29.10.07

पत्ता बुहारने वा‍ली औरतें

छोटा था. नौ-दस साल का. चौथी-पांचवीं में रहा होउंगा शायद. रेणू के पुर्णिया में एक हॉस्टल था. हॉ्स्टल क्या आश्रम कहना ज़्यादा वाजिव होगा. हां, तो मैं उसी पुर्णिया में आश्रमवासी था. छुट्टियों की बड़ी किल्लत रहती थी. गुरुजी ये तो सुनाते रहते थे कि कैसे महात्मा गांधी अनशन पर बैठे थे और कैसे उन्होंने गांधीजी से कहा था कि बापू आप अनशन तोड़ दीजिए, आपको कुछ हो गया तो अंग्रेज़ फिर नहीं जाएंगे... पर छुट्टी देने में न जाने वे इतने कंजूस क्यों थे. सबसे बड़ी छुट्टी गर्मी की. 15 दिनों की.

ख़ैर, ख़ुशी इस बात की होती थी कि पन्द्रह दिन ही सही, जमकर आम खाएंगे. गांव पहुंचते ही अपने हमउम्र दोस्तों के साथ सीधा गाछी (आम का बगीचा) ...

उन दिनों दिन-दिन भर गाछी में ही रहती थी बच्चों की टोली. बड़ों की भी. तब आम के बगीचे में पेड़ से टपके आम के पीछे एक साथ बच्चे दौड़ पड़ते थे. कभी-कभी उस पछड़ा-पछड़ी में आम केवल गुठली बन कर रह जाती थी. हाथ आते थे केवल रस सने छिलके. यानि पेड़ से टपके आम उस वानर टोली के लिए कम पड़ते थे. फिर रास्ता निकलता था पेड़ पर चढ़कर डाल हिलाकर. कई तीन फुटिए पेड़ पर चढ़ने में बड़े माहिर थे. सेकेंड में ही बंदर की तरह क़ूद कर उंची-उंची फुनगियों पर चढ़ जाते थे और किसी डाढ़ (डाल) को दो बार हिला देते थे. पके आम भड़भड़ा कर ज़मीन पर गिर पड़ते थे. और भी तरीक़े थे आम से पेट भरने के. कभी और चर्चा करेंगे.

गाछी में आम खाने के अलावा और बहुत कुछ करते थे हमलोग. कभी-कभी बोका/बोतू (बकरा) आ जाता गाछी में. टोली का कोई बड़ा लड़का उस पर सवार हो जाता और उसके काम उमेठने लगता था. बोतू घोड़े की तरह उमकने लगता था और बाक़ी बच्चे हो-हो करते उसके पीछे दौड़ पड़ते थे. कई बार इस प्रक्रिया में बोतूसवार गिर भी पड़ता था. हमारी टोली में अकसर उमा शंकर, जो बेला के नाम से प्रसिद्ध था: बोतूसवारी किया करता था. हम बच्चों को वो समझा देता था कि हम गिर जाएंगे.

आम के महीनों में कभी-कभी शिकार भी होता था. बच्चे पेड़ों की डालियों का मुआयना करते रहते थे कि किस डाल पर पंडूक का घोंसला है और किसमें चूजा या अंडा है. पता लगते ही टोली का कोई बच्चा पेड़ पर चढ़कर घोंसले से चूजे या अंडे उतार लेता था और फिर सामूहिक भोज होता था. कई बार गाछी में ही भून-भान कर खा लिया जाता था. कभी-कभी किसी गाछ (पेड़) पर धामन सांप होने की ख़बर फैल जाती थी. उसके बाद तो बच्चे बांस के लंबे-लंबे फट्ठे लेकर उसको उतारने की कसरत करने लगते थे. कभी-कभार सफलता भी मिल जाती थी. उसके बाद बच्चों में उसे हाथ से छूने की मारामारी होने लगती थी. फिर घुमते-फिरते ये किस्सा आता था कि धामन तो दुधारू पशुओं के पांव छानकर उसका दूध पी लेता है. ऐसे किस्से ख़ूब चलते थे.

पेड़ों के अलग- अलग नाम थे. जैसे बमई (बंबइया), मालदह (लंगड़ा टाइप), किसनभोग (कृष्णभोग), केरवा (केले जैसा लंबा होता है), सेनुरिया (सिंदुरी), बभना (बहुत स्वादिष्ट होता था वो आम, सालों से खाने को नहीं मिला), खजवा (खाजे जैसा मीठा), घिउअहवा (थोड़ा-थोड़ा घी जैसा स्वाद), भदइया (भादो में पकता था, ज़्यादातर अंचार के लिए इस्तेमाल होता था), सबजा (पकने पर इसमें कीड़ा लग जाता था. अंचार बहुत अच्छा होता था उस आम का. किसी को मुफ़्त में देना होता तो घर वाले इसे ही याद करते थे). और भी बहुत थे, नाम भूल गया.

हमारे खजवा और घिउहवा के पेड़ के नीचे गड्ढा था. बारिश होने पर उसमें पानी जमा हो जाता था. कहें तो अकसर गड्ढे में पानी रहता ही था, इसलिए इन दोनों पेड़ों के टपके आम खाने के लिए गड्ढे में जाना ही होता था. उस गड्ढे का एक बड़ा फ़ायदा ये था कि दीर्घशंका-निबटान के बाद पानी के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता था.

अमूमन दोपहर में हमलोग मचान पर लेटे होते थे. सरसराहट की आवाज़ आती थी कभी-कभी. उठकर देखता था कुछ औरतों और लड़कियों की टोली पत्ते बुहार रही होती थी. हम झपट पड़ते थे उनकी तरफ़. उनके पत्ते के ढेर को ढहा देते थे. कहते थे, देखाब कए गो आम नुकैले हते (दिखाओ तुमने कितने आम छुपाए हैं)?’ तब पता नहीं था कि वो कौन औरतें हैं, क्यों पत्ते बुहार ही हैं. अपनी टोली के लड़के फिर बताते थे कि जरना (जलावन) के लिए. वो ग़रीब थीं. ज़्यादातर दलित-पिछड़ी जातियों की. पति दिहाड़ी करने जाया करते थे और ये रात के भोजन के लिए जलावन इकट्ठा करती थीं. अब उस नादानी को याद करके बहुत अपराधबोध होता है.

पिछली मर्तबा जब गांव गया था तो देखा अब वो गाछी नहीं है. पिछले दस-बारह साल से जो बाढ़ आए उसमें सारे पेड़ ख़राब हो गए, गिर गए. दो-एक बचे थे उसको टोले के लोगों ने जलावन और चौखट-किवाड़ के लिए काट दिया. अब केवल रेत है उस जगह पर जहां कभी दूर-दूर तक गाछी ख़त्म नहीं होती थी. पहले मधु भैया की गाछी, फिर हमारे दादा की, केदार बाबा की, टुना बाबा की, पत्ती की, राणा बाबा की, बच्चाजी की, मठवाले की, किरपाल (कृपाल) बाबा की, उधर श्रीनारायण सिंह के खानदान की, उसके बाद बिपुलवा की, ... वैसे भी हमारी गाछी तो परबाबा (पिताजी के दादा) या फिर उनके पिताजी ने लगवायी थीं. इसीलिए तो लगभग टोले भर की गाछी एक ही जगह पर थी.

अब वहां गाछी नहीं है. गांव में पत्ता बुहारने वाली अब भी हैं. बहुत दूर जाना पड़ता है उन्हें. हाई स्कूल के आगे. पिछली मर्तबा चचेरे भाइयों ने बताया दो-तीन साल पहले हाई स्कूल के आगे वाली गाछी में पत्ता बुहारने वा‍ली औरतों के साथ जोर-जबरदस्ती की थी गांव के कुछ नए रईसज़ादों ने.

