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पुरानी बात है. कलकत्ते में कोई कार्यक्रम था. कुछ लोगों के बोल लेने के बाद मुझे बुलाया गया था भाषण करने के लिए. भाषण समाप्त होने के बाद एक सज्जन आए. कहा, मेरी बातें उन्हें अच्छी लगी. अपना नाम उन्होंने पृथ्वीराज बताया और ये भी बताया कि वे नाटक वगैरह करते हैं. उसके बाद तो समझिये कि ऐसी दोस्ती हो गयी हमारी कि एक-दूसरे के घर आना-जाना शुरू हो गया.
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एक बार पृथ्वीराज अपनी नाटक टोली के साथ यहां आए. दस दिनों तक लगातार जगह-जगह उनके नाटक होते रहे. लोगों ने बड़ा सराहा उनके नाटकों को. बड़े अच्छें दिन थे वे. पृथ्वीराज तो आए ही, राज और शशि भी आते रहे ‘निराला निकेतन’. यहीं गाय, कुत्ते, बिल्लियों के बीच हमारी मंडली जमती. मैं भी बंबई उनके घर जाया करता था. कई बार लंबी छुट्टी उनके घर पर बिताई है मैंने.
फिल्म में काम? कभी ऐसी बात मेरी दिमाग़ में नहीं आयी. न, न ... लोकप्रिय होने का कोई काम मैंने अपने जीवन में नहीं किया. किसी ने कहा भी हो तो मुझे याद नहीं, पर मैंने कभी नहीं चाहा....
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