कॉमनवेल्थ खेलों से पहले भारत की राष्ट्रीय मीडिया की परेशानी का सबस मुझे भली-भांति याद है! स्टेडियमों के अधूरे निर्माण सड़कों की खस्ताहाली, कैटरर्स की नियुक्ति न हो पाने, बारिश, बाढ़ में डूबे खेलगाँव, डेंगू और मलेरिया के डर और इन सबके ऊपर कुछ देशों द्वारा खेल दल न भेजे जाने की ध्मकी को लेकर अख़बार से लेकर ख़बरिया चैनल तक ः सब किस क़दर बेचैन थे। रहमान का ‘इंडिया बुला लिया ...’ भी खिलाड़ियों और सैलानियों को बुला पाने की गारंटी नहीं दे पा रहा था। संसद से सड़क तक भ्रष्टाचार का अलापे जा रहे राग को देखकर ऐसा महसूस होता था मानो अबकी बार और कुछ हो न हो, देश से भ्रष्टाचार का सपफाया हो कर रहेगा।
हुआ क्या! खेल शुरू होते-होते कुछ दिन बदइंतजामी छायी रही। बाद में ‘रंगारंग उद्घाटन’ और खिलाड़ियों की ‘सपफलताओं’ ने सब ‘झाँप’ दिया। खेल ख़त्म हुए तो घोटालों और जाँच के नाम पर तहलका मचा। अब ‘तहलका’ में से ‘त’ ग़ायब हो चुका है और सब हल्का-हल्का लग रहा है।
इन सबके तले जो अहम मसले दब कर रह गए, कुछेक अपवादों को छोड़ कर उन पर न तब किसी ने मुँह खोला और न अब ही किसी को इसकी ज़रूरत महसूस हो रही है। खेलों के ‘सहज’ और ‘सपफल’ आयोजन के लिए दर्जनों बस्तियाँ उजाड़ी गयीं। हज़ारों बेघर कर दिए गए। उनकी रोज़ी-रोटी छीन ली गयी। शहर-ए-दिल्ली ने उन्हें जबरन दरबदर कर दिया। खेलों के दौरान गली-नुक्कड़ों में यह आम चर्चा थी कि किस तरह दिल्ली पुलिस के लोग ग़रीब-गुर्बे को रेलों और बसों में ठूँस रहे थे। इस ध्मकी के साथ कि ‘खेल ख़त्म होने तक दिल्ली में दिख मत जइये’। ये वही लोग थे जो शहर को चमकाऊ, लुभाऊ और बिक़ाऊ बनाने में ख़ून-पसीना एक कर रहे थे। लेकिन शहर को सुरक्षित, साप़फ-सुथड़ा, ख़ूबसूरत, ग़रीबमुक्त और संपÂ पेश करने के नाम पर इन्हें बाहर खदेड़ दिया गया। न केवल खदेड़ा गया बल्कि इनकी वापसी और बसाहट की संभावनाओं को भी हरसंभव ख़त्म करने का जाल रचा गया।
ग़ौरतलब है कि इस महाआयोजन में दिल्ली के चुने हुए पॉश इलाक़ों को ही और पॉलिश किया गया। साथ में कुछ नए पॉश ठिकाने आबाद करने की कोशिश की गयी। यमुना किनारे खेल-गाँव इसी कड़ी में तामीर हुआ। बेशक इस नयी बसावट की जद में राजनीतिक और व्यावसायिक समीकरण को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। वर्ना कोई वजह नहीं थी दिल्ली के अन्य इलाक़ों में कोई