11.8.08
7.8.08
इसी ख़ुशी में वोडका आज मेरी तरफ़ से
पिछली मर्तबा आपने देखा कि जवाहर के ठीहे के आसपास मज़दूर किस तरह पुलिसिया जुल्म का शिकार बनते हैं। अब आगे पढिए आदर्श और उनके पुराने मित्र एहसान की मुलाक़ात किस तरह होती है।
आम तौर पर एएमयू के किसी अन्य एल्युम्नायी की तरह एहसान भी हमेशा एएमयू की समृद्ध परंपरा का जमकर
वैसे तो एहसान फक्कड़ मिजाज़ी इंसान है, उसकी रोज़मर्रा आम तौर पर उसे भी मालूम नहीं होती। बिना किसी को बताए आठ-आठ दिनों तक शहर से ग़ायब हो जाना, दिन-दिन भर खाना नहीं खाना, जमकर दारू पीना, सिगरेट तो जैसे उसकी प्रेमिका है, हमेशा उसे दिल के पास कमीज़ की जेब में ही रहती है। लेकिन आज उसे देखकर आदर्श बाबु से रहा नहीं गया, ‘कितने दिन हो गए दारू पिये? लगता है बहुत दिनों से गला तर नहीं हुआ है नहीं तो अब तक तो एहसान कई किस्से सुना चुका होता।’
गुनगान करता है। वहां गुज़ारे अपने दिनों के किस्से वह यार दोस्तों के बीच इतनी बार सुना चुका है कि अब तो कई बार ऐसा होता है कि जैसे ही वह किसी वाक़या की शुरुआत करता है दोस्तों में से कोई न कोई उसे सफलतापूर्वक पूरा कर देता है। वही एहसान तीसरा पैग गटकने के बाद नूर, मज़ाज, फैज़, साहिर, कलिम अज़ीज और न जाने किन-किन के नाम पर शे’र-ओ-शायरी की जमकर बर्बादी करने लगता है। उसकी इस हरकत से आदर्श बाबु तो क्या, समूची मंडली यह मान लेती है कि ग़ालिब की असली औलाद वही है। नौबत यहां तक आ जाती है कि उसे चुप रहने के लिए ‘सामूहिक धमकियां’ मिलने लगती है। स्मृति न हो तो यारों के आगे उसकी चूं भी न निकले। वह इस तीसरे पैग के बाद वाले एहसान की फ़ैन है। एहसान के शायरी उगलने भर की देरी है, स्मृति की रेनॉल्ड्स डायरी पर अपना काम शुरू कर देती है। अकसर ऐसा होता है कि हू-ब-हू डायरी पर न उतार पाने के कारण स्मृति ‘वाह! वाह! एक बार और एहसान!’ कहती है। फिर तो एहसान स्मृति के निवेदन में न केवल पिछली शायरी को धीमी गति के बुलेटिन की तरह पढ़ता है बल्कि अंग्रेज़ी में उसके माने भी बताता है।बहुत दिनों बाद आज दफ़्तर से लौटते वक्त माल रोड पर एहसान और आदर्श बाबु का आमना-सामना हो गया। बड़ी उत्सुकता से दोनों सड़क पर ही गले मिले। ‘कहां हो एहसान आजकल तुम, बिल्कुल दिखना बंद हो गए’, आदर्श बाबु ने पूछा। ‘यहीं हैं, आपके ही शहर में। ख़ाक छान रहे हैं। आप बताईए, कैसा चल रहा है आपका रिसर्च?’ एहसान ने चेहरे पर सहजता ओढ़े हुए बोला। लेकिन आदर्श बाबु भी कम नहीं हैं। किसी सधे हुए भाव विशेषज्ञ की तरह उन्होंने कहा, ‘पुत के पांव पालने में दिख जाते हैं एहसान मियां! मुझसे मत छुपाओ। वैसे भी यार, डॉक्टर से बीमारी, वकील से जुर्म और दोस्तों से परेशानी नहीं छुपाया करते हैं।’
‘क्या बात है! आप तो आज बुजुर्गों की तरह बात कर रहे हैं। सब ठीक-ठीक तो है? लगता है मोहतरमा वकील साहिबा
आप तो साला सीबीआई की तरह सबकुछ एक ही बार में उगलवा लेना चाहते हैं। चलिए एक ख़ुशख़बरी देता हूं, मुस्लिम पॉलिटिक्स वाला मेरा पेपर ब्राजील वाले यूथ कॉन्फ़्रेंस के लिए सिलेक्ट हो गया है। कल ही कंफ़र्मेशन आया है। टू ऐंड फ़्रो हवाई जहाज का टिकट भेज रहे हैं, साथ में अच्छा-ख़ासा परडियम भी है। चलिए, दूसरी ख़ुशख़बरी भी दे ही दूं। एक जगह बात चल रही है काम की, अपने मन का तो नहीं है लेकिन पैसा ठीक-ठाक ऑफ़र कर रहे हैं।
ने आपको भी कुछ जुमले सिखा दियें हैं’, एहसान ने एक बार फिर सामान्य दिखने की कोशिश की। वैसे तो एहसान फक्कड़ मिजाज़ी इंसान है, उसकी रोज़मर्रा आम तौर पर उसे भी मालूम नहीं होती। बिना किसी को बताए आठ-आठ दिनों तक शहर से ग़ायब हो जाना, दिन-दिन भर खाना नहीं खाना, जमकर दारू पीना, सिगरेट तो जैसे उसकी प्रेमिका है, हमेशा उसे दिल के पास कमीज़ की जेब में ही रहती है। लेकिन आज उसे देखकर आदर्श बाबु से रहा नहीं गया, ‘कितने दिन हो गए दारू पिये? लगता है बहुत दिनों से गला तर नहीं हुआ है नहीं तो अब तक तो एहसान कई किस्से सुना चुका होता।’ हाज़िरजवाबी एहसान कहां पीछे रहने वाला था। ‘आप तो साला सीबीआई की तरह सबकुछ एक ही बार में उगलवा लेना चाहते हैं। चलिए एक ख़ुशख़बरी देता हूं, मुस्लिम पॉलिटिक्स वाला मेरा पेपर ब्राजील वाले यूथ कॉन्फ़्रेंस के लिए सिलेक्ट हो गया है। कल ही कंफ़र्मेशन आया है। टू ऐंड फ़्रो हवाई जहाज का टिकट भेज रहे हैं, साथ में अच्छा-ख़ासा परडियम भी है। चलिए, दूसरी ख़ुशख़बरी भी दे ही दूं। एक जगह बात चल रही है काम की, अपने मन का तो नहीं है लेकिन पैसा ठीक-ठाक ऑफ़र कर रहे हैं।’ आदर्श बाबु ने तपाक से कहा, ‘बधइयां! मियां बधइयां! तुम तो बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल हो गए। एक साथ दोनों हाथों में लड्डू। चलो, इसी ख़ुशी में वोडका आज मेरी तरफ़ से।’ ‘क्या बात है! ग़ालिब की परेशानियां भी ऐसे ही दूर हुआ करती थीं’, चहका एहसान। अब दोनों ख़ैबर पास वाले ठेके की ओर चल पड़े।5.8.08
फेर काल एगो झल्लीवाला को पीट दिया
आदर्श बाबु आज अपने स्वभाव के विपरीत सुबह छह बजे ही उठ गए थे। उन्हें अपने पिताजी को लेने स्टेशन जाना था।
देख लिए न सर, इ भोंसड़ी वाला सब अइसहिए तंग करता है। सब जानते हैं कि इहां बुकिंग होती है, माल बुक करने वाले जितने ठीकदार हैं सबके पास लाइसेंस है। बजार के असोसिएशन ने दिया सबको लाइसेंस। अब आप ही बताइए कि जहां माल बुक होगा उहां ठेला खड़ा नहीं होगा और माल नहीं रखा रहेगा कहां रहेगा। भीड़ त होइबे करेगा इहां। इ स्साला स को महीना में पइसा भी बंध हुआ है सबसे, तभियो आ जाता है तंग करने। अभी तो कुछो नहीं किया है, इ सब तो बहुत बुरा वेहवार करता है हमलोगों के साथ। बहुत ख़राब-ख़राब गाली बकता है और उटपटांग ढंग से लाठियो भांज देता है कभी-कभी)
