30.9.07

ब्रह्मा, विष्णु और महेश के नए अवतार

भारत के राजस्थान प्रांत के जोधपुर नगर में कुछ लोगों ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश की नयी तस्वीर जारी की है. ये तस्वीरें एक तरह से तीन महत्तवपूर्ण हिन्दू देवताओं के नए अवतार की घोषणा और नए युग के उद्घोष की कोशिश है. एक हिन्दी ख़बरिया चैनल पर भरोसा करें तो इन देवताओं की तस्वीरों से सुसज्जित कैलेंडर धड़ल्ले से बांटे जा रहे हैं.

ख़बर और उसके साथ की झलकी देखकर बंदे को कुछ ठेस- सी लगी. होश संभालने के बाद अब तक ब्रह्मा, विष्णु और महेश की जितनी भी तस्वीरें बंदे ने देखी है, ये वाली उन सबसे अलग थीं. पहले की तस्वीरों में ये त्रिदेव बड़े सौम्य और निरपेक्ष लग रहे थे. कल वाली तो बिल्कुल अलग थी. एक अज़ीब किस्म की पक्षधरता थी उसमें. चेहरा भी सामान्य नहीं लग रहा था. और तो और पहले की जो तस्वीरें बंदे को याद हैं उनमें वे इतने उम्रदराज़ भी नहीं लगते थे. कल वाले तो साठ पार के दिख रहे थे, बल्कि ब्रह्मा और महेश तो सत्तर से भी ज़्यादा के नज़र आ रहे थे.

नए अवतरित इस त्रिदेव को बंदे ने पहले भी कई मौक़ों पर देखा है. या कहें कि सभा, संसद, सम्मेलन, यात्राओं, जलसों इत्यादि में ये अलग-अलग भूमिकाओं में दिखते रहे हैं. हो सकता है ये वे न हों, या फिर वे ही हों, या अपने पुण्य प्रताप और चमत्कारिक शक्ति के बल पर इन्होंने उनकी शक्ल धारण कर ली हो. पर बंदे ने जब ये शक्ल उस तस्वीर में देखी तो कई बातें, घटनाएं और दुर्घटनाएं उसके ज़हन को झकझोर गयीं. जैसे कि तस्वीर वाले ब्रह्माजी की शक्ल कुछ साल पहले भारत के उपप्रधानमंत्री सह गृहमंत्री और अब भारतीय संसद में विपक्ष के नेता से हू-ब-हू मिलती है. उसी तरह विष्णु वाली शक्ल आठ-दस बरस पहले तक हिन्दुस्तान के सबसे बड़े राज्य के एक पूर्व, पूर्व मुख्यमंत्री, जिनके बाद अब तक उनकी पार्टी को सत्ता में आने का मौक़ा नहीं मिल पाया है – से पूरी तरह मेल खाती थी. और महेश यानी बाबा भोले भंडारी की शक्ल देखकर तो बंदे को ‘हार नहीं मानूंगा/रार नहीं ठानूंगा/काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं/गीत नया गाता हूं’ याद आ गया. इन पंक्तियों के रच‍यिता तो कुछ साल पहले तक भारतीय गणतंत्र के प्रधानमंत्री थे. बंदे ने सुना है अपने प्रधानमंत्रित्व काल के अंतिम दिनों में इंडिया शाइनिंग अर्थात भारत उदय नामक प्रचार-अभियान पर इन्होंने कर-दाताओं के पैसों को जमकर बहाया था. तो महेशजी की शक्ल उसी इंडिया शाइनिंग के प्रणेता से मिलती-जुलती लगी.