23.10.07

चाचीजी कड़ाही ख़रीदने निकलीं


दोपहर में भोजन के बाद मुझे नींद आने लगी थी. सोने की कोशिश कर रहा था. मच्छरों की भनभनाहट और बच्चों की उधम-कूद के बीच आंखों का बन्‍द होना और खुलना जारी था. इसी बीच एक तीखी आवाज़ कानों में पहुंची. पर मैं बिस्तर पर पड़ा ही रहा. इधर आंगन से मेरी छोटी चाचीजी बुझाई अ बरतन वाला जानु आएल हई कहकर बाहर निकलीं. किसी बच्चे से पूछा, बरतन वाला हकार देइत रहलई ह, केन्ने गेलई?’ बच्चे ने कहा, जा, दाई उ त ओन्ने सड़क ओरि चल गेलौ. चाची ने उस बच्चे से उसे बुलाने के लिए कहा. थोड़ी देर में वर्तन वाला दरवाज़े पर आ चुका था.

चाची ने उसे बिठाया और उससे बातचीत शुरू कर दी. बातचीत इतनी उंची आवाज़ में हो रही थी कि मेरे लिए सोने की कोई भी कोशिश करना बेकार था. उठकर बाहर आ गया. देखा, एक वृद्ध ठठेरा एल्युमिनियम के वर्तनों को एक बड़े से जाले में लिए बैठा था. चाचीजी और उनके बातचीत के दौरान पता चला कि वह पड़ोस के गांव बेलहियां का रहने वाला है. ख़ैर चाचीजी ने उससे एक कड़ाही दिखाने को बोला. उन्होंने कड़ाही दिखाई. समय आ गया था मोलभाव करने का. ठठेरे ने जो भी क़ीमत बतायी थी कि चाचीजी ने बड़े नाटकीय अंदाज़ में उसे खारिज करते हुए कहा, बुझाई अ उमिर के जौरे-जौरे बुढ़वा के अकिलो घटल जाई छई. अंहेर बतियाई छि. भल न ओई अंगना में 130 के लेलथिन ह कड़ाही. अई से लमहरे होतई. ठठेरे ने कहा, त हम कहां कहइले कि लेईए लिउ अतेक में. आहां न बताउ कि कतेक देबई?’ चाचीजी ने जो भी क़ीमत लगाया, ठठेरे को वो मंजूर नहीं था. उन्होंने कहा, ठीक हई, आहां दाम लगा न लेली. जहां मिलत एतना में उंहें से ले लेब. काहे ला बेसी पइसा जियान करब. इसी के साथ उन्होंने से कड़ाही मांगी. काहे ला हड़बड़ाई छि. रुकू न पूछवा देइले भाव कहकर चाचीजी ने किसी बच्चे से पड़ोस की एक दूसरी चाचीजी को बुलावा भेजा. थोड़ी देर वो चाचीजी भी आ गयीं. एक बार फिर मोलभाव शुरू हुआ. अब दो चाचियों के सामने एक अकेला बुजुर्ग ठठेरा! क़ीमत और कड़ाही की क्वालिटी को लेकर दोनों पक्षों के बीच जिरह होती रही. इस बीच सामने से एक भाभीजी आ गयीं. रह-रह कर भाभीजी भी जिरह में अपना योगदान देती रहीं.

क़ीमत संबंधी जिरह हो ही रही थी कि चाचीजी ने उनसे पूछा, त अनाजो त ले न लेब हो बुढ़ा?’ बुढ़े ने कहा, न, नगद लागत. लेबे के है त लिउ न त जाए दिउ. आउरो जगह जाए के है हमरा. चाचीजी का अपना ये अस्त्र भी जाता दिखा. उन्होंने ज़ोर देकर कहा, है अनाज न काहे लेब? धान देब. आहां स के गांव में है धान?’ ठठेरे ने कहा, न है त कि भेलई. एखुन कुंटल (एक-एक क्विंटल) चाउर (चावल) न मिललई ह रिलीफ़ में, आ उपर से पांच-पांच सौ रुपइयो मिललई ह. कि करबई हम धान लेके?’

उसके बाद, गांव-जवार में धान की फसल कैसी है इस बार - चर्चा होने लगी. आखिरकार ठठेरे ने अनाज लेने से मना कर दिया. चाचीजी इस फिराक में थीं कि किसी तरह क़ीमत पर चर्चा हो जाती है, तो कुछ पैसे और कुछ अनाज देकर वो कड़ाही ले लेंगी. पर बात न बनती देख उन्होंने उस बूढ़े ठठेरे को ये बताना शुरू किया कि वो तो लोकल सामान इस्तेमाल ही नहीं करती हैं, ये तो त्यौहार (नवरात्रे) आ रहा हैं इसीलिए वो ये कड़ाही ले लेना चाह रही थीं. इसी बहाने एक वर्तन हो जाता. वर्ना मुज़फ़्फ़रपुर तो रोज़ का आना-जाना है, वहीं से मंगवा लेंगी. ठठेरा बार-बार ये कहते रहे, ओहो, जाउ न त मुजफरेपुर से मंगवा लेब, हम कहां कहइले कि हमरे से ले लिउ. हमरा जाए दिउ आउरो जगह जाए के हैं. मोलभाव में एक घंटा से भी ज़्यादा समय गुज़र गया. नतीजा वही रहा जिसका ठठेरे को संदेह था. चाचीजी ने कड़ाही नहीं ली.

20.10.07

रामजी आए !

(मित्रों कुछ बरस पहले का यह रेखाचित्र अपने तजुर्बे पर आधारित है. शायद मज़ा आए पढ़कर. साभार: चंदन)

नवरात्रे के पावन अवसर पर एक बार फिर श्री रामचन्द्र इस पुण्यभूमिपर अवतरित हुए। घोर कलियुग में धरती हुई। महानगरवासियों ने उनके दर्शन और उनकी लीलाओं का सुख लिया। सच, श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं! क्या ऊँच क्या नीच, क्या अमीर क्या ग़रीब सबके साथ इंसाफ़ किया। नुक्कड़-चौराहों से लेकर पॉश कॉलोनियों तक रामलीला भयीं। बात अलग है कि कहीं उनका दरबार बड़ा था तो कहीं छोटा, कहीं उनकी पोषाक डिज़ाइनर्स थी तो कहीं देसी, कहीं इन्ट्री फ़्री थी तो कहीं जुगाड़ का पास, कहीं सुरक्षा में कमांडो थे तो कहीं बिल्कुल निरीह-निहत्थे।

