18.7.08

अगर मैं झूट बोल्लई होऊँ तो इत्ती की इत्ती मर जाऊँ

पेश है अकथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्‍त रोग की अगली खेप. शायद अब भी पाठक शुद्धा के इस महत्त्वपूर्ण लेख पर गुप्‍त चर्चा ही कर रहे हैं. बहराल अभी कुछ किस्तें और आएंगी अगले दो-तीन दिनों में.

गुप्त रोग मायूसी की एक अवस्था का लक्षण है। इन रोगों से ये भी पता चलता है कि हमारे शहर की ज़िन्दगी में सेक्शुअलिटी की क्या जगह है।

गुप्त ज्ञान हमारी भाषा परहावी हो चुका है। दिल्ली काऔसत मर्द स्त्री या पुरुष केगुप्त अंगों की चर्चा किए बिनाया पारिवारिक सेक्स के दैवीऔर वर्जित विशेषाधिकार काआवाहन किए बग़ैर कोईसार्थक जुमला मुकम्मल नहींकर पाता। नतीजा, हरबातचीत के इर्द-गिर्दगुप्तशब्दोंका एक काला बवंडर छा जाता है। इन लफ़्जों परकोई ध्यान नहीं देता और ख़ुदबोलने वाले भी इस बात सेअनजान रहते है कि वह क्याबोल रहे हैं। मानो सेक्स सेजुड़े शब्द, जैसे शिश्न/लंड यायोनि/चूत को बयान करनेवाले शब्द दिन--दिन केसोच-व्यवहार और बातचीतके वॉलपेपर हों।

सेक्स का ख़याल भी इतना परेशान करने वाला माना जाता है कि आप उसके बारे में सीधे-सीधे बात नहीं कर सकते। उसके साथ किसी ऐसे विशेषण का होना ज़रूरी है जिससे इस बारे में कोई शुबहा बाक़ी न रह जाए कि इस बारे में किस क़दर लुक-छिप कर बात करना ज़रूरी है। यानी जब आप ‘सेक्स’ कहना चाहें तो उसके आगे-पीछे कहीं ‘गुप्त’ या ऐसा ही कोई शब्द ज़रूर जोड़े। कहने का मतलब ये है कि सेक्स के मुताल्लिक़ कोई भी चीज़ लाज़िमी तौर पर गुप्त होनी चाहिएः गुप्तांग, गुप्त ज्ञान, गुप्त आनंद वग़ैरह। इसका एक मतलब यह भी है कि स्वाभाविक दायरे से बेदख़ल कर दिए जाने पर गुप्त प्रसंग संक्रामक हद तक सर्वव्यापी हो जाते हैं। सड़क के कोनों पर लगे रंग-बिरंगे पर्चों की तरह ये क़िस्से भी हर कहीं मंडराने लगते हैं, बग़ल से गुज़रने वाले मुसाफ़िरों पर झपटने के लिए हर वक़्त तैयार जैसे चौक-चौराहे पर अपनी देह की नुमाइश करने के शौक़ीन लोग।

गुप्त ज्ञान हमारी भाषा पर हावी हो चुका है। दिल्ली का औसत मर्द स्त्री या पुरुष के गुप्त अंगों की चर्चा किए बिना या पारिवारिक सेक्स के दैवी और वर्जित विशेषाधिकार का आवाहन किए बग़ैर कोई सार्थक जुमला मुकम्मल नहीं कर पाता। नतीजा, हर बातचीत के इर्द-गिर्द ‘गुप्त शब्दों’ का एक काला बवंडर छा जाता है। इन लफ़्जों पर कोई ध्यान नहीं देता और ख़ुद बोलने वाले भी इस बात से अनजान रहते है कि वह क्या बोल रहे हैं। मानो सेक्स से जुड़े शब्द, जैसे शिश्न/लंड या योनि/चूत को बयान करने वाले शब्द दिन--दिन के सोच-व्यवहार और बातचीत के वॉलपेपर हों। इसके बावज़ूद जब संजीदगी के साथ शरीर के अलग-अलग हिस्सों का नाम लेने की बारी आती है तो एक अटपटी-सी शर्मिंदगी छा जाती है। मिसाल के तौर पर, टट्टों की बात चलने पर कुछ ऐसा भाव पैदा होता है मानो अंडकोष सिर्फ़ छोटी-छोटी गोलियाँ हों। जैसे कि अंडकोष की गोलियाँ शून्य हों - स्क्रैबल की ख़ाली जगहों की तरह अपने आप में अर्थहीन - अपने आप को छोड़कर हर दूसरी चीज़ की संज्ञा बन जाते हैं।

