मित्रों ये रहा शुद्धब्रत सेनगुप्ता के लेख अकथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्त रोग का आखिरी हिस्सा. इसे हिस्से में शुद्धा एक छोटी-सी तजवीज़ पेश करते हैं. क्या है ये तजवीज़ आप ख़ुद ही देख लीजिए. वैसे इस आखिरी हिस्से के साथ मुझे बस एक ही बात कहनी है कि पहले दो किस्तों तक तो पाठकों ने इस लेख पर अपनी राय दी. हालांकि ज़्यादातर फ़ोन पर ही. पर ज़रूरी ये है कि हम इस तरह के शोधपरक लेखों पर भी चर्चा करें.लेकिन अभी मेरी बात ख़त्म नहीं हुई है। अभी मैं अपनी एक छोटी सी तजवीज़ भी आपके सामने रखना चाहता हूँ। और
मेरी तजवीज़ ये है कि गालियों (जो औरतों से संबंध बनाने तक सीमित रह गई हैं) के इस अति दरिद्र भंडार में इज़ाफ़ा किया जाए और उनमें ऐसी अभिव्यक्तियाँ भी शामिल की जाएँ जो गालियों के तौर पर ज़्यादा मुफ़ीद हों (गाली लाज़िमी तौर पर मारक होनी चाहिए और मारक ही सुनाई भी पड़नी चाहिए, वर्ना तो भला उसका मतलब भी क्या रह जाएगा), उनमें भेदभाव की गुंजाइश कम हो (यानी उनको बोलने वाले के लिए और सुनने वाले के लिए भी इस्तेमाल किया जा सके और जिसके बारे में बात हो रही है उसके बारे में कुछ कहने की तो बात ही छोड़ दीजिए), उनमें माँ-बहनों के साथ इतना ज़िद्दी लगाव न हो, वे ग़ैर-मीसोजेनिस्ट हों, साफ़ तौर पर यौनिक मगर ग़ैर-सेक्सवादी, बल्कि सेक्सवाद विरोधी हों
मेरी तजवीज़ ये है कि गालियों (जो औरतों से संबंध बनाने तक सीमित रह गई हैं) के इस अति दरिद्र भंडार में इज़ाफ़ा किया जाए और उनमें ऐसी अभिव्यक्तियाँ भी शामिल की जाएँ जो गालियों के तौर पर ज़्यादा मुफ़ीद हों (गाली लाज़िमी तौर पर मारक होनी चाहिए और मारक ही सुनाई भी पड़नी चाहिए, वर्ना तो भला उसका मतलब भी क्या रह जाएगा), उनमें भेदभाव की गुंजाइश कम हो (यानी उनको बोलने वाले के लिए और सुनने वाले के लिए भी इस्तेमाल किया जा सके और जिसके बारे में बात हो रही है उसके बारे में कुछ कहने की तो बात ही छोड़ दीजिए), उनमें माँ-बहनों के साथ इतना ज़िद्दी लगाव न हो, वे ग़ैर-मीसोजेनिस्ट हों, साफ़ तौर पर यौनिक मगर ग़ैर-सेक्सवादी, बल्कि सेक्सवाद विरोधी हों और सुनने में सबको मज़ा आए।इस मुक़ाम पर मैं आपके सामने ऐसा ही एक शब्द उछालने जा रहा हूँ और मुझे उम्मीद ही नहीं बल्कि भरोसा है कि आप में से बहुत सारे लोग इस चुनौती को स्वीकार करेंगे और इससे कहीं ज़्यादा बेहतर शब्द गढ़ेंगे। मुझे यक़ीन है कि समय गुज़रने के साथ आप गालियों का एक भरा-पूरा भंडार इकट्ठा कर लेंगे और उनके सहारे हमारी रोज़ की बातचीत और मसालेदार बन जाएगी। मैं जो शब्द पेश करने जा रहा हूँ वह एक जाने-पहचाने शब्द से हूबहू मिलाता है। इस शब्द के साथ एक विस्फोटक सीत्कार निकलती है जो आवेग से लेकर गुस्सा दाँत भींचने, या उदासीनता, और यहाँ तक कि हैरानी, पस्ती और निराशा के भावों को व्यक्त करती है।