पिछली बार जब आदर्श गांव गए थे तो देखा था कि पिताजी पहले से काफी कमज़ोर हो गए हैं। यह भी पता चला था कि पिछले कुछ दिनों उनकी तबीयत भी ख़राब चल रही है। लौटते समय उन्होंने पिताजी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि गेहूं की कटनी हो जाने के बाद कुछ दिनों के लिए वे दिल्ली आ जाएं। एम्स में चेक-अप’ करवा लिया जाएगा और कुछ दिन वहां शांति से स्वास्थ्य-लाभ भी हो जाएगा। खेती-बाड़ी का काम तो जैसे-तैसे हो ही जाएगा। चाचा और आस-पड़ोस के लोगों से कहकर थोड़ा-बहुत काम तो मां भी करवा ही सकती हैं। आज पिताजी का आगमन आदर्श के उसी प्रस्ताव की स्वीकारोक्ति है। प्लेटफॉर्म टिकट लेकर आदर्श अपनी पत्नी स्मृति के साथ अभी प्लेटफॉर्म पर दाख़िल भी नहीं हुए थे कि दायीं ओर कीट-पतंगों से विंधे मकड़ी की जाले और धूल-मिट्टी ओढ़े खंभे पर टंगे एक डिब्बे से उद्घोषिका की आवाज़ आयी मुज़फ़्फरपुर से चलकर, मोतिहारी, बेतिया, गोरखपुर, लखनऊ, कानपुर होती हुई दिल्ली तक आने वाली 2557 सप्तक्रांति एक्सप्रेस अपने नियत समय से तीन घंटे बिलम्ब से चल रही है, यात्रियों को होने वाली असुविध के लिए हमें खेद है।’ उस खेद भरी उद्घोषणा से आदर्श और स्मृति समेत प्लेटफॉर्म पर अपने परिजनों की अगुवाई के लिए आने वालों के चेहरों पर अचानक बढ़ी बेचैनी आराम से देखी जा सकती थी। स्मृति ने कहा, यार मुझे आज ज़ल्दी कोर्ट जाना है, बेल मैटर है, समय पर नहीं पहुंची तो मेरा क्लाइंट अंदर चला जाएगा। तीन घंटे बिलंब का मतलब है साढ़े नौ बजे, और यदि उसके बाद भी बिलम्ब हुई तो वो बेचारा तो गया।’ आदर्श बाबु ने समझाया, कोई बात नहीं तुम नौ बजे चली जाना यहां से, तब तक इंतजार कर लो, टाईम पास हो जाएगा।’ क़रार के मुताबिक नौ बजे स्मृति वहां से चली गयी। गाड़ी आधे घंटे और बिलम्ब के साथ दस बजे प्लेटफॉर्म पर दाख़िल हुई। कुलियों की दौड़-भाग में एस-11 कोच तक पहुंचते-पहुंचते दस मिनट लगे आदर्श बाबु को। दाएं हाथ में अपनी अटैची और बाएं में एक जुट का थैला थामे पिताजी की नज़रें शायद आदर्श को ही तलाश रही थीं. खड़े थे वे। चरण स्पर्श करके आदर्श बाबु ने पिताजी का थैला अपने हाथ में थाम लिया. ‘कोई दिक्कत तो नहीं हुई, काफी लेट हो गयी ट्रेन।’ आदर्श बाबु पिताजी को लेकर तिमारपुर आ गए। ‘स्मृति नहीं दिख रही है?’ पिताजी ने पूछा। ‘हां, आज उसका ज़रूरी मैटर था इसलिए ज़ल्दी गयी होगी। गयी तो थी मेरे साथ स्टेशन लेकिन जब गाड़ी लेट होने का एनाउंसमेंट हुआ तो वो वापस आ गयी।’ पिताजी को चाय देने के बाद उनके नास्ते का इंतजाम करने में जुट गए आदर्श बाबु। नास्ता-पानी करने के बाद दोनों गांव-घर का हालचाल बतियाते लगे, लेकिन हालचाल का वह सिलसिला एक-आध घंटे में ही सिमट गया। अब बीते कल जवाहर केआरे, का कहते हैं सर, इ मार्किट वाला स जीना हराम कर दिया है। फेर काल एगो झल्लीवाला को पीट दिया और उसका बिल्ला भी छीन लिया। चाचाजी गए हैं नेताजी के साथ थाना में समझौता कराने।
साथ हुई आदर्श बाबु की बातचीत में शिवसागर और यूनियन फंड वाला प्रसंग बार-बार उनके दिमाग़ में घुमड़ने लगा। अपनी आदत के मुताबिक आदर्श बाबु फिर अपनी दायीं हथेली से सिर सहलाने लगे। सिर पर हथेली की कसरत शुरू होने का मतलब आम तौर पर यही होता है कि आदर्श बाबु किसी प्रकार की चिंता या बेचैनी में हैं। लम्बे समय से परिवार से दूर रहने के कारण उनके पिता उनकी इस आदत से वाक़िफ नहीं थे। बोल पड़े, ‘सिर तो साफ ही दिख रहा है फिर ये ख़ुजली क्यों हो रही है? किसी डॉक्टर से दिखाओ। ज़रूर कोई बीमारी होगी। मुझे तो लगता है इसी वजह से तुम्हारे सारे बाल भी झड़ गए हैं।’ पिताजी की राय सुनकर उनकी हथेली फ़्रीज़ हो गयी लेकिन वे अपनी हंसी को नहीं रोक पाए. ‘आप भी न! सिर क्या सहलाया कि मुझे बीमारी हो गयी। कुछ नहीं, मैं तो वैसे ही कुछ सोच रहा था।’ पिताजी ने पूछा, तुम्हें ऑफिस नहीं जाना है?’ आदर्श बाबु की तो जैसे मुराद ही पूरी हो गयी। ‘हां, जाना है लेकिन पहले आपके खाने-पीने का कुछ इंतजाम कर दूं’ कहकर वे किचेन में चले गए। क़रीब दो बजे खाना-पीना के बाद ‘अच्छा मैं अब चलता हूं, मुझे फील्ड-वर्क पर जाना है। स्मृति पांच बजे के आसपास आ जाएगी। हो सकता है मैं लेट हो जाऊं। इस बीच में यदि आपको कहीं टहलने जाना हो तो आप चले जाईएगा। स्मृति के पास चाभी है वो खोल लेगी घर’ कहकर पीठ पर थैला लटकाए आदर्श बाबु निकल पड़े बाज़ार की ओर। शिवसागर और यूनियन फंड सोचने में इतना मशगूल हो गए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि बाज़ार कब पहुंच गए। ऑटो वाले से किराए का हिसाब-किताब करने के बाद वे सीधे जवाहर के ठीहे पर पहुंचे।‘आइए सर, आज इस समय किधर से आ रहे हैं?’ हाथ मिलाते हुए मुन्नाजी ने पूछा। ‘घर से ही आ रहा हूं। जवाहरजी नहीं दिख रहे हैं?’ इधर-उधर ताकते हुए आदर्श बाबु ने कहा। ‘आरे, का कहते हैं सर, इ मार्किट वाला स जीना हराम कर दिया है। फेर काल एगो झल्लीवाला को पीट दिया और उसका बिल्ला भी छीन लिया। चाचाजी गए हैं नेताजी के साथ थाना में समझौता कराने।’ लग रहा है मुननाजी अभी और बोलना चाहते हैं। उनकी बातों को सुनकर आदर्श बाबु लगता है फिर किसी उधेड़-बुन में पड़ गए हैं। उनके चेहरे पर हो रहे उतराव-चढ़ाव को आसानी से देखा जा सकता है। कुछ बोलना चाहते हुए भी बिल्कुल ख़ामोश हैं। ‘बैठिए न सर, चाचाजी अब आने वाले ही होंगे’, मुन्नाजी ने शायद उनकी ख़ामोशी तोड़ने की कोशिश की। ‘और, काम-धंधा कैसा चल रहा है?’ सहज दिखने की कोशिश कर रहे हैं आदर्श बाबु। ‘ठीके चल रहा है, आप सुनाइए आपका किताब का काम कहां तक पहुंचा?’ सवाल के जवाब में मुन्नाजी ने ये सवाल दागा। आदर्श बाबु किसी उधेड़-बुन में पड़ गए। पास में रखे पानी के बोतल को उठा लिया. इससे पहले कि वे बोतल को मुंह में लगाते मुन्नाजी बोल पड़े, ‘सर इ पानी बहुत देर का है, गरम हो गया होगा। अभी मंगवाता हूं ठंडा पानी। थोड़ी देर बाद एक बच्चा पानी की दूसरी बोतल लेकर आता है। आदर्श बाबु मुंह ऊपर करके एक ही सांस में आधी बोतल उड़ेल लेते हैं और जेब से रूमाल निकालकर मुंह पोंछते हैं। मुन्नाजी सामने एक कार्टून पर बैठकर पर्ची बना रहे हैं। बगल में अमित कार्टूनों पर पत्ती लगा रहा है। इसी बीच सामने से डंडा पटकते दो पुलिस वाले आ रहे हैं। एक पुलिस वाला एक ठेले पर ज़ोर से
