19.7.08

हर ऐतबार से बेहूदी फिल्म है मोहनदास

नरेश गोस्वामी दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं और भारतीय समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) दिल्ली से संबद्घ पीएचडी फ़ेलो भी. कांवड़ संस्कृति पर बारीक निगाह थामे नरेशजी धर्म के कारोबार को समझना चाहते हैं . अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन भी करते हैं. पेश है ''मोहनदास'' पर उनकी राय:



कामरान मजहर की फ़िल्म " मोहनदास" हर ऐतबार से बेहूदा है. सबसे पहले मुख्य पात्र मोहनदास को ही लें. मूल कहानी में मोहनदास को दुरंगी चप्पल और कई साल पहले सिलवाये कपडों में दिखाया गया है. उसकी बदहाली का ज़िक्र करते हुए उदयप्रकाश बताते हैं की वह पैंतीस साल की उम्र में पचास का दिखने लगा था. फ़िल्म का मोहनदास इतना चिकना और चाकलेटी है कि ऐसे बाँके और गबरू जवान को तो साला कोई बिना योग्यता के ही नौकरी पर रख ले. इस मोहनदास की देह-भाषा में कहीं भी एक पीड़ित, वंचित और हर ढंग से पिटे आदमी का विषाद नहीं है. फ़िल्म में मूल कहानी का वह घर कहीं नहीं दिखता जिसमें ग़रीबी और बेबसी हर सुख को चाट गई है और जिसमें मोहनदास का पिता हर दम खांसता रहता है.
क्या दहशतज़दा और कभी न आनेवाली बारी के इंतजार में घुलता आदमी इतना संयत और संतवत दिख सकता है? इतना निर्देशकीय कौशल तो कामरान साहब किसी भी राह चलते आदमी से ले सकते थे कि डरे हुए आदमी कैसे दिखाया जाना चाहिए. पर हमारा यह फिल्मी मोहनदास तो इस दहशत के बीच भी सफ़ेद बुर्राक कुर्ता पहनना नही भूलता. इस मोहनदास पर कुपोषण का कोई असर नही पड़ा है. वह शुरू से लेकर आख़िर तक उतना ही गठीला क्यों दिखता है? फ़िल्म के

वह दृश्य याद कीजिये जिसमें मोहनदास के कमरे के आगे चैनल वाले दरवाज़ा खुलने के इंतज़ार में खड़े हैं. यहाँ माहौल कुछ इस तरह का बनाया गया है कि भीतर से एक थकी-हारी परेशान हडि़यल-सी काया नमूदार होगी पर मोहनदास इस भाव से निकलते हैं मानो अभी प्राणायाम और स्वाध्याय करके निपटे हैं. यही नहीं महिला पत्रकार मोहनदास के पीछे इस तरह डरते और सहमते हुए जाती है जैसे वह कोई बनैला पशु हो.

भीतर तो उससे कहीं ज़्यादा तनावग्रस्त चेहरा उस नकली मोहनदास का दिखता है जो असली मोहनदास के नाम पर ऐश कर रहा है. फ़िल्म के मोहनदास को देखकर दर्शक के मन में मुश्किल से ही सहानुभूति पैदा होती है जबकि कहानी में पाठक को बार बार रूलाई रोकनी पड़ती है. क्या फ़िल्म बनते ही कोई कहानी इतनी बेजान हो जाती है? मुझे लगता है कि कामरान "मोहनदास" कि मूल संवेदना तक पहुँच ही नही पाये. उन्हें बस शायद कुछ "हट के" बनाना था जिसके चक्कर में सब कुछ कूड़ा हो गया. मुझे नहीं पता कि किसी फिल्मकार को मूल कहानी के डिटेल्स को फ़िल्म में गूंथने में क्या-क्या दिक्कतें आती हैं. पर यारों अगर निर्देशक के पास वह सलाहियत नही थी तो इतना संवेदनशील काम हाथ में लेने के लिए किसने कहा था?
एक पल के लिए फ़िल्म को कहानी का विस्तार मानने के बजाय एक स्वायत्त रचना भी मान लें तो भी फ़िल्म के अहम किरदार किसी भी तरफ़ से जेन्यूइन नहीं लगते. शुरुआती शॉट में मोहनदास की माँ का पत्रकारों को लताड़ना गले नही उतरता. कोई दलित औरत जो ग़रीबी के साथ अपने इकलौते बेटे का दुःख भी ढो रही हो किसी ताक़तवर एजेंसी के साथ इस तरह पेश नहीं आ सकती. इस दृश्य में मेलोड्रामा भी इतना लाउड है कि खीज उठने लगती है.
ट्रीटमेंट के स्तर पर भी फ़िल्म में नाकाबिल-ए-बर्दाश्त झोल हैं. वह दृश्य याद कीजिये जिसमें मोहनदास के कमरे के आगे चैनल वाले दरवाज़ा खुलने के इंतज़ार में खड़े हैं. यहाँ माहौल कुछ इस तरह का बनाया गया है कि भीतर से एक थकी-हारी परेशान हडि़यल-सी काया नमूदार होगी पर मोहनदास इस भाव से निकलते हैं मानो अभी प्राणायाम और स्वाध्याय करके निपटे हैं. यही नहीं महिला पत्रकार मोहनदास के पीछे इस तरह डरते और सहमते हुए जाती है जैसे वह कोई बनैला पशु हो. मोहनदास के मामले में तो लगभग हर दृश्य में ऐसा लगता है जैसे वह अपने बारे में नहीं किसी दूसरे की तकलीफ़ बयां कर रहा है. अपनी पीड़ा के प्रति आदमी इतना परमहंस हो जाए तो न्याय-अन्याय का यह लफ़ड़ा ही ख़त्म हो जाए.
... थोडी खीझ कम हो तो और लिखूंगा.

2 comments:

  1. नहीं देखेंगे- कहानी ही एक बार फिर पढ लेंगे :)

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