तीज़-त्यौहार
पूरे क़स्बे का माहौल उत्सवी है। हरेक दिन कोई न कोई धार्मिक विधि-विधान होता रहता है। रक्षाबन्धन के चार-पाँच दिन
शाहजहाँपुर साम्प्रदायिक रूप से ‘संवेदनशील’ जगह है। आबादी में हिन्दू-मुसलमानों का अनुपात लगभग आधा-आधा है। पहले भी दंगे हुए हैं। होली के दिन ख़ासकर तनाव बढ़ जाता है। कारण यह कि उस दिन शहर में चार जगहों से नवाब के जुलूस निकलते हैं। एक दिन पहले किसी मुसलमान को कुछ रुपयों के एवज़ में नवाब बनने के लिए राज़ी किया जाता है। फिर रात भर उसे शराब पिलाई जाती है। सुबह शराब के नशे में धुत कर उसे नंगा किया जाता है फिर एक भैंसागाड़ी पर उसे बिठाकर जुलूस निकाला जाता है। रास्ते भर उसे लोग जूतों से पीटते रहते हैं। मकानों के ऊपर से बाल्टी भर-भर कर रंग फेंका जाता है। जिधर-जिधर से जुलूस निकलता जाता है वहाँ-वाहाँ रंग बंद होता जाता है। कभी प्रशासन ने इस पर रोक लगा दी थी. फिर अदालत से सांस्कृतिक परंपरा के नाम पर स्टे मिल गया है. अब प्रशासन की देख-रेख में यह जुलूस निकलता है। डीएम, एसडीएम और तमाम छोटे-मोटे अधिकारियों की निगरानी में मुख्य जुलूस हर साल मुस्लिम बहुल इलाक़े तक पहुँचता है और फिर पत्थरबाज़ी। नारे भी खुलेआम मुस्लिम विरोधी लगते रहते हैं।
आगे-पीछे बसों में भयानक भीड़ होती है। तक़रीबन एक ज़िम्मेदारी की तरह बहनें अपने भाइयों को राखी बाँधने आती हैं।होली का तो हाल पूछिए मत। क़स्बे में पहली होली के चार दिन बाद पहुँचा तो सब कुछ सूना। सब्ज़ी भी नहीं मिलती। सभी होटल बंद। एक महीना पहले से ही सामने वाले दर्ज़ी महोदय की दुकान रात-रात भर खुली रहती थी। बताते हैं कुछ दुकानदारों की साल भर की आमदनी होली की कमाई ही होती है। ज़िला मुख्यालाय यानी शाहजहाँपुर आने पर एक अज़ीब रस्म का पता चला। शाहजहाँपुर साम्प्रदायिक रूप से ‘संवेदनशील’ जगह है। आबादी में हिन्दू-मुसलमानों का अनुपात लगभग आधा-आधा है। पहले भी दंगे हुए हैं। होली के दिन ख़ासकर तनाव बढ़ जाता है। कारण यह कि उस दिन शहर में चार जगहों से नवाब के जुलूस निकलते हैं। एक दिन पहले किसी मुसलमान को कुछ रुपयों के एवज़ में नवाब बनने के लिए राज़ी किया जाता है। फिर रात भर उसे शराब पिलाई जाती है। सुबह शराब के नशे में धुत कर उसे नंगा किया जाता है फिर एक भैंसागाड़ी पर उसे बिठाकर जुलूस निकाला जाता है। रास्ते भर उसे लोग जूतों से पीटते रहते हैं। मकानों के ऊपर से बाल्टी भर-भर कर रंग फेंका जाता है। जिधर-जिधर से जुलूस निकलता जाता है वहाँ-वाहाँ रंग बंद होता जाता है। कभी प्रशासन ने इस पर रोक लगा दी थी. फिर अदालत से सांस्कृतिक परंपरा के नाम पर स्टे मिल गया है. अब प्रशासन की देख-रेख में यह जुलूस निकलता है। डीएम, एसडीएम और तमाम छोटे-मोटे अधिकारियों की निगरानी में मुख्य जुलूस हर साल मुस्लिम बहुल इलाक़े तक पहुँचता है और फिर पत्थरबाज़ी। नारे भी खुलेआम मुस्लिम विरोधी लगते रहते हैं। एक साल बाद अभी गया तो मोबाइल फ़ोन जगह-जगह बज रहे थे। लेकिन बाक़ी सब जस का तस।