का सोच में पड़ गए सर, गलत नहीं न कहे हैं। आप त बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं, बहुत विचारबान आदमी हैं। समझना चाहिएगा त एके मिनट में सब सच्चाई समझ लीजिएगा आप। जाइए न बजार में काम करने वाला किसी भी आदमी से पूछ लीजिएगा, आपको पता चल जाएगा कि इहां के मजदूर कौन हालत में काम करता है
दो डंडा बजाता है और दूसरा ‘कौण से यो, भैनचोद इसे दिख्खे कोई ना, बाप की सड़क समझ के सड़क पर ठेला लगा राख्खया है। चल हटा इन्हें’ कहता ठेले की हवा निकालने लग जाता है। इसी बीच अंगौछा संभालता एक आदमी आता है और ठेला आगे बढ़ाने लगता है। पुलिस वाला उसे एक डंडा लगा देता है। आसपास खड़े ठेलेवालों में भी अफरा-तफरी शुरू हो जाती है। देखते-देखते सड़क खाली हो जाती है। ‘देख लिए न सर, इ भोंसड़ी वाला सब अइसहिए तंग करता है। सब जानते हैं कि इहां बुकिंग होती है, माल बुक करने वाले जितने ठीकदार हैं सबके पास लाइसेंस है। बजार के असोसिएशन ने दिया सबको लाइसेंस। अब आप ही बताइए कि जहां माल बुक होगा उहां ठेला खड़ा नहीं होगा और माल नहीं रखा रहेगा कहां रहेगा। भीड़ त होइबे करेगा इहां। इ स्साला स को महीना में पइसा भी बंध हुआ है सबसे, तभियो आ जाता है तंग करने। अभी तो कुछो नहीं किया है, इ सब तो बहुत बुरा वेहवार करता है हमलोगों के साथ। बहुत ख़राब-ख़राब गाली बकता है और उटपटांग ढंग से लाठियो भांज देता है कभी-कभी।’ मुन्नाजी ने गुस्से में तमतमाते हुए कहा। आदर्श बाबु का बाज़ार के इस पक्ष से पहली बार सामना हो रहा था। उनके अंदर का चिंतक एक बार फिर जग गया और वहीं बैठे-बैठे विचार करना शुरू कर दिया। ‘आपलोगों ने कभी पुलिसवालों की इन हरकतों की शिकायत उनके ऊपर वालों से नहीं की?’ आदर्श बाबु ने मुन्नाजी से पूछा। आरे साहब, छोट आदमी शिकायत करने के लिए नहीं होता है, उसको तो बस लात-गारी खाकर चुपचाप अपना काम करते रहना है। शिकायत-उकायत के चक्कर में पड़ेगा त केतना दिन रह पाएगा उ बाज़ार में।’ मुन्नाजी के जवाब ने जैसे आदर्श बाबु को निःशब्द कर दिया है। आगे कुछ न बोल पाए। रह-रहकर उनके अंतर्मन पर आदर्शवाद हावी होने लगा। मुन्नाजी के एक-एक शब्द से इस वक़्त उन्हें चुनौती और शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। उन्हें ऐसा लग रहा है जैसे बुद्ध, मार्क्स और गांधी के दर्शनों से वे बुरी तरह घिर गए हैं। उनके चेहरे से यह झलक रहा है जैसे कोई जघन्य अपराध करने के बाद वे अपनी ही नज़रों से बचने की नाकाम कोशिश रहे हैं। ‘का सोच में पड़ गए सर, गलत नहीं न कहे हैं। आप त बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं, बहुत विचारबान आदमी हैं। समझना चाहिएगा त एके मिनट में सब सच्चाई समझ लीजिएगा आप। जाइए न बजार में काम करने वाला किसी भी आदमी से पूछ लीजिएगा, आपको पता चल जाएगा कि इहां के मजदूर कौन हालत में काम करता है’, मुन्नाजी की इस बात ने तो जैसे उन्हें हिलाकर ही रख दिया। अब आदर्श बाबु के लिए वहां एक भी पल बैठना मुश्किल हो गया। वहां से निकलने की जुगत बनाते हुए ‘लगता है जवाहरजी कहीं दूर निकल गए हैं। मुझे जल्दी निकलना है आज’ कहकर आदर्श बाबु ने बैग अपनी पीठ पर टांग लिया।2.8.08
‘ओहो आप? इतनी जल्दी? किधर से?’
‘एतना सबेरे, आदरसे बाबू हैं न आप? हमर आंख धोखा त नहीं खा रहा है?’ जवाहर ने जैसे आदर्श बाबू को नींद से जगा दिया. ‘ओहो आप? इतनी जल्दी? किधर से?’ आदर्श जवाहर को देखकर सहज नहीं हो पाए थे. जवाहर आज जल्दी बाज़ार आ गए हैं क्योंकि उसे एक ठेलेवाले के लिए पांच हज़ार रुपए का इंतजाम करना है, आठ दिन बाद उसके बहन की शादी है. ‘आरे का कहते हैं सर, बड़कन के देखादेखी छोटको लोग में तिलक-दहेज बहुत बढ़ गया है. अब आपहीं बताइए, जिसके लिए हम भोरे-भोरे पइसा का इंतजाम करने निकले हैं आज उसके घर पर कुछो नहीं है. गाय-भईंस पोसके लोग आपन गुज़ारा करता है. अब इ ठेला चला के पचास हजार रुपिया कहां से देगा. सुनते हैं कि लइकाबाला उसके बाप को बड़ा उल्टा-पुल्टा बोला है.’ जवाहर के बातों से बड़ी बेचैनी झलक रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे उसकी ही लड़की की शादी हो. ‘जा रहे हैं एक-दु गो जान-पहचान बाले दोकनदार के पास. उसके बाद अगर कुछ कमी पड़ा त शिवसागर से कहेंगे कुछ यूनियन-फंड में से देवा देने के लिए. आच्छा आदर्श बाबू हम तनी जल्दी में हैं. काम-धंधा शुरू हो जाएगा त फेर इ कमवा रह जाएगा. आज किसी तरह इंतजाम हो जाएगा पइसा का त काल पुरानिए दिल्ली से ‘अम्रपाली’ धरा देंगे उसको.’ ‘हां, हां. देख लीजिए पहले इस काम को. गपशप तो होती रहेगी’ कहकर आदर्श बाबू ने जवाहर को आश्वस्त किया और बाज़ार से बाहर की तरफ़ चल दिए. ऑटो में लौटते वक़्त वे बार-बार जवाहर के विभिन्न रूपों के बारे में सोचते रहे.
29.7.08
तूझे भी रोटी खानी है?
सुबह के क़रीब छह बज रहे हैं. सड़कें अपेक्षाकृत खाली है. अभी-अभी लाल किले के स्टॉप पर एक बस आकर रूकी है.
