गई।

हालाँकि हम राजनीति और ख़बरों के पुराने आदी थे — यहाँ ह्यूस्टन में भी हमारी शामें आमतौर पर राजनीतिक गपशप ही रंगीन करती हैं — नौशीर और मैंने अपना बहिष्कार जारी रखा। मुझे मान लेना चाहिए कि उसके इस ‘स्टैंड’ के पीछे जो ठीक चिंता या समझ थी उसे ठीक-ठीक समझने में मुझे थोड़ा वक़्त लगा। गप्प देना उसकी आदत है और इसी गप्पबाज़ी के लिए बंबई में पारसियों को ‘कागरा-खाव’ या कौआ-ख़ोर की उपाधि से नवाज़ा जाता है — मुझे लगता है कि टीवी दोस्तों के साथ होने वाली उसकी बैठक के बहस-मुबाहिसों में ख़लल डालेगा, इसका उसे डर था। उसने यह कहा भीः टीवी सभ्य वाद-विवाद का ख़ात्मा कर देगा। उसके शाम के दोस्तों को ख़ामोश और बेवकूफ़ पुतलों में तब्दील कर देगा। उसका कहना इतना ग़लत भी नहीं था। तब से लेकर अब तक, केबल और विडियो के अतिरिक्त दबाव ने महिलाओं की पर-निंदा-पर-चर्चा और गलबाती सत्रों तथा पुरुषों के सियासी मुबाहिसों में अच्छी सेंध लगाई है। मनोरंजन के ताज़ातरीन साधन होने की वजह से पाकिस्तानी टेलीविज़न पाकिस्तानी सिनेमा की पारंपरिक रूढ़ियों से आज़ाद था। पाकिस्तानी सिनेमा की तमाम अभिनेत्रियाँ जहाँ सिर्फ़ हीरा मंडी की नर्तिकयाँ होती थीं, टीवी ने अच्छे-भले घरों की प्रतिभाशाली महिलाओं को आकर्षित किया। सच तो यह है कि इन नई प्रतिभा के साथ-साथ रचनात्मकता ने पाकिस्तानी टीवी को भारतीय टीवी की नाटक-आदि प्रस्तुतियों की स्पर्धा में सालों तक बेहतर स्थिति में रखा।

लेकिन हिन्दुस्तानी टीवी के पास एक चीज़ थी जो पाकिस्तानी टीवी के पास नहीं थी। इसके पास भारतीय फ़िल्मों का एक ऐसा बड़ा ज़ख़ीरा था जिसे पाकिस्तानी जनता ने नहीं देखा था। लिहाज़ा अपनी पुरानी ख़ामियों की भरपाई करने के लिए हिन्दुस्तानी टीवी ने हिन्दुस्तानी फ़िल्मों की बाढ़ ला दी। और जिस फ़िल्म से यह सब शुरू हुआ, वह थी मशहूर फ़िल्म ‘पाकीज़ा’। मीना कुमारी और राजकुमार अभिनीत इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के ढेर सारे गाने थे। इसको लाहौर में इतनी ख्याति मिल चुकी थी कि कुछ लाहौरियों ने तो बाक़ायदा वीज़ा लेकर अमृतसर जाकर इसे देखने की ज़हमत क़बूल कर ली थी।

यह अफ़वाह 70 लाख लाहौरियों में बिजली की तरह फैल गई कि उस ख़ास जुमेरात को अमृतसर टीवी ‘पाकीज़ा’ दिखाएगा। कई दिनों तक कोई और चर्चा नहीं हुई। पहले से लोकप्रिय इसके तराने हर घर, गाड़ी और दुकानों के बाहर सुने जा सकते थे। टीवी सेटों की बिक्री में इज़ाफ़े के साथ सड़कों पर टेलीविज़न सेटों के गत्ते के कार्टनों से लदी-फदी गाड़ियों और ठेलों का कारवां दीखने लगा।

जिनके पास अभी तक टीवी सेट नहीं थे —ज़्यादातर लोगों के लिए टीवी निहायत महँगा था — उन्होंने क़िस्मत वाले दोस्तों और परिचितों के यहाँ फ़िल्म देखने की लंबी-चौड़ी योजना बना डाली थी। हमारी ज़िद से हमारे नौकर विस्मित और परेशान थे और उन्होंने अब तक इस विषय पर बमुश्किल मुँह खोला था। लेकिन उन्होंने भी पूरी ढिठाई के साथ पूछना शुरु कर दिया कि फ़लां-फ़लां ने ले लिया, हम टीवी कब ले रहे हैं। वे अपने क्वॉर्टर्स में मंडली जमाकर या दोस्तों के ड्राइवरों के इर्द-गिर्द जमा होकर हमारे दिवालियापन के बारें में अटकलें लगाते होंगे, ऐसा मेरा अंदाज़ा है। ‘पाकीज़ा’ दिखाए जाने के एक हफ़्ता पहले उनकी सेवाएँ पहले तो अज़ीब ढंग से मुस्तैद और शालीन हो गईं और जब इससे कुछ बनता न दिखा तो घरेलू काम करते हुए उनके चेहरे लटकने लगे। माहौल से बग़ावत की बू आने लगी। कभी इन्हें इस घर में काम करने का ग़ुमान था लेकिन अब टीवी वाले पड़ोसियों से ईर्ष्या और हमसे जुड़े रहने में अपमान महसूस होने लगा। हम उनकी नज़रों से बचने लगे। और अपना रवैया कड़ा कर लिया।