वैसे बंदे को कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं है. बस ये लगता है कि अगर देवताओं को अवतरित होना ही था तो कम से कम इन शक्लों को न धारण करते. क्योंकि तस्वीर में जो ब्रह्मा है उससे मिलते-जुलते एक शख्सियत पर तो कई आरोप हैं. कुछ तो बेहद गंभीर हैं. अगर भारत के किसी आम नागरित पर ये आरोप लगे होते तो उस पर एक साथ दर्जन भर मुकदमे यहां की कच‍हरियों में चल रहे होते. अब देखिए न, नए ब्रह्मा वाली शक्ल के इस शख्स पर दिसंबर 1990 में उत्तर प्रदेश की एक प्राचीन नगरी में एक मस्जिद-ध्वंस के षड्यंत्र का आरोप है, जिसके चलते इन पर मुकमदा भी चल रहा है, और एक बहुत पुराने आयोग के सामने कभी-कभार सशरीर पेश होकर इन्हें सफ़ाई भी देनी पड़ती है. पर ये भी कम चालाक नहीं हैं, जैसा कि अदालतों में आम तौर पर देखा जाता है कि आरोपी और गवाह होस्टाइल हो जाते हैं – ये जनाब भी कुछ ऐसे ही हो जाते हैं. आरोप यह भी है एक बार 1989-90 में इस जनाब ने एक यात्रा निकाली थी और भड़काउु भाषण दिए थे जिसके चलते जगह-जगह दंगे भड़के और जान-माल की क्षति भी हुई. 2002 में गुजरात में इनकी पार्टी के शासन में एक ख़ास धर्म के लोगों का जमकर क़त्लेआम हुआ. कई स्वतंत्र जांच समितियों की रपट के मुताबिक़ चुन-चुन कर लोगों को जलाया गया था, गर्भवती महिलाओं के पेटों में तलवारें भोंक कर भ्रूण तक का ख़ून किया गया था. जान और अस्मत बचाकर भाग रही युवतियों को सिर पर केसरिया पट्टी बांधे ‘मर्दों’ ने खदेड़-खदेड़ कर पहले तो सामूहिक हवस का शिकार बनाया और फिर हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें सुला दिया था. इतिहास बताता है कि तब ये सख्श उपप्रधानमंत्री तो थे ही गृहमंत्री भी थे, पर इन्होंने इंसानियत के खिलाफ़ उस जघन्य अपराध की भर्त्सना भी नहीं की थी, कार्रवाई की बात तो दूर. और भी मौक़े आए जब इन्हें बोलना चाहिए था, न बोले. हालांकि मितव्ययी तो नहीं हैं. उडि़सा में कुष्ठरोगियों का इलाज करने वाले डॉ. ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को जब जिन्दा जला दिया गया तब भी कैलेंडर वाले ब्रह्मा से मिलते-जुलते शक्ल वाले इस शख्स ने कुछ ख़ास प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी.

विष्णु से मिलते-जुलते शक्ल वाले का कहना ही क्या. ऐसा शासन चलाया कि आज तक उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी की वापसी नहीं हुई. अब तो सुना है कि बड़ा बवाल मचा है पार्टी में और उनके हेडक्वार्टर में भी. अकाल में अपनी पार्टी के अध्यक्ष बनाए गए. जानकारों को मानना है कि इनकी चाल और इनका चरित्र तस्वीर वाले ब्रह्मा के शक्ल से मिलते-जुलते शख्स के चाल और चरित्र से अंतिम हद तक मेल खाता है. सिर्फ़ चेहरे में अंतर है. अध्यक्षासीन होते ही इन्होंने भी एक-आध यात्राएं निकालीं पर ज़्यादा माहौल न बिगाड़ पाए. कुछ अख़बारों ने तो टांय-टांय फिस्स ही कह दिया था.

