26.8.08

उनहत्तर वर्षीय शिशु राजेन्द्र यादव

राजेन्द्र यादव पर अब चर्चा को आगे बढ़ा रहे हैं अभिषेक कश्यप. समकालीन कथाप्रेमियों के लिए अभिषेक कश्यप नए नहीं हैं. आम जीवन के बेहद आम कोनों में जाकर झांकना तथा महीन से महीन अनुभवों पर उतनी ही बारीक दृष्टि अभिषेक की कहानियों की ख़ासियतें हैं. अभिषेक को कुछ हद तक राजेन्द्र यादव के कहानी कारख़ाने का प्रॉडक्ट भी कह सकते हैं. ढाई साल तक भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' में सहायक संपादक रहे अभिषेक ने हंस के खबरिया चैनलों पर केंद्रित बहुचर्चित अंक में अतिथि सहायक संपादक की जिम्मेदारी भी निभाई. पिछले साल उनकी पहली किताब खेल (कहानी संग्रह) छप कर आयी. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां प्रकाशित होती रही हैं. फिलहाल वे युवा रचनाशीलता पर केंद्रित अनियतकालिक पत्रिका 'हमारा भारत' का संपादन कर रहे हैं. अभिषेक को और ज़्यादा जानने के लिए गल्पायन पहुंचें. तो पढिए उनहत्तर वर्षीय शिशु राजेन्द्र यादव ...


उनका बहुचर्चित उपन्यास 'सारा आकाश' हिन्दी की बेस्टसेलर पुस्तकों की सूची में शामिल है जिसकी अब तक दस लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. वे मीडिया में सबसे ज़्यादा छाए रहने वाले साहित्यकार हैं. संभोग से समाधि तक हर विषय पर माने हुए सूरमाओं से लेकर हर ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे तक को इंटरव्यू देने को तैयार रहते हैं. शायद इसलिए अशोक वाजपेयी कहते हैं - ''यादवजी ने जान-बूझ कर हिन्दी के सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका अख्तियार कर ली है.

वे 28 अगस्त को 79 साल के हो जाएँगे मगर जब आप उन्हें बुढापे की याद दिलाएंगे तो वे ज़ोरदार ठहाका लगायंगे - "अपने बुढापे की बात कर रहे हो क्या? मै तो अभी शिशु हूँ." और वाकई सारा जीवन उन्होंने एक शिशु की तरह ही बिताया है. परिवार की जिम्मेदारियों और घर-गृहस्थी की चिंताओं से मुक्त. विवादों, बहसों और अलोचनाओं के बीच वे हमेशा ठहाके लगाते मिल जाएँगे. अंसारी रोड, दरियागंज स्थित उनकी मासिक पत्रिका 'हंस' का दफ़्तर दिल्ली में शायद बौद्धिक अड्डेबाजी की सबसे मुफ़ीद जगह है .
वे हिन्दी के शायद सबसे चर्चित (और विवादित भी) लेखक-संपादक हैं, जिनके लिखे और कहे पर अकसर हंगामा मच जाता है और रामझरोखे बैठ कर वे इन हंगामों का ख़ूब मज़ा लेते हैं. अपने अद्भुत प्रबंध कौशल के बूते अत्यन्त सीमित संसाधनों के बावजूद वे पिछले 22 सालों से 'हंस' जैसे लोकतान्त्रिक मंच को बचाय हुए हैं. 'हंस' के ज़रिए एक तरफ़ आत्मप्रचार से बचकर उन्होंने उत्कृष्ट कथाकारों-गद्यकारों की कई पीढियाँ तैयार की तो दूसरी तरफ़ दलित और स्त्री के सवाल को हाशिए से उठा कर मुख्यधारा में ला दिया.
वे अकसर बताते हैं - "मेरी साठ किताबें हैं और मुझे हर साल पौने दो, सवा दो लाख की रोयल्टी मिलती है." शक की गुंजाईश नहीं, क्योंकि उनका बहुचर्चित उपन्यास 'सारा आकाश' हिन्दी की बेस्टसेलर पुस्तकों की सूची में शामिल है जिसकी अब तक दस लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. वे मीडिया में सबसे ज़्यादा छाए रहने वाले साहित्यकार हैं. संभोग से समाधि तक हर विषय पर माने हुए सूरमाओं से लेकर हर ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे तक को इंटरव्यू देने को तैयार रहते हैं. शायद इसलिए अशोक वाजपेयी कहते हैं - ''यादवजी ने जान-बूझ कर हिन्दी के सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका अख्तियार कर ली है. रामविलास शर्मा पर 'हंस' में लिखे सम्पदाकीय में उन्होंने लिखा - 'रामविलास की जेब में हाथ डालने की आदत नहीं थी. बाद में नामवर सिंह ने इस कला का चरम विकास किया.' मज़े की बात है कि उन्हें भी जेब में हाथ डालने की आदत नहीं. एक-एक रुपया बहुत सोच-समझ कर ख़र्च करते हैं. उनके चाहने वालों की कोई कमी नहीं. हर साल उन्हें थोक में उपहार मिलते हैं - कुरते, घडियां, महँगी स्कॉच-वाइन की बोतलें, इम्पोर्टेड सिगरेट, किताबें, मोबाइल...मगर वे किसी को क्या उपहार देते हैं यह शोध का विषय है. अरसे पहले मन्नू जी ने 'हंस' में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य में नई कहानी आन्दोलन को याद करते हुए लिखा था - 'उन दिनों राजेंद्र बोलने में बहुत पिलपिले थे.' वे आज भी ऐसे ही हैं. 'हंस' के दफ़्तर की महफिलों में सबकी बोलती बंद करने वाले राजेंद्रजी मंच पर पिलपिले ही नज़र आते हैं. नामवर या कमलेश्वर की तरह मंच लूटने का कौशल उन्हें कभी नहीं आया. लालू यादव से लखटकिया पुरस्कार लेने के अपवाद को छोड़ दें तो पुरस्कारों के मामले में उनका दामन बेदाग़ ही रहा है. छोटे-बड़े दर्जनों पुरस्कार उन्होंने ठुकराएँ हैं और अपने मित्र स्वर्गीय कमलेश्वर की तरह राजनेताओं के साथ मंच पर बैठने से परहेज करते हैं. हाँ, नामवर सिंह के साथ वे मंच पर हों तो श्रोताओं को किसी दिलचस्प कॉमेडी फ़िल्म का मनोरंजन उपलब्ध हो जाता है. ये हैं राजेंद्र यादव. हिन्दी साहित्य के इस गॉदफ़ादर के लिए लम्बी उम्र की दुआ कौन नहीं मांगना चाहेगा?