इसी बीच मित्रों ने नुक्कड़ नाटक तमाशातैयार कर लिया। कहा, रामलीला में दिखाएँगे। भई, सियावर ऐरे-ग़ैरे हैं जो रामलीला में तमाशा करोगे?’ हठधर्मी नहीं माने। चलो, इसी बहाने श्री राम के दर्शन हो जाएँगे, मौका मिलने पर एक इंटरव्यू भी ले लूँगा - सोचकर नुक्कड़ मंडली का ताम-तोबड़ा थाम लिया। पहला पड़ाव पड़ोस की एक रामलीला स्थली। पूछताछ के बाद आयोजको ने हरी झंडी दी। डुगडुगी बजाई। तमाशा दिखाया। तालियाँ बटोरीं। चल पड़े। रास्ते में एक ने कहा, ‘मंच पर सोमरसमहक रहा था।विश्वास न होना था। न हुआ। बस उनसे एक छोटे रोल का निवेदन किया। सहानुभूतिपूर्वक मंजूर हुआ। अगली मर्तबा समय से पहले बुला लिए गए। पर्दे की आड़ में स्तंभवत हुए बालि-बध देखना पड़ा। अग्रज़ के गदे के प्रहार पर अनुज़ की दहाड़पूर्वक कराह और कल्ले में गुटखा दबाए बालि पर वाण चलाने को उतावले श्रीराम। वाण चल पड़ा। जा लगा पीठ में। बारी थी तारा-विलाप की। नेपथ्य-लीलाचरमोत्कर्ष पर थी। छिड़ चुकी तारा का विलापऔर विद्रोह जायज़ था। किसी तरह प्राणनाथ के विलाप के लिए स्टेज पर ठेली गई। छाती पर लोटी भी नहीं थी, साड़ी पैर में उलझ गई। पतलून दर्शकों के सामने थी। पर्दा गिरा। तमाशाशुरू।

अगला पड़ाव रोहिणी। लक्ष्मणजी मूर्च्छित पड़े थे। अचानक भगदड़ मची। संजीवनी बूटी लेकर पवनपुत्र हेलीकॉप्टर से लौटे हैं। मंडली तमाशाे फिराक में लगी रही। बात नहीं बनी। गली-मोहल्ले की लीला थोड़े ही थी! राय बनी ऐन रावण-वध के दिन तमाशा होगा। साज-बाज लेकर श्री राम-दरबार की ओर चल पड़े। आवाज़ आई - राम और रावण में घमासान ज़ारी है, थोड़ी देर में मेघनाथ, कुंभकरण सहित दुष्ट रावण का पुतला दहन होगा।पुतला दहन! तपाक से एक कानफाड़ आवाज़ - अब एक और बड़े हास्य कवि मंच पर आ रहे हैं, तालियों की गड़गड़ाहट से उनका स्वागत कीजिए।श्री राम दरबार क़रीब था। लाउडस्पीकर फिर बोला - इस दशहरे के आयोजन उनका नया प्रॉडक्ट ख़ुशबू प्लस-प्लस भी आज़माएँ।भोंपू से निकला- गुप्ताजी हमारे क्षेत्र के पूर्व विध गायक हैं। अपने कार्यकाल में इन्होंने बहुत काम किया है। अब ये ग़रीबों के लिए भी कुछ करना चाहते हैं, इसलिए इन्होंने नया शक्ति मंचबनाया है ...’तभी एक ज़ोरदार धमाका, आकाश में सतरंगी आकृति और लाउडस्पीकर की चीख - अभी जो आतिश बाज़ी आपने देखी, वह लव-कुश रामलीला कमेटी के मुक़ाबले की है और इसके लिए हम सिंहानियाजी के शुक्रगुज़ार हैं।मंडली मायूस भई। एक ने पूछा, लीला रास नहीं आ रही?’दूसरा बोला, लेकिन तमाशा कब दिखाएँगे?’फूट पड़ गई। कुछ ने कहा - पुतला दहन के बाद यहीं सड़क पर, तो कुछ ने -ऐसा ठीक न होगा। धर्मसंकट। रामजी आए! लीला दिखा दी! ुतला भी फूँक दिया! पर बीते दिनों हुए बलात्कार, पुलिस हिरासत में मौत, झुग्गी-झोपड़ियों के सफ़ाए, रसोई गैस और बिजली की किल्लत जैसी जन साधारण की समस्याओं पर मौन रहे? तमाशाके जम्हुरे ने झकझोरा, कहाँ खो गया?’अपनी समस्या उसे बताई। बोल पड़ा,‘भाई देख, जिनकी श्रीराम से नज़दीकी है वो तो ऐसी लीलाएँ करवाकर ख़ूब शुभ-लाभ कमाएँगे और स्वास्तिक बनाएँगे। इनकी तो मति मारी गई है, रामभक्ति के नाम पर आए जा रहे हैं। इसीलिए तो अपना तमाशा ज़रूरी है।

17.10.07

मोबाइल फ़ोन के लिए कसरत


सात बज रहे होंगे. मैं दातून की तलाश में लल्ला (चचेरे चाचा) की घर की तरफ़ जा रहा था. तभी अचानक ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ आने लगी, ‘जोर से बोलिए न ... नहीं सुनाई दे रहा है आपका आवाज ... बोलिए न ... जोर से बोलिए न ...’ मैं इधर उधर ताकता रहा लेकिन मुझे पता नहीं चल पाया कि आवाज़ किधर से आ रही है. मैं अब लल्ला के घर की मुहार पर था. फिर एक बार वैसी ही आवाज़ आयी. मैं दो क़दम पीछे आया. देखा, रामदेव बाबा की छत पर कोई लड़का कान से सेलफ़ोन चिपकाए तेज़ क़दमों से इधर से उधर कर रहा था.

मैंने लल्ला के आंगन में मिनी जो लल्ला के बड़े भाई की पोती है, मेरी भतीजी लगती है – से कहा, ‘मिनी ए गो दतुअन दे न’. उसने हंसते हुए कहा, ‘जा, कहां है दतुअन! हम स त बरस से मुंह धोई छी.’ ‘जा, गांव में रहके तु स दतुअन न रखई छे. केहन बुड़बक छे गे हे’ कहकर मैं आंगन से निकलने लगा. तभी आंगन में घुसते हुए कान में जो आवाज़ आयी थी उसके बारे में मैंने मिनी से पूछ लिया. ‘काहे अतेक ज़ोर-ज़ोर से बोलइत रहलई ह ओई छत पर से कोनो?’ मिनी ने बताया, ‘फ़ोन पर न बतियाइत रहलई ह. न नु न मिलइत रहई छई फ़ोन. नेटबर्के न पकड़ईत रहई छई हालि.’ ‘ओ’ कहकर जाइए औरो केकरो घरे दतुअन खोजे कहकर मैं वहां से निकल पड़ा. ख़ैर, मुझे प्रभु बाबा के घर में जुलुम सिंह की मां से एक दातून मिली. उनसे दो-चार बातें करके मैं अपने दरवाज़े की ओर वापस आ गया. पर फ़ोन वाली बात रह-रह कर मेरे दिमाग़ में आती रही.

मेरे चचेरे भाई ने बताया कि मोबाइल पर बात करने के लिए गांव में बहुत कसरत करनी पड़ती है. उसने अपना ही उदाहरण दिया और कहा कि उसने अपने मोबाइल को कोने वाले कमरे में एक ख़ास स्थान पर रख दिया है. जब भी घंटी बजती है तो वहीं जाकर बात करते हैं उसके घरवाले. उसने यह भी बताया कि बात भी ख़ास ऐंगल से कान को गर्दन को मोड़कर ही करनी पड़ती है, अन्यथा बीच में ही फ़ोन कट जाता है. उसने बताया कि एक बार उसके मोबाइल की घंटी ख़राब हो गयी, यानि फ़ोन आने पर घंटी नहीं बजती थी. तब उसे फ़ोन सुनने के लिए ख़ास इंतजान करना पड़ा था. ‘एक थाली में पतली पेंदी वाली कटोरी उल्टा करके रखा और फिर कटोरी की पेंदी पर फ़ोन. फ़ोन का वायब्रेटर ऑन कर दिया. होता ये था कि जब भी कोई कॉल आता था तो वाइब्रेटर की वजह से कांप-वांप के फ़ोन कटोरी पर से नीचे थाली में गिर जाता था, फिर झनाक से आवाज़ आती थी और जो भी आंगन में होता था वो आके फ़ोन रिसीव कर लेता था. जब तक घंटी ठीक नहीं हुआ तब तक ऐसे ही चला.’