इस मुक़ाम पर मैं दिल्ली में भाषा के विकासक्रम के बारे में बात करना चाहता हूँ। क्या दिल्ली, हमारा ये शहर, हमेशा से मादरचोद-बहनचोद शहर रहा है या आम चीज़ों के बारे में बात करने के लिए हमारे पास कोई और अभिव्यक्तियाँ भी थी? किसी भी ज़बान में निहित अभिव्यक्तियों की संभावनाओं का का एक पैमाना ये है कि वह भाषा किसी को कोसने के लिए कितने मुमकिन तरीक़े मुहैया करा पाती है। या फिर यह देखा जाए कि घटिया भाषा के रूप में परिभाषित करने के लिए जिस कवच का सहारा लिया गया है वह कितना मोटा है। मेरे ख़याल से अब मैं अपनी बात को थोड़ा और साफ़ तौर पर कह सकता हूँ। मेरा कहना ये है कि शहर की आम भाषा से कथित घटिया भाषा या नीची ज़बान को अलग करने की कोई ज़रूरत नहीं है। बल्कि मैं तो इस बात को लेकर अपनी शिक़ायत दर्ज़ कराना चाहता हूँ कि ये अभिव्यक्तियाँ हमारी महिला रिश्तेदारों (माँ या बहन) के साथ इस मुक़ाम पर मैं दिल्ली में भाषा के विकासक्रम के बारे में बात करना चाहता हूँ। क्या दिल्ली, हमारा ये शहर, हमेशा से मादरचोद-बहनचोद शहर रहा है या आम चीज़ों के बारे में बात करने के लिए हमारे पास कोई और अभिव्यक्तियाँ भी थी? किसी भी ज़बान में निहित अभिव्यक्तियों की संभावनाओं का का एक पैमाना ये है कि वह भाषा किसी को कोसने के लिए कितने मुमकिन तरीक़े मुहैया करा पाती है। या फिर यह देखा जाए कि घटिया भाषा के रूप में परिभाषित करने के लिए जिस कवच का सहारा लिया गया है वह कितना मोटा है।
अपमानजनक यौन संबंधों तक सीमित होकर रह गई है। यानी हमारे पास इन बातों का भण्डार ख़त्म होता जा रहा है और ये अभिव्यक्तियाँ दो ख़ास दायरों तक सीमित होती जा रही है। इसके साथ मैं ये भी अर्ज़ करना चाहता हूँ कि यह तरीक़ा रूखी भाषा के दायरे को मर्दाना और आमतौर पर मीसोगाइनिस्ट तर्ज़ेबयाँ का औज़ार बना देता है। मुझे भाषा में मिसॉजिनी
(औरतों से घृणा) से कोई ऐतराज़ नहीं है बशर्ते मर्दों के ख़िलाफ़ औरतों की अभिव्यक्ति के रास्ते भी उपलब्ध हों।

अगर आपकी इजाज़त हो तो अब मैं 1961 में हाईडलबर्ग विश्वविद्यालय के साउथ एशिया इंस्टीट्यूट द्वारा शाया एक बेहद दिलचस्प मोनोग्राफ़ के कुछ अंश आपके सामने रखना चाहता हूँ। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में हिन्दी के प्रोफ़ेसर और भाषा विज्ञान के जाने-माने विद्वान रह चुके हैं। इस मोनोग्राफ़ से मैं ऐसी गालियों का एक छोटा-सा कैटलॉग पेश करना चहाता हूँ जो वक़्त की मार और भाषा की सिकुड़न झेलते-झेलते अब ख़त्म हो चुकी है। इसके ज़रिए मैं नाक़ाबिले बयान चीज़ों के बारे में भाषायी सहनशीलता, बर्दाश्त और संभावनाओं की लुप्त होती परंपरा की तरफ़ संकेत करना चाहता हूँ इसलिए थोड़ा सा धैर्य और रखें।

तुम रहती दुनिया तक जीओ।

दूल्हा के बाबा को पोते-पड़ौते खिलाने नसीब हों।

जवानी की क़सम।

अगर मैं झूट बोल्लई होऊँ तो इत्ती की इत्ती मर जाऊँ

अपने लगमातरों से मिलने गई थी क्या?

अपने घग्गड़ के पास थी क्या?

इस मुए की पड़ौस पै झाडू फिरे।

जवान लाश लौटे

सांडबिजार, साँप के सँपोलिए

छिनाल, हरामज़ादी हैज़े पीटी, हर्राफ़ा, लुच्ची नपूती, साली, भेनचो, सुअरख़नी,

तूझे चार घड़ी का हैज़ा हो।


द डायलेक्ट्स ऑफ़ डेल्ही, पृष्ठ 44-47.


