4.6.10

ग़ैरबराबरी को बढावा देते आश्रम

नरेश गोस्‍वामी अपने पुराने मित्र हैं. 'धर्म और बाज़ार' के संबंधों की पड़ताल कर रहे हैं दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में. धांसू लिखाड़ हैं. हिंदी और अंग्रेज़ी में समान रूप से लेखन करते हैं. तनाव की स्थिति में खूब लिखते हैं, बढिया लिखते हैं. पेश है नरेशजी का यह आलेख जो श्री श्री रविशंकर जी पर हमले के अगले रोज दैनिक भास्‍कर में छपा था. लेखक और प्रकाशक दोनों को आभार.


गुरु परंपरा केंद्रित एक धार्मिक समुदाय के उत्तर

भारत के लगभग हर शहर में आश्रम हैं। इन

आश्रमों में हर सप्‍ताह भक्‍तजन या संप्रदाय के

अनुयायी जुटते हैं। परिसर की फसलों और बागवानी की

देखरेख सेवादार करते हैं। इस काम को श्रमदान कहा

जाता है। इस काम का कोई मेहनताना नहीं होता। यह एक

स्वैच्छिक कार्य होता है। इस बेहद नपी-तुली व्यवस्था के

प्रभामंडल के चलते कोई अनुयायी यह नहीं जानना चाहता

कि इतनी जमीन खरीदने और उस पर भवन निर्माण करने

के लिए पैसा कहां से आता है।


इन आश्रमों के जलसों में भक्‍तजन गुरु की झलक

पाने भर के लिए बेताब रहते हैं। गुरु स्वर्ग का मार्ग दिखाने

के अलावा रोजमर्रा के जीवन और सामाजिक संबंधों को

मधुर बनाने के लिए कोई नुस्खे तजवीज नहीं करते। वे

कभी-कभी एक भीतरी रोशनी की बात करते हैं, लेकिन

उस रोशनी से सामाजिक संबंधों में पसरे अंधेरे कोने

प्रकाशित नहीं हो पाते। इधर, बढ़ते बाजार और

उपभोक्‍तावाद की ललक ने समाज से मिलने वाले

आश्वासनों को जबसे छिन्न-भिन्न कर दिया है, तबसे इन

संप्रदायों और आश्रमों में अनुयायियों की भीड़ बेतहाशा

बढ़ी है। हाल में ऐसे ही एक आश्रम में भगदड़ मचने से

कई महिलाओं की मौत भी हो गई थी।

यहां हमारी मंशा किसी संप्रदाय या आश्रम की निंदा

करना कतई नहीं है। सवाल बस इतना है कि अपने

अनुयायियों को स्वर्ग और समृद्धि का रास्ता बताकर क्‍या

ये संप्रदाय लगातार अराजकता और अव्यवस्था की तरफ

बढ़ रहे समाज को बेहतर या वैकल्पिक जीवन दर्शन दे

सकते हैं? क्‍या ऐसे धार्मिक समागमों से समाज का जीवन

सचमुच शांतिपूर्ण, सार्थक या उदात्त हो पाता है? अगर

प्रार्थना भवन में कुछ विशिष्ट लोगों को बैठने के लिए नर्म

गद्दियां दी जाती हैं और बाकी लोगों को सूत की साधारण

दरियों पर बैठाया जाता है, तो इसका मतलब साफ है कि

वहां भी एक तरह की वर्ण-व्यवस्था लागू है।

आध्यात्मिकता का अर्थ यदि मनुष्य के होने मात्र को गरिमा

प्रदान करना है, तो फिर इस श्रेणीकरण को किस तरह

जायज ठहराया जा सकता है?

आम तौर पर ऐसी संगतों के अवसर पर गुरु के आसन

के एकदम पास वाला क्षेत्र लगभग वीआईपी जोन होता है।

वहां खास हैसियत के लोगों को जगह दी जाती है। जैसे

आम जीवन में लोग झूठ बोल कर, वास्तविक पहचान के

बजाय खुद को विशिष्ट व्यक्‍ित बताकर अपना काम

निकालते हैं, लगभग ऐसा ही कुछ यहां भी होता है। इस

जगह में प्रवेश पाने के लिए कोई अगर खुद को कहीं का

एमएलए या प्रोफेसर बता दे, तो उसे तुरंत माफीनामे के

साथ अंदर दाखिल कर लिया जाता है। ऐसे में यह सोचना

जरूरी हो जाता है कि अगर इन नए संप्रदायों में भी

सनातनी श्रेणियों के हिसाब से व्यवहार किया जाएगा, तो

मनुष्य की मूलभूत बराबरी के आदर्श का क्‍या होगा?