एक रात मेरे फ़ोन की घंटी बजी. देखा, बाबु लिखा आ रहा था. सुनने के लिए कुंजी दबाया और हेलो, हेलो करने लगा. अंदर कमरे में चाचा सो रहे थे. शायद हेलो, हेलो से आंख खुल गयी होगी. बोल पड़े, ‘बाहर चल न जो’ न त छत पर चल जो, उहां साफ़-साफ़ सुनाई देतउ अवाज.

अगले दिन मिनी के घर गया. पीढ़ा पर बैठा ही था कि निगाह छप्पड़ के अगले सिरे से टंगी सेलफ़ोन पर गयी. पूछा तो बताया उसने, ‘कखनियो घंटी बजई छई त सुनाई पड़ जाई छई आ अई तर नेटबर्को ठीक पकड़ई छई. ’

16.10.07

भयानक त्रासदी के भयावह अवशेष II

सपाटु वाली दाई का अंगना

बहुत दिनों बाद मैं गांव में था. अपने एक भाई के साथ मैं किसी दिशा में निकल रहा था. सपाटु वाली दाई के घर के बग़ल से गुज़र रहा था कि आवाज़ आयी, ‘डिट्टू तनी एन्ने आबे त (डिट्टू थोड़ा इधर आओ)’. ये आवाज़ कीचड़ में सनी एक 13-14 साल की लड़की की थी. डिट्टू ने बताया कि ये दाई की पोती है. मैं भी डिट्टू के सा‍थ उनके आंगन में गया. दाई अपने आंगन से कीचड़ साफ़ कर रही थी और वो लड़की डोल (छोटी बाल्टी) से आंगन का पानी निकाल रही थी. पूछने पर पता चला कि वो कीचड़ पिछले तीन महीनों के जल-जमाव का असर है.

दाई का छोटा लड़का रमेश जो रिश्ते में चाचा हैं, दीदी के साथ पढ़ते थे – चारपाई पर बैठे थे. कहा, ‘यहां रहते तुम तब पता चलता कि तीन महीना कैसे गुजरा है लोगों का इस गांव में. बाईस दिन लगातार मुसलाधार बारिश. साग-सब्ज़ी के लिए लोग तरस गया. आना-जाना सब बंद था. देख रहे हो न कि आज तक किस तरह कीचड़ जमा है...’ बात ख़त्म भी नहीं हुई थी कि दाई बोल पड़ी, ‘तीन महीना से जोना घर में सुतई जाई छई लोग ओही में खनो बनई छई. ओहु में कखनियो एन्ने से त कखनियो ओन्ने से टप-टप पानी टपकइते रहलई (तीन महीने से उसी घर में खाना बन रहा है जिसमें सब सोते हैं. उस पर भी कभी इधर से तो कभी उधर से, पानी टपकता ही रहा).’

जिस चूल्हे पर उनका खाना बनता था, आंगन में अब वो जीर्ण-शीर्ण हालत में है. दाई की पोती ने पहले डोल से बचा-खुचा पानी निकाला और उसके बाद दाई अब कीचड़ पर हाथ फेर रही थी. लिपाई कर रही थी. आंगन के चारो तरफ़ यानी टाट-फूस की झड़ी दीवार, नीचे की तरफ़ पर्याप्त सीलन और कहीं-कहीं जमी काई इस बात की गवाही देते हैं कि पानी में ये भी डूबे हुए थे. असोरा (गैलरी) की मिट्टी भी धंस रही थी. उस पर कुछ ईंटें रखी हुई थी, जिस पर पांव रखकर बारिश के दिनों में उनके घर के लोग एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते थे. आंगन के बाहर जो चापाकल है उसका नीचला सिरा भी पानी में डूबा हुआ था. चापाकल से दो कदम दूर एक गबरा (गंदे पानी का जमाव) है जो उस दौरान उपट गया था. यानी उसका पानी भी आंगन में आया होगा. सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितना मुश्किल रहा होगा उस चापाकल से पानी लेना और उसका इस्तेमाल करना! आज भी सड़ांध आती है आंगन से.

तमाम तरह के किटाणुओं और गंदगी के साथ जमे रहे दाई के परिवार वाले. दाई का घर और दरवाज़ा अच्छे दिनों में ख़ुशबूदार फूलों से महकता रहता था. बचपन के दिनों में हम चोर-सिपाही खेलते हुए उनके आंगन में छुपने चले जाया करते थे. दाई के चेहरे पर अब झुर्री आ गयी है. चौदह-पन्द्रह साल पहले नहीं थी. बस समानता एक ही है उनके तब और अब के चेहरे में. जितने सफ़ेद बाल तब थे उनके आज भी कमोबेश उतने ही हैं. दाई बच्चों में अपने उस सपाटु (चीकू) के पेड़ के कारण बहुत लोकप्रिय थीं जिसके बारे में तब ये सुना करता था कि ‘बरमसिया’ (बारहों महीने फलने वाला) है. वैसे तो दाई हम बच्चों को सपाटु ज़रूर देती थीं लेकिन न देने की स्थिति में बच्चे उनके सामने ही ढेले से तोड़ने से नहीं डरते थे. तब दाई बच्चों के पीछे दौड़ पड़ती थीं और जो बच्चा उनकी पकड़ में आ जाता था उसे उसकी मां के पास ले जाती थीं और शिकायत करती थीं. पीटती नहीं थीं. वो काम अकसर बच्चों की मां कर दिया करती थीं.

बहुत दिन हुए उस पेड़ के कटे. शायद ऐसी ही किसी बारिश में या बाढ़ के दिनों में जलावन के लिए उसे काटा गया होगा. पता नहीं इस बरसात में दाई ने जलावन का इंतजाम कैसे किया होगा!

15.10.07

रेल में पेट का आकार बढ़ जाता है

अजायबपुर स्टेशन, उत्तरप्रदेश

15 अक्टूबर 2007

15 मिनट से अजायबपुर स्टेशन पर गाड़ी खड़ी है. इससे पहले दनकौर स्टेशन पर 25 मिनट से भी ज़्यादा देर तक यह खड़ी रही थी. कुप्पियों में बैठे यात्रियों के सेलफ़ोन की घंटियां रह-रहकर बज रही हैं. कुछ रिंग टोन्स तो बेहद कर्कश हैं जबकि कुछ बेहद मीठी धुनें सुना रहा है. मैंने तो दनकौर में ही अपना लैपटॉप निकाल लिया था. आते-जाते नेटवर्क के बीच कभी जीमेल पर तो कभी सराय.नेट पर मेल चेक कर रहा हूं और रह-रहकर डायरी भी लगता हूं. हमारे बाद वाली कुप्पी में पटना से चढ़ी उस युवती ने जब अपने नोकिया सेट पर ज़ोर-ज़ोर से गीत सुनाना आरंभ कर दिया जो देर रात तक डिब्बे में इधर से उधर करती रही थी, तब मैंने भी मीडिया प्लेयर खोल लिया. इस वक़्त ‘छोर दो आंचल, ज़माना क्या कहेगा ...’ सुन और सुना रहा हूं.