....और इस तरह सागर नाहर भारत के महानतम ब्लॉगरों में गिने जाने लगे। :)
आइटीओ, चिडियाघर, निजामुद्दीन, ओखला, बदरपुर बोर्डर चिल्लाता हुआ पीछे वाला कंडक्टर हाथ निकालकर खिड़की के नीचे थपथपा रहा है. पीछे जो 26 नंबर रुकी है उसका कंडक्टर ‘लोदी कोलोनी, सेवानगर’ चिल्लाता हुआ बस को वैसे ही थपिया रहा है. इस बीच पता ही नहीं चला कि डीटीसी की चार-पांच बसें कब आयीं, रुकीं और आगे बढ़ गयीं. जैन मंदिर के सामने लाजपतराय बाज़ार के साथ वाली सड़क के किनारे छोटी-छोटी टोलियों में लोग बैठे हैं. किसी के सामने करनी फट्टा है तो किसी के सामने लकड़ी का बक्सा जिसके अंदर से आरी की नोंक झांक रही है. बहुत से लोग खाली हाथ ही अंडाकार घेरे में बैठे हैं. अभी-अभी एक मारूति ज़ेन आकर रुकी है एक झूंड के पास. आसपास के झूंड वाले भी दौड़ कर पहुंच गए हैं उसके पास. ड्राइविंग सीट पर बैठे आदमी ने अभी अपनी बायीं ओर की खिड़की का शीशा पूरी तरह नीचे कि किया भी नहीं कि बाहर अफरातफरी शुरू हो गयी. एक-दूसरे का कुर्ता और अंगोछा खींचकर खिड़की के नजदीक पहुंचने की उनकी कोशिश अभी थमी भी नहीं थी कि पिछली सीट पर दो लोगों को बिठाकर कार यू टर्न ले कर ज़ू...... हो गयी.साथ वाली सीढ़ी की दायीं ओर वाली उस पीपल के दरख़्त के नीचे सफ़ेद दाढ़ी में चेहरा छिपाए सत्तर पार के मुल्लाजी बैठे हैं जहां दिन में हज़्जाम उंची टांगों वाली कुर्सी पर लोगों की हजामत बनाता है. मोटे शीशे वाली मुल्लाजी की ऐनक बार-बार उनके इशारे की अवहेलना करके उनके नाक के बीचोबीच खिसक आती है और वे बार-बार उसको उपर चढ़ाते हुए फटे-पुराने रिजेक्टेड पतलुनों और कमीज़ों को एक बार फिर उनकी प्रतीष्ठा वापस दिलाने की जिद्द में उन पर मशीन चलाए जा रहे हैं. वे लोग भी उनके सामने खड़े हैं जो सुइयों से बिंधे कपड़ों से ख़ुद को ढंकना चाह रहे हैं. साथ वाले दिल्ली विद्युत बोर्ड के ट्रांसफ़र्मर के नजदीक हहा रहे स्टोव पर पतीले में चाय अपनी पूरी उबाल पर है. छोटू पतीले और गिलास के बीच छन्नी लगा चुका है. आसपास खड़े कुछ लोग गिलास को मुंह में सटाकर सुउउ... भी करने लगे हैं.
अभी-अभी कपड़ों का गट्ठर लादे एक ठेला वहां आकर रुका है. कंधे से अंगोछा उतारते के साथ ठेलेवाला ‘एक ठो चाय दे छोटू’ कहकर बेंच पर पसर गया है. आसपास खड़े लोग अपना-अपना कपड़ा पहचानकर ठेले पर रखे गट्ठर में से खींचने लगते हैं. बग़ल में दो-तीन लोग लंबे-से सुए में बहुत लंबी सुतली डाले गेंदे के फूल और अशोक के पत्ते को बारी-बारी से गूंथ रहे हैं. सामने शिवालय मंदिर का घंटा टनटाने लगा है. बग़ल की दुकान से प्रसाद और फूल लेकर औरत-मर्दों की टोली उस ओर बढ़ रही है. चांदनी चौक की तरफ़ जाने वाली सड़क पर वीरानी-सी छायी हुई है. भीड़-भाड़ और अफ़रातफ़री में डूबा रहने वाला बाज़ार नि:शब्द पड़ा है. दुकानों के शटर बंद हैं. बाहर फ़र्श पर पिछली रात ढेर हुई जिंदा लाशों की टोली अब भी क़तारबद्ध है. आंखों में लाली संजोए बहादुर डंडा पटकता बाज़ार से बाहर निकल रहा है. उसकी सीटियां थक चुकी हैं लेकिन लगता है उसके डंडे में अब भी दम बाक़ी है. कुछ दुकानों के आगे लगे नल पर कुछ लोग नहा रहे हैं जबकि कुछ फ़र्श पर अपने कुर्तों में बड़ी तल्लीनता से साबून की घिसाई में व्यस्त हैं. जिया बैंड वाली लेन में एक उम्रदराज़ महिला इस्त्री कर रही हैं. कोने वाले मंदिर में कानी आंख वाले पंडिजी भगवानों को पाइप से स्नान करवा रहे हैं. अख़बार वाले ने अभी-अभी सामने वाली शटर के नीचे से ‘पंजाब केसरी’ अंदर खिसका दिया है. पीछे शौचालय के बाहर बीड़ी की कश लगाते हाथ में डिब्बा लिए नौजवान का धैर्य जवाब दे चुका है. बेल्ट की बकल खोलता हुआ वो अब एक तरफ़ से सभी दरवाज़ों को खटखटा रहा है.
लगभग आठ बज रहे हैं. आदर्श बाबू इस समय एक स्टॉल के पास खड़ा होकर सुस्ता रहे हैं. साथ में सहकर्मी समर्पिता भी हैं. असल में, आदर्श बाबू पिछले पांच दशकों में बाज़ार में हुए भौगोलिक और भौतिक परिवर्तनों को समझने के लिए बाज़ार के एक अदद नक़्शे की तलाश में थे. बहुत छान मारी उन्होंने अभिलेखागारों और सरकारी दफ़्तरों की. कहीं बात
....और इस तरह सागर नाहर भारत के महानतम ब्लॉगरों में गिने जाने लगे। :)
नहीं बनी लिहाज़ा थक-हार कर ख़ुद ही नक़्शानबीसी करने पहुंचे हैं आज. समर्पिता दिल्ली विश्वविद्यालय में भूगोल की शोधार्थी हैं, थोड़ा-बहुत सउर हैं उन्हें नक़्शे का. इसीलिए समर्पिता मदद करने आयीं हैं आदर्श बाबू की. ‘थैंक्यू यार, बहुत मेहनत की आज तुमने मेरे साथ. चलो, अब तो मैं भी कर सकता हूं ये काम. वैसे भी एक दिन में तो होगा नहीं. कई राउंड लगाने पड़ेंगे बाज़ार के.’ आदर्श बाबू ने समर्पिता का धन्यवाद ज्ञापन किया. ‘अच्छा तो आप रुकेंगे अभी यहां ?’ समर्पिता ने आदर्श बाबू से पूछा. ‘हां’ कहा आदर्श बाबू ने. ‘तो मैं चलती हूं, मुझे डिपार्टमेंट जाना आज. मेरे सुपर्वाइज़र ने बुलाया है.’ कहकर समर्पिता ने चश्मे पर चढ़ आयी धूल को अपने दुपट्टे से साफ़ किया और ‘बाय’ कहती हुई आगे बढ़ गयीं.आदर्श बाबू टहलते हुए बाज़ार के सामने आ चुके थे. लाल बत्ती से लेकर प्रेज़ेन्टेशन कॉन्वेंट के गेट तक सड़क पर लोग क़तारबद्ध बैठे थे. आदर्श ने ऐसा पहली बार देखा था लिहाज़ा वे इसकी वजह जानने के लिए पीछे से किसी के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, ‘क्या बात है, क्यों बैठे हैं आपलोग यहां ?’ ’ये मत पूछ कि क्यों बैठे हैं. तूझे भी रोटी खानी है? आज जा लाइन में.’ जवाब मिला. स्पष्ट हो गया कि सामूहिक भोजन का प्रबंध है. आदर्श बाबू ने अपने सिर पर हाथ रखा ही था कि लाल बत्ती की ओर से कुछ पगड़ीधारी सिख नौजवान और सिर पर दुपट्टा डाले महिलाएं ट्रॉली के साथ-साथ आगे की ओर आती दिखीं. पहले महिलाएं पांत में बैठे लोगों की हथेलियों पर रोटी रखतीं और फिर बाद में नौजवान उन रोटियों पर सब्ज़ी या दाल रखते. यह सिलसिला बिना किसी अफ़रातफ़री के क़तार में बैठे अंतिम व्यक्ति को भोजन मिलने तक चलता रहा. ठिठुरन भरी ठंड हो या मुसलाधार बरसात, शीशगंज गुरुद्वारे की लंगड़ की ये ट्रॉली हर रोज़ यहां पहुंचती है. आसपास के ग़रीब-गुर्बे और फुटपाथ पर गुज़र-बसर करने वाले लोग सुबह की रोटी यहां खाकर रात की रोटी कमाने शहर में निकल जाते हैं. इस वक़्त आदर्श बाबू के लिए ये व्यवस्था दुनिया के आठवें आश्चर्य से कम नहीं है. उन्होंने तो नवरात्रों और हनुमान जयंती जैसे अवसरों पर सड़कों या मंदिरों के किनारे तीन-चार घंटे तक चलने वाले विशाल भंडारे में आलू की सब्ज़ी के साथ चार कचौडियां ही बंटते देखी थी. आदर्श आज भोजन-वितरण कार्यक्रम देखकर सिक्खों के सेवा भाव का कायल हुआ जा रहे थे. आज अनायास उन्हें पिछली जुलाई का वो दिन याद आ रहा है जब सिक्खों का एक झूंड ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट के मेन गेट के दुसरी तरफ़ शरबत बांट रहा था, रूहआफ़जा की तीसरी गिलास गटकने के बाद गर्दन उचका कर अंदर से आती डकार को धीरे-से बाहर छोड़ते हुए उन्होंने बड़े हल्केपन से पूछा था, ‘आज कौन से गुरुजी का जन्मदिन है?’ ‘जन्मदिन नहीं तेज़ गर्मी है’ सुनकर ऐसा झेंपे थे कि ज़मीन मे सिर गाड़कर वहां से सरकते हुए भी उन्हें जलालत महसूस हो रही थी.
