20.7.08

चलS पहिले तोहके नस्ता कराईं

क़रीब चार साल पहले कुछ लिखने की कोशिश की थी. चार-पांच हज़ार शब्द लिखे भी थे. यार-दोस्तों ने ऐसी हौसलाअफ़ज़ाई की कि 'उपन्यास ही लिखूंगा अब' सोचकर लिखना-विखना ही बंद कर दिया था. अब फिर एक बाद पुरानी कोशिश में उतरने जा रहा हूं. देखना है इस बार आपका उत्साहवर्द्धन इसे कहां ले जाता है. हां, इस श्रृंखला का कोई नाम मुझे नहीं सूझ रहा है. आपको सूझे तो ज़रूर बताइएगा.
‘कहिए न, कइसे आना हुआ ?’

पंडित अदिकलाल मिसिर इंदिरा गांधी तो थे नहीं कि सब जानते उनको. मिसिर बाबा की खोज में जवाहर की दोनों आंखे उनकी छोटी गर्दन को जबरन बार-बार लंबा कर देती थी. आंखों और गर्दन की उस जोड़ी ने मिसिर बाबा की ताक में सड़क पर ख़ूब कसरत की. लेकिन इस वक्त वहां सफ़ेद धोती-कुर्ता में लिपटे माड़वाडि़यों के झूंड के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा था. हाथ में हंटर लिए तोंद के गोले को कुदाते वे ऐसे सड़क रौंद रहे थे मानो उनका ऐसा न करना सड़क में भी उन जैसी ही गोलाई उभार देगा.


‘बस, ऐसे ही. बहुत दिनों से इधर आया नहीं था, इसीलिए सोचा कि ज़रा आप लोगों से मिलते चलूं.’
‘अरे नहीं बिना काम के त आप इधर अइबे नहीं करते हैं, जरूर फेर केकरो जीवनी चरित लेने आए होइएगा आप.’ जवाहर की बात में भी दम था. आदर्श जब भी उनके पास जाता था, किसी न किसी से बात करवा देने की जिद ज़रूर करता था. दरअसल पिछले तेरह-चौदह महीनों से आदर्श दिल्ली के एक मीडिया मार्केट का अध्ययन कर रहा है.
कहते हैं मुग़लों को पछाड़ने के बाद जब लाल किले को अंग्रेज़ों ने अपना इन्फ़ेंट्री बेस बनाया तब आदर्श के शोध की यह धूरी अस्तबल के लिए उपयुक्त समझी गयी. आज़ादी के मतवालों के कमर में रस्सी बांधकर घसीटने वाले घुड़सवारों के घोड़े इसी जगह पर बांधे जाते थे. सन् सैंतालिस ने आदर्श के इस अध्ययन धूरी को बहुत बड़े शरणार्थी केन्द्र में तब्दील कर दिया. उस तरफ़ से घर-बार, हित-प्रेम छोड़कर भागने वालों को यहीं पनाह मिली. जवाहरलाल की सरकार ने इन पनाहगिरों की रोज़ी-रोटी के लिए इसे बाज़ार बना दिया. समय बीतने के साथ यह कच्चा बाज़ार कब पक्का हो गया, कब यह इलेक्ट्रॉनिक मंडी बन गयी: यहां के दुकानदारों को भी इसका एहसास बहुत देर से हुआ. बाज़ार में बदलाव की कहानी ट्रांजिस्टर से शुरू होकर टेप रिकॉडर और वीडियो के बीच से गुज़रते हुए अब हर वैसी चीज़ के साथ आ टिकी है जिसे इलेक्ट्रॉनिक प्रॉडक्ट कहते हैं. तो अपने उसी अध्ययन के सिलसिले में आदर्श बाबू हर दूसरे दिन बाज़ार पहुंच जाते थे. कभी बाज़ार में बोझा ढोने वालों से बतियाने लगते तो कभी छोटे-छोटे स्टॉल वालों से तो कभी रेहड़ी-पटरी वालों से. इसी दरम्यान उनकी जान-पहचान जवाहर से हो गयी थी. जवाहर मूलत: बक्सर जिले के निवासी हैं. पूस्तैनी काम तो वैसे मछली पकड़ना रहा है उनका लेकिन दसवीं करने के बाद उन्हें गांव में ही टेलीफ़ोन विभाग में नौकरी मिल गयी थी. कच्ची नौकरी और कम तनख़्वाह के चलते उनके लिए परिवार का गुजर-बसर करना मुश्किल था. तब हरियाणा-पंजाब कमाने का चलन ज़ोर नहीं पकड़ा था. कमाने-धमाने लोग कलकत्ता जाया करते थे. हां बीते कुछ सालों से उनके गांव वालों ने काम-धंधे का एक और नए ठिकाने का पता लगा लिया था ‘डिल्ली’. धड़ाधड़ फ़ैक्ट्रियां खुलती जा रही थी उस डिल्ली में. डिल्ली कमाने वाले जब गांव लौटते थे तो उनके पास थोड़े-से रुपयों-पैसों के साथ एक रेडियो भी होता था, जिसको सुनने के लिए शाम को रेडियो वाले के घूर को घेर कर लोग बैठ जाया करते थे. घूर पर डेग्ची में पानी, गुड़ और पत्ती रख दी