25.8.08

अस्सीवें साल में दाखिल हो रहे राजेन्द्र यादव


राजेन्द्र यादव हिन्दुस्तान या हिन्दी-साहित्य के कौन हैं कौन नहीं हैं, काफ़ी कुछ कहा गया है और कहा जाता रहेगा. मैंने इस सख़्स को सबसे पहले 'कांटे की बात' के ज़रिए जाना. ऐसा कांटा कि एक बार हल्का भी चुभ जाए तो टीस गहरी होती है और सबसबाती देर तक है. जुलाई-अगस्त 1990 में मंडल विरोधी 'आंदोलन' पर कांटे की बात में राजेन्द्र यादव की एक बात अकसर याद आ जाती है कि दिल्ली की लड़कियां हाथों में तख्तियां लिए सड़कों पर उतर आयी थीं, जिन पर चिंता ज़ाहिर की गयी थी कि आरक्षण के कारण अब उनकी शादी नहीं हो पाएगी क्योंकि उनके माता-पिता को नौकरीशुदा दुल्हे नहीं मिल रहे हैं(असल उद्धरण नहीं, अपनीस्मृति से). संघ का अयोध्या कांड रहा हो या तालिबान का बामियान कांड, कांटा सबने चुभोया. ऐसे कितने सवाल/मसले कांटे की बात में उठाए राजेन्द्र यादव ने. सब पर कलमदराज़ी की. रोशनाई बनकर हंस पर टपके उनके गुस्सैल आंसुओं ने किसकी संवेदना को नहीं झकझोरा. मैं हर बार राजी होता रहा. मतभेद कम रहा या रहा ही नहीं.
कांटों से बिंध जाने के बाद मन हुआ श्रव्यसुख पाने का. 97-98 की बात होगी. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोगेसिव स्टूडेंट्स युनियन का हिस्सा था. संघ-संप्रदाय के संगठनों से गुत्थम-गुत्थी रोज़मर्रा का हिस्सा-सा बन गयी थी. नागपुर और रानी झांसी रोड से उनके पुरोधा आते थे और अगलगुला उगल कर चले जाते थे. उसके बाद परिसर में राष्ट्रगीत का मुखड़ा चीख़ और चुहल की गिरफ़्तारी में छटपटाने लगते थे. ऐसे में अमनपसंदों को अकसर हंस दफ़्तर की याद आती और राजेन्द्र यादव कैंपस आते. कभी 22 नंबर में तो कभी 56 नंबर में. कभी उन्होंने ये नहीं पूछा कि कितने लोग आ जाएंगे, या किस सभागार में होगी चर्चा. अब यह सोचता हूं कि आखिर ऐसा क्यों था. एक-आध बार दिल्ली विश्वविद्यालय से ही जब किसी चर्चित निरपेक्ष व्यक्तित्व को बुलाने की कोशिश की तो उन्होंने कोई-न-कोई बहाना बना कर टाल दिया. याद नहीं है कि यादवजी ने कभी बहानेबाज़ी की हो. हद से हद यही कहा 'किसी को भेज देना मुझे लेने के लिए, समय बच जाएगा'. यानी मेरे लिए यादवजी कभी न कॉम्प्रोमाइज़ करने वाले योद्धा ठहरे. यही कारण है कि उनकी ठनी भी ख़ूब: व्यक्तियों से लेकर संस्थाओं तक से. प्रसारभारती को तो उन्होंने प्रचारभारती कहा ही.
साहित्य मेरा बेहद कमज़ोर है. बहुत कम पढ़ाई-लिखाई की है. पर जो भी मोटी समझ है उसके आधार पर यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि यादवजी ने हमेशा साहित्य का एजेंडा तय किया है. कोई भी विमर्श ले लें, हंस नामक मंच से ही उसकी शुरुआत हुई है. एक ही अंक में धूर-विरोधी मत और फिर उस पर चलती बहसों की श्रृंखला: हंस के अलावा नहीं दिखा कभी. पाठकों ने जो खिंचाई की वो अलग. राजेन्द्र न डमगाए. कभी न डगमगाए. ज़रूरत पड़ने पर सफ़ाई दी पर पोजिशन न बदली. हंसीय हलचल का असर भारतीय राजनीति पर भी दिखा. विशेषकर दलित और स्त्री अगर आज भारतीय राजनीति के केंद्र में है तो इसका श्रेय हंस को जाता है, राजेन्द्र यादव को जाता है. हंस के ज़रिए बौद्धिक जगत में जो भी सुगबुहाट हुई, भारतीय राजनीति को उसने बार-बार आइना दिखाया. और आइने में इस राजनीति ने अपने काले चेहरे को देख उसको साफ़ करने की कई बार दिखाउ ही सही, पर कोशिश ज़रूर की और आज भी कर रहे हैं.
नए रचनाकर्मियों के लिए राजेन्द्रजी से बड़ा प्रोत्साहक और कौन होगा. पोल्हा कर, डांट कर, और तो और गरिया कर उन्होंने नौजवानों से लिखवाया और लिखवा रहे हैं.
दो दिन बाद यानी 26 अगस्त 2008 को राजेन्द्र यादव अस्सीवें साल में दाखिल हो रहे हैं. हफ़्तावार की ओर से उन्हें इस मौक़े पर ढेर सारी बधाइयां और उनके इस सफ़र के और मानीख़ेज और लंबा होने के लिए सहश्र शुभकामनाएं. इस अवसर पर हफ़्तावार राजेन्द्र यादव के जीवन-कर्म पर एक चर्चा आरंभ कर रहा है. निजी संस्मरण हो तो और बढिया, अन्यथा आपकी हर राय और प्रतिक्रिया का स्वागत है.

24.8.08

मसाला चखाउंगा आपको

कल चीन में 29वें ओलिंपिक के समापन के साथ अपनी सक्रियता भी आरंभ हो गयी. सक्रियता माने ब्लॉग पर वापसी कहना ठीक रहेगा. क्या है कि इसी महीने की 9 तारीख़ को एक ऐक्सीडेंट में चोट लग गयी थी. लिहाज़ा घर पर बैठना पड़ा. मामूली चोट ही थी, क्योंकि खेलते-कूदते हुए तो बचपन में एकाधिक बार इस स्तर की चोट लगी है मुझे, जब दो हफ़्ते से भी ज़्यादा समय लग गए मुझे सही-सलामत होने में, और घर पर बैठे-बैठे (टीवी देखते, बीवी पर रौब जमाते) जब उबने लगा तब लगा कि 'नहीं चोट सामान्य से ज़्यादा परिमाण' की थी.
बहरहाल, फालतू इधर-उधर की बातों में और न उलझाते हुए ये बता दूं कि आज शाम से हफ़्तावार फिर पहले की तरह सक्रिय हो जाएगा, संभवत:.
बैठे-


सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

14.8.08

नाव पर सवार हम अस्सी चले

बनारस-भ्रमण का अनुभव साझा करते हुए पिछली किस्त में मैंने बताया था गोदौलिया चौराहे पर मिश्राम्बु में ठंडई पीने का अपना किस्सा. आगे पढिए नाव पर सवार हम अस्सी चले ...

‘हमें जल्दी नहीं है, आप मोटरबोट से इसको अलग कीजिए.’ लेकिन वो भी कम घाघ नहीं थे. हमारे बार-बार चिल्लाने के बाद भी वे बस यही कह रहे थे, ‘हमको कुछो सुनाई नहीं पड़ रहा है.’ हमारा मज़ा किरकिरा हुआ जा रहा था. हमने बड़ी मिन्नते कीं. पर उसने चुप्पी साध ली. अंतत: उसके क़रीब जाकर मैं ज़ोर से चीखा, ‘ठीक है, न सुनिए हमारी बात, मैं छलांग लगा रहा हूं गंगा मैया में. सारी जिम्मेदारी आपकी होगी.’ ये दांव चल गया. बुदबुदाते हुए उन्होंने हमारी नाव को मोटरबोट से अलग किया