जुमेरात की शाम आई और नौकर उड़न छू! फ़ोन या दीगर ज़रिए से दोस्तों से संपर्क करना दूभर हो गया। ख़ुद को तन्हा और त्यक्त तथा इस एतिहासिक-से लगते अवसर से वंचित महसूस करते हुए हमने कैंटोमेंट में अपने टीवी-दार दोस्तों नीलोफ़र फ़ख़र मजीद के यहाँ जाने का फ़ैसला किया। जब फ़ैसला हो गया, तो एक फ़ौरी सुकून मिला और आख़िर वह दिन आ ही गया — शरद का वह वीरवार जब शाम 7.00 बजे ‘पाकीज़ा’ दिखाई जानी थी। छोटे-छोटे ढ़ाबों और चाय की दुकानों ने अपने अहातों के आगे सूरजमुखी छाप शामियाने-तंबू टांग लिए, और समोसा-चाय आदि पीने के लिए अतिरिक्त कुर्सियाँ डाल दी। जिनकी इतनी औक़ात भी नहीं थी उनके खड़े होने या बैठने की जगह का बंदोबस्त किया गया।

फ़क़त चार मिल की वह यात्रा याद रहेगी। चुप्पी की चादर लपेटे हुए लाहौर जैसे भूतों का शहर हो गया था। हमारे घर के पास ही मेन गुलबर्ग मार्केट था पर मार्केट की गहमागहमी नदारद थी। हमारी वोक्सी गाड़ी को छोड़कर चीज़ निस्पंद। आमतौर पर खचाखच ट्रैफ़िक वाली सड़को पर न तो बच्चे थे, न एक भिखारी और न ही कोई कुत्ता। हमें कर्फ़्यू में चलने का अहसास हुआ। तो उसी आलम में हम शहर-व्यापी जलवे में शिरकत करने के लिए जल्दी-जल्दी निर्जन गलियों में बढ़ते गए।

कैंटोनमेंट में हमारा स्वागत कालीन-बिछे, भीड़-भरे, ख़ामोश कमरे ने किया और हमने जैसे-तैसे ठंस-ठंसाकर अपने लिए दरी पर जगह बनाई। हमने पूरी फ़िल्म देखी — एक ख़ामोश दृढ़ता के साथ। पर्दे पर सफ़ेद-स्याह, आड़ी-तिरछी रेखाओं और बर्फ़ानी बूंदों के झटकों के बीच कभी-कभार कोठे पर अश्रूपूरित आँखों और हसीन अदाओं वाली मीना कुमारी की झलक दीख जाती थी। हमारे मेज़बान ट्रैंकिंग नॉब को दाएँ-बाँए घुमा रहे थे और दर्शक दीर्घा उनको मददगार सलाह देती जाती। बड़े ही सही ठिकाने पर अवस्थित एक लड़का — जो पर्दे पर नज़र रखे हुए जब चाहे बाहर निकल सकता था — छत पर खड़े ऐंटिना दुरुस्त करते हुए दूसरे लड़के से सतत संवाद कर रहा था। फ़िल्म अचानक साफ़ आने लगी और छत के लड़के को चिल्लाकर बताया गया कि ऐंटिना स्थिर हो गया, और दर्शकों ने अपनी हसरत पूरी होने पर ठंडी साँस ली। लगा कि पूरे शहर ने हसरत पूरी कर ली हो और मेलोड्रामा के प्रवाह और मीना कुमारी से सहानुभूति में रोने में जुट गया हो।

अगली सुबह नाश्ते पर मौक़े के मुताबिक़ संजीदा दीख रही हमारी आया ज़ोहरा ने अपने मैले-कुचैले दुपट्टे की गाँठ खोली और मुड़े-तुड़े एक रुपये के नोट को सीधा करते हुए मेरे पति के सामने डायनिंग टेबल पर रख दिया। इतने में चिमटा हाथ में लिए बावर्ची रसोई से प्रकट हुआ और उसने उतनी ही संजीदगी से एक और नोट हमारे सामने रख दिया। उसके बाद बैरे शुकरदीन, माली और झाड़ू-पोंछा वालों की बारी थी। जुम्मे का दिन था, इसलिए धोबी भी वहीं था और उसे भी नोटों के इस बेढ़ब ढेर के ऊपर अपना नोट रखकर समारोह में शिरकत की। फिर वे सब अदब के साथ, पर बेचैन अंदाज़ में, टेबल के दूसरी ओर खड़े हो गए। तभी आमतौर पर उनकी अगुआई करने वाली, बड़बोली ज़ोहरा ने बाक़ायदा समारोहपूर्वक उनकी नुमाइंदगी करते हुए घोषणा कीः यह हमारा योगदान है। हम सब आपको हर महीने तब तक चंदा देंगे जब तक आपके पास टीवी ख़रीदने के पूरे पैसे न हो जाएँ!

और हमारे घर अगले ही दिन टीवी लग गया।

अनुवादः रविकान्त

सभारः चन्दन शर्मा



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29.7.08

तूझे भी रोटी खानी है?