महेशजी, तस्वीर में छपे महेशजी से मिलते-जुलते शख्स के बारे में एक बड़े हिस्से में यह भ्रांति है कि वे आदमी -अच्छे हैं पर उनकी पार्टी ग़लत है. बंदे को नहीं मालूम वे कैसे हैं और उनकी पार्टी कैसी है, पर ये लगता है कि ग़लत पार्टी तो दूर की बाद ग़लत समूह में भी अच्छा आदमी दो पल से ज़्यादा नहीं टिक सकता है. कैलेंडर वाले महेशजी से मिलते-जुलते शक्ल वाले महानुभाव ने लगभग अपनी पूरी उम्र उस पार्टी में गुज़ार दी. यानी बंदे का कहने का मतलब ये कि ग़लत या सही पार्टी और व्यक्ति एक जैसे ही हैं. और ग़लत या सही क्यों, दोनों ही ग़लत क्यों नहीं? जोधपुर में बंट रहे कैलेंडर में छपे महेशजी से मिलते-जुलते चेहरे वाले व्यक्ति इस देश के प्रधानमंत्री थे तब मरे हुए गाय के नाम पर कुछ दलितों को खदेड़-खदेड़ कर पीटा गया था और मार दिया गया था. खुले आम कुछ खिचड़ी दाढ़ी वाले बाबाओं ने गाय को इंसान से ज़यादा क़ीमती बताया था, तब एक बार भी महेशजी से मिलते-जुलते मुंह-कान वाले व्यक्ति ने उसका प्रतिवाद नहीं किया था. असल में, उनके बारे में बंदे की यही राय है कि पार्टी-वार्टी जो है सो है ही, तस्वीर वाले महेशजी जैसे दिखने वाले इंसान का व्यक्तित्व काफ़ी उथला रहा है. अपने शासनकाल में इस इंसान ने इंसानविरोधी कामों के लिए ख़ास व्यवस्था की थी, ख़ास तरह के लोगों को ख़ास-ख़ास मंत्रालय का जिम्मा दिया था. शिक्षा के साथ जो हुआ वो तो जगजाहिर ही है. अंधविश्वास, पुरोहिती और कर्मकांड को ऑफि़सियल बना दिया गया, विज्ञान-प्रदर्शनियों के उदघाटन के मौक़े पर देवी वंदना और नारियल फोडू कार्यक्रम होने लगे (हालांकि बाद वाले कभी-कभार पहले भी होते थे). काफ़ी हद तक इस इंसान के बारे में यह भी सच है कि जनहित की बातों को मसखरी में उड़ा देना इसकी प्रवृत्ति रही है. अब भी इस सख्स का नाम कभी-कभार कुछ अनाड़ी उत्साहित पार्टी कार्यकर्ता अगले प्रधानमंत्री के रूप में उछाल देते हैं.

बंदा तो तहे दिल से यही चाहता है कि ईश्वर की कृपा से उसने ग़लत तस्वीर देख ली हो या ख़बर ही प्लांटेड हो. बाई चांस ईश्वर की कृपा से दोनों में से कुछ नहीं हुआ तो बंदे की भावना को गहरी ठेस लगी है. इसके हज़ारों-हज़ार साल की मान्यता धुल गयी है.

22.9.07

बिल्‍ले का बवाल

कवना नंबर पर चल के बा?

चार पर

कवन गाड़ी? ‍

ग़रीब र‍थ.

हं चलिए न. इ समान है, दु आदमी से जाई. अस्‍सी रूपइय्या लागि‍.

अच्‍छा चलि‍ए

बंदा सामान उठाने में उनकी मदद करने लगा. अचानक बाजुओं पर निगाह पड़ी. कहा, एक मि‍नट रुकि‍ए, आपका बैज कहां है?

का पूछ रहे हैं आप? अधेड़ कुली ने अचरज से पूछा.

बिल्‍ला.

नहीं बान्‍हते हैं, कवनो बड़का हाकिम आता है तबे बिल्‍ला बान्‍हते हैं हमलोग दूर खड़े कुलियों की ओर इशारा करते हुए उन्‍होंने कहा, देखिए, है कौनो के बांह में?

कोई बात नहीं, हम और कुली देख लेते हैं कहकर बंदा स्‍टेशन छोड़ने आए अपने माता-पिता और बीवी-बच्‍चे से थोड़ी देर रुकिए यहीं कहकर कुलियों के दूसरे झूंड की ओर चल पड़ा. दस-बारह झूंडों के पास गया. नाकामयाब रहा. आखिरकार बंदा बग़ल के रेलवे थाने में दाखिल हुआ.

पहले दरवाज़े पर लाल-नीली पट्टी पर किसी साहब का नाम और ओहदा दर्ज था. साहब नदारद थे. थाने के हाते में था, लिहाज़ा बंदा सहम भी रहा था. दूसरे कमरे में आमने-सामने मेज़ें लगी थीं और उनके चारो तरफ़ कुर्सियां. अलग-अलग मुद्राओं में तीन सज्‍जन इतनी ही कुर्सियों पर विराजमान थे. दो बर्दीधारी और एक गुलाबी बुश्‍शट में. गुलाबी बुश्‍शट वाले जनाब के दाएं गाल में पान की गिलौरी थी. बयीं तरफ़, सज्‍जन गिलौरी दबा चुकने के बाद कागज पर से दायीं हाथ के अंगूठे की नाखून से चूना खरोंच रहे थे और तीसरे साहब ख़ैनी की रगड़ाई.