22.7.08
केतना आदमी का जीवनी चरित लेना है आपको
हमारी प्रगति इतनी तेज़ रफ़्तार से हुई कि हमें पता ही नहीं चला कि कब हाने अपनी जिन्दगी के ढर्रे बदल लिए!
मुन्नाजी जवाहर की बाद वाली पीढ़ी के पहले नुमाइंदा हैं उस परिवार से. बक्सर से ही आई कॉम करने के बाद पिछले तीन-चार सालों से वह अपने चाचा के काम में हाथ बंटा रहे हैं. बदले में चाचा अपनी कमाई में से कुछ उनके साथ बंटा रहे हैं. माने ले-देकर घर का माल घर में ही रहे, चाचा भतीजा ने इसका अच्छा प्रबंध कर लिया था.
अनजाने में लोगों से मिलने-मिलाने के ऐसे शॉर्ट-कट का आविष्कार हो गया कि नमस्कार, राम-राम, नमस्ते ... भी हमसे ज़्यादा गतिशील हो गए. मुंह से निकलने से पहले ही सामने वाले ने लपकना शुरू कर दिया अभिवादनों को. सम्यता ने ऐसी पलटी मारी कि दुआ-सलाम निबटारे के काबिल भी नहीं बचा. मुंह से अभिवादनों और सवालों का जवाब देने और सामने वाले के पंजे में चार उंगलियां सटाने का काम आम तौर पर जवाहर भी साथ-साथ ही कर लेते हैं. दिन भर चलते रहने वाली इन ‘ज़रूरी’ औपचारिकताओं के बीच में अन्य बातों के अलावा वे हमेशा की तरह इस बेहद ज़रूरी काम को बड़ी मुस्तैदी से निबटाते हैं, ‘बिनोदवा, कहां गया रे बिनोदवा ? हउ बहत्तर नंबर आला के पर्ची कहां रख दिया ? अरे शर्मा, पूछ न बिनोदवा से कि काहां रखा है पर्चीया? एंगई घिसीर-घिसीर के काम करवS शर्माजी त दिनवा कइसे कटी तोहार ?’
‘अरे अबहीं ले खड़े हैं आदर्श बाबू आप! का कहते हैं सर, अहमदाबाद के चार गो पाटी का माल पिछले सुक्कर को गया था ट्रांसपोर्ट से, पाटी कहती है माले नहीं पहुंचा अभी ले. जानते हैं सर अगर मलवा डिलिवर नहीं होगा नुं त इ दोकनदार सब खून चूस लेगा हमरा. देख नहीं रहे थे बहत्तर नंबर आला का अदमिया कइसे बइठा हुआ था. दसे बजे से बैठा हुआ था. इ स्साला सS को बुझाइए नहीं रहा है. लगता है आपन बाप का जमीन बेच कर भरेगा हर्जाना. घर-दुआर, खेत-पथार सब बिका जाएगा तबो हर्जाना पूरा नहीं होगा.’ लगभग एक ही सांस में बोल गए जवाहर. जवाहर के इस क़दर सूखे होठ आदर्श ने पहले कभी नहीं देखे थे और न ही ऐसी झुंझलाहट. अपने सहकर्मियों को पर्याप्त डांट-फटकार लेने के बाद जवाहर एक बार अपने चेहरे पर नॉर्मल्सी ओढते हुए आदर्श से मुखातिब हो रहे थे,
का कहते हैं सर, अहमदाबाद के चार गो पाटी का माल पिछले सुक्कर को गया था ट्रांसपोर्ट से, पाटी कहती है माले नहीं पहुंचा अभी ले. जानते हैं सर अगर मलवा डिलिवर नहीं होगा नुं त इ दोकनदार सब खून चूस लेगा हमरा. देख नहीं रहे थे बहत्तर नंबर आला का अदमिया कइसे बइठा हुआ था. दसे बजे से बैठा हुआ था. इ स्साला सS को बुझाइए नहीं रहा है. लगता है आपन बाप का जमीन बेच कर भरेगा हर्जाना.
‘चलिए छोडिए, ए धंधा में त इ सब होते रहता है, आपना सुनाइए कइसन चल रहा है आपका कितबिया का काम ?’ उन्होंने फिर से अपने सवालों का पुराना गट्ठर खोलकर आदर्श के सामने बिखेर दिया था, ‘आच्छा सर, अभी ले हमरा समझ में नहीं आया कि आप लोगों का जीवनी चरित पूछते काहे घूम रहे हैं ? केतना आदमी का जीवनी चरित लेना है आपको ? आप मेरा जीवनी चरित पूछ रहे हैं, आ कह रहे हैं कि आउर आदमी से बतियाना है. मैं त सच बताउं आदर्श बाबू, दू महीन्ना हो गया लेकिन अभी ले आपको ठीक से नहीं बूझ पाया हूं कि आप करना का चाहते हैं.’
अनगिनत सवाल आदर्श के सामने बिखरे पड़े थे. तय नहीं कर पा रहा था कि इन सवालों के साथ वह क्या करे. इस बीच आम तौर पर कंधे पर लटकने वाले झोले को उतारकर उसने अपनी गोद में रख लिया था. उसकी उंगलियां उसके गंजे सिर में कुछ तलाश करने लगी थीं, शायद जवाहर के सवालों के जवाब ढूंढने या उनसे बचने का नुस्खा. तभी ‘हइयो नगवा राख ल हो रामकुमार’ सुनते ही उनकी उंगलियां फ़्रीज हो गयीं. सलाह मुन्नाजी ने दी थी. मुन्नाजी जवाहर की बाद वाली पीढ़ी के पहले नुमाइंदा हैं उस परिवार से. बक्सर से ही आई कॉम करने के बाद पिछले तीन-चार सालों से वह अपने चाचा के काम में हाथ बंटा रहे हैं. बदले में चाचा अपनी कमाई में से कुछ उनके साथ बंटा रहे हैं. माने ले-देकर घर का माल घर में ही रहे, चाचा भतीजा ने इसका अच्छा प्रबंध कर लिया था. ऐसी मिसाल और इस प्रबंधकीय ज़माने में हज़ारों में एक भी मुश्किल से ही मिलती है. अरे ये क्या! रामकुमार ने खैनी थूका और पसीना पोछकर गमछा सरियाते हुए कहा, ‘हं, तुमको नहीं न खींचना है ठेला. तुम त इ सोचवे करोगो कि एक ठेला का माल और लदा जाए रमकुमरवा के गाड़ी पर. साले ख़ुद खींचना होता तब न गांड़ फटता. अभी तो इहे सोच रहा होगा तुम कि गदहा पर जेतना लादना है लाद दो ...’ रामकुमार के वक्तव्य, तेवर और उसकी गति से ऐसा लग रहा था कि वह एफ़एम नाइंटी एट प्वाइंट थ्री की तरह नॉन स्टॉप चलेगा. वो तो शुक्र मानिए मुन्नाजी का कि उन्होंने नॉन स्टॉप में से नॉन निकाल लिया. पर क़ायदे से सोचा जाए तो मुन्नाजी ने रामकुमार से उस बचे नग को लादने की बात कह कर कोई गुनाह नहीं किया था, क्योंकि अन्य मंडियों की तरह इस इलेक्ट्रॉनिक मार्केट में भी माल ढुलाई का यही तरीक़ा प्रचलित है, जो अत्यंत प्राचीन है.
21.7.08
तनि पानी ले आव S उ बोतलवा में
आज आदर्श और जवाहर के बीच ऐसे ही दुआ-सलाम हुआ. उनकी जान-पहचान ज़्यादा पुरानी नहीं है, यही कोई दो-ढाई
ठीहा भी क्या है, बाज़ार और दीवान हॉल के पिछले हिस्से को जो भीड़ भरी संकरी गली अलग करती है उसी में फुटपाथ कहे जाने ज़मीन के थोड़े उठे हुए हिस्से पर दस-ग्यारह बजे ठोक-पीटकर बनाया गया लकड़ी का एक बक्सा रख दिया जाता है और पीछे वाली कन्या विद्यालय की उंची दीवार के सहारे सूरज की सफ़ेदी थामने के लिए पन्नी और गत्ता खोंस दिया जाता है.