मित्रों, चार-पांच दिनों के बाद फिर से अपनी कहानी का एक टुकड़ा यहां पेश कर रहा हूं. पिछली किस्तों में आपने जवाहर और आदर्श की बातचीत सुनी और देखा जवाहर के ठीहे का नज़ारा. लीजिए अब देखिए सुबह-सुबह बाज़ार पहुंच कर आदर्श बाबू क्या कर रहे हैं ...

सुबह के क़रीब छह बज रहे हैं. सड़कें अपेक्षाकृत खाली है. अभी-अभी लाल किले के स्टॉप पर एक बस आकर रूकी है.

....और इस तरह सागर नाहर भारत के महानतम ब्लॉगरों में गिने जाने लगे। :)

आइटीओ, चिडियाघर, निजामुद्दीन, ओखला, बदरपुर बोर्डर चिल्लाता हुआ पीछे वाला कंडक्टर हाथ निकालकर खिड़की के नीचे थपथपा रहा है. पीछे जो 26 नंबर रुकी है उसका कंडक्टर ‘लोदी कोलोनी, सेवानगर’ चिल्लाता हुआ बस को वैसे ही थपिया रहा है. इस बीच पता ही नहीं चला कि डीटीसी की चार-पांच बसें कब आयीं, रुकीं और आगे बढ़ गयीं. जैन मंदिर के सामने लाजपतराय बाज़ार के साथ वाली सड़क के किनारे छोटी-छोटी टोलियों में लोग बैठे हैं. किसी के सामने करनी फट्टा है तो किसी के सामने लकड़ी का बक्सा जिसके अंदर से आरी की नोंक झांक रही है. बहुत से लोग खाली हाथ ही अंडाकार घेरे में बैठे हैं. अभी-अभी एक मारूति ज़ेन आकर रुकी है एक झूंड के पास. आसपास के झूंड वाले भी दौड़ कर पहुंच गए हैं उसके पास. ड्राइविंग सीट पर बैठे आदमी ने अभी अपनी बायीं ओर की खिड़की का शीशा पूरी तरह नीचे कि किया भी नहीं कि बाहर अफरातफरी शुरू हो गयी. एक-दूसरे का कुर्ता और अंगोछा खींचकर खिड़की के नजदीक पहुंचने की उनकी कोशिश अभी थमी भी नहीं थी कि पिछली सीट पर दो लोगों को बिठाकर कार यू टर्न ले कर ज़ू...... हो गयी.
साथ वाली सीढ़ी की दायीं ओर वाली उस पीपल के दरख़्त के नीचे सफ़ेद दाढ़ी में चेहरा छिपाए सत्तर पार के मुल्लाजी बैठे हैं जहां दिन में हज़्जाम उंची टांगों वाली कुर्सी पर लोगों की हजामत बनाता है. मोटे शीशे वाली मुल्लाजी की ऐनक बार-बार उनके इशारे की अवहेलना करके उनके नाक के बीचोबीच खिसक आती है और वे बार-बार उसको उपर चढ़ाते हुए फटे-पुराने रिजेक्टेड पतलुनों और कमीज़ों को एक बार फिर उनकी प्रतीष्ठा वापस दिलाने की जिद्द में उन पर मशीन चलाए जा रहे हैं. वे लोग भी उनके सामने खड़े हैं जो सुइयों से बिंधे कपड़ों से ख़ुद को ढंकना चाह रहे हैं. साथ वाले दिल्ली विद्युत बोर्ड के ट्रांसफ़र्मर के नजदीक हहा रहे स्टोव पर पतीले में चाय अपनी पूरी उबाल पर है. छोटू पतीले और गिलास के बीच छन्नी लगा चुका है. आसपास खड़े कुछ लोग गिलास को मुंह में सटाकर सुउउ... भी करने लगे हैं.
अभी-अभी कपड़ों का गट्ठर लादे एक ठेला वहां आकर रुका है. कंधे से अंगोछा उतारते के साथ ठेलेवाला ‘एक ठो चाय दे छोटू’ कहकर बेंच पर पसर गया है. आसपास खड़े लोग अपना-अपना कपड़ा पहचानकर ठेले पर रखे गट्ठर में से खींचने लगते हैं. बग़ल में दो-तीन लोग लंबे-से सुए में बहुत लंबी सुतली डाले गेंदे के फूल और अशोक के पत्ते को बारी-बारी से गूंथ रहे हैं. सामने शिवालय मंदिर का घंटा टनटाने लगा है. बग़ल की दुकान से प्रसाद और फूल लेकर औरत-मर्दों की टोली उस ओर बढ़ रही है. चांदनी चौक की तरफ़ जाने वाली सड़क पर वीरानी-सी छायी हुई है. भीड़-भाड़ और अफ़रातफ़री में डूबा रहने वाला बाज़ार नि:शब्द पड़ा है. दुकानों के शटर बंद हैं. बाहर फ़र्श पर पिछली रात ढेर हुई जिंदा लाशों की टोली अब भी क़तारबद्ध है. आंखों में लाली संजोए बहादुर डंडा पटकता बाज़ार से बाहर निकल रहा है. उसकी सीटियां थक चुकी हैं लेकिन लगता है उसके डंडे में अब भी दम बाक़ी है. कुछ दुकानों के आगे लगे नल पर कुछ लोग नहा रहे हैं जबकि कुछ फ़र्श पर अपने कुर्तों में बड़ी तल्लीनता से साबून की घिसाई में व्यस्त हैं. जिया बैंड वाली लेन में एक उम्रदराज़ महिला इस्त्री कर रही हैं. कोने वाले मंदिर में कानी आंख वाले पंडिजी भगवानों को पाइप से स्नान करवा रहे हैं. अख़बार वाले ने अभी-अभी सामने वाली शटर के नीचे से ‘पंजाब केसरी’ अंदर खिसका दिया है. पीछे शौचालय के बाहर बीड़ी की कश लगाते हाथ में डिब्बा लिए नौजवान का धैर्य जवाब दे चुका है. बेल्ट की बकल खोलता हुआ वो अब एक तरफ़ से सभी दरवाज़ों को खटखटा रहा है.
लगभग आठ बज रहे हैं. आदर्श बाबू इस समय एक स्टॉल के पास खड़ा होकर सुस्ता रहे हैं. साथ में सहकर्मी समर्पिता भी हैं. असल में, आदर्श बाबू पिछले पांच दशकों में बाज़ार में हुए भौगोलिक और भौतिक परिवर्तनों को समझने के लिए बाज़ार के एक अदद नक़्शे की तलाश में थे. बहुत छान मारी उन्होंने अभिलेखागारों और सरकारी दफ़्तरों की. कहीं बात