ढाँचागत विकास नहीं हो सकता था? यमुना पार का भजनपुरा इलाक़ा खेलों से जुड़ी कई परियोजनाओं की शुरुआत का गवाह रहा है जो खेल शुरू होते-होते ‘यमुना एक्शन प्लान’ की परियोजनाओं में तब्दील कर के ठंडे बस्ते में डाल दी गयीं। कम से कम निर्माण स्थलों पर लगे तब और अब के बोर्डों से तो यही स्पष्ट होता है। बु( विहार, मंडोली, बवाना, नांगलोई, नरेला, मुलड़ बाँध्, कैर जैसे इलाक़े क्या दिल्ली में नहीं आते? खेलों से जुड़ी कुछ परियोजनाएँ इन इलाक़ों में भी लायी जा सकती थीं।
दरअसल, यह पूरा मसला नीति से ज़्यादा नियत है। ये वे इलाक़े हैं जिनमें ‘हूज़ हू’ ;सत्ता और शक्तिवान लोगद्ध नहीं बसते हैं। लेकिन उन्हें सुख-सुविध देने वाले कारिन्दे यहीं बिखरे पड़े हैं। दरअसल हर शहर में केन्द्र और परिध् िका स्पष्ट विभाजन होता है। दोनों के विकास की गति और पैटर्न अलग-अलग होती है। केन्द्र और परिध् िके बीच हमेशा से शोषण और दोहन का रिश्ता रहा है। केन्द्र परिध् िका विस्तार करता है। वहाँ असीमित अनध्किृत निर्माण कराता है पिफर उनके अध्किरण और सुविधएँ मुहैया कराने के नाम पर तरह-तरह के करतब करता है। पर हर हाल में विषमता को बरकरार रखना चाहता है।
एक तरप़फ ‘जवाहरलाल नेहरू अर्बन रिन्यूअल मिशन’ और खेलों की आड़ लेकर लो फ्ऱलोर लाल-हरी बसों का बेड़ा उतारा जाता है। कुछेक सड़कों पर विशेष साइकिल ट्रैक बनाये जाते हैं। तो दूसरी ओर असली साइकिल चालकों के इलाक़ों में सड़कें भी नहीं होतीं। वे तो आरटीवी और चैंपियनों में ध्क्के खाने के लिए विवश हैं। असली सिटीमेकर्स जो कि ईंट-दर-ईंट जोड़ कर शहर बनाते हैं, कूड़ा चुनते हैं, साप़फ-सप़फाई करते हैं, रेहड़ी-पटरी पर रोज़ी कमाते हैं, घरेलू काम करते हैं, दुकानों, कारख़ानों, कंपनियों, दफ्ऱतरों, मॉल्स और मल्टीप्लेक्सों में रोज़मर्रा की ज़रूरियात निपटाते हैंऋ वे इस कॉमनवेल्थ खेल की पूरी अवधरणा से न केवल बाहर रहे बल्कि इसका शिकार भी बने। ऐसे में भला चंद पदकों के दम पर अपनी पीठ थपथपा कर हम कैसे ख़ुश हो लेंगे और हमारे कंठ से कैसे पूफठ पड़ेगा ‘दिल्ली मेरी जान’! अकेले थीम सॉघõ के लिए रहमान को पाँच करोड़ दिए गए जबकि इससे आध्े ख़र्चे पर दिल्ली के तमाम बेघरों के लिए रैनबसेरों का इंतजाम हो सकता था। शायद रहमान इस पर ऐतराज़ भी न करते।
हफ़्ताwar
29.12.10
इंडिया बुला लिया ... इंडिया भुला दिया!