ग़लत जगह तो नहीं आ गया?, बंदे ने बाहर पट्टी देखा शायद ड्युटी रूम ही था.

अंदर पहुंचा भी नहीं था कि केकरो खोज रहा है का? गुलाबी कमीजधारी के मुंह से पिक के साथ छलका. नहीं, शिकायत लिखाने आया हूं कुलियों के खिलाफ़. कहकर बंदे ने कमरे का एक संक्षिप्‍त-सा मुआयना किया. कमर के नीचे कमरे में बैठने वालों द्वारा उगले पान, गुटखे और तम्‍बाकू और इन्‍हीं के पिक, थूक, इत्‍यादि का निरंतर सेवन करती अलमारी माफिक कोई आकार दीन-हीन अवस्‍था में पीछे खड़ी थी, जिसके सिर पर डोरियों में लिपटे दो-चार टॉर्च रखे थे. दीवार पर लक्ष्‍मी माई की तस्‍वीर वाला कैलेंडर चिपका था जिस पर किसी साड़ी शो रूम का नाम दर्ज था, और बंदे के ठीक सामने, दीवार पर चिर-परिचित मुस्‍कुराहट वाली राष्‍ट्रपिता की तस्‍वीर टंगी थी जिस पर ख़ूब सारा गर्द जमा था और नीचे जाले भी थे.

गुलबदनजी ने फिर उगला, का बात है, कउ ची के शिकायत लिखाना है? बंदे ने कहा, कुलियों का. गर्दन पीछे मोड़ी, पिच्‍च मारी, फिर मुख़ातिब हुए, बेसी पइसा मांग रहा है? बंदे ने कहा, पैसा तो ज्‍यादा मांग ही रहे हैं, उनकी बाजुओं पर बिल्‍ला भी नहीं बंधा है. बता सकते हैं तो प्‍लीज़ बताएं, किधर लिखी जाएगी शिकायत? ज़ायका ख़राब हो जाने का डर था. न बोले. दांतों को पान की कतराई में भिड़ा दिया.

काहे का नागरिक, कौन-सी नागरिक सेवा. शिकायत नहीं लिखना है, न लिखो, क़ायदे से पेश तो आओ. थोड़े-बहुत पढ़े-लिखों के साथ ऐसे पेश आ रहे हो तो अनपढ़ भोले-भाले ग़रीबों की तो रेल बना देते होगे सोचते हुए बंदा अब तक खैनी की खेल में मस्‍त बर्दीधारी से पूछ बैठा, लगता है आप यहीं के स्‍टाफ़ हैं, इतनी देर से ये जनाब मुझसे किस हैसियत से उलझ रहे हैं? खैनी फांक कर अपनी हथेलियों को रगड़ते हुए उन्‍होंने जवाब उछाला, हूं, का कष्‍ट हव?

आप यहीं तो बैठे हैं. कितनी बार मैं यहां आने का मक़सद बता चुका हूं, बंदे ने थोड़े और धैर्य के साथ कहा. सुनले रहतीं तो काहे कष्‍ट देतीं तोहरा के हम. जिन गुस्‍सीया अब, दोहरा द. इस उबाच के साथ उनके जूते जडित पांव मेज पर पसर गए.

यह अपमान की पराकाष्‍ठा थी. इसी ढिठाई, बदतमीज़ी, और कामचोरी के लिए ये जनसेवक हमारे ख़र्चे पर पाले जाते हैं सोचते हुए बंदे ने कहा, देखने में आप ठीक-ठाक लग रहे हैं, फिर भी नहीं सुन पाए तो आपके लिए एक बार फिर कहानी दुहरा देता हूं देखिए, पंद्रह मिनट तो मुझे इस कमरे में हो गए, इससे पहले क़रीब आधे घंटे से बाहर मैं कुली ढूंढ रहा हूं. एक भी कुली बिल्‍ले में नहीं है, पूछने पर कहता है, बिल्‍ला नहीं बांधते. उन्‍हीं की शिकायत दर्ज कराने आया हूं.?