....और इस तरह सागर नाहर भारत के महानतम ब्लॉगरों में गिने जाने लगे। :)

नहीं बनी लिहाज़ा थक-हार कर ख़ुद ही नक़्शानबीसी करने पहुंचे हैं आज. समर्पिता दिल्ली विश्वविद्यालय में भूगोल की शोधार्थी हैं, थोड़ा-बहुत सउर हैं उन्हें नक़्शे का. इसीलिए समर्पिता मदद करने आयीं हैं आदर्श बाबू की. ‘थैंक्यू यार, बहुत मेहनत की आज तुमने मेरे साथ. चलो, अब तो मैं भी कर सकता हूं ये काम. वैसे भी एक दिन में तो होगा नहीं. कई राउंड लगाने पड़ेंगे बाज़ार के.’ आदर्श बाबू ने समर्पिता का धन्यवाद ज्ञापन किया. ‘अच्छा तो आप रुकेंगे अभी यहां ?’ समर्पिता ने आदर्श बाबू से पूछा. ‘हां’ कहा आदर्श बाबू ने. ‘तो मैं चलती हूं, मुझे डिपार्टमेंट जाना आज. मेरे सुपर्वाइज़र ने बुलाया है.’ कहकर समर्पिता ने चश्मे पर चढ़ आयी धूल को अपने दुपट्टे से साफ़ किया और ‘बाय’ कहती हुई आगे बढ़ गयीं.
आदर्श बाबू टहलते हुए बाज़ार के सामने आ चुके थे. लाल बत्ती से लेकर प्रेज़ेन्टेशन कॉन्वेंट के गेट तक सड़क पर लोग क़तारबद्ध बैठे थे. आदर्श ने ऐसा पहली बार देखा था लिहाज़ा वे इसकी वजह जानने के लिए पीछे से किसी के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, ‘क्या बात है, क्यों बैठे हैं आपलोग यहां ?’ ’ये मत पूछ कि क्यों बैठे हैं. तूझे भी रोटी खानी है? आज जा लाइन में.’ जवाब मिला. स्पष्ट हो गया कि सामूहिक भोजन का प्रबंध है. आदर्श बाबू ने अपने सिर पर हाथ रखा ही था कि लाल बत्ती की ओर से कुछ पगड़ीधारी सिख नौजवान और सिर पर दुपट्टा डाले महिलाएं ट्रॉली के साथ-साथ आगे की ओर आती दिखीं. पहले महिलाएं पांत में बैठे लोगों की हथेलियों पर रोटी रखतीं और फिर बाद में नौजवान उन रोटियों पर सब्ज़ी या दाल रखते. यह सिलसिला बिना किसी अफ़रातफ़री के क़तार में बैठे अंतिम व्यक्ति को भोजन मिलने तक चलता रहा. ठिठुरन भरी ठंड हो या मुसलाधार बरसात, शीशगंज गुरुद्वारे की लंगड़ की ये ट्रॉली हर रोज़ यहां पहुंचती है. आसपास के ग़रीब-गुर्बे और फुटपाथ पर गुज़र-बसर करने वाले लोग सुबह की रोटी यहां खाकर रात की रोटी कमाने शहर में निकल जाते हैं. इस वक़्त आदर्श बाबू के लिए ये व्यवस्था दुनिया के आठवें आश्चर्य से कम नहीं है. उन्होंने तो नवरात्रों और हनुमान जयंती जैसे अवसरों पर सड़कों या मंदिरों के किनारे तीन-चार घंटे तक चलने वाले विशाल भंडारे में आलू की सब्ज़ी के साथ चार कचौडियां ही बंटते देखी थी. आदर्श आज भोजन-वितरण कार्यक्रम देखकर सिक्खों के सेवा भाव का कायल हुआ जा रहे थे. आज अनायास उन्हें पिछली जुलाई का वो दिन याद आ रहा है जब सिक्खों का एक झूंड ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट के मेन गेट के दुसरी तरफ़ शरबत बांट रहा था, रूहआफ़जा की तीसरी गिलास गटकने के बाद गर्दन उचका कर अंदर से आती डकार को धीरे-से बाहर छोड़ते हुए उन्होंने बड़े हल्केपन से पूछा था, ‘आज कौन से गुरुजी का जन्मदिन है?’ ‘जन्मदिन नहीं तेज़ गर्मी है’ सुनकर ऐसा झेंपे थे कि ज़मीन मे सिर गाड़कर वहां से सरकते हुए भी उन्हें जलालत महसूस हो रही थी.