अब हम दशाश्वमेध घाट की तरफ़ वापस लौट रहे थे. मैं गोदौलिया जाते हुए संकटमोचन मंदिर और आसपास का इलाक़ा देखने की अपनी इच्छार ज़ाहिर कर चुका था. इसलिए जैसे ही हम उस गली के नजदीक पहुंचे रामजनमजी ने बताया कि जा तो सकते हैं उधर लेकिन समय ज्यादा लग जाएगा. जगह-जगह पुलिस वाले तलाशी लेंगे. देख नहीं रहे हैं यहीं से कैसे पुलिस वाले शुरू हो गए हैं. बाद में अरविंदजी ने भी बताया कि 'पहले वाली बात नहीं रही. अब तो पूरा का पूरा इलाक़ा छावनी बन गया है. ऐसे बंदुक और मशीनगन लेके खड़े रहते हैं पुलिस वाले कि पुछिए मत.' बातचीत का केंद्र थोड़ी देर के लिए मंदिर और ज्ञानवापी, और उसके आसपास की घेरेबंदी तथा बनारस की मिलीजुली तहज़ीब हो गयी. रामजनमजी ने बताया कि कैसे पिछली मर्तबा बिस्फ़ोट के बाद शहर में कुछ शरारती तत्वों ने दंगा भड़काने की कोशिश की थी लेकिन आम बनारसी लोगों ने उसका ऐसा करारा जवाब दिया कि सब दुबक लिए.
बतियाते हुए हम घाट की सी‍ढियां उतर रहे थे और आसपास का नज़ारा ले रहे थे. कहीं हाथों में हाथ डाले प्रेमी युगल दुनिया से बेख़बर आपस में मग्न थे तो कहीं तफ़री करने आए यार-दोस्तों के झूंड ‘घाट का मज़ा’ लूट रहे थे. इस बीच मस्तानी चाल में टहलता कोई सांड उधर से गुज़रता और पल भर की अफ़रातफ़री मच जाती.
अस्सी जाना तय था ही. तय ये भी था सवारी नाव की होगी. हम नीचे की सीढियों पर चल रहे थे. बार-बार कोई न कोई नाविक हमारे पास आता और हमसे नौका-विहार करने का निवेदन करता. हम उसे बताते कि हमें अस्सी तक जाना है. उसका जवाब होता ‘हां, तो चले जाइए न, जा तो रहा है वो नाव.’ फिर हम साफ़ करते कि ‘मोटरबोट से नहीं साधारण नाव से जाना है’. अब्बल तो बिना मशीन वाले नाव पर हमें अस्सी तक ले जाने को तैयार नहीं होता और जो एक-दो तैयार होते भी, पैसे पर आकर उनके साथ बात नहीं बन पाती. आखिरकार एक बुजुर्ग नाविक चलने को तैयार हुए सौ रुपए में. हम उनके नाव में बैठ गए. बुजुर्ग ने अपने दोनों हाथों में चप्पू थाम लिया. इधर हम आपस में बनारस और सारनाथ के अनुभवों में डूबने-उतरने लगे. तभी मेरी दायीं ओर बैठे अविनाशजी ने गर्दन हिलाते हुए कहा, ‘थोड़ा-थोड़ा आनंद आने लगा है’. मुझे शायद कम दी गयी थी या फिर पता नहीं क्यों, कोई ख़ास एहसास नहीं हो रहा था. बातों-बातों में अरविंदजी ने बताया कि सुरेश भाई अच्छा गाते हैं. फिर तो हम सब उनके पीछे पड़ गए. वैसे दिन में शिविर में उन्होंने एक ख़ूबसूरत-सा जनगीत सुनाया था. इसलिए इतने अनजाने भी न थे हम उनकी प्रतिभा से. आखिरकार, उन्होंने मनोज तिवारी ‘मृदुल’ के किसी गीत का एक मुखरा सुनाया और कहा, ‘इतना ही याद है’. उसके बाद अरविंदजी ने उनसे किसी विशेष गीत का आग्रह किया जो वे लोग कभी-कभार आंदोलनों में गाया करते हैं. सुरेश भाई ने निराश नहीं किया. बड़ा प्यालरा गीत था वह.
हम गीत सुनते हुए नाव से गंगा और आसपास के घाटों का नज़ारा देखते चल रहे थे. जैसे ही कोई नया घाट आता, या किसी घाट का नाम लिखा दिख जाता, हममें से कोई न कोई ज़रूर बोल पड़ता. हमारे पीछे से एक मोटर बोट आया, अगर वो बस होता तो उसे शायद हम डबलडेकर कह सकते थे. यानी नीचे उपर, दोनों जगह बैठने की सुविधा थी उस पर. छत पर बिछी कालीन और चादर पर तकियों के सहारे कोई वीआइपी सपरिवार या फिर वीआइपियों का एक जत्था गंगा सेवन कर रहा था. हम उसके बारे में चर्चा कर ही रहे थे कि हमारी नज़र पीछे से आती उस मोटरवोट पर पड़ी जिसके नाविक को हमारे नाविक ने लगभग चिल्लासते हुए कहा, ‘पिछवाड़ा सटाओ’. दो-चार ज़ोरदार चीख के बाद उस मोटरबोट वाले ने अपना निचला हिस्सा हमारे नाव के सिरे से सटा दिया. हमारे नाविक ने नाव की मांगि पर बंधे रस्से का एक छोर मोटरबोट वाले की ओर उछाल दिया. उसने उस रस्से का अपने निचले मांगि पर बांध दिया. हम मोटरबोट की स्पीड से चलने लगे. पर हमें जल्दबाज़ी नहीं थी. हमें सूर्यास्त का आनंद लेना था गंगा में सैर करते हुए. हमने अपने नाविक को कहना शूरू किया, ‘हमें जल्दी नहीं है, आप मोटरबोट से इसको अलग कीजिए.’ लेकिन वो भी कम घाघ नहीं थे. हमारे बार-बार चिल्लाने के बाद भी वे बस यही कह रहे थे, ‘हमको कुछो सुनाई नहीं पड़ रहा है.’ हमारा मज़ा किरकिरा हुआ जा रहा था. हमने बड़ी मिन्नते कीं. पर उसने चुप्पी साध ली. अंतत: उसके क़रीब जाकर मैं ज़ोर से चीखा, ‘ठीक है, न सुनिए हमारी बात, मैं अब छलांग लगा रहा हूं गंगा मैया में. सारी जिम्मेदारी आपकी होगी.’ ये दांव चल गया. बुदबुदाते हुए उन्होंने हमारी नाव को मोटरबोट से अलग कर लिया. फिर से एक बार नॉर्मल्सी लौट आयी थी हमारे बीच. अस्सी अभी दूर था.
क्रमश:

12.8.08

बनारस भ्रमण: अस्सी बाद में, पहले ठंडई


कुछ घंटे बनारस में तफ़री का सुख मुझे भी प्राप्त है. सोच रहा हूं क्यों आपसे भी साझा करूं. लीजिए पेश है पहली खेप:

अपने सामान की तारीफ़ ख़ुद कैसे करें, फिर भी आप पूछ रहे हैं तो हम तो यही कहेंगे कि 20 रुपये वाला पी कर देखिए, अच्छा लगेगा आपलोगों को.’ थोड़ा ठहर कर उन्होंने जोड़ा, 'बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं मेरे दुकान पर शरबत पीने. बंबई-दिल्ली से आते हैं लोग. वइसे एक्सपोर्ट भी होता है यहां से माल.' उनकी सलाह पर रामजनमजी ने ठप्पा लगा दिया. 5 गिलास का ऑर्डर दे दिया गया. वे लग गए अपने काम में. तरह-तरह के द्रव्य और मसालों को मिलाने लगे जग में. कुछ सेकेंड बाद पीछे मुड़कर हमसे मुखातिब हुए, ‘इसमें माल भी मिलाना है?’ ‘हां, हां. उसी लिए तो आए हैं'

