14.7.08

अकथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्त रोग

जाने-माने मीडिया विशेषज्ञ, कलाकार, फिल्‍म निर्माता, पत्रकार व लेखक तथा सराय और रक्स मीडिया कलेक्टिव के संस्थापकों में से एक शुद्धब्रत सेनगुप्ता फिलहाल सराय मीडिया लैब में इंटर-मीडिया एवं डिजिटल कल्चर पर शोध कर रहे हैं. हफ़्तावार के पाठकों के लिए पेश है दीवन-ए-सराय 02: शहरनामा में प्रकाशित शुद्धब्रत सेनगुप्ता के लेख अकथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्त रोग की पहली किस्त. जल्दी ही शेष किस्तें भी पाठकों के लिए उपलब्ध होंगी. इसके लिए लेखक, अनुवाद, संपादक द्वय एवं प्रकाशक एवं विशेष सहयोगी चन्‍दन शर्मा का आभार. चाहें तो आप shudha@sarai.net पर लिख कर सीधे लेखक तक अपनी राय भेज सकते हैं.

‘‘एक रोज़ शायद ... लोग ये सवाल पूछेंगे कि अपनी सबसे पुरशोर कारस्तानियों पर
छयी चुप्पी को बनाए रखने पर हम इतने आमादा क्यों हैं।’’
मिशेल फूको, द हिस्ट्री ऑफ़ सेक्शुऑलिटी, खंड I