अगर इन संप्रदायों के सामाजिक आधार पर नजर

डाली जाए, तो मौटे तौर पर यह बात सामने आती है कि

इन संप्रदायों का प्रभाव मुख्‍यत: उन वर्ग, समुदायों और

समूहों के बीच है जिन्हें धर्म की शास्त्रोक्‍त व्यवस्था में

सम्‍मान, गरिमा और बराबरी का हकदार नहीं माना जाता

था। लेकिन उदार अर्थव्यवस्था के इन दो दशकों में समाज

के दस्तकार और कारीगर वर्ग के लिए धर्नाजन के कुछ

नए रास्ते खुले हैं। निर्माण में आई तेजी और शहरीकरण

की प्रक्रिया में आए उछाल से उन जातियों और समूहों को

निश्चय ही कुछ आर्थिक लाभ पहुंचा है, जो हरित क्रांति

के बाद लगभग बेकाम और बेरोजगार हो गए थे।

स्वरोजगार या फिर निजी उद्यम के दम पर वृहत्तर समाज

में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने वाले इन समूहों का

विश्वबोध आधुनिकता में पगे शिक्षित वर्ग का विश्वबोध

नहीं है।

असल में, तकनीक, पूंजी और राजनीतिक सत्ता की

अराजकता से जन्मे अनिश्चय के बीच हर व्‍यक्ति किसी

निश्चित या स्थिर सहारे की तलाश में है। मिसाल के तौर

पर, आधुनिक विचारों में पले-बढ़े और संपन्न लोग

कृष्णमूर्ति की ओर चले जाते हैं तथा जिन्हें पूंजीवाद का

उत्सव मनाते-मनाते किसी तरह का अपराध बोध सताने

लगता है, वे ओशो की लीक पकड़ लेते हैं। इनके बरक्‍स

जिन लोगों को संपन्नता, पैसा, सुख के आधुनिक

उपकरण, सुंदर घर जैसे प्रतीक हाल फिलहाल हाथ लगे

हैं, वे सिर्फ स्वर्ग चाहते हैं या दूसरी तरह से कहें तो नरक

के दंड से बचना चाहते हैं। क्‍या गुरु केंद्रित संप्रदाय इस

देशी मध्यवर्ग को स्वर्ग का भरोसा देकर एक तरह की

सामाजिक गैर-बराबरी को बढ़ावा नहीं दे रहे?

3.6.10

ढेबरी में तेल नइखे, मड़ई अन्‍हार बा


छह महीने से ब्‍लॉलिखी से बाहर था. कई मर्तबा मन हुआ कि घोषणा ही कर दिया जाए कि अब हफ्तावार का शटर डाउन कर रहा हूं. पर लगा, न ऐसा न किया जाए. दुकान रहेगा तो सामान तो आता-जाता रहेगा. मंदी और तेज़ी तो शाश्‍वत सत्‍य है. देखिए, तब विवेक से काम लिया. ठीहा जमाए रखा. आज सामान भी ले आया हूं. मित्रों, छात्र आंदोलन के ज़माने में अपने रुम मेट भूषणजी के साथ मिलकर कुछ लिखा था. लिखते वक्‍़त ही गुनगुनाकर धुन भी निकाल ली थी हमलोगों ने. अगले रोज़ भोजपुरी गीत के तौर पर दोस्‍तों को सुनाया. 'सांस्‍कृतिक मंडली के साथियों ने फैसला सुनाया, 'कुछ भी हो, पर हमारा लिखा गीत नहीं है'. हमारे अंदर का रचनाकार मर ही गया, समझिए. बाद में कुछ मित्रों ने बताया कि झारखंड के बीड़ी पत्ता मजदूरों में हमारी ये पंक्तियां बेहद लोकप्रिय है... बहरहाल, फिर से याद्दाश्‍त बटोरकर पंक्तियों को जोड़-जाड़ कर आपके लिए लाया हूं. अपनी राय दीजिएगा. और हां, कोशिश रहेगी कि अब थोड़ा नियमित हो जाउं.

सुनी पंचे सुनी पंचे बड़ी-बड़ी बात बा
ढेबरी में तेल नईखे मड़ई अन्हार बा

कॉलेज के हालत देखीं बढ़त जाले फिसिया
कइसे पढाइब लइका सुझे ना जुगतिया
शिक्षा के नाम पर केसरिया बुखार बा
ढेबरी में तेल नइखे, मड़ई अन्हार बा

राउर लइका डिग्री लेके खोजता नौकरिया
नौकरी न पावे बीतल सगरी उमरिया
नौकरी पर उनकर बपौती अधिकार बा
ढेबरी में तेल नइखे, मड़ई अन्हार बा

खेत में के बीया सुखल सुख गइल धनवा
कान्हे कुदाली ले के रोवता किसानवा
अब त पेटेंटो एगो नया जमीदार बा
ढेबरी में तेल नइखे मड़ई अन्हार बा

घर में से निकलल दूभर छूटल पढ़इया
हाथे थमावल गइल कलछुल कढ़हिया
सीता के नाम पर गुलामी ठोकात बा
ढेबरी में तेल नइखे मड़ई अन्हार बा

उठी भइया उठी बहना फेरे खातिर दिनवा
आयीं साथे चली तबे बदली कनूनवा
इनन्हीं से बात कइल बिलकुल बेकार बा
ढेबरी में तेल नइखे मड़ई अन्हार बा


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