16.7.10
सायबर चला टीवी की चाल
12.7.10
4.6.10
ग़ैरबराबरी को बढावा देते आश्रम
गुरु परंपरा केंद्रित एक धार्मिक समुदाय के उत्तर
भारत के लगभग हर शहर में आश्रम हैं। इन
आश्रमों में हर सप्ताह भक्तजन या संप्रदाय के
अनुयायी जुटते हैं। परिसर की फसलों और बागवानी की
देखरेख सेवादार करते हैं। इस काम को श्रमदान कहा
जाता है। इस काम का कोई मेहनताना नहीं होता। यह एक
स्वैच्छिक कार्य होता है। इस बेहद नपी-तुली व्यवस्था के
प्रभामंडल के चलते कोई अनुयायी यह नहीं जानना चाहता
कि इतनी जमीन खरीदने और उस पर भवन निर्माण करने
के लिए पैसा कहां से आता है।
इन आश्रमों के जलसों में भक्तजन गुरु की झलक
पाने भर के लिए बेताब रहते हैं। गुरु स्वर्ग का मार्ग दिखाने
के अलावा रोजमर्रा के जीवन और सामाजिक संबंधों को
मधुर बनाने के लिए कोई नुस्खे तजवीज नहीं करते। वे
कभी-कभी एक भीतरी रोशनी की बात करते हैं, लेकिन
उस रोशनी से सामाजिक संबंधों में पसरे अंधेरे कोने
प्रकाशित नहीं हो पाते। इधर, बढ़ते बाजार और
उपभोक्तावाद की ललक ने समाज से मिलने वाले
आश्वासनों को जबसे छिन्न-भिन्न कर दिया है, तबसे इन
संप्रदायों और आश्रमों में अनुयायियों की भीड़ बेतहाशा
बढ़ी है। हाल में ऐसे ही एक आश्रम में भगदड़ मचने से
कई महिलाओं की मौत भी हो गई थी।
यहां हमारी मंशा किसी संप्रदाय या आश्रम की निंदा
करना कतई नहीं है। सवाल बस इतना है कि अपने
अनुयायियों को स्वर्ग और समृद्धि का रास्ता बताकर क्या
ये संप्रदाय लगातार अराजकता और अव्यवस्था की तरफ
बढ़ रहे समाज को बेहतर या वैकल्पिक जीवन दर्शन दे
सकते हैं? क्या ऐसे धार्मिक समागमों से समाज का जीवन
सचमुच शांतिपूर्ण, सार्थक या उदात्त हो पाता है? अगर
प्रार्थना भवन में कुछ विशिष्ट लोगों को बैठने के लिए नर्म
गद्दियां दी जाती हैं और बाकी लोगों को सूत की साधारण
दरियों पर बैठाया जाता है, तो इसका मतलब साफ है कि
वहां भी एक तरह की वर्ण-व्यवस्था लागू है।
आध्यात्मिकता का अर्थ यदि मनुष्य के होने मात्र को गरिमा
प्रदान करना है, तो फिर इस श्रेणीकरण को किस तरह
जायज ठहराया जा सकता है?
आम तौर पर ऐसी संगतों के अवसर पर गुरु के आसन
के एकदम पास वाला क्षेत्र लगभग वीआईपी जोन होता है।
वहां खास हैसियत के लोगों को जगह दी जाती है। जैसे
आम जीवन में लोग झूठ बोल कर, वास्तविक पहचान के
बजाय खुद को विशिष्ट व्यक्ित बताकर अपना काम
निकालते हैं, लगभग ऐसा ही कुछ यहां भी होता है। इस
जगह में प्रवेश पाने के लिए कोई अगर खुद को कहीं का
एमएलए या प्रोफेसर बता दे, तो उसे तुरंत माफीनामे के
साथ अंदर दाखिल कर लिया जाता है। ऐसे में यह सोचना
जरूरी हो जाता है कि अगर इन नए संप्रदायों में भी
सनातनी श्रेणियों के हिसाब से व्यवहार किया जाएगा, तो
मनुष्य की मूलभूत बराबरी के आदर्श का क्या होगा?