मैंने जो शब्द सोचा है वह ‘जहनचोद’। मैने पहले ही कहा था कि इसका उच्चारण कुछ ऐसे शब्दों से काफ़ी मिलता-जुलता है जिन्हें आपने भी बहुत बार सुना होगा। यह ईश्वर, नियति, औरों, वक़्त, समाज, प्रकृति और ख़ुद उस शख़्स के हाथों
मैंने जो शब्द सोचा है वह ‘जहनचोद’। मैने पहले ही कहा था कि इसका उच्चारण कुछ ऐसे शब्दों से काफ़ी मिलता-जुलता है जिन्हें आपने भी बहुत बार सुना होगा। यह ईश्वर, नियति, औरों, वक़्त, समाज, प्रकृति और ख़ुद उस शख़्स के हाथों चेतना, आत्मा और इसानी ज़ज़्बे के साथ शारीरिक संबंध को व्यकत करता है। यह एक ऐसा शब्द है जो इंसानी हालात में भारी विविधताओं को व्यक्त करता है और दूसरी तरफ़ हर उस ज़ेहन के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता भी दर्शाता है
चेतना, आत्मा और इसानी ज़ज़्बे के साथ शारीरिक संबंध को व्यकत करता है। यह एक ऐसा शब्द है जो इंसानी हालात में भारी विविधताओं को व्यक्त करता है और दूसरी तरफ़ हर उस ज़ेहन के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता भी दर्शाता है जिसकी कथित रूप से चुदाई हुई है। यह लैंगिक गाली नहीं है - इसे आप बेझिझक अपने ऊपर भी इस्तेमाल कर सकते हैं - ‘मेरा ज़हन चोद दिया’। यह गाली उन आधे-अधूरे समानार्थियों के मुक़ाबले भी काफ़ी बेहतर है जो जहाँ-तहाँ अभी भी सुनाई दे जाते हैं। ‘माइंडफ़क’ इसी तरह की एक गाली है। दक्षिण एशियाई भाषाओं में मैंने ‘चोद’ प्रत्यय पर ख़त्म होने वाली सिर्फ़ एक ऐसी गाली सुनी है जो लैंगिक अर्थों से आज़ाद है - ‘बोकाचोदा’ यानी मूर्ख़ चुदाईबाज़। यह एक बड़ी शोख़-सी बंगाली गाली है। मगर हिन्दुस्तानी में बंगाली का सबसे बेहतरीन प्रतिनिधि बनने की संभावना रखने वाले इस बोकाचोदा में भी ज़हनचोद जैसी अस्तित्वादी गहराई या व्यापक चोट करने का दम नहीं है।अब मीडिया को ही लीजिए। जब भी कभी हम कोई नई हिन्दी फ़िल्म देखने जाते हैं या क्रिकेट मैच अथवा सियासी बहस-मुबाहिसा सुनते हैं तो आप जानते हैं क्या होता है- हम सबका साला ज़हन चुद जाता है। आप में से जो लोग पंजाबी मिज़ाज के हैं और जो अपनी गालियों को संक्षेप में अनुनासिक अंदाज़ में देना चाहते हैं - जिन्हें ‘बैण ... ’कहना ज़्यादा पसंद है, वे लोग अब उतने ही मजे से ‘ज़ैण ... ’ कह सकते हैं। अब मैं अपनी दलील और अपने थके हुए ज़ेहन को राहत देना चाहता हूँ। मुझे उम्मीद है कि आगे से हामारी बातचीत कहीं ज़्यादा अभिव्यक्त होगी और हमारी ज़िन्दगी की नाक़ाबिले बयान चीज़ों को एक बार फिर आवाज़ मिल जाएगी।
साभारः चन्दन शर्मा
दिलचस्प लेख,
ReplyDeleteविचार अच्छा है देखिये बाकी लोग क्या क्रियेटिविटी दिखाते हैं ।
ये गलियाँ पहले ही स्कूल कॉलेज में सुनी हुईं हैं :-
ReplyDeleteबान्दरचोद साला बहुत बकरचोदी करता है, पूरे दिमाग मैया कर दी
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