28.7.08

लोकतंत्र के चौथे खम्भे की क़ीमत दो बोरा चीनी है

अट्ठाइस कि.मी. इंग्लिश चैनल में कल आपने जेवरात और बंदुकों की अहमियत और उससे जुड़े कारनामों तथा पुवायां और शाहजहांपुर में अधिकारियों की मौज़ की कहानी़ पढ़ी. लीजिए इस आखिरी खेप में गोपाल प्रधान बता रहे हैं शाहजहांपुर और पुवायां में तीज-त्यौहारों का क्या महत्त्व है और शिक्षा का वहां के लिए क्या अर्थ है, शिक्षण संस्थान कौन-कौन से हैं और किस तरह वहां शैक्षणिक माहौल जिन्दा है. इस आखिरी हिस्से में गोपालजी पत्रकारिता और पत्रकारों और अधिकारियों के संबंधों समेत वहां की रोज़मर्रा से जुड़े कई अन्य तत्वों का भी खुलासा कर कर रहे हैं.

तीज़-त्यौहार
पूरे क़स्बे का माहौल उत्सवी है। हरेक दिन कोई कोई धार्मिक विधि-विधान होता रहता है। रक्षाबन्धन के चार-पाँच दिन

शाहजहाँपुर साम्प्रदायिक रूप सेसंवेदनशीलजगह है। आबादी में हिन्दू-मुसलमानों का अनुपात लगभग आधा-आधा है। पहले भी दंगे हुए हैं। होली के दिन ख़ासकर तनाव बढ़ जाता है। कारण यह कि उस दिन शहर में चार जगहों से नवाब के जुलूस निकलते हैं। एक दिन पहले किसी मुसलमान को कुछ रुपयों के एवज़ में नवाब बनने के लिए राज़ी किया जाता है। फिर रात भर उसे शराब पिलाई जाती है। सुबह शराब के नशे में धुत कर उसे नंगा किया जाता है फिर एक भैंसागाड़ी पर उसे बिठाकर जुलूस निकाला जाता है। रास्ते भर उसे लोग जूतों से पीटते रहते हैं। मकानों के ऊपर से बाल्टी भर-भर कर रंग फेंका जाता है। जिधर-जिधर से जुलूस निकलता जाता है वहाँ-वाहाँ रंग बंद होता जाता है। कभी प्रशासन ने इस पर रोक लगा दी थी. फिर अदालत से सांस्कृतिक परंपरा के नाम पर स्टे मिल गया है. अब प्रशासन की देख-रेख में यह जुलूस निकलता है। डीएम, एसडीएम और तमाम छोटे-मोटे अधिकारियों की निगरानी में मुख्य जुलूस हर साल मुस्लिम बहुल इलाक़े तक पहुँचता है और फिर पत्थरबाज़ी। नारे भी खुलेआम मुस्लिम विरोधी लगते रहते हैं।