लंबी यात्रा में रेल देर होने पर सवारियों की जो स्थिति होती होगी, इस वक़्त वही हो रही है. अपने रिश्तेदारों को फ़ोन मिलाना, उन्हें दिलासा दिलाने के अंदाज में ख़ुद को तसल्ली देते हमसफ़रों का चेहरा मुझे एक-सा ही लग रहा है. इस बीच कई और रेल आयी और सांय से चली भी गयी. हम अजायबपुर में ही अजायबघर की चीज़ों की तरह पड़े हैं. मैं तो चाय नहीं पीता पर पीने वालों को ठंडी ही मिल रही है, क्योंकि इस गाड़ी में रसोर्इयान नहीं है. किसी स्टेशन से खाने-पीने की चीज़ें उठा ली जाती है और उसके बाद चाय गरम ..., ब्रेड कटलेट, अंडा ब्रेड टाइप की रटंती चालू. मैं यहां जब ये लिख रहा हूं, अचानक मेरी नज़र सामने वाली खिड़की से बाहर उस दुकान पर चली गयी जहां बड़े-से थाल में केसरिया रंग की जलेबियां सजा कर रखी हुई हैं और हलवाई अभी कोई और चीज़ छान रहा है. शायद समोसा या कोइ नमकीन. अपने जी से बाहर आ रहे पानी को जबरदस्ती वापस जी पार करना पड़ रहा है. डर लग रहा है, किसी तरह कूद के दुकान पर चला जाउं और इस बीच में रेल चल पड़ी तो ...

वैसे मेरा तज़ुर्बा ये कहता है कि रेल यात्राओं के दौरान ख़ास तौर से लोगों के पेट का आकार बढ़ जाता है, उन्हें भूख ज़्यादा लगने लगती है, पाचन शक्ति ख़ूब शक्तिशाली हो जाती है. तभी तो चने-मुंगफली से लेकर भांति-भांति के आकार-प्रकार वाले कटलेट्स, हर तरह के गरमागरम पकवान : खाते ही रहते हैं लोग. बुरा हो इस एसी डिब्बों की खिड़कियों का कि इसके सवारियों को खाने-पीने की ऐसी बहुत से चीज़ों से महरूम रहना पड़ता है.

वही राजधानी जो हमारे गरीब रथ के बाद चलने वाली थी पटना से, अजायबपुर में हमें पछाड़ गयी. लगता है अभी इस गरीब रथ को और पछाड़ खिलाया जाएगा, क्योंकि अब भी इसमें कोई हलचल नहीं हो रही है.

अच्छा पिछली रात की एक घटना बताता हूं. बक्सर से आगे बढ़ने पर मैंने अपना लैपटॉप निकाल लिया और ई मेल वगैरह देखने लगा. इतने में बग़ल वाली कुप्पी से एक अधेड़-से सज्जन आए, मेरा कंधा थपथपाया और कहा, ‘सर इंटरनेट चल रहा है?’ ‘जी’ कह भी नहीं पाया था मैं कि उन्होंने चेहरे पर ‘तात्कालिक शालीनता’ की एक छोटी सी चदरी लपेटे कहा, ‘पता चल जाएगा कि सेन्सेक्स की क्या स्थिति है?’ पल भर के लिए मैं फ़्रीज़ हो गया. ‘होश’ में आया तो नेट की गति का जायजा लिया और बोला, ‘सर नेट चल तो रहा है, पर काफ़ी धीमा है. इस वक़्त तो नहीं लेकिन आगे चल कर यदि स्पीड ठीक हुई तो मैं ज़रूर आपकी मदद कर पाउंगा. हक़ीक़त ये है कि सेन्सेक्स सुनते ही मैं तहे दिल तक जल चुका था. जनाब ने ये भी नहीं सोचा कि सेन्सेक्स का उठान-गिरान, उसकी कबड्डी उनके लिए व्यवसाय है उससे किसी और को भला क्यों दिलचस्पी होने लगी. बहरहाल, जनाव अपनी जगह पर वापस लौट गए और मैं फिर से ब्लॉग-विचरण में लग गया. पर नेटवर्क का नॉटवर्किंग के सिद्धांत पर अपनी मर्जी से आना-जाना लगा रहा.

कहें तो एक नंबर !

इधर एक सप्ताह बिहार में बीता कर लौटा हूं. बहुत कुछ है साझा करने के लिए. कोशिश रहेगी कि ज़्यादा से ज़्यादा बातों और तजुर्बों को साझा किया जाए. फिलहाल पेश है एक टुकड़ा पटना जंक्शन के आसपास का. बिल्कुल ताज़ा यानी 14 अक्टूबर की शाम रेल पर चढ़ने से पहले का.

15 अक्टूबर 07

ये है जी पटना रेलवे जंक्शन के आसपास का. हुआ यूं कि मैं अपने एक मित्र से मिलकर बेली रोड से वापस रिक्शे से आ रहा था. रिक्शावाले ने कहीं बीच से निकाल लिया. यानी ये रास्ता वो वाला नहीं था जिधर से मैं बेली रोड गया था. न इन्कम टैक्स गोलम्बर आया, न मंडल और न ही वीमेंस कॉलेज ... हां तो मैं कह रहा था कि रिक्शावाले ने कहीं बीच से निकाल लिया. मुझे जब ये एहसास हुआ कि ऐसा कुछा हुआ है तो मैंने उनसे पूछा. उन्होंने कहा, ‘आरे सर, सौटकट ले लिए हैं. जल्दी पहुंच जाइएगा अन्ने माहे, वोइसे भी हमलोग का सब दिन का काम है न इ. कुछो गड़बड़ नहीं होगा.’ मैंने कहा, ‘वो तो ठीक है लेकिन हमको किसी मार्केट जैसी जगह के बगल से निकलना था, जहां खाने-पीने की दुकान हो.’ ‘त पहिले बताते न! आच्छा चलिए आगे मिलेगा खाने-पीने का दोकान’ कहकर वह पै‍डल मारता रहा. बिल्कुल अंधेरा तो नहीं लेकिन अनजान जगह के हिसाब से खलने वाला ज़रूर था. पर जब रास्ते में जब कुछ मंत्रियों के घर और विधान सभा तथा विधान परिषद के स्टाफ़ क्वार्टर्स दिखे तब तसल्ली हुर्इ.

कहां तो पटना जंक्शन के आसपास का एक अनुभव बांट रहा था और कहां मैं रिक्शायात्रा का वर्णन करने लगा. हां तो लौटा जाए जंक्शन के आसपास. पर रिक्शे से ही तो आना है. रिक्शे की गति से ही तो पहुंचना हो पाएगा. मैं रिक्शा पर बैठे-बैठे सड़क पर इधर-उधर खाने और ‘पीने’ के ठिकाने तलाश रहा था. ढंग का एक भी नज़र नहीं आया, रिक्शा ज़रूर हनुमान मंदिर के आसपास पहुंच चुका था. मैंने रिक्शा चालक से कहा, ‘अभी स्टेशन मत ले चलिए, समय है गाड़ी में.’ अब खाने-‘पीने’ के बजाय मेरी दिलचस्पी केवल ‘पीने’ में रह गयी थी. इशारे से पूछा, ‘किधर है पीने की दुकान’. उन्होंने मुंह और संकेत के सहारे दायीं तरफ़ गली में बताया. मैंने कहा, ‘वहीं ले चलिए रिक्शा.’ एक दुकान के सामने पहुंचकर उन्होंने रिक्शा रोक दिया और अपने आप ही बोलने लगे, ‘का जाने काहे बंद किया है दोकनिया आज?’ तब तक अगल-बगल खड़े, बैठे, पसरे हुओं में से किसी ने कहा, ‘ईद है न आज, एही ला बंद है दोकान. ओन्ने चले जाइए ओ गलिया में. पान दोकान के बग़ल में मिल जाएगा. जे चाहिएगा उहे मिल जाएगा.’