शाम के क़रीब छह बजे होंगे. सुरेश भाई ने अपनी मोटरसाइकिल दशाश्वमेध घाट के नज़दीक एक पार्किंग में खड़ी की और ‘अभी और लोगों को समय लगेगा. चलिए तबतक घाट की तरफ़ चलते हैं’ कहते हुए घाट की तरफ़ बढ़ने लगे. मैं उनके पीछे-पीछे था. थोड़ी देर में हम एक घाट की सीढि़यां उतर रहे थे. मैंने पूछा, ‘सुरेश भाई, ये कौन-सा घाट है?’ ‘दशाश्वंमेध घाट. आईए, इधर से चलिए नहीं तो ये लोग तंग कर देंगे.’ उनका इशारा सीढि़यों पर बैठे किस्म-किस्म के भिखारियों की तरफ़ था. उनके कहे मुताबिक़ मैं उनके साथ-साथ चलने लगा. ख़ैर, स्थिति ऐसी थी नहीं कि हम जिधर से गुज़रें उधर भिखारी या साधु-सन्यासी न हों. बस, नज़र ही फेर सकते थे और वो हमने किया.
सामने गंगा तट पर पानी में खड़ी नावों को देखकर नावों के प्लेटफ़ॉर्म-सा एहसास हो रहा था. कई बार हिलकोरे ले रही उन नौकाओं को देखकर लग रहा था मानो वो एक-दूसरे पर चढ़ लेने को बेचैन हैं. घाट पर टहलते हुए हर दो-तीन सेकेंड में कोई व्यक्ति टकराता और कहता, ‘आइए भाई साहब गंगा घुमा लाएं, एकदम वाजि़व पैसा लेंगे.’फिर कोई बहाना बनाकर हम आगे बढ़ जाते. टहलते-टहलते हम एक चबूतरे पर आ पहुंचे. एक बड़ा ही विलक्ष्ण दृश्यग मेरी नज़रों के सामने था. एक बारह-चौदह साल का बिल्कुल देसी लड़का एक एक हसीन गोरी मेम को न केवल घुमा रहा था बल्कि उसे आसपास की चीज़ों के बारे में भी बता रहा था. वो आगे-आगे, मेम पीछे-पीछे. सुरेश भाई ने टोका, ‘क्या देख रहे हैं? यही तो बनारस है. ये लड़का निश्चित रूप से कभी स्कूल नहीं गया होगा, लेकिन इसे मालूम है कि क्या बात करनी है और कैसे. घाट पर आपको ऐसे ही गाईड मिलेंगे. सारी ट्रेनिंग घाट पर उछलते-कूदते ही मिल जाती है इन लोगों को.’
थोड़ी देर बाद हम एक ऐसी जगह आ पहुंचे जहां चार-पांच चौकियों पर आरती की थाल, शंख, घंटियां, पोथियां और कुछ पूजन सामग्री रखी हुई थी. हमारे भौचक्केपन को ताड़ते हुए सुरेश भाई ने साफ़ किया, ‘थोड़ी देर में आरती होगी, पहले नहीं होती थी. ठीक-ठाक आमदनी हो जाती है इससे.’ काफ़ी सारे लोग आसपास की चौकियों पर जमे हुए थे. किसी को नाव पर सैर करना था तो किसी को आरती देखनी थी, बहुत से लोग मेरी तरह घाट पर टहल लेने के बाद थोड़ा सुस्ता लेने के विचार का पालन करते लग रहे थे. इस बीच सुरेश भाई के मोबाइल की घंटी बजी. फ़ोन सुन लेने के बाद उन्होंने बताया, ‘कामरेडजी का फ़ोन था. बेनिया पार कर गए हैं उ लोग. हद से हद पन्द्रह मिनट और लगेगा.’
दरअसल अविनाशजी और मैं सारनाथ स्थित विद्या आश्रम में ‘ज्ञान मुक्ति मंच’ द्वारा आयोजित ‘युवा ज्ञान शिविर’ में भाग लेने पहुंचे थे. वहीं हमारी मुलाक़ात सुरेश भाई, अरबिंद भाई, रामजनमजी समेत अन्य शिविरार्थियों से हुई. बनारस कैंट स्टेशन पर उतरते ही हमने यह तय कर लिया था कि शिविर समाप्त होते ही बनारस घूमा जाएगा. अविनाशजी ने तो ख़ास तौर से एक दिन इसी प्रयोजन के लिए रिजर्व रखा था. तयशुदा कार्यक्रमानुसार शिविर समाप्त होने के बाद बनारस में घाट-दर्शन की योजना को क्रियान्वित किया जा रहा था. पांच लोग थे, लेकिन सारनाथ में तत्काल पांचों के लिए राजेन्द्र प्रसाद घाट की तरफ़ जाने के लिए कोई सवारी न मिलने की स्थिति में सुरेश भाई के फ़ॉर्मूले पर अमल करते हुए मैं उनकी मोटरसाइकिल पर सवार बना, और रामजनमजी, अरविन्द भाई तथा अविनाशजी एक साथ किसी और सवारी से घाट की ओर आ रहे थे.
हम चौकी पर बैठे पूजा-प्रतिष्ठान, तथा अन्य जितनी उत्सुकताएं हो सकती थीं उन पर चर्चा कर रहे थे. तभी सुरेश भाई ने कान से फ़ोन हटाते हुए कहा, ‘कामरेडजी लोग आ गए ... पर दिख नहीं रहे हैं.' तभी मुझे रामजनमजी का कुर्ता दिखा. अपने दोनों हाथ उठाकर मैंने हिलाना शुरू कर दिया. तभी अविनाशजी से मेरी नज़र मिल गयी. क्षण भर में ‘थोड़ा तुम बढ़ो और थोड़ा हम बढें’ का अनुपालन करते हुए सारनाथ में बिछुडे़ हमलोग फिर से मिल रहे थे. इस बार हमलोगों ने घाट का और क़रीब से मुआयना किया. राय बनी ‘अस्सी चला जाय, नाव से. लेकिन पहले ख़ास बनारसी प्रसाद ठंडई पा लिया जाय, आनंद परमानंद हो जाएगा.'. एकमत से मंजूर हुआ. चल पड़े गोदौलिया चौराहे की ओर.
रामजनमजी ने रास्ते में बताया कि कैसे शिवानंद तिवारी जब भी दल बदलते हैं तो बनारस ज़रूर आते हैं बाबा विश्व नाथ का आशीर्वाद लेने. उन्होंने यह भी बताया कि ‘पिछली बार जब वे लालूजी का साथ छोड़कर नितीशजी के साथ जुड़े तो यहीं गोदौलिया पर भेंटा गए. पुराने समाजवादी हैं, आते-जाते हैं तो जानकारी मिल जाती है, हमलोग आ जाते हैं भेंट-मुलाक़ात करने’. बतियाते हुए हम गोदौलिया चौराहे पर आ चुके थे. रामजनमजी जिस दिशा में बढ़ रहे थे अचानक से उधर से आवाज़ आने लगी, ‘आइए, आइए न सर, बढिया माल है इधर, एकदम दिल ख़ुश हो जाएगा’. रामजनमजी सबसे आखिर वाले दुकान में घुसे. और हमलोग उनके पीछे-पीछे. छोटी जगह देखकर हमलोग ठिठक गए. मिश्राम्बु के क़रीब पहुंचकर रामजनमजी ने कहा, ‘आ जाइए अंदर’. हालांकि उस दुकान में मुश्किल से चार लोगों के बैठने की जगह भी नहीं थी, हम पांचों ने ख़ुद को उसमें अंटा दिया. सामने दीवार पर एक रेट‍-लिस्ट टंगी थी, शर्बतों के नाम और उनके आगे उनकी क़ीमत दर्ज थी. नीचे से उपर नज़र मार लेने के बाद दुकानदार से ही पूछा, ‘आपके यहां की सबसे अच्छी चीज़ कौन-सी है?' मैंने जानने की कोशिश की. 'चाहे इ बताइए कि आपके हिसाब से हमलोगों को क्या लेना चाहिए? जादातर आदमी फस्सटाइमर हैं’ सुरेश भाई ने खुलासा किया. ‘अपने सामान की तारीफ़ ख़ुद कैसे करें, फिर भी आप पूछ रहे हैं तो हम तो यही कहेंगे कि 20 रुपये वाला पी कर देखिए, अच्छा लगेगा आपलोगों को.’ थोड़ा ठहर कर उन्होंने जोड़ा, 'बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं मेरे दुकान पर शरबत पीने. बंबई-दिल्ली से आते हैं लोग. वइसे एक्सपोर्ट भी होता है यहां से माल.' उनकी सलाह पर रामजनमजी ने ठप्पा लगा दिया. 5 गिलास का ऑर्डर दे दिया गया. वे लग गए अपने काम में. तरह-तरह के द्रव्य और मसालों को मिलाने लगे जग में. कुछ सेकेंड बाद पीछे मुड़कर हमसे मुखातिब हुए, ‘इसमें माल भी मिलाना है?’ ‘हां, हां. उसी लिए तो आए हैं' संवेद स्वर में हमने कहा. '... बाकी हिसाबे से' अरविंद भाई ने कहा. हर गिलास में सामान मिलाने से पहले दुकानदार ने बारी-बारी से हमें चम्मच दिखाए जिससे वो स्टील के एक डिब्बे में से माल निकाल रहे थे. इस तरह औकातानुसार द्रव्यपान का सामूहिक आनंद लिया गया. अपना पहला तजुर्बा था.
क्रमश:
शाम के क़रीब छह बजे होंगे. सुरेश भाई ने अपनी मोटरसाइकिल दशाश्वमेध घाट के नज़दीक एक पार्किंग में खड़ी की और ‘अभी और लोगों को समय लगेगा. चलिए तबतक घाट की तरफ़ चलते हैं’ कहते हुए घाट की तरफ़ बढ़ने लगे. मैं उनके पीछे-पीछे था. थोड़ी देर में हम एक घाट की सीढि़यां उतर रहे थे. मैंने पूछा, ‘सुरेश भाई, ये कौन-सा घाट है?’ ‘दशाश्वंमेध घाट. आईए, इधर से चलिए नहीं तो ये लोग तंग कर देंगे.’ उनका इशारा सीढि़यों पर बैठे किस्म-किस्म के भिखारियों की तरफ़ था. उनके कहे मुताबिक़ मैं उनके साथ-साथ चलने लगा. ख़ैर, स्थिति ऐसी थी नहीं कि हम जिधर से गुज़रें उधर भिखारी या साधु-सन्याशसी न हों. बस, नज़र ही फेर सकते थे और वो हमने किया.
सामने गंगा तट पर पानी में खड़ी नावों को देखकर नावों के प्लेटफ़ॉर्म-सा एहसास हो रहा था. कई बार हिलकोरे ले रही उन नौकाओं को देखकर लग रहा था मानो वो एक-दूसरे पर चढ़ लेने को बेचैन हैं. घाट पर टहलते हुए हर दो-तीन सेकेंड में कोई व्यक्ति टकराता और कहता, ‘आइए भाई साहब गंगा घुमा लाएं, एकदम वाजि़व पैसा लेंगे.’ फिर कोई बहाना बनाकर हम आगे बढ़ जाते. टहलते-टहलते हम एक चबूतरे पर आ पहुंचे. एक बड़ा ही विलक्ष्ण दृश्यग मेरी नज़रों के सामने था. एक बारह-चौदह साल का बिल्कुल देसी लड़का एक एक हसीन गोरी मेम को न केवल घुमा रहा था बल्कि उसे आसपास की चीज़ों के बारे में भी बता रहा था. वो आगे-आगे, मेम पीछे-पीछे. सुरेश भाई ने टोका, ‘क्या देख रहे हैं? यही तो बनारस है. ये लड़का निश्चित रूप से कभी स्कूल नहीं गया होगा, लेकिन इसे मालूम है कि क्या बात करनी है और कैसे. घाट पर आपको ऐसे ही गाईड मिलेंगे. सारी ट्रेनिंग घाट पर उछलते-कूदते ही मिल जाती है इन लोगों को.’
थोड़ी देर बाद हम एक ऐसी जगह आ पहुंचे जहां चार-पांच चौकियों पर आरती की थाल, शंख, घंटियां, पोथियां और कुछ पूजन सामग्री रखी हुई थी. हमारे भौचक्केपन को ताड़ते हुए सुरेश भाई ने साफ़ किया, ‘थोड़ी देर में आरती होगी, पहले नहीं होती थी. ठीक-ठाक आमदनी हो जाती है इससे.’ काफ़ी सारे लोग आसपास की चौकियों पर जमे हुए थे. किसी को नाव पर सैर करना था तो किसी को आरती देखनी थी, बहुत से लोग मेरी तरह घाट पर टहल लेने के बाद थोड़ा सुस्ता लेने के विचार का पालन करते लग रहे थे. इस बीच सुरेश भाई के मोबाइल की घंटी बजी. फ़ोन सुन लेने के बाद उन्होंने बताया, ‘कामरेडजी का फ़ोन था. बेनिया पार कर गए हैं उ लोग. हद से हद पन्द्रह मिनट और लगेगा.’

