25.8.08

अस्सीवें साल में दाखिल हो रहे राजेन्द्र यादव


राजेन्द्र यादव हिन्दुस्तान या हिन्दी-साहित्य के कौन हैं कौन नहीं हैं, काफ़ी कुछ कहा गया है और कहा जाता रहेगा. मैंने इस सख़्स को सबसे पहले 'कांटे की बात' के ज़रिए जाना. ऐसा कांटा कि एक बार हल्का भी चुभ जाए तो टीस गहरी होती है और सबसबाती देर तक है. जुलाई-अगस्त 1990 में मंडल विरोधी 'आंदोलन' पर कांटे की बात में राजेन्द्र यादव की एक बात अकसर याद आ जाती है कि दिल्ली की लड़कियां हाथों में तख्तियां लिए सड़कों पर उतर आयी थीं, जिन पर चिंता ज़ाहिर की गयी थी कि आरक्षण के कारण अब उनकी शादी नहीं हो पाएगी क्योंकि उनके माता-पिता को नौकरीशुदा दुल्हे नहीं मिल रहे हैं(असल उद्धरण नहीं, अपनीस्मृति से). संघ का अयोध्या कांड रहा हो या तालिबान का बामियान कांड, कांटा सबने चुभोया. ऐसे कितने सवाल/मसले कांटे की बात में उठाए राजेन्द्र यादव ने. सब पर कलमदराज़ी की. रोशनाई बनकर हंस पर टपके उनके गुस्सैल आंसुओं ने किसकी संवेदना को नहीं झकझोरा. मैं हर बार राजी होता रहा. मतभेद कम रहा या रहा ही नहीं.
कांटों से बिंध जाने के बाद मन हुआ श्रव्यसुख पाने का. 97-98 की बात होगी. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोगेसिव स्टूडेंट्स युनियन का हिस्सा था. संघ-संप्रदाय के संगठनों से गुत्थम-गुत्थी रोज़मर्रा का हिस्सा-सा बन गयी थी. नागपुर और रानी झांसी रोड से उनके पुरोधा आते थे और अगलगुला उगल कर चले जाते थे. उसके बाद परिसर में राष्ट्रगीत का मुखड़ा चीख़ और चुहल की गिरफ़्तारी में छटपटाने लगते थे. ऐसे में अमनपसंदों को अकसर हंस दफ़्तर की याद आती और राजेन्द्र यादव कैंपस आते. कभी 22 नंबर में तो कभी 56 नंबर में. कभी उन्होंने ये नहीं पूछा कि कितने लोग आ जाएंगे, या किस सभागार में होगी चर्चा. अब यह सोचता हूं कि आखिर ऐसा क्यों था. एक-आध बार दिल्ली विश्वविद्यालय से ही जब किसी चर्चित निरपेक्ष व्यक्तित्व को बुलाने की कोशिश की तो उन्होंने कोई-न-कोई बहाना बना कर टाल दिया. याद नहीं है कि यादवजी ने कभी बहानेबाज़ी की हो. हद से हद यही कहा 'किसी को भेज देना मुझे लेने के लिए, समय बच जाएगा'. यानी मेरे लिए यादवजी कभी न कॉम्प्रोमाइज़ करने वाले योद्धा ठहरे. यही कारण है कि उनकी ठनी भी ख़ूब: व्यक्तियों से लेकर संस्थाओं तक से. प्रसारभारती को तो उन्होंने प्रचारभारती कहा ही.
साहित्य मेरा बेहद कमज़ोर है. बहुत कम पढ़ाई-लिखाई की है. पर जो भी मोटी समझ है उसके आधार पर यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि यादवजी ने हमेशा साहित्य का एजेंडा तय किया है. कोई भी विमर्श ले लें, हंस नामक मंच से ही उसकी शुरुआत हुई है. एक ही अंक में धूर-विरोधी मत और फिर उस पर चलती बहसों की श्रृंखला: हंस के अलावा नहीं दिखा कभी. पाठकों ने जो खिंचाई की वो अलग. राजेन्द्र न डमगाए. कभी न डगमगाए. ज़रूरत पड़ने पर सफ़ाई दी पर पोजिशन न बदली. हंसीय हलचल का असर भारतीय राजनीति पर भी दिखा. विशेषकर दलित और स्त्री अगर आज भारतीय राजनीति के केंद्र में है तो इसका श्रेय हंस को जाता है, राजेन्द्र यादव को जाता है. हंस के ज़रिए बौद्धिक जगत में जो भी सुगबुहाट हुई, भारतीय राजनीति को उसने बार-बार आइना दिखाया. और आइने में इस राजनीति ने अपने काले चेहरे को देख उसको साफ़ करने की कई बार दिखाउ ही सही, पर कोशिश ज़रूर की और आज भी कर रहे हैं.
नए रचनाकर्मियों के लिए राजेन्द्रजी से बड़ा प्रोत्साहक और कौन होगा. पोल्हा कर, डांट कर, और तो और गरिया कर उन्होंने नौजवानों से लिखवाया और लिखवा रहे हैं.
दो दिन बाद यानी 26 अगस्त 2008 को राजेन्द्र यादव अस्सीवें साल में दाखिल हो रहे हैं. हफ़्तावार की ओर से उन्हें इस मौक़े पर ढेर सारी बधाइयां और उनके इस सफ़र के और मानीख़ेज और लंबा होने के लिए सहश्र शुभकामनाएं. इस अवसर पर हफ़्तावार राजेन्द्र यादव के जीवन-कर्म पर एक चर्चा आरंभ कर रहा है. निजी संस्मरण हो तो और बढिया, अन्यथा आपकी हर राय और प्रतिक्रिया का स्वागत है.

1 comment:

  1. ८० वें साल में प्रवेश की शुभकामना

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