19.7.08

यह एक शुरुआत है

अब मोहनदास फिल् पर बहस को आगे बढ़ा रहे हैं युवा पत्रकार, लेखक और कहानीकार अभिषेक कश्यप. अभिषेक ढाई साल तक भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' में सहायक संपादक रहे. 'हंस' के खबरिया चैनलों पर केंद्रित बहुचर्चित अंक के अतिथि सहायक संपादक. पिछले साल उनकी पहली किताब 'खेल' (कहानी संग्रह) छप कर आयी. फिलहाल युवा रचनाशीलता पर केंद्रित अनियतकालिक पत्रिका 'हमारा भारत' का संपादन कर रहे हैं.

‘मोहनदास’ पर आपकी भड़काऊ प्रतिक्रिया देखी. आपको याद होगा, उस दिन उस शो में आपके साथ मैंने भी यह फ़िल्म

हम फ़िल्म देखते हुए और उसके बाद भी यही चर्चा करते रहे कि मोहनदास कहानी खुद एक उत्कृष्ट रचना है और इसे फिल्म की भाषा में ढालने के लिए फिल्मकार को कहानी से बाहर जाकर यह लिबर्टी लेने की भी जरूरत नहीं थी. अगर इन एक दो बातों को छोड़ दें तो मुझे लगता है कि मजहर कामरान ने आपनी सारी कमजोरियों के बावजूद कहानी का मूल आस्वाद बनाए रखने की पूरी कोशिश की है. असल में बॉलीवुड कुछ इस तरह चारो तरफ़ छाया है कि उसकी जद से अचानक इतनी आसानी से निकल पाना सम्भव नहीं . क्रॉस ओवर सिनेमा के साथ पिछले कुछ बरसों में जो नए फिल्मकार मुंबई पहुंचे हैं वे भले ही विश्व स्तर की फिल्में नहीं बना रहे, मगर वे डेविड धवनों, यश चोपडा़ओं और सुभाष घइयों की परम्परा से विद्रोह जरूर कर रहे हैं

देखी थी. मै आपकी बातों से सहमत हूँ, मगर आपके शीर्षक से सहमत नहीं कि उदय प्रकाश की कहानी मोहनदास जितनी बढ़िया है फ़िल्म उतनी ही घटिया. मैं तो किसी क्लासिक साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनने के बहुत पक्ष में ही नहीं, जैसा कि विश्वविख्यात लातिन-अमरीकी लेखक मार्केज मानते हैं कि किसी कृति पर फ़िल्म बनने से पाठकों के इमेज का ध्वंस होता है ... मगर जब कृतिकार को ही आपत्ति नहीं और उसकी किसी कहानी पर फ़िल्म बन ही गई तो लेखक और राकेश जी जैसे स्पर्श कातर पाठकों को सेल्यूलाइड पर कहानी या उपन्यास देखने की ग्रंथि से मुक्त होना चाहिए.
राकेश जी की तरह मुझे भी यह देख कर दुःख हुआ कि पुरबन्दरा के दिन-हीन कस्तूरी और काबा का बेटा मोहनदास इतना चिकना कैसे है! ...फिल्मकार ने ब्यूटी और ग्लैमर का रंग घोलने के लिए फ़िल्म को जिस तरह एक ख़बरिया चैनल के दफ्तर से शुरू किया है , वह भी वाहियात लगता है ... हम फ़िल्म देखते हुए और उसके बाद भी यही चर्चा करते रहे कि मोहनदास कहानी खुद एक उत्कृष्ट रचना है और इसे फिल्म की भाषा में ढालने के लिए फिल्मकार को कहानी से बाहर जाकर यह लिबर्टी लेने की भी जरूरत नहीं थी. अगर इन एक दो बातों को छोड़ दें तो मुझे लगता है कि मजहर कामरान ने आपनी सारी कमजोरियों के बावजूद कहानी का मूल आस्वाद बनाए रखने की पूरी कोशिश की है. असल में बॉलीवुड कुछ इस तरह चारो तरफ़ छाया है कि उसकी जद से अचानक इतनी आसानी से निकल पाना सम्भव नहीं . क्रॉस ओवर सिनेमा के साथ पिछले कुछ बरसों में जो नए फिल्मकार मुंबई पहुंचे हैं वे भले ही विश्व स्तर की फिल्में नहीं बना रहे, मगर वे डेविड धवनों, यश चोपडा़ओं और सुभाष घइयों की परम्परा से विद्रोह जरूर कर रहे हैं जो सिनेमा को कला नहीं मनोरंजन मानते हैं और अपनी तमाम मूर्खताओं को हिन्दी सिनेमा के नाम पर पिछले कई दशकों से ग्लोरिफाई करते रहे हैं ... यह एक शुरुआत है और मजहर कामरान की यह पहली फ़िल्म है. राकेश जी जैसे साहित्यप्रेमियों को इस नजरिया से भी सोचना चाहिए.

2 comments:

  1. मित्रवर 'मोहनदास' पर बहस बढ़ाने के लिए शुक्रिया. वैसे कहना तो आप भी वही चाह रहे हैं जो मैंने कहा है. आपका ढंग थोड़ा नरम है और मेरा एकदम दो टूक. आपने अपनी टिप्पणी में मुझे कुछ तमगे भी दिए हैं. आपके कोमल हृदय को ठेस न पहुंचे इसलिए उस पर मैं मौन ही रहूंगा.
    मैं अब भी पूरज़ोर ढंग से यह दुहरा रहा हूं कि जो पात्रों का चयन ढंग से नहीं कर सकता वो निर्देशन क्या करेगा. जहां तक रही बात साहित्यिक कृतियों पर‍ फिल्म बनने की, तो मुझसे बेहतर आप जानते होंगे कि न जाने कितनी साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बन कर हिट हो गयी और आज भी लोगों के ज़ेहन में उसकी स्मृति रची-बसी है.
    और ऐसा नहीं है कि सफलता की कहानी लिखने वालों में नए निर्देशक नहीं रहे हैं. आखिर में ... हालांकि मेरी प्रतिक्रिया बहुत तीखी है और रहेगी भी, आदतन मैं इस काम में कोई कोताही नहीं बरतता; फिर भी यह बता दूं कि मैं कामरान साहब को टांग देने की बात नहीं कर रहा जो आम तौर पर मीठी प्रतिक्रिया देने वाले कई मित्रों को कहते सुना.

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