आगे-पीछे बसों में भयानक भीड़ होती है। तक़रीबन एक ज़िम्मेदारी की तरह बहनें अपने भाइयों को राखी बाँधने आती हैं।
होली का तो हाल पूछिए मत। क़स्बे में पहली होली के चार दिन बाद पहुँचा तो सब कुछ सूना। सब्ज़ी भी नहीं मिलती। सभी होटल बंद। एक महीना पहले से ही सामने वाले दर्ज़ी महोदय की दुकान रात-रात भर खुली रहती थी। बताते हैं कुछ दुकानदारों की साल भर की आमदनी होली की कमाई ही होती है। ज़िला मुख्यालाय यानी शाहजहाँपुर आने पर एक अज़ीब रस्म का पता चला। शाहजहाँपुर साम्प्रदायिक रूप सेसंवेदनशीलजगह है। आबादी में हिन्दू-मुसलमानों का अनुपात लगभग आधा-आधा है। पहले भी दंगे हुए हैं। होली के दिन ख़ासकर तनाव बढ़ जाता है। कारण यह कि उस दिन शहर में चार जगहों से नवाब के जुलूस निकलते हैं। एक दिन पहले किसी मुसलमान को कुछ रुपयों के एवज़ में नवाब बनने के लिए राज़ी किया जाता है। फिर रात भर उसे शराब पिलाई जाती है। सुबह शराब के नशे में धुत कर उसे नंगा किया जाता है फिर एक भैंसागाड़ी पर उसे बिठाकर जुलूस निकाला जाता है। रास्ते भर उसे लोग जूतों से पीटते रहते हैं। मकानों के ऊपर से बाल्टी भर-भर कर रंग फेंका जाता है। जिधर-जिधर से जुलूस निकलता जाता है वहाँ-वाहाँ रंग बंद होता जाता है। कभी प्रशासन ने इस पर रोक लगा दी थी. फिर अदालत से सांस्कृतिक परंपरा के नाम पर स्टे मिल गया है. अब प्रशासन की देख-रेख में यह जुलूस निकलता है। डीएम, एसडीएम और तमाम छोटे-मोटे अधिकारियों की निगरानी में मुख्य जुलूस हर साल मुस्लिम बहुल इलाक़े तक पहुँचता है और फिर पत्थरबाज़ी। नारे भी खुलेआम मुस्लिम विरोधी लगते रहते हैं। एक साल बाद अभी गया तो मोबाइल फ़ोन जगह-जगह बज रहे थे। लेकिन बाक़ी सब जस का तस।
गंगा स्नान एक स्थानीय पर्व है। ट्रैक्टरों में भर-भर कर लोग कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा नहाने जाते हैं। पिछले साल रेलवे के ऊपर बने फ़्लाई ओवर से एक ट्रैक्टर ट्रॉली पलटकर सीधे नीचे सड़क पर आखर गिरी तो चार मौतें हो गईं।
दर्ज़ियों की बात चली तो याद आया। पूरे शाहजहाँपुर में दर्ज़ी समुदाय की आबादी बहुत ज़्यादा है। प्रसिद्ध अभिनेता (रामगोपल वर्मा की फ़िल्मों वाले) राजपाल यादव इसी ज़िले के हैं। उन्होंने भी कभी दर्ज़ी बनने का प्रशिक्षण लिया था। दरअसल यहाँ एक प्रतिरक्षा वस्त्र कारख़ाना है। हरेक साल कुछेक युवक उसमें अप्रेन्टिसशिप करते हैं, जिन्हें बाद में जगह होने पर दर्ज़ी की नौकरी मिल जाती है। रियटायर होने के बाद या नौकरी मिलने की सूरत में ये लोग दुकान खोल लेते हैं। अब्दुल हमीद रहने वाले गाज़ीपुर के थे। पाकिस्तान के साथ सन् 71 की जंग में वे मारे गए थे। दर्ज़ा 8 में शहीदों की जीवनियों के एक संग्रह में मैंने उनकी जीवनी पढ़ी थी। तब सैनिक बनने का सपना भी देखा था। उनके नाम पर शाहजहाँपुर में पुल देखा तो थोड़ा आश्चर्य हुआ। पता चला कि वे भी दर्ज़ी समुदाय के थे इसलिए उनके नाम पर इक्कीसी समुदाय साला जलसा भी करता है।
इस कारख़ाने में कभी समाजवादियों और वामपंथियों की यूनियन का दबदबा था। अब उसके नाम से राम लीला ही महत्त्वपूर्ण रह गयी है. लेकिन इसे भी कोई छोटी-मोटी चीज़ समझें. ख़ुद राजपाल भी इसी की पैदाइश हैं. जगदीशचंद्र माथुर, भुवनेश्वर से अब तक यह परंपरा सुरक्षित है। शाहजहाँपुर जा कर ही समझ में आया कि मुझे चाँद चाहिए की

शाहजहाँपुर जा कर ही समझ में आया कि मुझे चाँद चाहिए की नायिका का घर शाहजहाँपुर में होना कोई आश्चर्य नहीं है। नाटक नवयुवकों-युवतियों के लिए मुक्ति का एक रास्ता है।गाँधी भवननामक रंगशाला की मिसाल लखनऊ के अलावा उत्तर प्रदेश में और कहीं नहीं मिलेगी। हरेक साल के नाट्य समारोहों में तक़रीबन सभी महत्वपूर्ण टीमें भाग लेती हीं।

नायिका का घर शाहजहाँपुर में होना कोई आश्चर्य नहीं है। नाटक नवयुवकों-युवतियों के लिए मुक्ति का एक रास्ता है।गाँधी भवननामक रंगशाला की मिसाल लखनऊ के अलावा उत्तर प्रदेश में और कहीं नहीं मिलेगी। हरेक साल के नाट्य समारोहों में तक़रीबन सभी महत्वपूर्ण टीमें भाग लेती हीं। इसके अतिरिक्तस्पिक मैकेकी इकाई होने की वजह से शास्त्रीय संगीत भी लोगों को सुनने को मिल जाता है।
ऑर्डिनेन्स क्लोनिंग फ़ैक्टरी के अलावा चीनी मिलें ही महत्त्वपूर्ण उद्योग हैं। हालाँकि ज़्यादातर चीनी मिलें सहकारिता क्षेत्र में हैं लेकिन सहकारिता के किसी भाव को जन्म देने के बजाए वे अधिकारियों की जेबें भरने का माध्यम हैं और घाटे में चल रही हैं।