महीने से जानते हैं दोनों एक दुसरे को. शुरुआती दो-तीन मुलाक़ातों के बाद उनकी बातचीत का शुरुआत का अंदाज़ एक-आध अवसरों को छोड़कर ऐसा ही रहा है. आज जवाहर स्वभाव के विपरीत थोड़ा परेशान दिख रहे थे. यूं तो काम का बोझ हमेशा उनके सिर पर होता है लेकिन उनके चेहरे पर खोजने पर भी शायद ही कभी दिखती है. ‘ऐ के बाड़S, तनी उ स्टूलवा खींचS हेने ... तनि पानी ले आव S उ बोतलवा में’ फरमाने के बाद अपनी पैंट की जेब में पड़ी प्रवीण की पुडिया में से दो चटकी बायीं हाथ की तर्जनी पर रखकर दायीं हाथ के अंगूठे से मसलने और चार-छह ताल पीटकर बचे-खुचे मटमैले पदार्थ को दायीं हाथ की तर्जनी के बीचोबीच समेटकर स्वागत वाले अंदाज़ में कहते हैं, ‘हई लीजिए आदर्श बाबू’. जवाहर को पता चल गया था कि आदर्श बाबू को इसमें जो आनंद मिलता है वो और किसी पदार्थ में नहीं. लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं हुआ. आदर्श के सामने जब कभी ऐसी नौबत आती, वह बगले झांकने लगता. उसका अंतर्मन उसकी संवेदना को ललकारता ...’क्यों, क्या हक़ है तुम्हें ऐसे किसी के काम में दख़़ल देने का ? देख नहीं रहे हो जवाहर और उसके संगी-साथी कितने परेशान है अपने काम को लेकर ...’
स्थिति भापने के बाद आदर्श वहां से निकलने का बहाना टोहने लगता. जैसे कि आज उसने दबी जुबान में कहा, ‘होली के बाद काम में लगता है तेज़ी आयी है. खैर, चलिए जवाहरजी आप अपना काम कीजिए, मैं ज़रा मोहन से मिल आता हूं मार्केट में से.’
वैसे भी दिन के तीसरे पहर उनके ठीहे पर भीड़ बढ़ जाती है. ठीहा भी क्या है, बाज़ार और दीवान हॉल के पिछले हिस्से को जो भीड़ भरी संकरी गली अलग करती है उसी में फुटपाथ कहे जाने ज़मीन के थोड़े उठे हुए हिस्से पर दस-ग्यारह बजे ठोक-पीटकर बनाया गया लकड़ी का एक बक्सा रख दिया जाता है और पीछे वाली कन्या विद्यालय की उंची दीवार के सहारे सूरज की सफ़ेदी थामने के लिए पन्नी और गत्ता खोंस दिया जाता है. हो जाता है तैयार ठीहा. आदर्श के सिवा किसी को वहां फालतू बैठने की न ज़रूरत है और न आदत. नतीजा, जवाहर उठाने-बैठाने की चिंताओं से बिल्कुल मुक्त हैं. यूं तो जो भी वहां आते हैं, वे आदर्श से ज़्यादा नियमित हैं. दिन में दस बार आते हैं, बीस बार आते हैं. पर आदर्श जैसा ढीठ और गपोड़ी कोई नहीं आता वहां. वह तो ऐसा बतक्कड़ है कि अगर कोई एक बात पूछे तो उसके चार किस्म के ज़वाब देता है, वह भी कम से कम दो उदाहरणों के साथ. दुआ-सलाम होने भर की देरी है, उसके बाद तो ‘कब से आप इस बाज़ार में? से शुरू करके अच्छा शुरू से ही हैं आप इस काम में ? यहां काम करते हुए बहुत दिक़्क़त हुई होगी आपको!’
यूं तो जो भी वहां आते हैं, वे आदर्श से ज़्यादा नियमित हैं. दिन में दस बार आते हैं, बीस बार आते हैं. पर आदर्श जैसा ढीठ और गपोड़ी कोई नहीं आता वहां. वह तो ऐसा बतक्कड़ है कि अगर कोई एक बात पूछे तो उसके चार किस्म के ज़वाब देता है, वह भी कम से कम दो उदाहरणों के साथ.
जैसे सवालों का लगा देता है. इतना ही नहीं, एन-केन-प्रकारेण सामने वाले के मुंह से उनके जवाब उगलवा लेने की कोशिश भी करता है. वैसे है नहीं लेकिन उसकी बातचीत का अंदाज़ा किसी इंटेलेक्चुअल से कम नहीं लगता. पिछले दो-ढाई महीनों में ही जवाहर के ठीहे पर उसने से ‘इंटेलेक्चुअल बमबारी’ की है उसका असर ठीहे पर नियमित रूप से बैठने वाले जवाहर के संगी-साथियों पर भी पड़ा है. इतने ख़ौफ़जदा हो गए हैं कि आदर्श की गंजी टांट पर सवारी करते भगत सिंह के टोपे से मिलते-जुलते टोपे को दूर से देखते ही वे ठीहे से सरकना शुरू कर देते हैं. कभी-कभी जवाहर भी आदर्श को देखकर झल्ला जाते हैं. लेकिन आदर्श की भोजपुरी सनी बोली, अपनी बातों में हमेशा भरने का उसका अंदाज़, चाय नहीं पीने जैसी आदतों के कारण जवाहर को उससे इतना लगाव हो गया है कि न चाहते हुए भी उसको अपने ठीहे पर दीवार के सहारे कमर के निचले हिस्से का कोना टिकाने भर का न्यौता देने से ख़ुद को नहीं रोक पाते हैं. जवाहर के साथ काम करने वाले लोग भी तो कम नहीं है. बाज़ार में रेपुटेशन भी है. ‘सबकी पसंद निरमा’ की तरह हर दुकानदार माल बुक करवाने के लिए सबसे पहले जवाहर को ही ढूंढता है. दुकान के कर्मचारी, मालिक, झल्लीवाले, ठेलावाले, व्यापारी सभी किसी न किसी वजह से उसके ठीहे को घेरे रहते हैं. ’प्रधानजी राम-राम!’ ’प्रधानजी कैसे हो ?’ ’प्रधानजी हमारा भी ख़याल रखा करो यार’‘ए परधानजी उ कुतुब रोड वाला नगवा भेजवा नुं दीजिए.’
तनि पानी ले आव S उ बोतलवा में
आज आदर्श और जवाहर के बीच ऐसे ही दुआ-सलाम हुआ. उनकी जान-पहचान ज़्यादा पुरानी नहीं है, यही कोई दो-ढाई महीने से जानते हैं दोनों एक दुसरे को. शुरुआती दो-तीन मुलाक़ातों के बाद उनकी बातचीत का शुरुआत का अंदाज़ एक-आध अवसरों को छोड़कर ऐसा ही रहा है. आज जवाहर स्वभाव के विपरीत थोड़ा परेशान दिख रहे थे. यूं तो काम का बोझ हमेशा उनके सिर पर होता है लेकिन उनके चेहरे पर खोजने पर भी शायद ही कभी दिखती है. ‘ऐ के बाड़S, तनी उ स्टूलवा खींचS हेने ... तनि पानी ले आव S उ बोतलवा में’ फरमाने के बाद अपनी पैंट की जेब में पड़ी प्रवीण की पुडिया में से दो चटकी बायीं हाथ की तर्जनी पर रखकर दायीं हाथ के अंगूठे से मसलने और चार-छह ताल पीटकर बचे-खुचे मटमैले पदार्थ को दायीं हाथ की तर्जनी के बीचोबीच समेटकर स्वागत वाले अंदाज़ में कहते हैं, ‘हई लीजिए आदर्श बाबू’. जवाहर को पता चल गया था कि आदर्श बाबू को इसमें जो आनंद मिलता है वो और किसी पदार्थ में नहीं. लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं हुआ. आदर्श के सामने जब कभी ऐसी नौबत आती, वह बगले झांकने लगता. उसका अंतर्मन उसकी संवेदना को ललकारता ...