कनॉट प्लेस के आउटर सर्कल के गलियारे में बने मोड़ के पास एक छोटा सा कोना। इसी कोने की फुटपाथ पर एक आदमी पॉर्न साहित्य बेच रहा है। पास ही में एक लड़का दिल की शक़्ल वाले रजतरंगी गुब्बारे बेच रहा है। दोनों के पीछे की दीवार पर मीरा नायर की कामसूत्र का एक बदरंग हो गया पोस्टर लगा हुआ है। पोस्टर के पास ही सिक्के से चलने वाला एक फ़ोन है जो अब चलता नहीं है। जल्दबाज़ी में ही सही लेकिन बहुत सारे लोगों ने उस दीवार पर अपने-अपने दिल की बात कह डाली है। इस ग़रज़ से कि किसी की लापरवाह नज़र से वह चूक न जाएँ, तक़रीबन सभी ने अपने संदेशों के कुछ ख़ास हिस्सों को पूरी एहितयात के साथ रेखांकित भी कर दिया है। इन पैग़ामों में लोगों ने अपने नाम और फ़ोन नंबर दिए हैं और पढ़ने वालों को बात करने का खुला न्यौता भी। ज़्यादातर लोगों ने रात के एक ख़ास वक़्फ़े में बात करने की इच्छा ज़ाहिर की है।
वाणी थक कर चूर हो जाने की हद तक सेक्स के बारे में बात करने को तैयार है बशर्ते बात करने वाला शख्स 18 से 25 साल के बीच हो. मनोज को ऐसे मर्दों से बात करने में दिलच्स्पी है जो मर्दों से बात करने में दिलचस्पी रखते हैं। अनीता सिर्फ़ एसएमएस के ज़रिए ताल्लुक क़ायम करना चाहती है। वह अपने फ़ोन पर नहीं बल्कि एक पेजर पर एसएमएस मंगवा रही है। उसका वादा है कि अगर उसे आपका संदेश अच्छा लगा तो वह भी यक़ीनन जवाबी एसएमएस भेजेगी।
इन लघुकथाओं के लेखक कौन है? आउटर सर्कल की एक पपड़ाई सी दीवार के पास कुछ लम्हा ठहरने वाले ये लोग मच्छरों से कुश्ती लड़कर अजनबियों को अपने जिस्मानी अहसासात के बारे में बताते हुए पूरी रात जागकर क्यों गुज़ार देना चाहते हैं? इसमें लेन-देन या पैसे का कोई चक्कर नहीं है। ये वैसे दिलकश इश्तहारी बोर्ड नहीं जिनके ज़रिए आपको एंटीगुआ के किसी नंबर पर बात करने की दावत दी जाती है और, किसी कोने में आहिस्ते से ये जानकारी भी दे दी जाती है कि आपकी कॉल पर आईएसडी दरें लागू होंगी। ये इश्तहार आपको लाइव चैट की दावत देते हैं। पर ये चैट न तो जीवंत होती है और न ही चटपटी। ऊपर हमने जिन पैग़ामों का ज़िक्र किया है उनको लिखने वाले लोग एस्कॉर्ट कारोबार या मसाज-मालिश के धंधे में लगे ख़वातीनो-हज़रात भी नहीं हैं जो अपने ऑनलाईन इश्तहार और रेट कार्डों के ज़रिए मुक़म्मल ज़ेहनी और जिस्मानी संतुष्टि का यक़ीन दिलाते हैं। शायद यह स्कूली बच्चों की शरारत हो। अगर ऐसा है भी तो उनके ये संदेश अतीत की यादगार के तौर पर अगले मौसम की पुताई तक इस दीवार पर बने रहेंगे - एक बड़े, उदास शहर में वाबस्तगी की गुज़ारिशों की तरह। जिन्होंने इन दीवारों पर ये पैग़ाम लिखे हैं, उसके बारे में क्या कहा जाए? ये लोग ऐसी कौन सी बेजान हवा में साँस लेते हैं कि उन्होंने ज़िन्दगी से मुँह मोड़ शाँति और सुकून के लिए इस दीवार और टेलीफ़ोन का सहारा ले लिया और इस बचे-खुचे आनंद में ही ज़िन्दगी का समूचापन ढूँढ़ने लगे हैं।
इस कराहती दीवार को मैने अपनी एक ख़ास तलाश के दौरान देखा था। उस वक़्त मैं दिल्ली में प्यार, वासना और चाहत के निशान खोज़ रहा था। मैं शहर की सड़कों और उसे जोड़े रखने वाले छोटे चौराहों पर चाहत, इज़ाहर व इक़रार की कहानियों और नृत्य-कथाओं को पढ़ना चाहता था। अब तक की दिल्लियों, यानी रसख़ान की दिल्ली, मीर और ग़ालिब की दिल्ली इन सबके भीतर रहा-बाट की बोल-चाल में काम-कला की साज-सज़ावट ख़ूब दिखाई देती है। दिल्ली की इन पुरानी शक़्लों ने मेरी सोच और चेतना पर एक गहरी परछाई छोड़ी है। अब मैं यही देखना चाहता था कि आज के दौर की तेज़ रोशनी में ये परछाईं कितनी टिक पाती है। मैं प्राचीन और आधुनिक दिल्ली की कामेच्छा का नक़्शा बनाना चाहता था। और इस काम के लिए ज़रूरी कुछ उपयोगी किंवदंतियाँ, सबूत और ऐसी ही कुछ दूसरी चीज़ें जुटानी चाहता था। मैं बस अड्डों, मक़बरों, सिनेमाघर की बालकनी में लगी सीटों, कॉफ़ी हाउसों में कोने पर रखी टेबलों की तरफ़ ग़ौर से देखने की ज़ुरूरत या गुंजाइश को दर्ज़ करना चाहता था। मैं चाहता था कि सार्वजनिक पार्कों के झाड़-झंखाड़ और शौचालयों से ख़ुद इन स्थानों को जो कामोद्दीपक हैसियत मिलती है, उसको जाना-बूझा जाए। शुरुआत में मैं बहुत दूर तक नहीं जा पाया। किसी बदतमीज़ वीडियो गेम के पहले ही दौर में ख़राब चाल चल कर लड़खड़ा जाने के नतीज़ों की तरह, आड़ी-टेढ़ी लिखावटों वाली यह दीवार मेरे रास्ते में आकर खड़ी हो गई। अपनी ख़ास भाषा या अल्फ़ाज़ा के कारण, या उनकी कमी से एक ख़ास हैसियत अख़्तियार कर चुकी इस दीवार, इस रुकावट ने मुझे मेरी खोज़ पर आगे बढ़ने से रोक दिया। अपनी खोज़ के लिए मुझे इस दीवार से आगे जाना ज़रूरी था और इसी कोशिश में मैं वहाँ जा पहुँचा जिसका ज़िक्र में करने जा रहा हूँ।