गंगा स्नान एक स्थानीय पर्व है। ट्रैक्टरों में भर-भर कर लोग कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा नहाने जाते हैं। पिछले साल रेलवे के ऊपर बने फ़्लाई ओवर से एक ट्रैक्टर ट्रॉली पलटकर सीधे नीचे सड़क पर आखर गिरी तो चार मौतें हो गईं।
दर्ज़ियों की बात चली तो याद आया। पूरे शाहजहाँपुर में दर्ज़ी समुदाय की आबादी बहुत ज़्यादा है। प्रसिद्ध अभिनेता (रामगोपल वर्मा की फ़िल्मों वाले) राजपाल यादव इसी ज़िले के हैं। उन्होंने भी कभी दर्ज़ी बनने का प्रशिक्षण लिया था। दरअसल यहाँ एक प्रतिरक्षा वस्त्र कारख़ाना है। हरेक साल कुछेक युवक उसमें अप्रेन्टिसशिप करते हैं, जिन्हें बाद में जगह होने पर दर्ज़ी की नौकरी मिल जाती है। रियटायर होने के बाद या नौकरी न मिलने की सूरत में ये लोग दुकान खोल लेते हैं। अब्दुल हमीद रहने वाले गाज़ीपुर के थे। पाकिस्तान के साथ सन् 71 की जंग में वे मारे गए थे। दर्ज़ा 8 में शहीदों की जीवनियों के एक संग्रह में मैंने उनकी जीवनी पढ़ी थी। तब सैनिक बनने का सपना भी देखा था। उनके नाम पर शाहजहाँपुर में पुल देखा तो थोड़ा आश्चर्य हुआ। पता चला कि वे भी दर्ज़ी समुदाय के थे इसलिए उनके नाम पर इक्कीसी समुदाय साला जलसा भी करता है।
इस कारख़ाने में कभी समाजवादियों और वामपंथियों की यूनियन का दबदबा था। अब उसके नाम से राम लीला ही महत्त्वपूर्ण रह गयी है. लेकिन इसे भी कोई छोटी-मोटी चीज़ न समझें. ख़ुद राजपाल भी इसी की पैदाइश हैं. जगदीशचंद्र माथुर, भुवनेश्वर से अब तक यह परंपरा सुरक्षित है। शाहजहाँपुर जा कर ही समझ में आया कि मुझे चाँद चाहिए की
शाहजहाँपुर जा कर ही समझ में आया कि मुझे चाँद चाहिए की नायिका का घर शाहजहाँपुर में होना कोई आश्चर्य नहीं है। नाटक नवयुवकों-युवतियों के लिए मुक्ति का एक रास्ता है। ‘गाँधी भवन’ नामक रंगशाला की मिसाल लखनऊ के अलावा उत्तर प्रदेश में और कहीं नहीं मिलेगी। हरेक साल के नाट्य समारोहों में तक़रीबन सभी महत्वपूर्ण टीमें भाग लेती हीं।
नायिका का घर शाहजहाँपुर में होना कोई आश्चर्य नहीं है। नाटक नवयुवकों-युवतियों के लिए मुक्ति का एक रास्ता है। ‘गाँधी भवन’ नामक रंगशाला की मिसाल लखनऊ के अलावा उत्तर प्रदेश में और कहीं नहीं मिलेगी। हरेक साल के नाट्य समारोहों में तक़रीबन सभी महत्वपूर्ण टीमें भाग लेती हीं। इसके अतिरिक्त ‘स्पिक मैके’ की इकाई होने की वजह से शास्त्रीय संगीत भी लोगों को सुनने को मिल जाता है।ऑर्डिनेन्स क्लोनिंग फ़ैक्टरी के अलावा चीनी मिलें ही महत्त्वपूर्ण उद्योग हैं। हालाँकि ज़्यादातर चीनी मिलें सहकारिता क्षेत्र में हैं लेकिन सहकारिता के किसी भाव को जन्म देने के बजाए वे अधिकारियों की जेबें भरने का माध्यम हैं और घाटे में चल रही हैं।
शिक्षा