दरअसल अविनाशजी और मैं सारनाथ स्थित विद्या आश्रम में ‘ज्ञान मुक्ति मंच’ द्वारा आयोजित ‘युवा ज्ञान शिविर’ में भाग लेने पहुंचे थे. वहीं हमारी मुलाक़ात सुरेश भाई, अरबिंद भाई, रामजनमजी समेत अन्य शिविरार्थियों से हुई. बनारस कैंट स्टेशन पर उतरते ही हमने यह तय कर लिया था कि शिविर समाप्त होते ही बनारस घूमा जाएगा. अविनाशजी ने तो ख़ास तौर से एक दिन इसी प्रयोजन के लिए रिजर्व रखा था. तयशुदा कार्यक्रमानुसार शिविर समाप्त होने के बाद बनारस में घाट-दर्शन की योजना को क्रियान्वित किया जा रहा था. पांच लोग थे, लेकिन सारनाथ में तत्काल पांचों के लिए राजेन्द्र प्रसाद घाट की तरफ़ जाने के लिए कोई सवारी न मिलने की स्थिति में सुरेश भाई के फ़ॉर्मूले पर अमल करते हुए मैं उनकी मोटरसाइकिल पर सवार बना, और रामजनमजी, अरविन्द भाई तथा अविनाशजी एक साथ किसी और सवारी से घाट की ओर आ रहे थे.
हम चौकी पर बैठे पूजा-प्रतिष्ठान, तथा अन्य जितनी उत्सुकताएं हो सकती थीं उन पर चर्चा कर रहे थे. तभी सुरेश भाई ने कान से फ़ोन हटाते हुए कहा, ‘कामरेडजी लोग आ गए ... पर दिख नहीं रहे हैं.' तभी मुझे रामजनमजी का कुर्ता दिखा. अपने दोनों हाथ उठाकर मैंने हिलाना शुरू कर दिया. तभी अविनाशजी से मेरी नज़र मिल गयी. क्षण भर में ‘थोड़ा तुम बढ़ो और थोड़ा हम बढें’ का अनुपालन करते हुए सारनाथ में बिछुडे़ हमलोग फिर से मिल रहे थे. इस बार हमलोगों ने घाट का और क़रीब से मुआयना किया. राय बनी ‘अस्सी चला जाय, नाव से. लेकिन पहले ख़ास बनारसी प्रसाद भंग पा लिया जाय आनंद कई गुना बढ़ जाएगा'. एकमत से मंजूर हुआ. चल पड़े गोदौलिया चौराहे की ओर.
रामजनमजी ने रास्ते में बताया कि कैसे शिवानंद तिवारी जब भी दल बदलते हैं तो बनारस ज़रूर आते हैं बाबा विश्व नाथ का आशीर्वाद लेने. उन्होंने यह भी बताया कि ‘पिछली बार जब वे लालूजी का साथ छोड़कर नितीशजी के साथ जुड़े तो यहीं गोदौलिया पर भेंटा गए. पुराने समाजवादी हैं, आते-जाते हैं तो जानकारी मिल जाती है, हमलोग आ जाते हैं भेंट-मुलाक़ात करने’. बतियाते हुए हम गोदौलिया चौराहे पर आ चुके थे. रामजनमजी जिस दिशा में बढ़ रहे थे अचानक से उधर से आवाज़ आने लगी, ‘आइए, आइए न सर, बढिया माल है इधर, एकदम दिल ख़ुश हो जाएगा’. रामजनमजी सबसे आखिर वाले दुकान में घुसे. और हमलोग उनके पीछे-पीछे. छोटी जगह देखकर हमलोग ठिठक गए. ‘मिश्राम्बु’ नामक एक शरबत की दुकान के क़रीब पहुंचकर रामजनमजी ने कहा, ‘आ जाइए अंदर’. हालांकि उस दुकान में मुश्किल से चार लोगों के बैठने की जगह भी नहीं थी, हम पांचों ने ख़ुद को उसमें अंटा दिया. सामने दीवार पर एक रेट‍-लिस्ट टंगी थी, शर्बतों के नाम और उनके आगे उनकी क़ीमत दर्ज थी. नीचे से उपर नज़र मार लेने के बाद दुकानदार से ही पूछा, ‘आपके यहां की सबसे अच्छी चीज़ कौन-सी है?' मैंने जानने की कोशिश की. 'चाहे इ बताइए कि आपके हिसाब से हमलोगों को क्या लेना चाहिए? जादातर आदमी फस्सटाइमर हैं’ सुरेश भाई ने खुलासा किया. ‘अपने सामान की तारीफ़ ख़ुद कैसे करें, फिर भी आप पूछ रहे हैं तो हम तो यही कहेंगे कि 20 रुपये वाला पी कर देखिए, अच्छा लगेगा आपलोगों को.’ थोड़ा ठहर कर उन्होंने जोड़ा, 'बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं मेरे दुकान पर शरबत पीने. बंबई-दिल्ली से आते हैं लोग. वइसे एक्सपोर्ट भी होता है यहां से माल.' उनकी सलाह पर रामजनमजी ने ठप्पा लगा दिया. 5 गिलास का ऑर्डर दे दिया गया. वे लग गए अपने काम में. तरह-तरह के द्रव्य और मसालों को मिलाने लगे जग में. कुछ सेकेंड बाद पीछे मुड़कर हमसे मुखातिब हुए, ‘इसमें माल भी मिलाना है?’ ‘हां, हां. उसी लिए तो आए हैं. पर हिसाब से ही डालिएगा’ संवेद स्वीर में हमारी राय उनके सामने रख दी गयी. उन्होंछने भी हर गिलास में सामान मिलाने से पहले बारी-बारी से हमें चम्मनच दिखाए जिससे वो स्टी्ल के एक डिब्बेग में से माल निकाल रहे थे. इस तरह औकातानुसार द्रव्यपान का सामूहिक आनंद लिया गया. अपना पहला तजुर्बा था वो.

11.8.08

कारगिल किधर है?

पिछली मर्तबा आपने पढ़ा आदर्श बाबू और उनके मित्र की मुलाक़ात के बारे में. आगे पढिए जवाहर के ठीहे से लौटते वक्त पिछली शाम बाज़ार में अचानक जब आदर्श बाबू कारी से टकराए तो क्या हुआ ...