अगर इन संप्रदायों के सामाजिक आधार पर नजर
डाली जाए, तो मौटे तौर पर यह बात सामने आती है कि
इन संप्रदायों का प्रभाव मुख्यत: उन वर्ग, समुदायों और
समूहों के बीच है जिन्हें धर्म की शास्त्रोक्त व्यवस्था में
सम्मान, गरिमा और बराबरी का हकदार नहीं माना जाता
था। लेकिन उदार अर्थव्यवस्था के इन दो दशकों में समाज
के दस्तकार और कारीगर वर्ग के लिए धर्नाजन के कुछ
नए रास्ते खुले हैं। निर्माण में आई तेजी और शहरीकरण
की प्रक्रिया में आए उछाल से उन जातियों और समूहों को
निश्चय ही कुछ आर्थिक लाभ पहुंचा है, जो हरित क्रांति
के बाद लगभग बेकाम और बेरोजगार हो गए थे।
स्वरोजगार या फिर निजी उद्यम के दम पर वृहत्तर समाज
में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने वाले इन समूहों का
विश्वबोध आधुनिकता में पगे शिक्षित वर्ग का विश्वबोध
नहीं है।
असल में, तकनीक, पूंजी और राजनीतिक सत्ता की
अराजकता से जन्मे अनिश्चय के बीच हर व्यक्ति किसी
निश्चित या स्थिर सहारे की तलाश में है। मिसाल के तौर
पर, आधुनिक विचारों में पले-बढ़े और संपन्न लोग
कृष्णमूर्ति की ओर चले जाते हैं तथा जिन्हें पूंजीवाद का
उत्सव मनाते-मनाते किसी तरह का अपराध बोध सताने
लगता है, वे ओशो की लीक पकड़ लेते हैं। इनके बरक्स
जिन लोगों को संपन्नता, पैसा, सुख के आधुनिक
उपकरण, सुंदर घर जैसे प्रतीक हाल फिलहाल हाथ लगे
हैं, वे सिर्फ स्वर्ग चाहते हैं या दूसरी तरह से कहें तो नरक
के दंड से बचना चाहते हैं। क्या गुरु केंद्रित संप्रदाय इस
देशी मध्यवर्ग को स्वर्ग का भरोसा देकर एक तरह की
सामाजिक गैर-बराबरी को बढ़ावा नहीं दे रहे?
3.6.10
ढेबरी में तेल नइखे, मड़ई अन्हार बा
ढेबरी में तेल नईखे मड़ई अन्हार बा
कॉलेज के हालत देखीं बढ़त जाले फिसिया
कइसे पढाइब लइका सुझे ना जुगतिया
शिक्षा के नाम पर केसरिया बुखार बा
ढेबरी में तेल नइखे, मड़ई अन्हार बा
राउर लइका डिग्री लेके खोजता नौकरिया
नौकरी न पावे बीतल सगरी उमरिया
नौकरी पर उनकर बपौती अधिकार बा
ढेबरी में तेल नइखे, मड़ई अन्हार बा
खेत में के बीया सुखल सुख गइल धनवा
कान्हे कुदाली ले के रोवता किसानवा
अब त पेटेंटो एगो नया जमीदार बा
ढेबरी में तेल नइखे मड़ई अन्हार बा
घर में से निकलल दूभर छूटल पढ़इया
हाथे थमावल गइल कलछुल कढ़हिया
सीता के नाम पर गुलामी ठोकात बा
ढेबरी में तेल नइखे मड़ई अन्हार बा
उठी भइया उठी बहना फेरे खातिर दिनवा
आयीं साथे चली तबे बदली कनूनवा
इनन्हीं से बात कइल बिलकुल बेकार बा
ढेबरी में तेल नइखे मड़ई अन्हार बा
सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ
31.5.10
ग़ैरबराबरी को बढावा देते आश्रम
गुरु परंपरा केंद्रित एक धार्मिक समुदाय के उत्तर