ज़िला मुख्यालय में एक पुराना अल्पसंख्यक महाविद्यालय गाँधी फ़ैजे आम कॉलेज है। इसके अलावा कुछ सनातनी धर्मगुरुओं द्वारा खोला गया स्वामी शुकदेवानंद कॉलेज भी है जिसके अध्यक्ष पूर्व गृहराज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद हैं। लड़कियों का एक डिग्री कॉलेज आर्यसमाजियों ने खओला है। तमाम कॉलेजों की प्रबंध समिति में झगड़ा-फ़साद चलता रहता है। अब से पहले किसी कॉलेज में छात्र संघ नहीं था और विद्यार्थियों के साथ प्राइमरी स्कूल जैसे अनुशासन के पक्षधर आम तौर पर अध्यापक हैं। ईसाई लोगों द्वारा स्थापित नेवटेक्निकल इंस्टीट्यूट है जिसके अध्यक्ष आशीष मैसी भाजपा के सक्रिय सदस्य हैं।
कॉलेजों के बाहर कुछ बेहतरीन पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं जिनमें एक हृदयेश हिन्दी कहानी में महत्त्वपूर्ण शख़्सियत हैं। 75 साल के ऊपर के होने के बावजूद सक्रिय हैं। सोने के पुराने व्यापारी श्याम किशोर सेठ हिन्दी की एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका का संपादन किया करते थे। स्थानीय स्तर पर ज़िलाधिकारी के निज़ी सहायक चंद्रमोहन भी पढ़ते-लिखते रहते हैं। यही वह मंडली थी जिसके सहारे छह साल का जीवन चल सका।
बाहर की आँख शायद ज़्यादा ही विशेषताओं पर ज़ोर देती है। मसलन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरे मित्र पहले दोपहर में सोने की आदत पर मुझे गाली दिया करते थे। यहीं आकर मैंने देखा कि पुवायाँ या शाहजहाँपुर में मुझे दोपहर में सोता कोई नहीं दिखाई पड़ा। ‘दुकान मेरा मन्दिर’ का अर्थ भी यहीं समझा। हर कोई अपनी दुकान पर पूरी तरह फ़िट-फ़ाट होकर दिखाई पड़ता है। पूर्वी इलाक़ों में संयुक्त परिवार एक ऐसा आदर्श है जिसके न होने पर अफ़सोस आप हर किसी के मुँह से सुनिएगा। लेकिन इस इलाक़े में विवाह के बाद लड़के को पारिवारिक संपत्ति में उसका हिस्सा देकर अलग कर देना बुरा नहीं समझा जाता।
एक हद तक व्यापारिक संस्कृति के हावी होने के कारण मेरे ट्यूशन न पढ़ाने पर लोगों को अचरज होता था। हर कोई
मेरे ट्यूशन न पढ़ाने पर लोगों को अचरज होता था। हर कोई शादियों में जाने के लिए सूट सिलवाकर रखता है। बच्चे के 16 साल का होते-होते उसे धंधे में डालने की हड़बड़ रहती है। शायद हरेक शहर ऐसा ही होता हो लेकिन यहाँ के लोग पूरब यानी बनारस के लोगों को काहिल और दरिद्र समझते हैं। यहीं आकर मैंने ईमानदार और बेईमान की नई परिभाषा सुनी और समझी। ईमानदार वह अधिकारी या कर्मचारी है जो घूस लेकर काम कर दे। जो पैसा लेकर भी काम न करे बेईमान तो उसे ही कहा जाएगा।