’क्यों, क्या हक़ है तुम्हें ऐसे किसी के काम में दख़़ल देने का ? देख नहीं रहे हो जवाहर और उसके संगी-साथी कितने परेशान है अपने काम को लेकर ...’
स्थिति भापने के बाद आदर्श वहां से निकलने का बहाना टोहने लगता. जैसे कि आज उसने दबी जुबान में कहा, ‘होली के बाद काम में लगता है तेज़ी आयी है. खैर, चलिए जवाहरजी आप अपना काम कीजिए, मैं ज़रा मोहन से मिल आता हूं मार्केट में से.’
वैसे भी दिन के तीसरे पहर उनके ठीहे पर भीड़ बढ़ जाती है. ठीहा भी क्या है, बाज़ार और दीवान हॉल के पिछले हिस्से को जो भीड़ भरी संकरी गली अलग करती है उसी में फुटपाथ कहे जाने ज़मीन के थोड़े उठे हुए हिस्से पर दस-ग्यारह बजे ठोक-पीटकर बनाया गया लकड़ी का एक बक्सा रख दिया जाता है और पीछे वाली कन्या विद्यालय की उंची दीवार के सहारे सूरज की सफ़ेदी थामने के लिए पन्नी और गत्ता खोंस दिया जाता है. हो जाता है तैयार ठीहा. आदर्श के सिवा किसी को वहां फालतू बैठने की न ज़रूरत है और न आदत. नतीजा, जवाहर उठाने-बैठाने की चिंताओं से बिल्कुल मुक्त हैं. यूं तो जो भी वहां आते हैं, वे आदर्श से ज़्यादा नियमित हैं. दिन में दस बार आते हैं, बीस बार आते हैं. पर आदर्श जैसा ढीठ और गपोड़ी कोई नहीं आता वहां. वह तो ऐसा बतक्कड़ है कि अगर कोई एक बात पूछे तो उसके चार किस्म के ज़वाब देता है, वह भी कम से कम दो उदाहरणों के साथ. दुआ-सलाम होने भर की देरी है, उसके बाद तो ‘कब से आप इस बाज़ार में? से शुरू करके अच्छा शुरू से ही हैं आप इस काम में ? यहां काम करते हुए बहुत दिक़्क़त हुई होगी आपको!’ जैसे सवालों का लगा देता है. इतना ही नहीं, एन-केन-प्रकारेण सामने वाले के मुंह से उनके जवाब उगलवा लेने की कोशिश भी करता है. वैसे है नहीं लेकिन उसकी बातचीत का अंदाज़ा किसी इंटेलेक्चुअल से कम नहीं लगता. पिछले दो-ढाई महीनों में ही जवाहर के ठीहे पर उसने से ‘इंटेलेक्चुअल बमबारी’ की है उसका असर ठीहे पर नियमित रूप से बैठने वाले जवाहर के संगी-साथियों पर भी पड़ा है. इतने ख़ौफ़जदा हो गए हैं कि आदर्श की गंजी टांट पर सवारी करते भगत सिंह के टोपे से मिलते-जुलते टोपे को दूर से देखते ही वे ठीहे से सरकना शुरू कर देते हैं. कभी-कभी जवाहर भी आदर्श को देखकर झल्ला जाते हैं. लेकिन आदर्श की भोजपुरी सनी बोली, अपनी बातों में हमेशा भरने का उसका अंदाज़, चाय नहीं पीने जैसी आदतों के कारण जवाहर को उससे इतना लगाव हो गया है कि न चाहते हुए भी उसको अपने ठीहे पर दीवार के सहारे कमर के निचले हिस्से का कोना टिकाने भर का न्यौता देने से ख़ुद को नहीं रोक पाते हैं.
जवाहर के साथ काम करने वाले लोग भी तो कम नहीं है. बाज़ार में रेपुटेशन भी है. ‘सबकी पसंद निरमा’ की तरह हर दुकानदार माल बुक करवाने के लिए सबसे पहले जवाहर को ही ढूंढता है. दुकान के कर्मचारी, मालिक, झल्लीवाले, ठेलावाले, व्यापारी सभी किसी न किसी वजह से उसके ठीहे को घेरे रहते हैं.
’प्रधानजी राम-राम!’
’प्रधानजी कैसे हो ?’
’प्रधानजी हमारा भी ख़याल रखा करो यार’
‘ए परधानजी उ कुतुब रोड वाला नगवा भेजवा नुं दीजिए.’
20.7.08
चलS पहिले तोहके नस्ता कराईं
क़रीब चार साल पहले कुछ लिखने की कोशिश की थी. चार-पांच हज़ार शब्द लिखे भी थे. यार-दोस्तों ने ऐसी हौसलाअफ़ज़ाई की कि 'उपन्यास ही लिखूंगा अब' सोचकर लिखना-विखना ही बंद कर दिया था. अब फिर एक बाद पुरानी कोशिश में उतरने जा रहा हूं. देखना है इस बार आपका उत्साहवर्द्धन इसे कहां ले जाता है. हां, इस श्रृंखला का कोई नाम मुझे नहीं सूझ रहा है. आपको सूझे तो ज़रूर बताइएगा.‘कहिए न, कइसे आना हुआ ?’
पंडित अदिकलाल मिसिर इंदिरा गांधी तो थे नहीं कि सब जानते उनको. मिसिर बाबा की खोज में जवाहर की दोनों आंखे उनकी छोटी गर्दन को जबरन बार-बार लंबा कर देती थी. आंखों और गर्दन की उस जोड़ी ने मिसिर बाबा की ताक में सड़क पर ख़ूब कसरत की. लेकिन इस वक्त वहां सफ़ेद धोती-कुर्ता में लिपटे माड़वाडि़यों के झूंड के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा था. हाथ में हंटर लिए तोंद के गोले को कुदाते वे ऐसे सड़क रौंद रहे थे मानो उनका ऐसा न करना सड़क में भी उन जैसी ही गोलाई उभार देगा.
‘बस, ऐसे ही. बहुत दिनों से इधर आया नहीं था, इसीलिए सोचा कि ज़रा आप लोगों से मिलते चलूं.’
‘अरे नहीं बिना काम के त आप इधर अइबे नहीं करते हैं, जरूर फेर केकरो जीवनी चरित लेने आए होइएगा आप.’ जवाहर की बात में भी दम था. आदर्श जब भी उनके पास जाता था, किसी न किसी से बात करवा देने की जिद ज़रूर करता था. दरअसल पिछले तेरह-चौदह महीनों से आदर्श दिल्ली के एक मीडिया मार्केट का अध्ययन कर रहा है.