गज़ब! एक बंद दुकान के बाहर चहलकदमी करते कुछ लोग. कुछ लोग आसपास फ़ुटपाथ पर लकड़ी से घिरे स्थान में रखे बेंचों पर विविध रंगों वाले पानी के साथ इत्मीनान से बैठे थे. कहीं से आवाज़ आयी, ‘कउ ची चाहिए? मैंने अपनी ज़रूरत बतायी और प्रश्नवाचक के हाथ में सौ का एक नोट थमाया.’ नोट को पुन: मेरी हथेली पर रखते हुए उसने इशारे से वो जगह बता दी जहां ये देकर कुछ लेना था. 8x8 इंच से आसपास के एक छिद्र से समस्त कार्रवाई संचालित की जा रही थी. अंदर बल्व की पीली रौशनी में एक व्यक्ति ये काम कर रहे थे. औरों की तरह मैंने भी उनसे अपनी ज़रूरत बतायी, पैसे दिए. चंद सेकेंड में चेहरे पर दिव्य मुस्कान और उससे भी ज़्यादा हृदय ने एक विशेष प्रकार की संतुष्टि का एहसास किया. यहां दिल्ली में तो ड्राई डे वाले दिन आजकल बहुत दिक़्क़त होने लगी है. पहले मजनूं का टीला में आसानी से मिल जाता था पर अब तो घर-घर पूछना पड़ता है. मिलता भी है तो दूनी क़ीमत अदा करने पर और फिर भी ‘माल’ की असलीयत पर संदेह बना ही रहता है. उस छिद्र से तो केवल 3 रुपए अतिरिक्त पर ही तरल मिल गया था और कहें तो ‘एक नंबर’!

7.10.07

भयानक त्रासदी के भयावह अवशेष

6 अक्टूबर

आंखें मलते हुए जब सुबह उठा तो कम्बल-तकिए वाले ने कहा, 'सर पटना जंक्शन उतरिएगा न ? बस आ गया, सामान तैयार कर लीजिए.' फटाफट अंगौछा बैग में घुसेड़ा और बेसिन पर जाकर आंखों में पानी झोंका. रेल प्लेटफ़ॉर्म पर आ चुकी थी. ग़लती से सामने की तरफ़ निकल गया. बस स्टैंड के लिए ऑटो नहीं मिल रहा था. दो-एक ऑटो वाला राजी भी हुए तो ज़्यादा पैसे की मांग की. आखिरकार एक रिक्शावाले ने बताया, 'इस सामने जो गल्ली देख रहे हैं, उधरे से निकल जाइए. ओ पार ढेर टेम्पु वाला मिलेगा.' वही किया. ऑटो भी मिला और मैं बस स्टैंड आ गया. मधुवनी जयनगर आवाज़ लगाते एक कंडक्टर/हेल्पर ने पूछा, 'कहां? कहां जाना ?' मुज़फ़्फ़रपुर सुनने के बाद उसने कहा, 'आइए-आइए. समुच्चा सीट त खालिए है. बइठिए, बस अब चलने ही बाली है. टाइम हो गया है.' मैं दाखिल हो गया.

थोड़ी देर में एक आदमी आया और मेरे सामने उस बक्से को खोलकर उसने एक सीडी की पन्नी रखी जिसमें टेलीविज़न रखा था. एक-बार बग़ल में रखे रिमोट से कुछ-कुछ करने के बाद उसने कहा, 'कहां है साला सोहना, बहानचोद मोबाइल चार्ज करता है, अब इ सीडी चलिए नहीं रहा है.' चंद सेकेण्ड में ही वो आदमी आ गया और यह जानकारी ले लेने के बाद कि दिक़्क़त क्या है, अपनी उस्तादी करने लगा और सीडी चालू. दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे हाजीपुर तक मैंने भी देखा. बीच-बीच में कभी-कभार ध्यान इधर-उधर गया वर्ना बड़ी तल्लीनता से देखता रहा था. हाजीपुर में दाखिल होते ही बड़ी त्रासदी के अवशेष दिखने लगे. रेलवे क्रॉसिंग के ठीक बग़ल मे जो नवोदय विद्यालय है, उसके हाते में अब भी 3-4 फ़ीट के क़रीब पानी जमा था. आगे बढ़ने पर देखा - जेल और कचहरी परिसर जलमग्न. थाना भी सड़क पर ही. मेज़-कुर्सी लगाकर बैठे दारोगा साहब और उनके अगल-बगल खड़े दो-चार सिपाही. कहीं-कहीं सड़क पार करता पानी का धार.

ये तब की बात है जब लोग कह रहे हैं बाढ़ समाप्त हो गया है. 75-80 किलोमीटर की दूरी तय करने में बस को क़रीब साढे तीन घंटे लगे, और ऐसा भी नहीं कि पूरा रास्ता ख़राब हो. जगह-जगह जाम. सड़क किनारे बसे कुछ टोलों और गांवों को देखकर बेहद हैरानी हुई. पांच फ़ीट से भी ज़्यादा पानी में कुछ खड़े और कुछ लुढ़के टाट-फूस के घर. किसी की छप्पर झुकी हुई तो किसी की पानी में औंधी पड़ी. लोग कहां गए, सीट पर बैठा सोचता रहा. पर जब कहीं-कहीं सड़क किनारे साड़ी, लुंगी और कटी-फटी प्लास्टिक से तनी सिरकियां दिखीं तो लगा जिन्दा हैं लोग शायद. कहीं-कहीं ऐसी सिरकियां रेलवे लाइनों के किनारे भी दिखे. दरअसल, रेलवे लाइन ही सबसे उंची जगह नज़र आ रही थी.

मुज़फ़्फ़रपुर पहुंचने से थोड़ी देर पहले इन दृश्यों को कैमरे में क़ैद करने की बात ध्यान आयी. पर काफ़ी देर हो चुकी थी और कई बार लगा कि मैं उल्टी तरफ़ बैठा हूं. फिर भी एक-आध तस्वीरें ले पाया, जो इस पोस्ट के साथ लगा रहा हूं.

क्रमश:

5.10.07

ये तो फ़ौजी डिब्बा है!

एक्सक्यूज़ मी सर, यहाँ बैठ सकते हैं?टीटी () साहब मुख़ातिब हो रहे थे। नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस, सैकेंड एसी कंपार्टमेंट, नितांत अकेला, जनसत्ता लग-भग चाट चुका था। छूटते ही कहा, ‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं, अकेला इतनी जगह में थोड़े ही बैठूँगा!’ महाशय ने खिड़की की तरफ़ से सामने वाली सीट ली और उनके साथ अन्य चार काले कोट वाले सज्जन आमने-सामने की सीटों पर बँट गए। मेरे बगल वाले सज्जन ने सफ़ाई-सी दी, ‘‘सा है सर कि लाँग रूट की गाड़ी में कई बार सवारी परेशान हो जाती है। और फिर ये तो सैकेंड एसी है, इसमें तो बैठते ही बड़े-बड़े लोग हैं...।’ बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि सामने वाली सीट पर रिज़र्वेशन चार्ट में चश्मे समेत नज़र धँसाए एक महानुभाव ने कहा, ‘अरे ओ श्रीवास्तव जी याद नहीं है उ प्रयागराज वाली घटना जब मिश्रा पर लुबध गया था एसी थ्री का सवारी सब कानपुर में। बताइए साहब, जब जगहिया खाली है तो बइठने में का दिक्कत है। टीटी सब तभ सवारिए लोग के न लाई के लिए न है। लेकिन इभबात सब सवारी नहीं समझती है। ख़ास करके एसी-वेसी वाले तो एकदमे नहीं।’