अग्रेज़ी छांट रहा है? मुजफ्फ़रपुर स्‍टेशन पर तुमको कुलिए नहीं मिल रहा है? दुनिया भर के लोग आ-जा रहा है किसी को तुम्‍हारा जैसा प्राब्‍लम नहीं हुआ. जाओ इहां से दिमाग़ न चाटो, ‍अब तक चुपचाप पान घुला रहे दूसरे बर्दीधारी झल्‍लाए, जैसे किसी ने कच्‍ची नींद में झकझोर दिया हो. बंदे से रहा नहीं गया, उबल पड़ा, माफ़ी चाहूंगा आपकी नींद में खलल डालने के लिए, नहीं मालूम था कि ये आपके सोने का वक्‍त़ है और जगह भी. जग ही गए तो ये बताने की कृपा करें कि शिकायत दर्ज करना यहां किनका काम है? लगे हाथ आप अपना-अपना नाम और ओहदा भी बता दीजिए. ज़रूरत पड़ी तो आपके साहब से नालिश कर सकूंगा.

गुलबदनजी ने चुप्‍पी तोड़ी, आच्‍छा, त अब नामोपाता चाहिं, एसे पहिले कि धोआ जा इहवां, निकल ल. सुनते ही बंदे का ख़ून खौल उठा. धैर्य-वैर्य फेंक पड़ा, थाना ही है न ये? फिर ये गुण्‍डागर्दी कैसी? बिल्‍ला न बांधे जाने की शिकायत लाकर मैंने अपराध कर दिया? भीड़ में कोई सामान हेरफेर हो जाए, कुली से बिछुड़ जाएं तो क्‍या उपाय रह जाएगा? बिना बिल्‍ला वाले कुली से अपना सामान न ढुलवाएं और ऐसे कुलियों की शिकायत रेल पुलिस अथवा स्‍टेशन अधी‍क्षक से अवश्‍य करें. सुनते तो होंगे ये अनाउंसमेंट? सूरत, लुधियाना, दिल्‍ली, पता नहीं किस-किस शहर से लोग यहां पहुंच जाते हैं, लेकिन नशा खिलाकर, सुंधाकर यहां उनका सामान लूट लिया जाता है. आज का हिन्‍दुस्‍तान देखा है? इस स्‍टेशन पर ऐसे डेढ दर्जन मामलों की ख़बर तस्‍वीर के साथ छपी है. क्‍या जाने, कुछ कुली भी इस अपराध में शामिल हों. ठीक है, न कीजिए मेरी शिकायत दर्ज, मत बताइए अपना नाम. अधिकारियों को ये तो बता ही सकता हूं कि 18 मई को शाम 5.30 से 6.30 के बीच दो वर्दीधारी और एक गुलाबी कमीज़ वाले साहब ने रेलवे थाने के उस कमरे में मेरे साथ ऐसा सलूक किया था.

हेठी का नायाब नमूना था वह. त आप चाहते हैं कि हम कुलीअन से लड़ाई करे जाएं? अइसन होगा त हम दिन भर लड़ते रहेंगे, ख़ैनी के साथ सिपाहीजी ने थूका. ना भइया, ये उम्‍मीद से रउआ पास ना आइल रहिं, बाकी जब मूड बनाइए लेले बानि त कवनो बात ना अब स्‍टेशने सुप्रीटेंडेंट के लगे होखि सुनवाई, कहकर बंदा फ्रीज हो गया.

आच्‍छा चलिए, बताइए किधर है उ कुली? दूसरे सिपाहीजी सुगबुगाए. पहले वाले ने हाथ से इशारा किया, कुर्सी पीछे धकेली और बोल पड़े, रुकिए आप, हम जा रहे हैं, देखते हैं कवन माधरचोद है बिल्‍ला नहीं बान्‍हे वाला, सउंसे डंटा नूं पेल देंगे. चलिए भाई साहेब. कांख में बेंत दबाए वे बंदे के साथ हो लिए. इधर बंदे को देर होता देख रिश्‍तेदारों को चिंता होने लगी थी. तभी बिटिया की नज़र पड़ी, खिलखिला पड़ी, पापा आ गए.