कल शाम जवाहर के ठीहे से लौटते वक़्त जैन मंदिर के सामने सीढ़ियों पर आदर्श बाबु अचानक कारी से टकरा गए।
‘अरे कारीजी कहाँ थे इतने दिनों से। आपके बारे में पूछ-पूछ कर थक गया मैं।’
‘गाँव चले गए थे सर।’
‘ऐसे ही कि कोई काम-वाम था?’
‘नहीं, काम क्या, झुग्गी टूट गयी। एकदम से सड़क पर आ गए थे हमलोग. रहने-सहने का कोई इंतज़ामे नहीं था. इसलिए सोचे घरे से घुर आते हैं। आ घर जाने पर त जानबे करते हैं कि बहत्तर गो काम निकल जाता है।’
‘झुग्गी कब टूटी?’ पूछते हुए आदर्श बाबु की ललाट की रेखाएँ एक-दूसरे पर चढ़ने-उतरने लगी थी।
‘काहाँ हैं आप सर?’ आदर्श बाबु की ओर बड़ी हैरत भरी नज़रों से देखते हुए कारी ने कहा, ‘लगता है आप भी दिल्ली में नहीं हैं दु-तीन महीना से, यहाँ पूरा पुस्ता उजड़ गया और आपको पते नहीं है कि झुग्गी कब टूट गिया।’
पुस्ता सुनते ही लगा कि जैसे आदर्श बाबु की स्मृति पर किसी ने हथौड़े से वार कर दिया।
‘अच्छा, अच्छा अभी अप्रैल-मई में जो डेमोलिशन हुआ है उसी में आपकी भी झुग्गी टूटी है’ कहते हुए आदर्श बाबु के सामने आबाद यमुना पुस्ता की तस्वीरें घुमड़ने लगी।
दिसंबर 2003 का दूसरा इतवार। शनिचर को कारी के साथ तय प्रोग्राम के मुताबिक़ आदर्श बाबु यमुना पुस्ता पहुँच गए थे। वहाँ तक जाने के लिए कारी के बताए मुताबिक़ उन्होंने लाजपतराय मार्केट के सामने से ही रिक्शा लिया था। पुस्ते पर पहुँच कर जब वहाँ का नक़्शा उनके समझ में नहीं आ रहा था तब दो-तीन दुकानदारों से पूछने के बाद एक स्टूडियोनुमा दुकान में पहुँचे थे और टेबल के उस पार कुर्सी पर बिछे एक सज्जन से उन्होंने पूछा था, ‘कारगिल किधर है? मुझे मुंशी राम की झुग्गी में जाना है?’ चेहरे पर थोड़ी-थोड़ी भयावहता और काया पर ख़ूब सारा मोटापा लादे उस सज्जन ने आदर्श बाबु के वहाँ जाने की वजह, और उस व्यक्ति के बारे में जिससे उन्हें मिलना था, से मुतमईन हो जाने के बाद उस टेढ़े-मेढ़े रास्ते को थोड़ा सीध करके कुछ इस तरह बताया था, ‘यहाँ से बाहर निकलकर उल्टे हाथ पर चले जाओ, आगे जाकर एक हलवाई की दुकान आएगी, उससे तीन दुकान छोड़कर दाएँ हाथ पर मुड़ जाना, वहाँ से थोड़ा आगे बढ़ने पर कुछ बंगालियों का घर मिलेगा, मच्छी की बदबू आएगी तो ख़ुद ही समझ जाओगे। वहाँ से दो-चार क़दम आगे बढ़ोगे तो हनुमान मंदिर दिखायी देगा, हनुमान मंदिर के साथ वाले रस्ते के साथ-साथ सीधे चलते जाना। आगे जाकर एक मसजिद दिखायी देगा। उसके आगे चलते जाना, आख़िर में जो झुग्गी दिखेगी वही मुंशीराम की है।’
‘शुक्रिया भाई साहब’ कहकर रोड मैप को याद रखने की कोशिश करते हुए आदर्श बाबु बढने लगे थे मुंशीराम की झुग्गी की तरफ़। इसी बीच उनके दिमाग़ में बीते शाम कारी ने जो कारगिल समझाया था, वह घुमड़ने लगा। यानी अब वो एक साथ दो चीज़ों पर मथगुज्जन करते चले जा रहे थे।
हुआ यूँ था कि जिन दिनों सरहद पार के घुसपैठिए वर्फ से ढके कारगिल में घुस आए थे उन्हीं दिनों मौज़ूदा मुंशी राम की झुग्गी पर भी कुछ लोगों ने हमला बोल दिया था। इरादा यहाँ भी लगभग वही था। क़ब्ज़ाना। सरहद पार से आए घुसपैठिए तो ख़ैर नाकाम रहे अपने मक़सद में लेकिन झुग्गी मुंशीराम की हो गयी। हुई ही नहीं मुंशी राम ने उसे बेच भी दी। कारी ने भी क़रीब आठ-दस महीने पहले बारह हज़ार में झुग्गी ख़रीदी थी। साथ में लाजपतराय मार्केट में झल्लीगिरी करने वाले चार-पाँच ग्रामीण भी रहने लगे।
मसजिद के सामने से गुज़रते हुए हैंड पंप के पास खड़े अधनंगों की टोली से आदर्श बाबु ने ‘कारगिल किधर है? मुंशीराम की झुग्गी में जाना है’ पूछा था।
उनके इतना पूछने भर से हैंड पंप पर छा गए दो पल के सन्नाटे को तोड़ते हुए किसी मटमैले रंग की अमूल जाँघिए में जितना घुस सकता था उतना धर घुसाए उसी से मिलते-जुलते रंग वाले एक पिद्दी पहलवान ने कहा था, ‘यही है, क्या काम है?’
इस बीच बाएँ हाथ में सिर का ढक्कन थामे दायीं हाथ की दो उँगलियों से पसीना पोछ चुके आदर्श बाबु ने कहा था, ‘कारी जी, कारी यादव जी से मिलना है।’
इस पूछताछ के दौरान दो-चार क़दम दूरी पर इधर-उधर बिखरे लोग भी हैंडपंप को घेर चुके थे। शायद उन्हें यह लगा रहा था कि जवाब दे रहे बाँके जवान की हिम्मत बनाए रखने की ज़रूरत है, क्योंकि ऐसे हैट-पैट वाले से तो उनका सामना कम ही होता है या फिर बस्ती में तो ऐसे लोग नहीं ही दिखते हैं, या फिर क्या पता वह जवाब न दे पाए और ऐसे में उनमें से किसी की ज़रूरत आन पड़े। शायद इसीलिए तो दिल की भाषा को समझते हुए उसने अपने लोगों से पूछा था, ‘हये हो, कारी के छय? जानै छहौ?’
उधर से लुंगी में लिपटे किसी ने जवाबी सवाल दाग दिया था, ‘कहाँ क छय? पुछहि न रे।’
उस लड़के के पूछने से पहले ही आदर्श बाबु बोल पड़े थे, ‘सहरसा के हैं।’
‘बरगाही भाई! पूछहि न गाम-थाना के नाम, सहरसा के त सभ्भे छय।’
सुनते ही आदर्श बाबु ने पीठ से बैग उताकर घुटने पर टिका लिया और ऊपर वाली जेब में कुछ टटोलने लगे। शायद कारी का पता।
‘अरे हाँ, कारी ने बताया तो था अपने गाँव का नाम। लेकिन वो तो फील्ड नोट वाली डायरी में है’ सोचकर उन्होंने बड़ी वाली जेब से स्पायरल बाइंडिंग वाली लाल कॉपी निकाल ली। इतने में उसी घेरे में से किसी ने पूछा, ‘कहाँ काम करता है कारी यादव’।
आदर्श बाबु ने सिर उठाकर कहा था, ‘लाजपतराय मार्केट में झल्ली ढोते हैं’।
छुटते ही जवाब आया था, ‘आगे बढ़ जाओ, उ झुग्गी दिखायी दे रहा है न? उसमें खाली झल्लिएवाला रहता है। वहीं पूछ लेना।’
अपना बैग ठीक करते आदर्श अभी बतायी दिशा में दो क़दम भी नहीं बढ पाए थे कि पीछे से तरह-तरह की हँसी एक साथ फूट पड़ी थी। साथ में बहुत सारे बोल भी निकल रहे थे जिसमें सबसे साफ ढंग से वह इसी को सुन पाए थे, ‘बहिनचोद, गेलय करिया अब त। कहय रहिय साला के नेतागिरी में नय पड़। बहिनचोदा सुनबे नय करलय। मार्केट वाला सब भेजलकय हन एकरा! देखियही न गांयर फायर देतै सेठवा सब अब करिया क’!
आदर्श बाबु अब उस झुग्गी में या कहें कि झुग्गियों से घिरे एक छोटे से मैदान में पहुँच चुके थे। उसके बाद जहाँ तक वह देख पा रहे थे वहाँ तक केवल रेतीली ज़मीन और कहीं-कहीं उन पर जैसे-तैसे खड़ी झुलसी, कटीली झाड़ियाँ ही उन्हें दिख रही थी। कौई सौ मीटर की दूरी पर दो गाएँ भी ज़मीन पर इधर-उधर बचे-खुचे घास पर अपनी थुथनें रगड़ रही थीं और पूँछ उठाए तीन कुत्तों का एक झूंड भौंकता हुआ उन गायों की तरफ भागा चला जा रहा था। लग रहा था जैसे उन कुत्तों को सीमा रक्षा का ठेका मिला हुआ था।