भारत के लगभग हर शहर में आश्रम हैं। इन
आश्रमों में हर सप्ताह भक्तजन या संप्रदाय के
अनुयायी जुटते हैं। परिसर की फसलों और बागवानी की
देखरेख सेवादार करते हैं। इस काम को श्रमदान कहा
जाता है। इस काम का कोई मेहनताना नहीं होता। यह एक
स्वैच्छिक कार्य होता है। इस बेहद नपी-तुली व्यवस्था के
प्रभामंडल के चलते कोई अनुयायी यह नहीं जानना चाहता
कि इतनी जमीन खरीदने और उस पर भवन निर्माण करने
के लिए पैसा कहां से आता है।
इन आश्रमों के जलसों में भक्तजन गुरु की झलक
पाने भर के लिए बेताब रहते हैं। गुरु स्वर्ग का मार्ग दिखाने
के अलावा रोजमर्रा के जीवन और सामाजिक संबंधों को
मधुर बनाने के लिए कोई नुस्खे तजवीज नहीं करते। वे
कभी-कभी एक भीतरी रोशनी की बात करते हैं, लेकिन
उस रोशनी से सामाजिक संबंधों में पसरे अंधेरे कोने
प्रकाशित नहीं हो पाते। इधर, बढ़ते बाजार और
उपभोक्तावाद की ललक ने समाज से मिलने वाले
आश्वासनों को जबसे छिन्न-भिन्न कर दिया है, तबसे इन
संप्रदायों और आश्रमों में अनुयायियों की भीड़ बेतहाशा
बढ़ी है। हाल में ऐसे ही एक आश्रम में भगदड़ मचने से
कई महिलाओं की मौत भी हो गई थी।
यहां हमारी मंशा किसी संप्रदाय या आश्रम की निंदा
करना कतई नहीं है। सवाल बस इतना है कि अपने
अनुयायियों को स्वर्ग और समृद्धि का रास्ता बताकर क्या
ये संप्रदाय लगातार अराजकता और अव्यवस्था की तरफ
बढ़ रहे समाज को बेहतर या वैकल्पिक जीवन दर्शन दे
सकते हैं? क्या ऐसे धार्मिक समागमों से समाज का जीवन
सचमुच शांतिपूर्ण, सार्थक या उदात्त हो पाता है? अगर
प्रार्थना भवन में कुछ विशिष्ट लोगों को बैठने के लिए नर्म
गद्दियां दी जाती हैं और बाकी लोगों को सूत की साधारण
दरियों पर बैठाया जाता है, तो इसका मतलब साफ है कि
वहां भी एक तरह की वर्ण-व्यवस्था लागू है।
आध्यात्मिकता का अर्थ यदि मनुष्य के होने मात्र को गरिमा
प्रदान करना है, तो फिर इस श्रेणीकरण को किस तरह
जायज ठहराया जा सकता है?
आम तौर पर ऐसी संगतों के अवसर पर गुरु के आसन
के एकदम पास वाला क्षेत्र लगभग वीआईपी जोन होता है।
वहां खास हैसियत के लोगों को जगह दी जाती है। जैसे
आम जीवन में लोग झूठ बोल कर, वास्तविक पहचान के
बजाय खुद को विशिष्ट व्यक्ित बताकर अपना काम
निकालते हैं, लगभग ऐसा ही कुछ यहां भी होता है। इस
जगह में प्रवेश पाने के लिए कोई अगर खुद को कहीं का
एमएलए या प्रोफेसर बता दे, तो उसे तुरंत माफीनामे के
साथ अंदर दाखिल कर लिया जाता है। ऐसे में यह सोचना
जरूरी हो जाता है कि अगर इन नए संप्रदायों में भी
सनातनी श्रेणियों के हिसाब से व्यवहार किया जाएगा, तो
मनुष्य की मूलभूत बराबरी के आदर्श का क्या होगा?