शादियों में जाने के लिए सूट सिलवाकर रखता है। बच्चे के 16 साल का होते-होते उसे धंधे में डालने की हड़बड़ रहती है। शायद हरेक शहर ऐसा ही होता हो लेकिन यहाँ के लोग पूरब यानी बनारस के लोगों को काहिल और दरिद्र समझते हैं। यहीं आकर मैंने ईमानदार और बेईमान की नई परिभाषा सुनी और समझी। ईमानदार वह अधिकारी या कर्मचारी है जो घूस लेकर काम कर दे। जो पैसा लेकर भी काम न करे बेईमान तो उसे ही कहा जाएगा। इसे शाहजहाँपुर में जुगाड़ कहते है। इसे हँसी में लोग टेकनीक भी कहते हैं।तो जुगाड़/टेकनीक के काम करने का तरीक़ा कुछ इस तरह था। बैलगाड़ी में बैल की जगह डीज़ल इंजन लगाकर उसे चलाते हुए गाड़ी पर कुछ सामान लेकर लोग खेत तक जाते। फिर इंजन को कुएँ में लगाकर खेत में पानी पटाते और फिर उसी तरह वापस आ जाते। इसे वहाँ ‘मारूता’ कहते हैं। ‘मारूति’ का मर्दाना संस्करण। इसी से थोड़ी दूरी तक सवारियाँ भी किराए पर ढोई जातीं। कहते हैं देवेगौड़ा के ज़माने में इस टेकनीक के बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने सुना तो भारतीय प्रधानमंत्री से इसके निर्यात की गुज़ारिश की। देवेगौड़ा जी ने कहा कि उसी टेकनीक से तो मेरी सरकार चल रही है निर्यात कैसे करूँ। इस टेकनीक से सारे काम हो जाते हैं। ऐसा भरोसा यहाँ के लोगों को था। कॉलेज में ऐडमिशन हो चुके हैं। रास्ते में एक सज्जन नमस्कार कर ऐडमिशन के लिए पूछते हैं। बताता हूँ - ‘अब कोई संभावना नहीं है।’ ‘कोई जुगाड़ नहीं हो जाएगा?’ प्रश्न है।
आबादी में ब्राह्मण समुदाय की बहुतायत है लेकिन पेशे के लिहाज़ से पिछड़पन नहीं है क्यों कि हरेक पेशे में ब्राह्मण समुदाय के लोग है। खेती में धनी, हथियार लैस और जातीय अहंकार, ऊपर से ख़ान-पान की शुद्धता का अतिरिक्त आग्रह। सभी प्रकार के अपराधों में भी लिप्त। कॉलेज में एक सज्जन एक छात्र की सिफ़ारिश के लिए आए। मैंने परिचय पूछा तो बोले मुझे नहीं जानते? मैं धारा 376 का मुज़रिम हूँ। मैं तो सन्नाटे में आ गया। बाक़ी समुदायों में ब्राह्मण विरोध इसलिए बहुत ज़्यादा है। यह समुदाय एक क़बीले की तरह रहता है। कोई आदमी उतना ही ताक़तवर हैं जितने ताक़तवर उसके रिश्तेदार हैं। ताक़त का मतलब बन्दूक़ें। जिनसके पास बन्दूक़ का लाइसेंस है उसके पास शादियों में जाने के लिए सर्वाधिक निमंत्रण आते हैं। फिर तो फ़ायरिंग का कम्पीटिशन होता है। कहते हैं कई लोग इसमें मारे भी जाते हैं।
पुवायाँ और शाहजहाँपुर के व्यापारियों ने बताया कि शुरू-शुरू में कुछेक गाँवों के लोग दुकानों पर से ज़बर्दस्ती सामान उठा ले जाते थे। फिर व्यापिरयों ने दुकानों पर बतौर नौकर उन्ही गाँवों के दबंग लोगों के बच्चो को रखना शुरू किया। इसे ‘कुत्ता रखना’ भी कहा जाता है।
सूदखोरी यहाँ मुख्य धन्धा है। सूद पर रुपया चलाने वालों को पेशेवर लोग रुपया देते हैं 2.5 प्रतिशत छमाही के चक्रवृद्धि ब्याज पर। वे इसे बाक़ी क़र्ज़ माँगने वालों को 4 प्रतिशत छमाही चक्रवृद्धि ब्याज पर देते हैं बदले में गिरवी के बतौर कोई अभूषण रखा जाता है। इसे ही ‘गिरवी गाँठ’ कहते हैं। खेतों में फ़सलों के साथ उगने वाले खरपतवार को गुल्ली-डंडा कहा जाता है। ‘खरपतवार नाशक’ की बजाय ‘गुल्ली-डंडा से छुट्टी’। उलटने को ‘लौटना’ बोलते हैं। ‘दूध लौट दिया’। शाहजहाँपुर शहर के बीच एक सड़क खड़ी माँग की तरह आर-पार गुज़रती है। इसे नागार्जुन जी ‘सदा सुहागिन सड़क’ कहते थे।