बीते कुछ सालों से उनके गांव वालों ने काम-धंधे का एक और नए ठिकाने का पता लगा लिया था ‘डिल्ली’. धड़ाधड़ फ़ैक्ट्रियां खुलती जा रही थी उस डिल्ली में. डिल्ली कमाने वाले जब गांव लौटते थे तो उनके पास थोड़े-से रुपयों-पैसों के साथ एक रेडियो भी होता था, जिसको सुनने के लिए शाम को रेडियो वाले के घूर को घेर कर लोग बैठ जाया करते थे. घूर पर डेग्ची में पानी, गुड़ और पत्ती रख दी जाती थी. लोग ठोर चिपका देने वाली चाह पीकर ही उठते थे वहां से. घूर के नजदीक बैठकर जवाहर चाह की हर चुस्की के साथ डिल्ली कमाने का सपना देखता और यह सोचने लगता कि उसके दुआर पर भी एक दिन वैसी ही चाह बनेगी लेकिन उसकी चाह में गुड़ की जगह चीनी होगी.

जाती थी. लोग ठोर चिपका देने वाली चाह पीकर ही उठते थे वहां से. घूर के नजदीक बैठकर जवाहर चाह की हर चुस्की के साथ डिल्ली कमाने का सपना देखता और यह सोचने लगता कि उसके दुआर पर भी एक दिन वैसी ही चाह बनेगी लेकिन उसकी चाह में गुड़ की जगह चीनी होगी. उसके सपने में फ़ैक्ट्री का काम सबसे उपर था. उसे लगता था कि फ़ैक्ट्री में काम करने के बाद उसे जो पैसे मिलेंगे उससे बरकत होगी, और छोटे भाई-‍बहनों और इया-बाबुजी के लिए कुछ पैसे वो गांव भी भेज दिया करेगा. इन्हीं बातों को मन में मथते हुए जवाहर एक शाम बक्सर में उस रेल पर चढ़ गया जो उसके सपनों के बहुत क़रीब जा रही थी. तारीख़ अब ठीक से याद नहीं रही लेकिन अक्टूबर का महीना और सतहत्तर का साल उसे अच्छी तरह याद है. तब घड़ी भी नहीं थी कलाई पर, बस इतना याद है कि अचानक भोरे-भोरे डिब्बे के लोग झोरा-झंटी लेकर उतरने लगे थे. लगभग पूरा डिब्बा खाली हो गया था. मन में डर समाने लगा था : कहीं कोई दुर्घटना-उर्घटना तो नहीं हो गयी. तभी बोरा घसीटता हुआ एक आदमी सामने से गुज़रा. जवाहर से रूका नहीं गया, पूछ बैठा; ‘का हो गिया भाई साहेब, काहे धरफरा रहे हैं स?’ ’कइसन आदमी है, नींद में हो का? गाड़ी पहुंच गयी दिल्ली, उतरना है त उतरो न त गाड़ी चली जाएगी सेंटिंग में सफाई-उफाई के लिए.’
सचमूच नींद खुल गयी. बाबाधाम वाला झोरा कांख में दबा कर जवाहर उतर गए पिछले दरवाज़े से. ‘एके गो पता था – पंडित अदिकलाल मिसिर बक्सर वाले, भगीरथ पिलेस, चांदनी चउक, लाल किला के सामने.’ थ्री व्हीलर ले के चल दिए ठिकाना खोजने. चार क़दम की दूरी तक आने में थ्री व्हीलर वाले ने चार घंटे लगा दिए और चालीस रुपए भी ऐंठ लिए.
पंडित अदिकलाल मिसिर इंदिरा गांधी तो थे नहीं कि सब जानते उनको. मिसिर बाबा की खोज में जवाहर की दोनों आंखे उनकी छोटी गर्दन को जबरन बार-बार लंबा कर देती थी. आंखों और गर्दन की उस जोड़ी ने मिसिर बाबा की ताक में सड़क पर ख़ूब कसरत की. लेकिन इस वक्त वहां सफ़ेद धोती-कुर्ता में लिपटे माड़वाडि़यों के झूंड के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा था. हाथ में हंटर लिए तोंद के गोले को कुदाते वे ऐसे सड़क रौंद रहे थे मानो उनका ऐसा न करना सड़क में भी उन जैसी ही गोलाई उभार देगा. जवाहर को लगने लगा जैसे वह किसी ग़लत जगह पर आ गया है. ‘पिछली बार मिसिर बाबा जब गांवे आए थे त बोले थे कि बहुत लोग हैं अपने बिहार-यूपी के भगीरथ पिलेस में. मेहनत-मजूरी का सारा काम उहे लोग के जिम्मे है. बाकी इहवां त किरिन फुटे भी दु घंटा से जादा हो गिया, कोई नहीं दिखा अबले मजदूर बिरादरी का.’ पूछने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी किसे से मिसिरजी के बारे में. ‘का त मिसिरजी हांक रहे थे? बाबाजी लोग का आदते होता है ढेर बोलने का. आ गांवे आके त आदमी बोलवे करता है आपन भाव बढाने के लिए ...’ न जाने