कहते हैं मुग़लों को पछाड़ने के बाद जब लाल किले को अंग्रेज़ों ने अपना इन्फ़ेंट्री बेस बनाया तब आदर्श के शोध की यह धूरी अस्तबल के लिए उपयुक्त समझी गयी. आज़ादी के मतवालों के कमर में रस्सी बांधकर घसीटने वाले घुड़सवारों के घोड़े इसी जगह पर बांधे जाते थे. सन् सैंतालिस ने आदर्श के इस अध्ययन धूरी को बहुत बड़े शरणार्थी केन्द्र में तब्दील कर दिया. उस तरफ़ से घर-बार, हित-प्रेम छोड़कर भागने वालों को यहीं पनाह मिली. जवाहरलाल की सरकार ने इन पनाहगिरों की रोज़ी-रोटी के लिए इसे बाज़ार बना दिया. समय बीतने के साथ यह कच्चा बाज़ार कब पक्का हो गया, कब यह इलेक्ट्रॉनिक मंडी बन गयी: यहां के दुकानदारों को भी इसका एहसास बहुत देर से हुआ. बाज़ार में बदलाव की कहानी ट्रांजिस्टर से शुरू होकर टेप रिकॉडर और वीडियो के बीच से गुज़रते हुए अब हर वैसी चीज़ के साथ आ टिकी है जिसे इलेक्ट्रॉनिक प्रॉडक्ट कहते हैं. तो अपने उसी अध्ययन के सिलसिले में आदर्श बाबू हर दूसरे दिन बाज़ार पहुंच जाते थे. कभी बाज़ार में बोझा ढोने वालों से बतियाने लगते तो कभी छोटे-छोटे स्टॉल वालों से तो कभी रेहड़ी-पटरी वालों से. इसी दरम्यान उनकी जान-पहचान जवाहर से हो गयी थी. जवाहर मूलत: बक्सर जिले के निवासी हैं. पूस्तैनी काम तो वैसे मछली पकड़ना रहा है उनका लेकिन दसवीं करने के बाद उन्हें गांव में ही टेलीफ़ोन विभाग में नौकरी मिल गयी थी. कच्ची नौकरी और कम तनख़्वाह के चलते उनके लिए परिवार का गुजर-बसर करना मुश्किल था. तब हरियाणा-पंजाब कमाने का चलन ज़ोर नहीं पकड़ा था. कमाने-धमाने लोग कलकत्ता जाया करते थे. हां बीते कुछ सालों से उनके गांव वालों ने काम-धंधे का एक और नए ठिकाने का पता लगा लिया था ‘डिल्ली’. धड़ाधड़ फ़ैक्ट्रियां खुलती जा रही थी उस डिल्ली में. डिल्ली कमाने वाले जब गांव लौटते थे तो उनके पास थोड़े-से रुपयों-पैसों के साथ एक रेडियो भी होता था, जिसको सुनने के लिए शाम को रेडियो वाले के घूर को घेर कर लोग बैठ जाया करते थे. घूर पर डेग्ची में पानी, गुड़ और पत्ती रख दी
बीते कुछ सालों से उनके गांव वालों ने काम-धंधे का एक और नए ठिकाने का पता लगा लिया था ‘डिल्ली’. धड़ाधड़ फ़ैक्ट्रियां खुलती जा रही थी उस डिल्ली में. डिल्ली कमाने वाले जब गांव लौटते थे तो उनके पास थोड़े-से रुपयों-पैसों के साथ एक रेडियो भी होता था, जिसको सुनने के लिए शाम को रेडियो वाले के घूर को घेर कर लोग बैठ जाया करते थे. घूर पर डेग्ची में पानी, गुड़ और पत्ती रख दी जाती थी. लोग ठोर चिपका देने वाली चाह पीकर ही उठते थे वहां से. घूर के नजदीक बैठकर जवाहर चाह की हर चुस्की के साथ डिल्ली कमाने का सपना देखता और यह सोचने लगता कि उसके दुआर पर भी एक दिन वैसी ही चाह बनेगी लेकिन उसकी चाह में गुड़ की जगह चीनी होगी.
जाती थी. लोग ठोर चिपका देने वाली चाह पीकर ही उठते थे वहां से. घूर के नजदीक बैठकर जवाहर चाह की हर चुस्की के साथ डिल्ली कमाने का सपना देखता और यह सोचने लगता कि उसके दुआर पर भी एक दिन वैसी ही चाह बनेगी लेकिन उसकी चाह में गुड़ की जगह चीनी होगी. उसके सपने में फ़ैक्ट्री का काम सबसे उपर था. उसे लगता था कि फ़ैक्ट्री में काम करने के बाद उसे जो पैसे मिलेंगे उससे बरकत होगी, और छोटे भाई-बहनों और इया-बाबुजी के लिए कुछ पैसे वो गांव भी भेज दिया करेगा. इन्हीं बातों को मन में मथते हुए जवाहर एक शाम बक्सर में उस रेल पर चढ़ गया जो उसके सपनों के बहुत क़रीब जा रही थी. तारीख़ अब ठीक से याद नहीं रही लेकिन अक्टूबर का महीना और सतहत्तर का साल उसे अच्छी तरह याद है. तब घड़ी भी नहीं थी कलाई पर, बस इतना याद है कि अचानक भोरे-भोरे डिब्बे के लोग झोरा-झंटी लेकर उतरने लगे थे. लगभग पूरा डिब्बा खाली हो गया था. मन में डर समाने लगा था : कहीं कोई दुर्घटना-उर्घटना तो नहीं हो गयी. तभी बोरा घसीटता हुआ एक आदमी सामने से गुज़रा. जवाहर से रूका नहीं गया, पूछ बैठा; ‘का हो गिया भाई साहेब, काहे धरफरा रहे हैं स?’ ’कइसन आदमी है, नींद में हो का? गाड़ी पहुंच गयी दिल्ली, उतरना है त उतरो न त गाड़ी चली जाएगी सेंटिंग में सफाई-उफाई के लिए.’सचमूच नींद खुल गयी. बाबाधाम वाला झोरा कांख में दबा कर जवाहर उतर गए पिछले दरवाज़े से. ‘एके गो पता था – पंडित अदिकलाल मिसिर बक्सर वाले, भगीरथ पिलेस, चांदनी चउक, लाल किला के सामने.’ थ्री व्हीलर ले के चल दिए ठिकाना खोजने. चार क़दम की दूरी तक आने में थ्री व्हीलर वाले ने चार घंटे लगा दिए और चालीस रुपए भी ऐंठ लिए.
पंडित अदिकलाल मिसिर इंदिरा गांधी तो थे नहीं कि सब जानते उनको. मिसिर बाबा की खोज में जवाहर की दोनों आंखे उनकी छोटी गर्दन को जबरन बार-बार लंबा कर देती थी. आंखों और गर्दन की उस जोड़ी ने मिसिर बाबा की ताक में सड़क पर ख़ूब कसरत की. लेकिन इस वक्त वहां सफ़ेद धोती-कुर्ता में लिपटे माड़वाडि़यों के झूंड के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा था. हाथ में हंटर लिए तोंद के गोले को कुदाते वे ऐसे सड़क रौंद रहे थे मानो उनका ऐसा न करना सड़क में भी उन जैसी ही गोलाई उभार देगा. जवाहर को लगने लगा जैसे वह किसी ग़लत जगह पर आ गया है. ‘पिछली बार मिसिर बाबा जब गांवे आए थे त बोले थे कि बहुत लोग हैं अपने बिहार-यूपी के भगीरथ पिलेस में. मेहनत-मजूरी का सारा काम उहे लोग के जिम्मे है. बाकी इहवां त किरिन फुटे भी दु घंटा से जादा हो गिया, कोई नहीं दिखा अबले मजदूर बिरादरी का.’ पूछने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी किसे से मिसिरजी के बारे में. ‘का त मिसिरजी हांक रहे थे? बाबाजी लोग का आदते होता है ढेर बोलने का. आ गांवे आके त आदमी बोलवे करता है आपन भाव बढाने के लिए ...’ न जाने
कहते हैं मुग़लों को पछाड़ने के बाद जब लाल किले को अंग्रेज़ों ने अपना इन्फ़ेंट्री बेस बनाया तब आदर्श के शोध की यह धूरी अस्तबल के लिए उपयुक्त समझी गयी. आज़ादी के मतवालों के कमर में रस्सी बांधकर घसीटने वाले घुड़सवारों के घोड़े इसी जगह पर बांधे जाते थे. सन् सैंतालिस ने आदर्श के इस अध्ययन धूरी को बहुत बड़े शरणार्थी केन्द्र में तब्दील कर दिया. उस तरफ़ से घर-बार, हित-प्रेम छोड़कर भागने वालों को यहीं पनाह मिली.
और क्या-क्या सोच लिया उसने सड़क पर इधर से उधर टहलते हुए. तीन-चार घंटे बाद जब लुंगी-कुर्ता में अपने जैसे कुछ लोग आते दिखे तो लगा कि जैसे जान में जान आ रही है. नजदीक आने पर जब पता चला कि बोली-वाणी में भोजपुरी भी हैं ये लोग, चित्त प्रसन्न हो गया. नहीं रोक पाए जवाहर ख़ुद को. थोड़ा हिचके लेकिन पूछ लिए, ‘बक्सर वाले अदिकलाल मिसिर केने बइठते हैं?’ अलग-अलग समूह के सामने तीन-चार बार यही क्रम दुहराने के बाद पता चल मिसिरजी का ठिकाना. क़रीब बारह बजने वाले थे. दूर से माथे पर लाल टीका लगाए गर्दन में अंगोछा लपेटे एक गोरी काया अपनी ओर ओ देख जवाहर दौड़ पड़े. ‘गोड़ लागSतानि ए बाबा! काहां रहनि ह अबे ले? भोरुके के आएल बानि. खोजत-खोजत तीन डिबिया तेल जरि गईल ए बाबा. हार-दार अब रउए सरन में आएल बानि. अब कुछ रउए करिं ये बाबा.’ ’चिंता जीन करS जवाहिर. अब आ गइलS नुं, कौनो न कौनो उपाय त जरूरे होखि. पहिले इ बतावS कि नस्ता-पानी भईल ह कि ना? कुल्ला-गराड़ी करS, चलS पहिले तोहके नस्ता कराईं.’ जवाहर अब मिसिरजी के पीछे-पीछे चल रहा था. दोनों टाउन हॉल की ओर जा रहे थे.क्रमश: