विनीत, तुमसे सार्वजनिक रूप से ईर्ष्या व्यक्त करता हूं. इतना और बेहतर न लिख पाने का मलाल हमेशा रहता है. तुम उस अवधारणा का घनघोर अपवाद हो जो ज़्यादा लिखने पर उल-जुलूल लिखने लगता है. इतनी ऑथेंटिसिटी के साथ लिखा कम ही मिलता है. लोग लिखते हुए झालमुढी बनाने लगते हैं. वहीं हो जाता है तेल.
बढिया लिखे. एक भी महत्त्वपूर्ण बात न छूटने दिया. दरअसल, बहस कायदे से हो, इसके लिए तथ्यों का होना ज़रूरी है. सबसे पहले और एक्सक्लूसिव बनाने के चक्कर में मीडिया (तमाम प्रजातियों की) जिस तरह से ख़बरों की वाट लगाते हैं, उसका असरदार असर इन डॉटकॉमों पर दिखने लगा है. लगने लगा है कि लोकप्रियता के फिराक में ये बाज़ार के आगे खोलकर बिछ जाने को तैयार हो चले हैं.
'किसी भी बहस की पूर्वपीठिका क्या होती है, शायद मैं जान नहीं पाया हूं या जो जाना है वो ग़लत है. मुझे लगता था/है कि किसी भी बहस में एक ही व्यक्ति चित और पट, दोनों की तरफ़दारी नहीं करेगा/ी. कम से कम आयोजकों का कोई न कोई पक्ष और नज़रिया ज़रूर होगा. न जाने क्यों, मुझे इस बार ज़्यादा ज़ोर से यह महसूस हुआ कि बहस में प्वायंट स्कोर करने वाली भावना ज़्यादा हावी रही. मुख्यधारा की मीडिया के बारे में सभागार में सुत्रधार से लेकर वक्ताओं और श्रोताओं तक ने जो चिंताएं व्यक्त की, जो सवाल उठाए क्या वो मीडिया की किसी और प्रजाति के संदर्भ में जायज़ नहीं होगा?
मुख्यधारा के मीडिया से जो क़ायदे का काम न कर पाने का दर्द लिए बाहर हुए, या न्यूज़ रूम में घुसते ही जिनका माथा टनकने लगता है, या जिनको नोजिया और बदहज़मी की शिकायत होने लगती है; वे कम-से-कम बाहर आकर वैसी आब-ओ-हवा का निर्माण तो नहीं ही करेंगे जिससे पिंड छुड़ाकर वे आए हैं.
कल सूत्रधार आनंद प्रधानजी ने सुमित अवस्थी को आमंत्रित करते हुए एसपी वाले आजतक के इंडिया टीवी के साथ क़दमताल करने पर अपनी निराशा व्यक्त किया था, पर उसके लिए सुमित को जिम्मेदार नहीं ठहराया था. बिल्कुल सही किया था. दिलीप मंडल और प्रॉन्जय गुहा ठकुराता को सुनने के बाद लगा कि सुमित की औक़ात तो इस पूरे खेल में एक प्यादा से ज़्यादा नहीं है. वहां तो बड़े-बड़े लाला और घाघ नौकरशाह अंगदी पांव जमाए जमे पड़े हैं. सूत्रधार महोदय के साथ-साथ मणिमाला तथा मंडल और ठकुराता मोशाय ने अपने-अपने ढंग से स्थिति में बदलाव के प्रति उम्मीद जतायी थी. विनीत की रपट में इसका विस्तार से उल्लेख है. लगभग चारो दिग्गजों ने वैकल्पिक मीडिया के प्रति उम्मीद जतायी. ये ज़रूर माना उन्होंने कि सायबर मीडिया की पहुंच फिलहाल सीमित है और निकट भविष्य में इसके दायरे में विस्तार की कोई संभावना नहीं है. फिर भी उम्मीद सायबर प्रजाति से ही है.
यहां, जब सायबर जगत में देखता हूं तो लगता है टीवी वाले क्या लड़ेंगे! उनसे ज़्यादा टीआरपी तो इस ऑल्टरनेटिव मीडिया को चाहिए. वही तिकड़म, वही प्रपंच जोते जा रहे हैं जिसे छपासगंज और वाह्यप्रसारण वाहन वाले अभ्यास करते हैं. वश चले तो पट्टा भी चला दें ब्रेकिंग न्यूज़ का. टीकर-पीकर टाइप की चीज़ तो दिखने ही लगी है. काहे, आपको काहे एक्सक्लूसिव ख़बर की ज़रूरत पड़ने लगी? हम जो आपको दें वो और किसी को न दें, पर बताइए तो क्यों?
बहरहाल, सवाल तो है ही कि मीडिया किसके पक्ष में काम करेगा, लोकतंत्र की मजबूती में इसकी कोई भूमिका अब होगी?