बातचीत रफ़्तार पकड़ने लगी थी। क़रीब आधे घंटे बाद एक नौजवान आया, ‘एक्सक्यूज़ मी’ उच्चारित किया और टीटी साहब से बोल पड़ा, ‘सर मैं आपको खोजते-खोजते यहाँ आया हूँ।’ अचानक उसका अंदाज़ गिरगराऊ हो गया, ‘सर उस लड़की का बर्थ कनफ़र्म कर दीजिए न। उसको कुचबिहार तक जाना है, वो अकेली है, और सफ़र लंबा है सर।’ एक कुटिल मुस्कान टीटी साहब के चेहरे पर आकर ...चली गई। उन्होंने अपनी भंगिमा बदली, कंधे से कोट उतारा और कहा, ‘अकेली कहाँ है, तुम लोग जैसे नौजवान के रहते कौनो लड़की भला अकेली रह सकती है!’ तेज़ी के साथ उन्होंने अपनी गर्दन सहकर्मियों की तरफ़ मोड़ी। ‘एक लड़की है बाईस-चौबीस साल की एस एट में। आठ बज़े से कम से कम दस लड़के आ चुके मेरे पास उसका बर्थ कंफ़र्म करवाने। ये जनाब ग्यारहवें हैं’’ कहकर गर्दन उचका कर उस नौजवान से पूछा, ‘हाँ भाई, तुम बताओ, तुम कैसे जानते हो उस लड़की को? घंटा भर पहले तो नहीं थे तुम वहाँ?’ इससे पहले कि वो कोई जवाब दे पाता, एक टीटी महोदय ने कहा, ‘तुम भी एस एटे में हो न? जाओ, अपनी सीट पर बैठो। थोड़ी देर में वहीं आ रहे हैं हम।’ लड़का कुप्पी से बाहर गया भी नहीं था कि टीटी समूह में एक हल्की-सी फुसफुसाहट हुई और ज़ोरदार ठहाका गुँजा। ‘साला, जवान लड़की देख के सब सटना चाहता है उससे। देखने में त सुंदर है! का जाने कैसी है!’ देश की इस ‘गंभीर’ समस्या पर काफ़ी देर तक बातचीत चलती रही। उनका सुनाने का अंदाज़ निराला था।

मिज़ाज से मैं मूलतः शनयान श्रेणी का यात्री हूँ जिसे बोलचाल में स्लीपर कहते है। मौक़ा विशेष पर या फिर मज़बूरी में यदा-कदा वातानुकुलित श्रेणी में भी सफ़र कर लेता हूँ जैसा कि बीते अप्रैल में हुआ। जौनपुर से एक मित्र का फ़ोन आया। कहा, ‘पिछले पाँच बरस से हमारी संस्था जौनपुर और आसपास के इलाक़े में काम कर रही है, लेकिन एक भी बार हमारा इवेल्यूएशन नहीं हुआ है। प्लीज तुम आ जाओ एक सप्ताह के लिए। सारा काम देख-समझ के अपना फ़ीडबैक दे देना।’ उन्होंने पता-ठिकाना बताने के बाद कहा, ‘देखो, एसी टू से आना, इस मद में संस्था के पास पैसे हैं, रिइंबर्समेंट हो जाएगा।’ मन नहीं मन कहा, रिइंबर्समेंट तो हो जाएगा लेकिन इन्वेस्टमेंट तो अपना ही करना पड़ेगा पहले।

तो मित्रों, उस एसी टू के डिब्बे में पाँव रखते ही तरह-तरह के ख़याल मेरे मन में आने लगे थे। मेरी पहली यात्रा थी वह। एक ख़ास क़िस्म का कौतूहल लिए मैं अपनी जगह पर पहुँचा था। मैं पहला यात्री था उस कंपार्टमेंट में। सोचा अभी पन्द्रह-बीस मिनट समय है गाड़ी चलने में, लोग आ जाएँगे। मेरा साचना ग़लत सिद्ध हुआ। गाड़ी चल पड़ी। अकेला, यह कैसा सफ़र होगा, सोचकर कुलबुला गया था। ढाई घंटे में केवल एक बार मानुष दर्शन हुआ था। गाड़ी नई दिल्ली स्टेशन से छुटने के थोड़ी देर बार एक आदमी तकिया, कंबल और चादरों की एक पैकेट फैंक गया था सीट पर। उस भयावह मुर्दाशांति के कारण कई बार घबरा भी जाता था। अपने-आप को कोसने की भी लगता था। ‘भगुतो, एसी टू की यात्रा। क्या मिला! चुप्पी, अकेलापन! नज़रबंदी ऐसी ही होती होगी?’ एक-डेढ़ घंटे के दौरान न कोई चाय वाला, न पेपर सॉप वाला, न जंज़ीर वाला, और न ही कर्र-कर्र करता बच्चों को ललचाता एभ के सैंतालिस वाला। कहने को एक-आध बार परदा सरका कर बाहर का नज़ारा भी देख लेता था लेकिन खिड़की से जन्म-जन्मांतर के लिए फ़िक्सड काँच के कारण थोड़ा बदरंग दिख रहा था। आख़िरकार स्वीकरार करना पड़ा, ‘बेटा तुम्हें अकेला ही सफ़र तय करना है।’ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से ख़रीदा जनसत्ता खोल लिया था।

टीटी समुदाय का आघमन एक बार तो मुझे रेगिस्तान में पानी मिलना जैसा लगा था। उन्होंने बातचीत के जिस सिलसिले को आग़ाज़ किया था, लगा था सफ़र कट जाएगा इत्मीनान से। लेकिन जल्दी ही मैंने अपने आप को उस दायरे से बाहर पाय। निर्जन था मैं, रेल के उस डिब्बे में।

सोचने लगा, पिछली मर्तबा लखनऊ से लौटते वक़्त शताब्दी एक्सप्रेस में तो ख़ूब चहल-पहल थी। वर्ल्ड सोशल फ़ोरम, मुंबई से लौटते वक्त राजधानी के एसी थ्री डिब्बे में थे हम लोग। ज़्यादातर यात्री हम जैसे ही थे जो स्लीपर में भी सफ़र करते हैं और एसी थ्री में भी। तब भी एक हद-तक गहमा-गहमी थी डिब्बे में। पिछली बैंगलोर यात्रा के दौरान हमारे सामने की सीटों पर बैठा परिवार छुट्टियाँ मनाने जा रहा था। सामने वाले कंपार्टमेंट में बिंदास युवा लड़के-लड़कियों की एक टोली थी। रह-रह कर उनके बीच से ज़ोरदार ठहाका फूट पड़ता था। बीच-बीच में वे गाने लगते थे। सामने बैठी महिला से रहा न गया था। झल्ला पड़ी थी, ‘कितना शोर कर रहे हैं ये लोग। बिल्कुल स्लीपर बना दिया है। इनकी वजह से हमारा एसी का मज़ा ख़राब हो रहा है। पता नहीं कहाँ तक जाएँगे ...’

