2.10.07

हजारी

तीन भाइयों के बीच
अकेली थी हजारी.
रमपुरा काकी कहती है
कि उसके जनमने पर उसके बाप ने
रेवाज के उल्टा
टोले भर में लड्डू बांटा था
इतरा कर बोला था कि
अपनी लछमी की शादी में
खूब लछमी खरचेंगे.
पांच साल की भी नहीं हुई थी वह
कि उसकी मतारी
कपड़ा-लत्ता, गहना-गु‍डिया, सांठ-सनेश
सब जोड़ने-चितने लगी थी.
काकी कहती है कि
रूप और गुण के आगर
हजारी के बियाह में
बूशट-पाइंट पहिन-पहिन के
बरातियों ने खूब डेंस किया था.
उसके बाप ने
पचास हजार नगद और फटफटिया
और मामा ने सिमेना देखने वाला टिबियो दिया था.
काकी कहती है
माघ में बियाह हुआ

जेठ तक सब ठीके चला

अषाढ़ में हजारी की एक चिट्ठी आयी

बाप से पांच हजार और मंगवाया था.

सावन में राखी के दिन

बड़का भैया तीन हजार दे आए

और कहे

कि बाकि नन्हकू लेके आएगा भादो पुरनेमा तक

बड़का भैया के आए हुए

दस दिन भी नहीं हुए

कि आज अखबार में

हजारी का बियाह वाला फोटो छपा है

और लिखा है

दो हजार के लिए उसके पति ने

उसके दोनों आंख निकाल लिए.

माथ पीट-पीट के काकी कहती है
अबकी अगहन में हजारी सोलह की हो जाती.

5 comments:

  1. मैंला आंचल और अपना अंचल आपमें गहरे तक धंसा है।... लाइव खबरें जहां चूक जाती है संवेदना पैदा करने में वो काम आपकी ये कविता कर -जाती है। मिजाज बदलने के लिए शुक्रिया।

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  2. अबकी अगहन में हजारी सोलह की हो जाती...
    हजारी की व्यथा-कथा बड़ी कारुणिक है। लेकिन वाकई मेरी समझ में नहीं आता कि हम में से कुछ नौजवान ऐसी जघन्यता पर कैसे उतर आते हैं। हर कोई तो दहेज को गरियाता रहता है। फिर जिंदगी में इसे उतारता क्यों नहीं? जीवन की असुरक्षा ने क्या उसे इतना निर्दयी बना दिया है?

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  4. हौसलाअफ़ज़ाई के लिए आप सभी भाइयों का शुक्रिया.
    अनिल भाई निश्चित रूप से ये सवाल हमारे मन को सालता है कि हममें कुछ नौजवान ऐसा अपराध कैसे कर जाते है. पर मैं एक प्रव़त्ति, बल्कि मनोवृत्ति की ओर आपको इशारा करना चाहूंगा जो बार-बार विनीतभाई ‘गाहे-बगाहे’ कर रहे हैं – पढ़े-लिखे वर्ग की कूढ-मगजी. मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो छात्र जीवन में बेहद प्रगतिशील थे, दिल्ली के हर जुलूस जलसे में आगे-आगे रहते थे, महिला अधिकारों पर महिलाओं से आगे और दलित सवालों पर दलित से ज़्यादा द्रवित रहते थे. ख़ूब अच्छी नारेबाज़ी करते थे – जब शादी हुई तो अपने गर्लफ़्रेंडों के मां-बाप को जमकर सोध. कई तो विश्वविद्यालय में अध्यापकी कर रहे हैं आज. प्रशासनिक सेवा में चुने गए कुछ लैला-मजनूं के किस्से का त्रासद अध्याय अभी तक चल रहा है. शाही शादी का ख़र्च ‘जानेमन’ के बाप ने उठाया, सुविधा और ऐश के तमाम साधन ‘गिफ़्ट’ में दामाद को दिया, उसके बावजूद छह महीने के अंदर ही ऐसी स्थिति आयी कि एक आधी रात ‘जानेमन’ घर से बाहर निकाल दी गयी. अगले दिन पता चला कि पिटाई-विटाई और मां-बाप के लिए गाली-वाली तो ससुराल पहुंचते ही मिलने लगी थी. कारण? दिल्ली के जीके में या फिर मसूरी में कोठी या बंगलो नहीं मिला. या फिर अरेंज मैरेज करता तो मर्सडिज़ मिलती, तेरे बाप ने क्या दिया?
    अपनी पत्नी दिल्ली की अदालतों में पारिवारिक मामलों पर ही वकालत करती हैं. उनके पास और भी भीभत्स किस्से और तजुर्बे हैं घरेलू हिंसा के. एक-आध हफ़्ते पहले हम किसी मित्र के यहां जा रहे थे. उनके सेल पर एक फ़ोन आया कि मैडम कल रात से (घरवाला) मार-पिटाई कर रहा है. 100 नंबर पर भी फ़ोन किया, कोई नहीं आया अब तक. सुबह नल पर ऐसा मारा कि मुंह नाक से खूब खून बहा है, और चेहरा सूज गया है. पड़ोसी भी नहीं आ रहा आगे ... (एक पुनर्वास बस्ती का किस्सा है)
    तो अनिल भाई मामला केवल हममें से कुछ नौजवानों का नहीं है. ‘चैतन्य’ नौजवानों का ज़्यादा है. अनपढ़ कम पढ़े-लिखे समाज के लिए ये पथ-प्रदर्शक हैं. इन पर निगाह रखने और इन्हें बेनक़ाब करना बेहद ज़रूरी है.

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