उनका बहुचर्चित उपन्यास 'सारा आकाश' हिन्दी की बेस्टसेलर पुस्तकों की सूची में शामिल है जिसकी अब तक दस लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. वे मीडिया में सबसे ज़्यादा छाए रहने वाले साहित्यकार हैं. संभोग से समाधि तक हर विषय पर माने हुए सूरमाओं से लेकर हर ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे तक को इंटरव्यू देने को तैयार रहते हैं. शायद इसलिए अशोक वाजपेयी कहते हैं - ''यादवजी ने जान-बूझ कर हिन्दी के सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका अख्तियार कर ली है.
वे 28 अगस्त को 79 साल के हो जाएँगे मगर जब आप उन्हें बुढापे की याद दिलाएंगे तो वे ज़ोरदार ठहाका लगायंगे - "अपने बुढापे की बात कर रहे हो क्या? मै तो अभी शिशु हूँ." और वाकई सारा जीवन उन्होंने एक शिशु की तरह ही बिताया है. परिवार की जिम्मेदारियों और घर-गृहस्थी की चिंताओं से मुक्त. विवादों, बहसों और अलोचनाओं के बीच वे हमेशा ठहाके लगाते मिल जाएँगे. अंसारी रोड, दरियागंज स्थित उनकी मासिक पत्रिका 'हंस' का दफ़्तर दिल्ली में शायद बौद्धिक अड्डेबाजी की सबसे मुफ़ीद जगह है .वे हिन्दी के शायद सबसे चर्चित (और विवादित भी) लेखक-संपादक हैं, जिनके लिखे और कहे पर अकसर हंगामा मच जाता है और रामझरोखे बैठ कर वे इन हंगामों का ख़ूब मज़ा लेते हैं. अपने अद्भुत प्रबंध कौशल के बूते अत्यन्त सीमित संसाधनों के बावजूद वे पिछले 22 सालों से 'हंस' जैसे लोकतान्त्रिक मंच को बचाय हुए हैं. 'हंस' के ज़रिए एक तरफ़ आत्मप्रचार से बचकर उन्होंने उत्कृष्ट कथाकारों-गद्यकारों की कई पीढियाँ तैयार की तो दूसरी तरफ़ दलित और स्त्री के सवाल को हाशिए से उठा कर मुख्यधारा में ला दिया.
वे अकसर बताते हैं - "मेरी साठ किताबें हैं और मुझे हर साल पौने दो, सवा दो लाख की रोयल्टी मिलती है." शक की गुंजाईश नहीं, क्योंकि उनका बहुचर्चित उपन्यास 'सारा आकाश' हिन्दी की बेस्टसेलर पुस्तकों की सूची में शामिल है जिसकी अब तक दस लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. वे मीडिया में सबसे ज़्यादा छाए रहने वाले साहित्यकार हैं. संभोग से समाधि तक हर विषय पर माने हुए सूरमाओं से लेकर हर ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे तक को इंटरव्यू देने को तैयार रहते हैं. शायद इसलिए अशोक वाजपेयी कहते हैं - ''यादवजी ने जान-बूझ कर हिन्दी के सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका अख्तियार कर ली है. रामविलास शर्मा पर 'हंस' में लिखे सम्पदाकीय में उन्होंने लिखा - 'रामविलास की जेब में हाथ डालने की आदत नहीं थी. बाद में नामवर सिंह ने इस कला का चरम विकास किया.' मज़े की बात है कि उन्हें भी जेब में हाथ डालने की आदत नहीं. एक-एक रुपया बहुत सोच-समझ कर ख़र्च करते हैं. उनके चाहने वालों की कोई कमी नहीं. हर साल उन्हें थोक में उपहार मिलते हैं - कुरते, घडियां, महँगी स्कॉच-वाइन की बोतलें, इम्पोर्टेड सिगरेट, किताबें, मोबाइल...मगर वे किसी को क्या उपहार देते हैं यह शोध का विषय है. अरसे पहले मन्नू जी ने 'हंस' में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य में नई कहानी आन्दोलन को याद करते हुए लिखा था - 'उन दिनों राजेंद्र बोलने में बहुत पिलपिले थे.' वे आज भी ऐसे ही हैं. 'हंस' के दफ़्तर की महफिलों में सबकी बोलती बंद करने वाले राजेंद्रजी मंच पर पिलपिले ही नज़र आते हैं. नामवर या कमलेश्वर की तरह मंच लूटने का कौशल उन्हें कभी नहीं आया. लालू यादव से लखटकिया पुरस्कार लेने के अपवाद को छोड़ दें तो पुरस्कारों के मामले में उनका दामन बेदाग़ ही रहा है. छोटे-बड़े दर्जनों पुरस्कार उन्होंने ठुकराएँ हैं और अपने मित्र स्वर्गीय कमलेश्वर की तरह राजनेताओं के साथ मंच पर बैठने से परहेज करते हैं. हाँ, नामवर सिंह के साथ वे मंच पर हों तो श्रोताओं को किसी दिलचस्प कॉमेडी फ़िल्म का मनोरंजन उपलब्ध हो जाता है. ये हैं राजेंद्र यादव. हिन्दी साहित्य के इस गॉदफ़ादर के लिए लम्बी उम्र की दुआ कौन नहीं मांगना चाहेगा?