शिक्षा
ज़िला मुख्यालय में एक पुराना अल्पसंख्यक महाविद्यालय गाँधी फ़ैजे आम कॉलेज है। इसके अलावा कुछ सनातनी धर्मगुरुओं द्वारा खोला गया स्वामी शुकदेवानंद कॉलेज भी है जिसके अध्यक्ष पूर्व गृहराज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद हैं। लड़कियों का एक डिग्री कॉलेज आर्यसमाजियों ने खओला है। तमाम कॉलेजों की प्रबंध समिति में झगड़ा-फ़साद चलता रहता है। अब से पहले किसी कॉलेज में छात्र संघ नहीं था और विद्यार्थियों के साथ प्राइमरी स्कूल जैसे अनुशासन के पक्षधर आम तौर पर अध्यापक हैं। ईसाई लोगों द्वारा स्थापित नेवटेक्निकल इंस्टीट्यूट है जिसके अध्यक्ष आशीष मैसी भाजपा के सक्रिय सदस्य हैं।
कॉलेजों के बाहर कुछ बेहतरीन पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं जिनमें एक हृदयेश हिन्दी कहानी में महत्त्वपूर्ण शख़्सियत हैं। 75 साल के ऊपर के होने के बावजूद सक्रिय हैं। सोने के पुराने व्यापारी श्याम किशोर सेठ हिन्दी की एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका का संपादन किया करते थे। स्थानीय स्तर पर ज़िलाधिकारी के निज़ी सहायक चंद्रमोहन भी पढ़ते-लिखते रहते हैं। यही वह मंडली थी जिसके सहारे छह साल का जीवन चल सका।
बाहर की आँख शायद ज़्यादा ही विशेषताओं पर ज़ोर देती है। मसलन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरे मित्र पहले दोपहर में सोने की आदत पर मुझे गाली दिया करते थे। यहीं आकर मैंने देखा कि पुवायाँ या शाहजहाँपुर में मुझे दोपहर में सोता कोई नहीं दिखाई पड़ा।दुकान मेरा मन्दिरका अर्थ भी यहीं समझा। हर कोई अपनी दुकान पर पूरी तरह फ़िट-फ़ाट होकर दिखाई पड़ता है। पूर्वी इलाक़ों में संयुक्त परिवार एक ऐसा आदर्श है जिसके होने पर अफ़सोस आप हर किसी के मुँह से सुनिएगा। लेकिन इस इलाक़े में विवाह के बाद लड़के को पारिवारिक संपत्ति में उसका हिस्सा देकर अलग कर देना बुरा नहीं समझा जाता।
एक हद तक व्यापारिक संस्कृति के हावी होने के कारण मेरे ट्यूशन पढ़ाने पर लोगों को अचरज होता था। हर कोई

मेरे ट्यूशन पढ़ाने पर लोगों को अचरज होता था। हर कोई शादियों में जाने के लिए सूट सिलवाकर रखता है। बच्चे के 16 साल का होते-होते उसे धंधे में डालने की हड़बड़ रहती है। शायद हरेक शहर ऐसा ही होता हो लेकिन यहाँ के लोग पूरब यानी बनारस के लोगों को काहिल और दरिद्र समझते हैं। यहीं आकर मैंने ईमानदार और बेईमान की नई परिभाषा सुनी और समझी। ईमानदार वह अधिकारी या कर्मचारी है जो घूस लेकर काम कर दे। जो पैसा लेकर भी काम करे बेईमान तो उसे ही कहा जाएगा।