अपनी बायीं ओर पर्याप्‍त मात्रा में थूक फेंक लेने के बाद आपहीं का लड़की है, केतना सुन्‍दर है कहकर उन्‍होंने एक प्रवचन-सा पिलाया, देखिए, आज कवनो ईमनदार है इ भारत देस में? कवनो नेता, कवनो मंत्री, कवनो हाकिम? जे विभाग में जाइए ओनहिं चोर, बईमान, भरष्‍ट भरल है. हमरा-आपका जइसन आदमी ईमनदारी के फेर में झुठ्ठे टाइम जियान करता है. अचानक किसी कुली को देखकर उनके तेवर बदले, का रे? तोहार बैचवा कहां है? जेबी में? जेबी में रखे के लिए है? माधरचोद. शिकायत हो गया त जेहले में संड़ जाएगा. जमानतो नहीं होगा. जाओ, भाई साहेब का समान पहुंचाओ. डंडा घुमाते हुए बंदे से मुख़ातिब हुआ, आच्‍छा, भाई साहेब ख़ुश हैं न. आउर कवनो सेबा.

19.9.07

राम सेतू, हेतु किसके ?

अपने भाई गिरिन्द्र ने अपने ब्लॉग पर पिछले हफ्ते का एक तजुर्बा शेयर किया था. वही रामसेतू के रखवालों? द्वारा किए गए जाम के बारे में दो-चार पंक्तियों में अपनी बात कहकर उन्होंने बीबीसी से साभार ख़बर का एक टुकड़ा भी लगाया था. उस पर कुछ 'राष्ट्रीय' प्रतीकों' के चौकीदारों (दावा तो यही करते हैं) ने अपनी प्रतिक्रियाएं दागी. दागीं इसलिए कह रहा हूं कि वे गोलियों से कम न मारक न थे. बचते-बचाते मैंने भी आत्मरक्षार्थ एक गोला तैयार किया. वैसे तो गिरिन्द्र भाई ने पहले ही इसे ब्लॉगल-विचरकों के लिए 'अनुभव' पर लगा दिया था. तरमीम के साथ मैं फिर एक आर आपके हवाले:

गिरीन्द्र, चलिए आपने बीबीसी से साभार एक ऐसा टुकड़ा अपने ब्लॉग पर लगा दिया कि हमारे रामभक्तों को लगने लगा कि उनके राम की छुट्टी की जा रही है। संजीवजी या हमारे ऐसे जितने मित्र हैं उनसे अनुरोध है कि इतने सशंकित न हों. राम को अपनी हिफ़ाजत के लिए कम से कम आप या भाई तोगडिया या उन जैसे लोगों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. आपकी सहुलियत के लिए बता दूं कि जब हम अभिवादन में राम-राम करते हैं तो उसका मतलब ये नहीं होता है कि हम आपके एजेंडे में शरीक हो रहे हैं, उसके वाहक हो रहे हैं.

भाई हमारा राम जो है, बड़ा भला इंसान है. वो यहां के हज़ारों-लाखों के दिलों में है. वो लड़ाकू तो बिल्कुल ही नहीं है. RSS Pt. Ltd. ने तो उसको गुंडा-मवाली टाइप बना दिया है. उससे ज़मीन क़ब्ज़ा करवाते हैं.‍ जहां-तहां हुड़दंग करवाते हैं. हमारा राम सीधा-साधा था. पता नहीं किस चक्कर में पड़ के समाज-विरोधी गतिविधियों में शामिल हो गया. मुझे लगता है वो ख़ुद ऐसी हरकत करता नहीं होगा, उसे ज़रूर कुछ गुण्डे उठा ले गए होंगे, या फिर किसी उसकी कनपटी में कट्टा लगा दिया होगा या गले में रामपुरी.