पत्रकारिता आम तौर पर क़स्बाई है। विज्ञापन लेने के लिए अफ़सरों के यहाँ पत्रकारों को घूमते-फिरते देखा जा सकता है। एक पत्रकार अपने पेशे के बल पर दो-दो अवैध जीपें चलवाते थे। एक पत्रकार के यहाँ क्रशर मालिक खांडसारी पहुँचाते थे। हमारे प्रिंसिपल कहते - लोकतंत्र के चौथे खम्भे की क़ीमत दो बोरा चीनी है। इसी में युवकों की भारी फ़ौज कॉलेजों से किसी तरह डिग्री हासिल करने के लिए कुंजियों और ट्यूशन के सहारे परीक्षा में उतरती है। असफल लोग नाटक में अपनी क़िस्मत आज़माते या फिर छोटा-मोटा धंधा कर लेते हैं। किसी दिन स्थिरता हासिल होगी इसी आशा से आपाधापी में लगे रहते और बूढ़े हो जाते हैं।
आबादी में ब्राह्मण समुदाय की बहुतायत है लेकिन पेशे के लिहाज़ से पिछड़पन नहीं है क्यों कि हरेक पेशे में ब्राह्मण समुदाय के लोग है। खेती में धनी, हथियार लैस और जातीय अहंकार, ऊपर से ख़ान-पान की शुद्धता का अतिरिक्त आग्रह। सभी प्रकार के अपराधों में भी लिप्त। कॉलेज में एक सज्जन एक छात्र की सिफ़ारिश के लिए आए। मैंने परिचय पूछा तो बोले मुझे नहीं जानते? मैं धारा 376 का मुज़रिम हूँ। मैं तो सन्नाटे में आ गया। बाक़ी समुदायों में ब्राह्मण विरोध इसलिए बहुत ज़्यादा है। यह समुदाय एक क़बीले की तरह रहता है। कोई आदमी उतना ही ताक़तवर हैं जितने ताक़तवर उसके रिश्तेदार हैं। ताक़त का मतलब बन्दूक़ें। जिनसके पास बन्दूक़ का लाइसेंस है उसके पास शादियों में जाने के लिए सर्वाधिक निमंत्रण आते हैं।
शाहजहाँपुर के मेरे मित्र कुलदीप भागी के ज़िक्र के बगैर तो बात अधूरी रह जाएगी। शहर के आलीशान सिनेमा हॉल, निशात टॉकीज़ के मालिक श्री भागी फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान, पूना में पढ़े थे तथा शाहजहाँपुर में लगातार अपने स्तर के लोगों को बातचीत के लिए ढूँढ़ते रहते थे। बासु भट्टाचार्च की फ़िल्म तुम्हारा कल्लू में उन्होंने अभिनय भी किया था। इस वजह से उनका एक नाम कल्लू भी था। शाम को दारू पी लेते और चटनी से लेकर सिगार तक हर विषय पर बातचीत करने में सक्षम हो जाते। मेरे शुभाकांक्षी होने के नाते हमेशा मुझे शाहजहाँपुर छोड़ने की सलाह देते रहते। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्विद्यालय, वर्धा से अस्थायी नियुक्ति का पत्र मिलते ही मैंने उनकी इच्छा का समान किया और उत्तर आधुनिक समय में कूद पड़ा। वह कहानी फिर कभी।
Rakesh bhai,
ReplyDeletebahut barhia memoir nikal liya blog se...
ab gopalb bhai sahab ka cell ya contact no. bhi bata dijiye
शुक्रिया.
ReplyDeleteगोपालजी का नंबर मैं आपको दो दिन के अंदर दे दूंगा. वैसे फिलहाल ई मेल से काम चल सकता हो तो चलाएं.
gopaljeepradhan@rediffmail.com