छह महीने से ब्लॉलिखी से बाहर था. कई मर्तबा मन हुआ कि घोषणा ही कर दिया जाए कि अब हफ्तावार का शटर डाउन कर रहा हूं. पर लगा, न ऐसा न किया जाए. दुकान रहेगा तो सामान तो आता-जाता रहेगा. मंदी और तेज़ी तो शाश्वत सत्य है. देखिए, तब विवेक से काम लिया. ठीहा जमाए रखा. आज सामान भी ले आया हूं. मित्रों, छात्र आंदोलन के ज़माने में अपने रुम मेट भूषणजी के साथ मिलकर कुछ लिखा था. लिखते वक़्त ही गुनगुनाकर धुन भी निकाल ली थी हमलोगों ने. अगले रोज़ भोजपुरी गीत के तौर पर दोस्तों को सुनाया. 'सांस्कृतिक मंडली के साथियों ने फैसला सुनाया, 'कुछ भी हो, पर हमारा लिखा गीत नहीं है'. हमारे अंदर का रचनाकार मर ही गया, समझिए. बाद में कुछ मित्रों ने बताया कि झारखंड के बीड़ी पत्ता मजदूरों में हमारी ये पंक्तियां बेहद लोकप्रिय है... बहरहाल, फिर से याद्दाश्त बटोरकर पंक्तियों को जोड़-जाड़ कर आपके लिए लाया हूं. अपनी राय दीजिएगा. और हां, कोशिश रहेगी कि अब थोड़ा नियमित हो जाउं.
ढेबरी में तेल नईखे मड़ई अन्हार बा
कॉलेज के हालत देखीं बढ़त जाले फिसिया
कइसे पढाइब लइका सुझे ना जुगतिया
शिक्षा के नाम पर केसरिया बुखार बा
ढेबरी में तेल नइखे, मड़ई अन्हार बा
राउर लइका डिग्री लेके खोजता नौकरिया
नौकरी न पावे बीतल सगरी उमरिया
नौकरी पर उनकर बपौती अधिकार बा
ढेबरी में तेल नइखे, मड़ई अन्हार बा
खेत में के बीया सुखल सुख गइल धनवा
कान्हे कुदाली ले के रोवता किसानवा
अब त पेटेंटो एगो नया जमीदार बा
ढेबरी में तेल नइखे मड़ई अन्हार बा
घर में से निकलल दूभर छूटल पढ़इया
हाथे थमावल गइल कलछुल कढ़हिया
सीता के नाम पर गुलामी ठोकात बा
ढेबरी में तेल नइखे मड़ई अन्हार बा
उठी भइया उठी बहना फेरे खातिर दिनवा
आयीं साथे चली तबे बदली कनूनवा
इनन्हीं से बात कइल बिलकुल बेकार बा
ढेबरी में तेल नइखे मड़ई अन्हार बा
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