यह एक बड़ी बदक़िस्मती की बात है कि दूसरी परिपक्व और परिष्कृत भाषाओं के विपरीत हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी के विद्वानी ने गंदी या यौन केन्द्रित भाषा का पर्याप्त इकट्ठा नहीं किया है। मैंने अभय दुबे साहब, प्रोफ़ेसर शाहिद अमीन, और रविकान्त व अन्य विद्वान साथियों (और मेरा ख़याल है कि इस फ़ेहरिस्त में मुझे डॉ. आलोक राय का नाम भी शामिल कर लेना चाहिए) से ये पता लगाने की कोशिश की है कि क्या हिन्दी में भी ज़बान पर संजीदगी के साथ विचार किया गया है। अभय जी जैसे कुछ साथियों ने किसी मशहूर लेखक द्वारा लिखे गए एक अप्रकाशित मोनोग्राफ़ का ज़िक्र किया है जिसे धक्के मार-मार कर सार्वजनिक परिक्षेत्र से बाहर निकाल दिया गया। प्रोफ़ेसर अमीन जैसे कुछ अन्य लोगों ने बताया कि शब्दकोश और निघंटुओं की रचना ज्ञानोदय काल की देन रही है और गाली-गलौज़ का ज़िक्र ला कर असल में हम ज्ञानोदय से पहले की एक सामाजिक मौखिक संस्कृति की बात कर रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि नागरी प्रचारिणी सभा तो ज्ञानोदय काल के बाद की और बाक़ायदा आधुनिक चीज़ रही है और उसने इस सिलसिले में कुछ न कुछ काम ज़रूर किया होगा। रविकांत ने मुझे बताया कि फ़ादर एस.डब्लू. फ़ैलन की हिन्दुस्तानी डिक्शनरी में ऐसी चीज़ों का एक भारी ख़ज़ाना मिलता है। देखने पर पता चला कि उनकी बात वाक़ई काफ़ी हद तक सही थी। यह निघंटु अपने आप में निश्चय ही एक शानदार चीज़ है मगर मेरी राय में यह वक़्त की रफ़्तार में पीछे छूट गया है। सटीकता और सामयिकता की ऐतिहासिक कसौटियों की दृष्टि से देखें तो हमारे यहाँ आमफ़हम ‘सड़कछाप’ भाषा का ऐसा कोई कोश नहीं, जो रेख़्ती की नाज़ुक सरगोषियों से लेकर शहरी नीची ज़बान की धूमधड़ाका पंजाबी या बंबईया गालियों तक को अपने अंक में भर सके। क्योंकि मानक हिन्दी उर्दू कोशों में तो अपवाद के तौर पर नामवाची शब्दों को छोड़कर सम्पूर्ण शरीर के साथ न्याय कर सकने वाले तमाम लफ़्जों को नियमित तौर पर देश निकाला दिया जाता रहा है। आधुनिक भारतीय भाषा व साहित्य में सेंसर की पैठ इतनी गहरी है कि इससे भाषायी दरिद्रता की विंडबनात्मक स्थिति बन जाती है - जिन अश्लीलताओं का उपयोग नहीं होना चाहिए उनका अतिशय उपयोग होता है और दीगर क़िस्म के वाक्ररूपों की घनघोर उपेक्षा होती है। नतीजतन, एक तरफ़ तो मादरचोद-बहनचोद जैसी मुट्ठी भर गालियाँ चारों तरफ़ फैल जाती हैं और दूसरे सिरे पर कई बातों को कहने के लिए लोगों को क़ायदे के शब्द भी नहीं मिल पाते। मिसाल के तौर पर, अगर कोई हिन्दी भाषी महिला किसी डॉक्टर से बात करती है, ख़ासतौर से स्त्री रोग विशेषज्ञ से बात करती है तो उसे अपनी समस्या के बारे में बताते हुए बहुत दिक़्क़त महसूस होती है। इसीलिए हिन्दी साहित्य की ‘काम-विषयक’ अभिव्यक्तियों पर संस्कृत की कोई जमी रहती है। इशारों, द्विअर्थी अभिव्यक्तियों और दुलार-मनुहार के मामले में उर्दू का दामन फिर भी ज़्यादा भरा दिखाई देता है। सआदत हसन मंटो और इस्मत चुग़ताई जैसे कहानीकारों या नून मीम राशिद जैसे शायरों ने काम की बातों को अभिव्यक्त करने के रचनात्मक तरीक़े ईज़ाद किए थे लेकिन, इसमें भी कोई शक़ नहीं कि समकालीन उर्दू अदबीयत यौन विवरण के पूरी तरह ख़िलाफ़ है। अली सरदार जाफ़री ने दीवान--मीर से सारे काम विषयक अशआर छाँट-छाँट कर बाहर निकाल दिए और पूरे अदबी दायरे में कहीं ज़रा सी फुसफुसाहट भी सुनाई नहीं दी। उर्दू और हिन्दुस्तानी के साहित्य भंडार के इस परिशोधन से होता यह है कि जिस्म, सेक्शुअलिटी और ऐसी हर चीज़ के इर्द-गिर्द ख़ामोशी का एक ब्लैकहोल पैदा हो जाता है जिसे ‘नाक़ाबिले बयान’ माना जाता है।

3 comments:

  1. टिप्पणियों की स्थिति देखकर ही लग जाता है की हम हिन्दुस्तानियों ने कथित शराफत के मोटे लिहाफ से आँखों सहित अपना चेहरा किस कदर छिपाया हुआ है. पर चेहरा छिपाने से समस्या हल नहीं होती.

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