वैसे भी हमारे समाज में अपनी काया और अपने मेहनत पर भरोसा करने वाले अल्पसंख्यक हैं, बेचारे टाईप. जिन्हें अपनी काया और मेहनत पर यक़ीन नहीं है वे ही लोग ब्राह्मणवाद, देवी-देवता, ओझा-भगत, डाइन-जोगिन, भूत-पिशात, छूत-अछूत ... में भारी यक़ीन करते हैं, और दुसरों को ऐसा करने के लिए उकसाते हैं. अब तो तरह-तरह से मजबूर भी करने लगे हैं. हैरत देखिए कि जब कोई इनका भेद खोलने की कोशिश करता है तो ये उसके पूर्जे खोलने के चक्कर में लग जाते हैं. पूर्जा खोलना माने, अस्थि - पंजर छिटकाना. इसकी कई तरक़ीब हैं उनके पास जिसके बारे में खुलासा कभी और करेंगे.

असल में राम वैसे तो था बड़ा सीधा-साधा लेकिन राजगद्दी के चक्कर में उसने भी कम दाव-पेंच नहीं खेले. क्या है कि राजनीति में तो ये सब करना पड़ता है. गद्दी सामने देखकर लोग राजधर्म के नाम पर कभी-कभी ग़लती भी कर जाते हैं. तो अपना राम भी एक बार बताया कि भइया हमारे बारे में ग्रंथ वग़ैरह में काफ़ी कुछ फ़िक्शन भी लिखा है. इतना बड़ा मैं था नहीं लेकिन कुछ लोग तब भी मेरे नाम पर रोटी सेंकने की फिराक में था. मुझे पुरुषोत्तम बना दिया. भइया, मैंने स्त्री विरोध का काम भी ख़ूब किया, नहीं? सबसे बड़ा प्रमाण गर्भवती पत्नी सीता को जंगल भेज दिया. बाल-बच्च भी साधु के जिम्मे ही रहे. जब तक चाहा भाइयों को भी नचाया. ज्यादा से ज्यादा सेनापति वगैरह की जिम्मेदारी दी उन्हें, और शंबूक वाला प्रकरण तो तुम जानते ही हो, करना पड़ा.

तो क्या है कि आज भी रातोंरात रातोंरात अमीर, दबंग, प्रतिष्ठित, प्रभावशाली, वर्चस्वशाली बनने के लिए हमारे आस-पास के लोग कुछ भी छल-प्रपंच रच लेते हैं. आप ही बताइए जिसको कुछ लोग राम सेतू कह रहे हैं, अगर अपने रामजी ही बनवाए थे वानरों के लंका प्रवेश के लिए तो ठीक ही किया होगा. लेकिन देखिए, राम कितने कमज़ोर विवेक वाले राजा निकले. काम हो गया, सीताजी को ले आए, साथ में रावणजी का घर भी तोड़ दिया, उनके भाई को अपने में मिला लिया - उसके बाद तो उस ब्रिज को तो तोड़ देना चाहिए था न। नहीं किए, क्यों? सोचा होगा बाद में फिर कोई लफ़डा होगा? असल में उस समय का प्रोपर्टी डीलर, ठेकेदार वगैरह भारी पड़ गया होगा. मुझे तो ऐसा ही लगता है. देखिए न, आज भी यही हो रहा है न. अब उस दिन जो रामसेतू के नाम पर उधम-कूद मची दिल्ली में, क्या लगता है आपको सब जायज था?

इतने सारे पुल टूट रहे हैं या तोड़े जा रहे हैं - उसके खिलाफ़ देशभक्तों के मुंह से कभी बकार नहीं निकलती है. और तो और मंदिरों को बांध-वांध के चक्कर में डूबोया जा रहा है. गुजरात में ही ऐसा हुआ है. सरेआम मंदिरों और मजारों को ध्वस्त किया गया. महानायकों और ईश्वरों की पीढियों का हिसाब-किताब रखने वाली कंपनी का कोई कमांडर तक नहीं बोला कभी.