झुग्गी-परिसर में दाख़िल होने पर आदर्श बाबु को सामने की तरफ कुछ नहीं दिखा था। मुआयने के अंदाज़ में जब उन्होंने अपनी गर्दन बायीं ओर मोड़ी थी तो एक बार फिर उन्हें ज़मीन में पाँव धंसाए हैंडपंप के दर्शन हुए थे, जो एक अजीब क़िस्म की आध्यामिक शांति से आच्छादित था। तीन तरफ से झुग्गियों से घिरे उस हैंड पंप पर पटरे पर बैठकर कपड़े पर साबून घिस रहे एक नौजवान के अलावा कोई नहीं था वहाँ। घुटने तक अंगोछा लपेटे उस गठीले नौजवान के गिले बालों को देखकर लग रहा था जैसे वह अभी-अभी नहाने के बाद अपने कच्छे की सफाई कर रहा था।
हैंडपंप की दायीं ओर ईंट के छोटे-छोटे टुकड़ों से घेर कर बनायी गयी एक क्यारी में दो मिर्च के, दो टमाटर के, तीन बैंगन के पौधे थे और उनके बीच पसरे धनिए के छोटे-छोटे पौधों की हरियाली यह एहसास करा रही थी जैसे अभी-अभी उस नौजवान ने कोई चादर धेकर सुखने के लिए फैला दिया था। हैंडपंप और क्यारी के बीच एक टीन के बड़े से डिब्बे में जिसकी बाहरी दीवार पर आदर्श बाबु ‘विशुद्ध सरसों का तेल’ पढ़ पाए थे, तुलसीदासजी खड़े थे जिनके चरण के पास दो-चार सींकें थीं जो यह बता रही थी कि कभी ये पूरी अगरबत्तियाँ रही होंगी। एक मिट्टी का दीप भी रखा था वहाँ जिसे देखकर ऐसा लग रहा था शायद कल शाम ही इसमें बत्ती डाली गयी थी।
मुआयना जारी था। आदर्श बाबु ने देखा था कि सामने वाली झुग्गी में दरवाज़े की जगह लटक रहे चट्टी का पर्दा रह-रह हवा के झोंके में हिल जाया करती थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह कभी-कभी ख़ूब ज़ोर से उधिया जाना चाहती थी लेकिन उसका भारी वज़न उसे ऐसा करने से बार-बार रोक देती थी। इसी बीच झुग्गी के अन्दर से ही एक हाथ ने बढकर उसको एक ओर समेट दिया था और अंगड़ाई लेने के साथ दोनों हाथ सीधा करती एक महिला निकलकर बाहर आ चुकी थी। उसके चेहरे पर ख़ुशी, थकावट, संतुष्टि, नींद, तृप्ति और बेचैनी का एक अजीब-सा मिश्रित भाव था। उसके पाँव बाँयी दिशा में बढ चुके थे लेकिन शायद एक बार इधर-उधर देखकर निश्चिंत हो जाने के लिए उसने अपनी गर्दन दायीं ओर मोड़ दी थी। सामने खड़े एक अजनबी को देखकर पल भर के लिए वह ठिठकी थी और फिर जैसे उसे कुछ याद आ गया था। उसका बायां हाथ पीठ की तरफ गया था और लगभग खो चुके आँचल को ढूंढकर दाएँ हाथ को सुपूर्द कर दिया था। दोनों हाथों से आँचल को सिर पर खींच लेने के बाद उसने अपनी बायीं हथेली को आँचल से ढके सिर पर लगभग चिपका-सा दिया था। शायद वह निश्चिंत हो जाना चाह रही थी कि फिर न कहीं खो जाए उसका आँचल। अब उसके क़दम आदर्श बाबु की ओर बढ़ने लगे थे और आदर्श बाबु की छोटी आँखों की जोड़ी उसके चेहरे को एक टक निहारे जा रही थी। बायीं हथेली और सिर के बीच आँचल दबाए उस महिला और आदर्श बाबु के बीच मात्र तीन-चार क़दम की दूरी रह गयी थी। इस बीच आदर्श बाबु की आँखें उसके चेहरे से उतर कर गर्दन पार करती हुई पेट के ऊपर के अवरोध्क जैसे उठान पर आकर रूक गयी थी। अभी आदर्श बाबु की आँखें वहाँ से हिली भी नहीं थीं कि महिला ने हैंडपंप के नीचे बैठे लड़के से कहा,
‘हे रे केकरा खोजय छय इ?’
लड़के ने कहा ‘के?’
‘आन्हर छे?’ महिला के चेहरे पर झल्लाहट थी।
उस लड़के ने एक बार फिर अपने अंगोछे की गाँठ ठीक की थी और आदर्श बाबु की आँखों में आँखें डालकर पूछा था, ‘किससे मिलना है आपको’?
‘कारीजी से, कारी यादव जी जो लाजपतराय मार्केट में झल्ली ढोते हैं’ कहते हुए आदर्श बाबु जरा सहज दिखना चाह रहे थे।
लड़के ने कहा था, ‘वो तो नहीं हैं, कहीं गए हुए हैं’।
‘लेकिन उन्होंने तो मुझे आज बुलाया था’ कहा था आदर्श बाबु ने।
‘काम क्या है बताइए न?’ पूछा था उस लड़के ने।
‘कुछ नहीं, उनसे कुछ बातचीत करनी थी’ कहकर आदर्श बाबु किसी उधेड़बून में पड़ गए थे। शायद उन्हें यह लगने लगा था कि कारी से एक्सक्लुसिव बातचीत का उनका यह वेलथॉट प्लान आज फेल होने वाला है। इसी बीच तीसरे कोण पड़ खड़ी महिला ने दूसरे कोण पर यानी आदर्श बाबु के सामने खड़े उस लड़के से पूछा था - ‘बुझैलौ रे, किय आयल छय इ?’
जब तक वह लड़का जवाब दे पाता तब तक महिला ने एक और शंका व्यक्त कर दी थी, ‘हे रे, कथि के लिखा पढ़ी करै छय?’ शायद आदर्श बाबु के हाथ में पड़ी नोटबुक को देखकर उसके मन में यह सवाल आया था।
यह सोचकर कि शायद उनके वहाँ आने की वजह वह लड़का ठीक से नहीं समझा पाएगा, आदर्श बाबु ने एक बार फिर से अपने आने की वजह को साफ-साफ उनके सामने रख दिया था। इसके बावजूद न तो वह महिला और न ही अंगौछे में लिपटा वह लड़का आदर्श बाबु के वहाँ होने की वजह को समझ पाए थे। आदर्श बाबु ने सोचा था, चलो कोई बात नहीं, कारी न सही शिवन तो होगा, शिवन नहीं होगा तो वो क्या नाम है उसका 232 नंबर बिल्ला वाले का- रामखिलावन! वो तो होगा। हर किसी से तो अच्छी जान-पहचान है। इनमें से कोई भी मिल जाए तो बात बन जाएगी। मन ही मन इस पर विचार करते हुए आदर्श बाबु ने पूछ दिया था उस लड़के से इन सबके बारे में। आदर्श बाबु के मुँह से इन लोगों का नाम सुनकर जैसे उसे आदर्श बाबु पर एक क़िस्म का भरोसा होने लगा था। वह इस बात से निश्चिंत हो गया था कि सामने खड़े इंसान से बातचीत की जा सकती है।
‘इस समय खाली शिवने है इहाँ, बाकी सब कहीं गिया हुआ है’ कहकर उसने सामने वाली झुग्गी की तरफ इशारा करते हुए बताया था, ‘इसके पीछे जो झुग्गी है न उसी में उ लोग रहता है। जाके देख लीजिए।’ आदर्श बाबु से निबटकर वह अपने सामने खड़ी महिला से मुख़ातिब हुआ था, ‘हे गे त्वें कि जानबहि इ जायन क, आयल त छय कारी दादा आर से भेंट करे। जो न अप्पन काम कइर ग न।’
झुग्गी के फाटक पर आदर्श बाबु की थपकी के जवाब में आवाज़ आयी थी-
‘के छय रे? आएब जो।’
‘मैं हूँ’ कहकर आदर्श बाबु फाटक के ओट पर खड़े हो गए थे।
अगले ही पल फाटक खुला और एक बच्चा बाँस की छोटी चैखट से अपने सिर को बचाते हुए बाहर निकला था। इससे पहले कि बच्चा कुछ पूछ पाता, आदर्श बाबु ने कहा था,
‘शिवनजी छथिन।’
आदर्श बाबु को जवाब देने बजाय उसने पीछे मुड़कर कहा था,
‘हय हो कक्का तोरा पुछै छौ हो।’
ज़मीन से उठकर ‘कक्का’ अपनी लुंगी सरियाते हुए फाटक खोल चुके थे। ‘आरे, आप हैं सर। आइए, आइए। भीतर आइए ...।’

