अगर सेक्शुअलिटी और शारीरिक अभिव्यक्ति की भाषा रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा होते और उन पर खुलकर बात हुआ करती तो लोगों के दिमाग़ में ऐसे अंधेरे कोने ढूँढ़ना मुश्किल हो जाता जहाँ यहाँ-वहाँ हाथ मारने के ये इरादे पैदा होते हैं। उस स्थिति में ‘कमज़ोरी’ और ‘ताक़त’ जैसे साधारण शब्दों के इर्द-गिर्द कोई एक अर्थपूर्ण यौन भाषा रचना मुश्किल हो जाता।
आपके अन्तिम पैरा की बात मैंने ओशो के टेपों में भी सुनी थी.............. पर हजम नहीं कर पाया था ........... भोजन के मेटाफर से न सिर्फ़ समझ पाया बल्कि रिलेट भी कर सका........... आभार
आपके अन्तिम पैरा की बात मैंने ओशो के टेपों में भी सुनी थी.............. पर हजम नहीं कर पाया था ........... भोजन के मेटाफर से न सिर्फ़ समझ पाया बल्कि रिलेट भी कर सका........... आभार
ReplyDelete