अगर इन संप्रदायों के सामाजिक आधार पर नजर
डाली जाए, तो मौटे तौर पर यह बात सामने आती है कि
इन संप्रदायों का प्रभाव मुख्यत: उन वर्ग, समुदायों और
समूहों के बीच है जिन्हें धर्म की शास्त्रोक्त व्यवस्था में
सम्मान, गरिमा और बराबरी का हकदार नहीं माना जाता
था। लेकिन उदार अर्थव्यवस्था के इन दो दशकों में समाज
के दस्तकार और कारीगर वर्ग के लिए धर्नाजन के कुछ
नए रास्ते खुले हैं। निर्माण में आई तेजी और शहरीकरण
की प्रक्रिया में आए उछाल से उन जातियों और समूहों को
निश्चय ही कुछ आर्थिक लाभ पहुंचा है, जो हरित क्रांति
के बाद लगभग बेकाम और बेरोजगार हो गए थे।
स्वरोजगार या फिर निजी उद्यम के दम पर वृहत्तर समाज
में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने वाले इन समूहों का
विश्वबोध आधुनिकता में पगे शिक्षित वर्ग का विश्वबोध
नहीं है।
असल में, तकनीक, पूंजी और राजनीतिक सत्ता की
अराजकता से जन्मे अनिश्चय के बीच हर व्यक्ति किसी
निश्चित या स्थिर सहारे की तलाश में है। मिसाल के तौर
पर, आधुनिक विचारों में पले-बढ़े और संपन्न लोग
कृष्णमूर्ति की ओर चले जाते हैं तथा जिन्हें पूंजीवाद का
उत्सव मनाते-मनाते किसी तरह का अपराध बोध सताने
लगता है, वे ओशो की लीक पकड़ लेते हैं। इनके बरक्स
जिन लोगों को संपन्नता, पैसा, सुख के आधुनिक
उपकरण, सुंदर घर जैसे प्रतीक हाल फिलहाल हाथ लगे
हैं, वे सिर्फ स्वर्ग चाहते हैं या दूसरी तरह से कहें तो नरक
के दंड से बचना चाहते हैं। क्या गुरु केंद्रित संप्रदाय इस
देशी मध्यवर्ग को स्वर्ग का भरोसा देकर एक तरह की
सामाजिक गैर-बराबरी को बढ़ावा नहीं दे रहे?
25.11.09
चैनलों की फुसफास
क्या कहते हो भैया इसी एनडीटीवी को किसानों का प्रदर्शन शहर में अव्यवस्था फैलाता दिखता है! भाई शिवसेना या किसी भी सेना द्वारा भड़काए जाने वाले दंगे-फसादों का मैं भी घोरविरोधी हूं. पर कम से कम अपने विवेक को खुला रखता हूं कि अंध शिवसेना विरोध या अंध मनसे विरोध के चक्कर में बेहद महत्तवपूर्ण मसलों पर निगाह डालने से मेरी आंखें इनकार न दे.
किसानों के प्रदर्शन से शहर में अव्यवस्था फैलने के पीछे तर्क ये दिया गया कि प्रदर्शनकारियों ने जमकर शहर में उत्पात मचाया, सरकारी और निजी संपत्तियों को नुक्शान पहुंचाया, आदि-आदि. मैं उनकी बातों से इस बात से सहमत हूं कि हां, प्रदर्शनकारियों ने वैसा किया. पर सवाल ये है कि क्या सारे प्रदर्शनकारी हुड़दंग में शामिल थे? चलिए, इससे भी क्या हो जाएगा ... पर क्या उनकी मांग नाजायज़ थी, क्या देश के दूर-दराज़ से लोग बड़ा खुश होकर आते हैं दिल्ली में प्रदर्शन करने, जब प्रदर्शनकारी लाठी खाकर दर्द सहलाते जाते हैं तब कौन अव्यवस्था फैला रहा होता है और कौन निरंकुश? पंकज पचौरी और उनके सानिध्य में पत्रकारिता करने वालों को ज़रा इन बातों पर भी विचार करना होगा.