कहते हैं मुग़लों को पछाड़ने के बाद जब लाल किले को अंग्रेज़ों ने अपना इन्फ़ेंट्री बेस बनाया तब आदर्श के शोध की यह धूरी अस्तबल के लिए उपयुक्त समझी गयी. आज़ादी के मतवालों के कमर में रस्सी बांधकर घसीटने वाले घुड़सवारों के घोड़े इसी जगह पर बांधे जाते थे. सन् सैंतालिस ने आदर्श के इस अध्ययन धूरी को बहुत बड़े शरणार्थी केन्द्र में तब्दील कर दिया. उस तरफ़ से घर-बार, हित-प्रेम छोड़कर भागने वालों को यहीं पनाह मिली.

और क्या-क्या सोच लिया उसने सड़क पर इधर से उधर टहलते हुए. तीन-चार घंटे बाद जब लुंगी-कुर्ता में अपने जैसे कुछ लोग आते दिखे तो लगा कि जैसे जान में जान आ रही है. नजदीक आने पर जब पता चला कि बोली-वाणी में भोजपुरी भी हैं ये लोग, चित्त प्रसन्न हो गया. नहीं रोक पाए जवाहर ख़ुद को. थोड़ा हिचके लेकिन पूछ लिए, ‘बक्सर वाले अदिकलाल मिसिर केने बइठते हैं?’ अलग-अलग समूह के सामने तीन-चार बार यही क्रम दुहराने के बाद पता चल मिसिरजी का ठिकाना. क़रीब बारह बजने वाले थे. दूर से माथे पर लाल टीका लगाए गर्दन में अंगोछा लपेटे एक गोरी काया अपनी ओर ओ देख जवाहर दौड़ पड़े. ‘गोड़ लागSतानि ए बाबा! काहां रहनि ह अबे ले? भोरुके के आएल बानि. खोजत-खोजत तीन डिबिया तेल जरि गईल ए बाबा. हार-दार अब रउए सरन में आएल बानि. अब कुछ रउए करिं ये बाबा.’ ’चिंता जीन करS जवाहिर. अब आ गइलS नुं, कौनो न कौनो उपाय त जरूरे होखि. पहिले इ बतावS कि नस्ता-पानी भईल ह कि ना? कुल्ला-गराड़ी करS, चलS पहिले तोहके नस्ता कराईं.’ जवाहर अब मिसिरजी के पीछे-पीछे चल रहा था. दोनों टाउन हॉल की ओर जा रहे थे.
क्रमश:

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