शादियों में जाने के लिए सूट सिलवाकर रखता है। बच्चे के 16 साल का होते-होते उसे धंधे में डालने की हड़बड़ रहती है। शायद हरेक शहर ऐसा ही होता हो लेकिन यहाँ के लोग पूरब यानी बनारस के लोगों को काहिल और दरिद्र समझते हैं। यहीं आकर मैंने ईमानदार और बेईमान की नई परिभाषा सुनी और समझी। ईमानदार वह अधिकारी या कर्मचारी है जो घूस लेकर काम कर दे। जो पैसा लेकर भी काम करे बेईमान तो उसे ही कहा जाएगा। इसे शाहजहाँपुर में जुगाड़ कहते है। इसे हँसी में लोग टेकनीक भी कहते हैं।
तो जुगाड़/टेकनीक के काम करने का तरीक़ा कुछ इस तरह था। बैलगाड़ी में बैल की जगह डीज़ल इंजन लगाकर उसे चलाते हुए गाड़ी पर कुछ सामान लेकर लोग खेत तक जाते। फिर इंजन को कुएँ में लगाकर खेत में पानी पटाते और फिर उसी तरह वापस जाते। इसे वहाँमारूताकहते हैं।मारूतिका मर्दाना संस्करण। इसी से थोड़ी दूरी तक सवारियाँ भी किराए पर ढोई जातीं। कहते हैं देवेगौड़ा के ज़माने में इस टेकनीक के बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने सुना तो भारतीय प्रधानमंत्री से इसके निर्यात की गुज़ारिश की। देवेगौड़ा जी ने कहा कि उसी टेकनीक से तो मेरी सरकार चल रही है निर्यात कैसे करूँ। इस टेकनीक से सारे काम हो जाते हैं। ऐसा भरोसा यहाँ के लोगों को था। कॉलेज में ऐडमिशन हो चुके हैं। रास्ते में एक सज्जन नमस्कार कर ऐडमिशन के लिए पूछते हैं। बताता हूँ - ‘अब कोई संभावना नहीं है।’ ‘कोई जुगाड़ नहीं हो जाएगा?’ प्रश्न है।
आबादी में ब्राह्मण समुदाय की बहुतायत है लेकिन पेशे के लिहाज़ से पिछड़पन नहीं है क्यों कि हरेक पेशे में ब्राह्मण समुदाय के लोग है। खेती में धनी, हथियार लैस और जातीय अहंकार, ऊपर से ख़ान-पान की शुद्धता का अतिरिक्त आग्रह। सभी प्रकार के अपराधों में भी लिप्त। कॉलेज में एक सज्जन एक छात्र की सिफ़ारिश के लिए आए। मैंने परिचय पूछा तो बोले मुझे नहीं जानते? मैं धारा 376 का मुज़रिम हूँ। मैं तो सन्नाटे में गया। बाक़ी समुदायों में ब्राह्मण विरोध इसलिए बहुत ज़्यादा है। यह समुदाय एक क़बीले की तरह रहता है। कोई आदमी उतना ही ताक़तवर हैं जितने ताक़तवर उसके रिश्तेदार हैं। ताक़त का मतलब बन्दूक़ें। जिनसके पास बन्दूक़ का लाइसेंस है उसके पास शादियों में जाने के लिए सर्वाधिक निमंत्रण आते हैं। फिर तो फ़ायरिंग का कम्पीटिशन होता है। कहते हैं कई लोग इसमें मारे भी जाते हैं।
पुवायाँ और शाहजहाँपुर के व्यापारियों ने बताया कि शुरू-शुरू में कुछेक गाँवों के लोग दुकानों पर से ज़बर्दस्ती सामान उठा ले जाते थे। फिर व्यापिरयों ने दुकानों पर बतौर नौकर उन्ही गाँवों के दबंग लोगों के बच्चो को रखना शुरू किया। इसेकुत्ता रखनाभी कहा जाता है।
सूदखोरी यहाँ मुख्य धन्धा है। सूद पर रुपया चलाने वालों को पेशेवर लोग रुपया देते हैं 2.5 प्रतिशत छमाही के चक्रवृद्धि ब्याज पर। वे इसे बाक़ी क़र्ज़ माँगने वालों को 4 प्रतिशत छमाही चक्रवृद्धि ब्याज पर देते हैं बदले में गिरवी के बतौर कोई अभूषण रखा जाता है। इसे हीगिरवी गाँठकहते हैं। खेतों में फ़सलों के साथ उगने वाले खरपतवार को गुल्ली-डंडा कहा जाता है।खरपतवार नाशककी बजायगुल्ली-डंडा से छुट्टी उलटने कोलौटनाबोलते हैं।दूध लौट दिया शाहजहाँपुर शहर के बीच एक सड़क खड़ी माँग की तरह आर-पार गुज़रती है। इसे नागार्जुन जीसदा सुहागिन सड़ककहते थे।
पत्रकारिता आम तौर पर क़स्बाई है। विज्ञापन लेने के लिए अफ़सरों के यहाँ पत्रकारों को घूमते-फिरते देखा जा सकता है। एक पत्रकार अपने पेशे के बल पर दो-दो अवैध जीपें चलवाते थे। एक पत्रकार के यहाँ क्रशर मालिक खांडसारी पहुँचाते थे। हमारे प्रिंसिपल कहते - लोकतंत्र के चौथे खम्भे की क़ीमत दो बोरा चीनी है। इसी में युवकों की भारी फ़ौज कॉलेजों से किसी तरह डिग्री हासिल करने के लिए कुंजियों और ट्यूशन के सहारे परीक्षा में उतरती है। असफल लोग नाटक में अपनी क़िस्मत आज़माते या फिर छोटा-मोटा धंधा कर लेते हैं। किसी दिन स्थिरता हासिल होगी इसी आशा से आपाधापी में लगे रहते और बूढ़े हो जाते हैं।

आबादी में ब्राह्मण समुदाय की बहुतायत है लेकिन पेशे के लिहाज़ से पिछड़पन नहीं है क्यों कि हरेक पेशे में ब्राह्मण समुदाय के लोग है। खेती में धनी, हथियार लैस और जातीय अहंकार, ऊपर से ख़ान-पान की शुद्धता का अतिरिक्त आग्रह। सभी प्रकार के अपराधों में भी लिप्त। कॉलेज में एक सज्जन एक छात्र की सिफ़ारिश के लिए आए। मैंने परिचय पूछा तो बोले मुझे नहीं जानते? मैं धारा 376 का मुज़रिम हूँ। मैं तो सन्नाटे में गया। बाक़ी समुदायों में ब्राह्मण विरोध इसलिए बहुत ज़्यादा है। यह समुदाय एक क़बीले की तरह रहता है। कोई आदमी उतना ही ताक़तवर हैं जितने ताक़तवर उसके रिश्तेदार हैं। ताक़त का मतलब बन्दूक़ें। जिनसके पास बन्दूक़ का लाइसेंस है उसके पास शादियों में जाने के लिए सर्वाधिक निमंत्रण आते हैं।


शाहजहाँपुर के मेरे मित्र कुलदीप भागी के ज़िक्र के बगैर तो बात अधूरी रह जाएगी। शहर के आलीशान सिनेमा हॉल, निशात टॉकीज़ के मालिक श्री भागी फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान, पूना में पढ़े थे तथा शाहजहाँपुर में लगातार अपने स्तर के लोगों को बातचीत के लिए ढूँढ़ते रहते थे। बासु भट्टाचार्च की फ़िल्म तुम्हारा कल्लू में उन्होंने अभिनय भी किया था। इस वजह से उनका एक नाम कल्लू भी था। शाम को दारू पी लेते और चटनी से लेकर सिगार तक हर विषय पर बातचीत करने में सक्षम हो जाते। मेरे शुभाकांक्षी होने के नाते हमेशा मुझे शाहजहाँपुर छोड़ने की सलाह देते रहते। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्विद्यालय, वर्धा से अस्थायी नियुक्ति का पत्र मिलते ही मैंने उनकी इच्छा का समान किया और उत्तर आधुनिक समय में कूद पड़ा। वह कहानी फिर कभी।