'हमलोग' वाले शीर्षस्थ पत्रकार साहब ये बता पाएंगे कि अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान जिस जंतर-मंतर पर 'उत्पात' मचा रहे थे वहीं देश भर के ग़रीब-गुर्बा और आदिवासी जमा होकर अपने ज़मीन पर अपने हक़ के लिए प्रतिरोध सभा कर रहे थे, उनकी नेता मेधा पाटकर भी कम कद्दावर नहीं थी, क्यों नहीं उस पर अपना कैमरा घुमवा लिए?
'आइबीएन लोकमत' के दफ़्तर में जब लंपटों ने हमला किया था तब कैसे छाती पीट-पीट कर लोकतंत्र को बचाने की गुहार कर रहे थे, पंकज बाबु ने कहा था कि ब्रॉडकास्ट एडिटर्स गिल्ड (या एसोशिएशन ने मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा इस वक्त) ने यह तय किया था कि मीडिया वालों को बुला कर की जाने वाली कार्रवाई को कवर नहीं किया जाएगा. बड़ी अच्छी बात है, कितनी बार पालन किया आपने!
भैया, यही लोग हैं जो 'राष्ट्रीय महत्त्व' की शिल्पा-कुंदरा की शादी को हेडलाइन बताते हैं और उस पर स्पेशल पैकेज लेकर आते हैं.
भैया, काहे भोलेपन से भारी सवाल की ओर इशारा करते हो. ये चैनल-वैनल एक बड़ी साजीश का हिस्सा हैं. वैसे किसी मसले या वैसी किसी नीति की तरफ़ ये इशारा नहीं करेंगे जिससे लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी हुई है. पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसान या हों या विदर्भ के या फिर बलिया या सीतामढ़ी के, या देश भर के आदिवासी: उनके सवालों में किसी भी मीडिया की दिलचस्पी नहीं है. प्रतीक के तौर पर महंगाई का जिक्र करते कभी इनके लोग ओखला या आज़ादपुर मंडी से आलू-प्याज़ के भाव बताते दिख जाएंगे, कभी-कभार किसी मध्यवर्गीय कॉलोनी की इटालियन मार्वल ठुके किचेन से किसी महिला का बिगड़ता मासिक बजट सुना देंगे. बस. खुर्जा, सोनीपत, धुल्लै, सहारनपुर, शाहजहांपुर, पासीघाट, डिमापुर, कोकराझार या डेहरी ऑन सॉन में इस महंगाई से पहले भी कैसे लोगों की कमर टेढी हो रही थी - कभी न बताया न बताएंगे.
चाहिए मसाला, चटपटा मसाला. ऐसा कि डालें तो चना जोर गरम बन जाए. ग़रीब, ग़रीबों की समस्याएं और उनकी जद्दोजहद को आज का मीडिया और खासकर कोई चैनलवाला कभी स्टोरी का प्लॉट नहीं बनाता. अपवाद और मिसाल भले गिना दें, गिना ही सकते हैं. बस.
आतंकवाद, शिवसेना, ठाकरे फैमिली, फिल्म, फैशन, लाइफ़-स्टाइल, बाज़ार, राहुल बाबा, यु-ट्यूब, चमत्कार, बाबा-ओझा से इतर सोचना भी इन्हें पहाड़ लगता है.
आतंकवाद और पाकिस्तान न होता तो 24 घंटे वाले चैनलों की कैसी दुगर्ति होती, कल्पना की जा सकती है. ऐसे में भावनाओं, संवेदनाओं, हत्याओं, कुर्बानियों और संबंधों का बाज़ारीकरण बड़ा सहारा देता है.
मैं तो अब भी इस 'भ्रम' में रहूंगा कि नागरिक हूं, और स्कूलिया ज्ञान पर भी अभी भरोसा क़ायम है. इसलिए उम्मीद है कि शायद कभी अंगूलीमाल से इनकी भेंट होगी और ये मरा-मरा से राम-राम में बदलेंगे. गलत कहा?
सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