'अनुभव' पर अपने कुछ ऐसे ही भाइयों ने जिक्र किया था कि कुतुब मी‍नार के कारण मेट्रो का रास्ता बदल दिया गया, ताजमहल की सफ़ाई के नाम पर जनता के जुल्म हो रहा है उधर आगरा में, लेकिन उस पर 'अनुभव' वाले भाई या इन जैसे लोग कुछ नहीं लिखते हैं. मेरा उन भाइयों से कहना है कि मेट्रो की चपेट में कितने घर, कितने परिवार, कितने लोग आए - आपने सोचा नहीं होगा. सोचा भी होगा तो उस पर कभी बोलने की नहीं सोची होगी. जहां तक कुतुबर मीनार के कारण मेट्रो का रास्ता मोड़ने की बात है, तो मेरा कोई ख़ास आग्रह नहीं है रास्ता आपके सुझाए रखने के खिलाफ या जो हो रहा है उसके खिलाफ. भई, मुझे तो यही लग रहा है कि देसी-विदेशी लोग आते हैं - सरकारी कोष में कुछ पैसा चढ़ा जाते हैं. कुल मिला कर कुछ फायदा, अगर आप ख़ुद को भी देश का हिस्सा मानते हैं तो, हमारे नाम भी आ जाता है. ये अलग बात है कि जिस तरह उसे ख़र्च होना चाहिए था - वो नहीं हो पा रहा है. रही ताजमहल वाली बात, तो भइया, वहां भी यही बात लागू होती है. लेकिन वहां ताजमहल के गंदा होने के नाम पर कल-कारखाने हटाए जाते हैं या लोगों को परेशान किया जाता है, तो तकलीफ वाली बात तो है ही. पर इससे भी दुख की बात ये है कि RSS & Party को कभी इस बात से ऐतराज हुई हो और उसने कभी अपने सांसदो, विधायकों, या सभासदों को इस्तीफ़ा देने के लिए एक बार भी कहा हो - कहीं पढ़ने या सुनने को नहीं मिला.

तो अपने परिचित, मित्र, और कार्यकर्ता के तौर पर मैं संजीव जी (अनुभव पर प्रतिक्रिया देने वाले) या ऐसे भाइयों की बहुत इज़्ज़त करता हूं, पर आप और आप जैसे मुट्ठी भर बंधुओं (क्योंकि ज्यादातर को तो इन फूसफास में यकीन ही नहीं है) की भावनाओं का कद्र कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता हूं क्योंकि आपकी भावनाएं बेहद कमज़ोर हैं. बात-बात में आहत हो जाती हैं. कभी पुल से, कभी पेंटिंग से, कभी भोजन से, कभी ड्रेस से, कभी किताब से तो कभी वेलेंटाइन से. फिल्म और संगीत से तो अकसर आप जैसे मित्रों की भावनाएं ठेस खा जाती हैं. हर ठेस के बाद ऐसे ही कभी आप जैसे लोग जाम करते हैं, कभी पुतला फूंकते हैं (चाहते तो हैं वैसे आप पुतले के असली रूप को ही फूंकना), कभी लाठी चला देते हैं, कभी गोली चला देते हैं, कभी आग लगा देते हैं, कभी दंगा भड़का देते हैं. कभी-कभी तो आप जैसे कुछ मित्र सामूहिक बलात्कार भी कर लेते हैं महिलाओं के साथ. गिरिन्द्र भाई आपके माध्यम से मैं भाई संजीव और उन जैसे और भाइयों को यह सलाह देना चाहता हूं कि कृपया किसी अच्छे अस्पताल में अच्छे डॉक्टर से वे अपनी भावनाओं का इलाज कराएं. क्योंकि देखने में आया कि है कि पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में और ख़ासकर के हिन्दुस्तान के कुछ ख़ास हिस्सों में कुछ ख़ास तरह के लोगों में यह रोग तेज़ी से फैलाया जा रहा है. ख़बर ये भी है कि इस रोग को फैलाने में गुजरात प्रांत में एक अंग्रेजी पद्ध्‍ति से इलाज करने वाले एक डॉक्टर की बड़ी भूमिका है. बिना टैबलेट और इंजेक्शन के डॉक्टर साहब इस रोग का किटाणु दुनिया भर में फैला रहे हैं. सुना है कि उनकी वाणि विषैली है और यह अदृश्य किटाणु उनकी जिह्वा पर निवास करता है। अब तो ये भी सुनने में आया है कि डॉक्टर साहब हथियार भी बांटने लगे हैं. बताया जाता है कि तीन नोंक वाले इस हथियार से किटाणु की रक्षा होती है, और जो लोग इस किटाणु से बचने का उपाय करते हैं उनको