...शंका लघु ही है, दीर्घ नहीं

पढिए प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल के मंकीमैन के नाम खुला ख़त की अगली किस्त

यह चिट्ठी आपका अमूल्य समय नष्ट करने के लिए नहीं लिखी जा रही, महामहिम मंकी-मानव।

कोई ज्ञानी कहते भए कि आप आई.एस.आई का किरदार हैं तो कोई कहते भए कि आप बजरंगबली का क्रुद्धावतार हैं। किन्हीं ने कहा कि आप कल्पना का चमत्कार हैं तो किन्हीं ने कहा कि आप प्रदूषण के पुरस्कार हैं। एक बोले कि आप उन्हीं को दिखे जिन्होंने नशा किया, दूजे कहे कि आप तो हैं कलेक्टिव हिस्टीरिया जिसने देखते-देखते दिल्ली का दिल जीत लिया।

यों तो मैंने दीवान--सराय के संपादक रविकांत के कहने पर यह तूमार बाँधा, और यों कुछ अर्थसिद्धि का कारोबार साधा। कुछ हो भी गई, कुछ और हो जाए। सराय का चंदा दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जाए। लेकिन इसके अलावा भी एक वजह है, वह यह कि उस दिन एक टीवी प्रोग्राम के चक्कर में श्री बी.पी. सिंघल के दर्शन भए जो नासा के खींचे फ़ोटू के आधार पर रामजी के सेतुबंध का अस्तित्व प्रमाणित कर गए। अपना चित्त प्रसन्न भया। सारा संदेह दूर गया। सिंघल जी निश्चिंत, उनका प्रसिद्ध ‘‘परिवार’’ निश्चिंत कि अब तो रामजी पर अंकल सामजी की मोहर लग गई। अमेरिकी स्वीकृति से बेचारों की राम-कथा समुद्र तर गई। अमेरिका को सुहाते तो पता नहीं इन आजकल के रामभक्तों को राम भाते या भाते! इतना ग्द्गद् कर देने वाला अनुभव था बी.पी. सिंघल साहब की सिंह गर्जना सुनना और ऊपर से उन्ही के श्रीमुख से तुम्हारे आस्तित्व के अकाट्य प्रमाण गुनना कि पत्र लिखे बिना मन नहीं माने। यों कसक तो रह गई मन में कि दिव्य दर्शन आपके नहीं हुए लेकिन कमी पूरी भई प्रवचन से जो प्रवास में सेवक ने नियमित रूप से सुने। कोई ज्ञानी कहते भए कि आप आई.एस.आई का किरदार हैं तो कोई कहते भए कि आप बजरंगबली का क्रुद्धावतार हैं। किन्हीं ने कहा कि आप कल्पना का चमत्कार हैं तो किन्हीं ने कहा कि आप प्रदूषण के पुरस्कार हैं। एक बोले कि आप उन्हीं को दिखे जिन्होंने नशा किया, दूजे कहे कि आप तो हैं कलेक्टिव हिस्टीरिया जिसने देखते-देखते दिल्ली का दिल जीत लिया। ये सब सुनकर अपन को याद भए बरसों पहले के ग्वालियर के श्री चंपतिया। वे भी यों ही आप की ही भाँति अवतरे थे और ग्वालियर निवासियों के हृदय में महीनों तक घर करे थे। हाँ, ये ज़रूर है कि उन्हें टीवी पर चर्चित होने का सुख मिला, वॉशिंगटन पोस्ट में ख़बर बनने का। वक़्त वक़्त की बात है; वक़्त की ही सब ख़ुराफ़ात है। एक वक़्त वो था जब चंपतियाजी सीधे-सीधे डिसमिस होते भए, एक वक़्त ये है जब आप ओवरनाइट सेलेब्रिटी बन गए। दिल्लीवासियों के दिल में बसे सो बस ही गए।
यों तो भैया लोग कहते हैं कि दिल के साथ दानिश भी ज़रूरी है; हृदय के साथ बुद्धि मनुष्य की मज़बूरी है लेकिन अपनी इक्कीसवीं सदी के पोस्ट-मॉडर्न दौर में तो दानिश हो या बुद्घि - वैसे ही कल्चरल मार्जिन पर पहुँच गई हैं, वहीं भली ठहरी - बड़ी दुःखदायी होवे है दानिश ससुरी। सो, प्रभु आप थे कलेक्टिव हिस्टीरिया - अपने लिए तो बन गए आप कल्चरल ऐण्ड पर्सनल नॉस्टैल्जिया, सो अपन ने ये ख़त आपको लिख दिया।
ये सराय वाले दोस्त-यार चाहते थे इस वर्ष इस नगर के कुछ समाचार। पढ़े-लिखे ठहरे। शहर का हाल-चाल, हालात का लेखा-जोखा, सालभर का देखा-भोगा दर्ज करने को पढ़े-लिखे लोग नहीं उत्सुक होंगे तो कौन होगा? लेकिन भैया मंकीमैन अपना ऐसा ठहरा कि अपने पढ़े-लिखे नहीं, बस लिखे-लिखे हैं - सो उठाई क़लम दिलदार, लिख डाला ये हाले जार जिसे अल्ला सुने सुने, तू तो सुन ही रहा है।
ये जो बीच-बीच में कुछ तुकबंदी सी हो गई है बंधुवरइससे उखड़ना मत। ये तो कुछ आउटडेटेड क़िस्म के कवियों की कुसंगति का प्रसाद है - वरना आजकल तो ऐन कविता के बीचोंबीच भी प्रोज़ ही आबाद है। जीवन हो या कविता - नगर हो या महानगरतुक दिखे तब , बची हो अगर!
एक सवाल सदियों से दुःखी किए है तुम्हारे वंशधरों को मित्रवर! लगता है तुम उसका सही उत्तर दे सकते हो। ट्राय मारे में क्या हर्ज है, बात यों है कि तुम सचमुच इस बात के ठोसतरीन प्रमाण हो कि हर वर्तमान में कुछ अतीत तो व्यापा ही रहता है। तुम - ‘‘मैन’’ हो लेकिन मंकी भी हो। नर हो, वानर भी हो। वर्तमान तो हो ही - अतीत के आगर भी हो - बल्कि थोड़ी तुक और झेलो तो भविष्य की गागर भी हो। इसलिए सोचता हूँ कि इस शंका समाधान के लिए तुम्ही को कष्ट दूँ। निश्चिंत रहो मित्रशंका लघु ही है, दीर्घ नहीं।
सो शंका इस प्रकार है। नैमिषारण्य में बैठने वाली ऋषियों की एसेंबली से लेकर सारे ज्ञानियों, सुधियों, बुधियों की चेतना से जो कुछ प्रोडक्ट और बाय-प्रोडेक्ट हमें प्राप्त हुए हैं, उनका सार मैंने यथामति यों समझा है कि मनुष्य के मा.चो. होने

ये अफ़सोस तो बना ही रह गया कि आपके प्रभाव से प्रेरित और आपकी व्याप्ति से विलक दिल्ली नगरिया का वातावरण प्रत्यक्ष सुन पाए देख पाए। कुछ महीने और रुक जाते तो क्या हर्ज था गुरु? कहाँ बिलाए गए? बता तो जाते कि गए कहाँ और क्यों? असर यज्ञ-हवन का पड़ा या पुलिस ऐक्शन का? प्रभाव महामानवसागर वासी भारत जन का पड़ा या जॉर्ज जी के, मोदी के परमप्रिय ऐक्शन-रिऐक्शन का? रौब तुमने होम मिनिस्टर के बयान का खाया या ज्ञानियों के ज्ञान का?

में तो कोई संदेह है नहीं। प्रश्न केवल यह है कि मनुष्य मा.चो. मूलतः है या भूलतः? इस प्रश्न पर अपन आगे भी लघु-दीर्घतर-नातिदीर्घ विमर्श करेंगे लेकिन सोचो ज़रूर इस पर - इस यक्ष प्रश्न पर कि मनुष्य मूलतः मा.चो. है या भूलतः?
माचो समझ गए ? वो आंग्ल-भाषा वाला नहीं - फ़ारसी देशज के समास वाला! यों तो ये सराय वाले मित्र अपनेओरलके बड़े साधक हैं, सो ओरल ट्रैडिशन के इस परमलोकप्रिय पद को बिना संकेत के भी लिखा जा सकता है, लेकिन भैया संस्कार बड़े से बड़े साधक के यहाँ बाधक बन जाते हैं - सो जो लिखा वही पढ़ना - मा.चो. को ठीक से गढ़ना और इस मूलचूल, बुनियादी फ़ंडामेंटल सवाल पर ग़ौर करना। इंतज़ार करेंगे - आप के प्रज्ञापूर्ण प्रत्युत्तर का।

वैसे, ये अफ़सोस तो बना ही रह गया कि आपके प्रभाव से प्रेरित और आपकी व्याप्ति से विलक दिल्ली नगरिया का वातावरण प्रत्यक्ष सुन पाए देख पाए। कुछ महीने और रुक जाते तो क्या हर्ज था गुरु? कहाँ बिलाए गए? बता तो जाते कि गए कहाँ और क्यों? असर यज्ञ-हवन का पड़ा या पुलिस ऐक्शन का? प्रभाव महामानवसागर वासी भारत जन का पड़ा या जॉर्ज जी के, मोदी के परमप्रिय ऐक्शन-रिऐक्शन का? रौब तुमने होम मिनिस्टर के बयान का खाया या ज्ञानियों के ज्ञान का?
चलो, कोई बात नहीं, ज़रूरत तो हमें तुम्हारी, तुम जैसों की, बार-बार पड़ेगी - मुलाक़ात इस बार नहीं तो फिर किसी बार होगी ही। तब तक पत्राचार ही सही - ‘मूलतभूलतः वाली गुत्थी पर तुम्हारी राय का इंतज़ार ही सही!