मैंने वाणी को फ़ोन घुमा दिया। रात के ग्यारह बज चुके थे। मैंने उससे जानना चाहा कि क्या मैं उसी वाणी से बात कर रहा हूँ जिसने कनॉट प्लेस के आउटर सर्कल में एक दीवार पर अपना फ़ोन नंबर लिख छोड़ा था।
‘‘यहाँ कोई वाणी नहीं रहती’’, एक थकी हुई सी आवाज़ आई। आवाज़ से लगता था कि वह किसी औरत की है और उसकी उम्र पच्चीस से सैंतीस साल के बीच होगी। ऐसा लगा कि आवज़ तो वाणी की है लेकिन जैसे वह अपने नाम की पहचान से भाग रही है।
मैं लगा रहता हूँ। अपनी इच्छा बताते हुए मैं उसे इस बात का भरोसा दिलाता हूँ कि मैंने होश गँवा देने की हद तक सेक्स के बारे में बात करने के लिए फ़ोन नहीं किया है, बल्कि मैं तो इस बारे में बात करना चाहता हूँ कि लोग दीवारों पर इस तरह के संदेश क्यों छोड़तें हैं। मैंने उससे कहा कि अब भी अगर वह चाहे तो फ़ोन काट सकती है। उसने फ़ोन नहीं काटा। अब उसने मुझसे एक सीधा सवाल किया - क्या मैं जेबोनेयर या फैंटेसी के लिए क़िस्से-कहानियाँ ढूँढ़ रहा हूँ। मैंने कहा कि मैं लिखता तो हूँ मगर मैं पत्रकार नहीं हूँ और अब तक डेबोनेयर या फैंटेसी में छपने का सौभाग्य नहीं मिला है। फिर पूछता हूँ कि क्या वह अब भी बात करने को तैयार है।
‘‘सेक्स’’, वह कुछ इस तरह बोलती है मानो बतियाने का मुद्दा खोल रही हो। कहा ‘‘अगर हम सेक्स के बारे में बात नहीं कर सकते तो फिर बात करने का क्या तुक है?’’
मेरे हाव-भाव में एहतियात का पुट है, आवाज़ बंद हो जाती है। मैं एक फ़ासला बनाए रखने की कोशिश कर रहा हूँ मुझे लगता है कि फ़ोन करके मैं बेमतलब ही इस झमेले में फँस गया हूँ। तभी उसने मेरी मुश्किल थोड़ी आसान कर दी। उसकी आवाज़ आयी, ‘‘क्या आपको कोई समस्या है? निजी ज़िन्दगी की कोई परेशानी? कोई गुप्त रोग?’’
‘‘तुम ये काम क्यों करती हो?’’ मैं पूछता हूँ।
उसने कहा, ‘‘तुमने ये फ़ोन क्यों किया?’’ और फ़ोन काट दिया। मैं इस अहसास के साथ फ़ोन के सामने बैठा रह जाता हूँ कि जवाबी सवाल पूछ कर उसने मेरे सवाल का जवाब ही तो दिया है। इस बात का आग्रह करके कि मैं संपर्क साधने की अपनी इस औचक कोशिश पर ज़रा ठहरकर सोचूँ। बड़ी महीन चतुराई से उसने ज़ाहिर कर दिया कि जिस तरह मैं उसे दीवार के पर्दे से खींचकर उससे बात कर सकता हूँ उसी सहजता से वह मेरे अस्तित्व को स्वीकार या नकार सकती है। किसी फ़ोन नेटवर्क के आउटर सर्कल पर हुआ यह संक्षिप्त साक्षात्कार जैसे रूहानी अंतरंगता का क्षण रहा हो।
मैं वाणी के बारे में सोचने लगता हूँ। एक ऐसी औरत जिसका नाम ‘ध्वनि’ या ‘शब्द’ का संस्कृत पर्यायवाची है। एक ऐसी औरत जो देह से ज़्यादा एक आवाज़ है - एक ऐसी आवाज़ जो किसी के भी कानों में गूँज सकती है। एक ऐसी औरत जो जिस्मानी तौर पर हो या न हो, मगर टेलीफ़ोन के तारों में क़ैद किसी भूत की तरह कहीं न कहीं है। सोचते -सोचते मुझे बचपन में सुनी एक कहानी याद आ गई जो अभी भी उस वक़्त मुझे पल भर के लिए चिंता में डाल देती है जब रात-बिरात अचानक फ़ोन की घंटी बज उठती है। मैं सोचने लगता हूँ कि अगर ऐसा ही है तो मर चुकी या क़ैद इच्छाओं के न जाने कितने भूत और जिन्न मेरे शहर की हवा में डोल रहे होंगे। निज़ामुद्दीन दरगाह की चारदीवारी के भीतर बनी छोटी-छोटी खोहों में ऐसे कई माहिर बैठे हैं जो ‘ऊपरी हवा’ में मौज़ूद जिन्न के सताये हुओं का इलाज करते हैं। क्या उन्होंने कभी मेरे शहर में कामना की सँकरी गलियों में भटकते भूतों पर ध्यान दिया है? क्या शहर की ख़त्म हो चुकी कामेच्छा में दोबारा जान आने के संकेत दिखाई देते हैं?

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