टीटी समूह के ख़ास गप-शप के कारण हाशिये पर धकेला गया मैं कुप्पी में बैठे-बैठे नवरूपांतरित मध्यवर्ग का रेखाचित्र खींच ही रहा था कि अचानाक एक पुरानी रेल यात्रा याद आ गई।

दूसरी या तीसरी मर्तबा दिल्ली आ रहा था। दो-तीन में ही वापसी यात्रा तय हुई थी, लिहाज़ा रिज़र्वेशन नहीं मिल पाया था। मुज़फ़्फ़रपुर से जैसे-तैसे वैशाली एक्सप्रेस के एक डिब्बे में लद गया। तिल रखने की भी जगह नहीं थी। कंधे पर एक थैला था। गिरते-उठते एक कुप्पी में पहुँचा। गेट और रास्ते के मुक़ाबले थोड़ी कम भीड़ थी। धीरे-धीरे सरक कर खिड़की के क़रीब गया। एक बच्चे को खिसका कर अपने-आप को उसके बगल में लग-भग कोंचने में कामयाब हो गया। इतने में फ़ौजी वर्दी धारण किए एक अधेड़ ने छलांग लगाई और दाहड़ पड़ा, ‘‘तेरे को दिखता नहीं कि यह फ़ौजी कंपार्टमेंट है। तूने इस बच्चे को खिसका कैसे दिया? चल जल्दी से खिसक यहाँ से ...।’ ख़ैर कहिए कि झूठ का एक टुकड़ा कहीं से मेरे दिमाग़ में आ गया। मैंने भी अपने-आप को एयर फ़ोर्स का इंटर्न बता दिया। उसके बाद मुझसे कोई पूछताछ नहीं हुई। मुझसे संतुष्ट होने के बाद सैनिक महोदय ने कंपार्टमेंट में व्यवस्था बनाने की ज़िम्मेदारी अपने कंधे पर ले ली और यात्रियों से पूछताछ करनी आरंभ कर दी। कहने लगे, ‘... पता नहीं है ये आर्मी बॉगी है कैसे चढ़ गए तुम लोग? साले सब को बेल्ट निकाल कर दो-दो लगाएँगे तब सब उतर कर भागेगा।’ क़रीब चालीस मिनट तक वे इस काम में व्यस्त रहे। उसके बाद उन्होंने मेरे सामने वाली बर्थ पर से एक बच्चे को गोद में लिया और खुद उस स्थान पर टिक गए। उसके बाद पानी पीया और मेरे बगल में बैठी अपनी पत्नी से कहा, ‘कनी हौंकु न यो।’’

इधर मेरी असली परीक्षा अब होने वीली थी। ख़ुद को उस खाँचे में बनाए रखना वाक़ई तपस्या लगने लगा था जो मैंने उस बच्चे को खिसका कर बनाया था। हिलना-डुलना तक मुमकिन नहीं था। कछ-मछ करने के सिवाय कोई चारा नहीं था। इस उहापोह में गाड़ी कब गोरखपुर पहुँच गयी, पता ही नहीं चला, बीच में लोगों ने खाना भी खाया। पर मेरे लिए अपने थैले से वो रोटी और करैले की भुजिया निकालना भी मुश्किल था जो मेरी बुआजी ने माता जी की अनुपस्थिति में पैक किया था। शायद इस बीच एक बार ‘चाय गरम’ ली थी। गोरखपुर में गाड़ी आधा घंटा रुकती है। सामने प्लेटफ़ॉर्म पर अंडा वाले की रेहड़ी पर लोगों को पत्तल पर अंडा-ब्रेड खाते देख कई बार मेरा भी जी मचला लेकिन स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं उतर कर वहाँ जा पाऊँ। उतरने की जितनी फ़िक्र नहीं थी उससे ज़्यादा चिंता थी कि वापस अपनी जगह पर सही-सलामत पहुँचने की।

बस मैं खिड़की से इधर-उधर टुकुर-टुकुर ताक रहा था। इसी बीच एक दिलचस्प नज़ारा दरपेश हुआ। हमारे बगल वाले डिब्बे के दरवाज़े पर लोग बेतरतीब लटके पड़े थे। एक दुबला-पतला लड़का बार-बार लोगों को धकियाते हुए डिब्बे में चढ़ता था और दो मिनट में फिर उतर जाता था। इस क्रम में उसने कुछ जेबतराशियाँ भी की। शायद उसे अपने मिशन में सफलता मिल गयी थी क्योंकि थोड़ी ही देर में वह प्लेटफ़ॉर्म पर चहलक़दमी करने लगा था। एक बार हमारी नज़रें मिल गयीं। मैंने इशारे से उसे अपने क़रीब बुलाया। बड़े भोलेपन से वो मेरे पास आ गया।

मैंने पूछा, ‘और भाईजान, कितना बन गया।’ शायद उसे मेरा सवाल समझ नहीं आया या फिर उसने न समझने का नाटक किया। गर्दन उचका कर मेरे सवाल का मतलब पूछा। मैंने कहा, ‘कितनी जेबें तलाश लीं इतनी देर में जो इत्मीनान से टहल रहे हो?’ इतना कहना था कि वह गूँगा-बहरा हो गया! क्षणभर में ही कहाँ विलीन हो गया पता ही नहीं चला। थोड़ी देर में रेलवे का एक सिपाही डंडा पटकता सामने से गुज़रा। मैंने संक्षेप में उसे जेबतराशी की घटना बतायी और उस लड़के का हुलिया भी। ‘अभी पकड़ते हैं साले को’ कहकर वह चला गया। सहयात्री फ़ौजी महाशय को बाद में मैंने पूरा क़िस्सा सुनाया।

छह बजे गोरखपुर स्टेशन से गाड़ी चल पड़ी थी। स्टेशन से दो-चार और फ़ौजी अपने बाल-बच्चों के साथ डिब्बे में आ चुके थे। लिहाज़ा हमारे फ़ौजी महोदय पर एक बार फिर व्यवस्था बनाने की स्वाभाविक ज़िम्मेदारी आ गयी थी। इस बार तो उन्होंने बाक़ायदा नये सवारियों का आइडेंटिटी कार्ड चेक किया। उनके मापदंड के हिसाब से इस बार कोई भी सवारी अवांछित नहीं थी। चुपचाप अपनी जगह पर वापस आ गए। जब-जब उनका ग़ैरफ़ौजी तलाशी मुहिम शुरू होता था मेरे मन में कँपकँपी होने लगती थी। सोचने लगता था अगर एयर फ़ोर्स के बारे में कुछ पूछ दिया तो क्या बताऊँगा, यहाँ तो ‘फ़ोर्स’ के बारे में भी बल से ज़्यादा कुछ नहीं मालूम है। इसलिए जब भी मौक़ा मिलता था या वो मुझसे मुख़ातिब होते थे, मैं जान-बूझकर उनको इधर-उधर की बातों में उलझाए रखने की कोशिश करता था या फिर फ़ौज की प्रशंसा। मिशाल के तौर पर ‘हिन्दुस्तानी फ़ौज वाक़ई दुर्गम स्थानों पर रहती है, बहुत बड़ी कुर्बानी देते हैं फ़ौजी अपने देश के लिए, हिन्दुस्तानी फ़ौज का जवाब नहीं, यह दुनिया में नंबर एक है, कैंटीन में चीज़ें कितनी सस्ती मिलती है, मेरे घर में पहला प्रेशर कूकर आर्मी से आया था’। फिर क्या था, महोदय फुले नहीं सामते थे और अपनी जाबाजियों के एक-आध टूकड़ा उछाल देते थे। मैं ऐसे विषय छेड़ने के बाद एक अनुशासित श्रोता की मुद्रा धारण कर लेता था।

बस्ती के आसपास गाड़ी में बत्ती जली। पता चला कि हवलदार साहब के सामने रखे एक बोरे पर कोई तरल पदार्थ गिरा हुआ है। उन्होंने झुक कर जायज़ा लिया। पाया, समस्तीपुर से जिस डब्बे में डेढ़ किलो घी ले कर वो चले थे, लुढ़का पड़ा है। बोरे के कोने से उतर कर उनके जूते और बच्चों की चप्पलों पर पर्याप्त चिकनाई बिखेर देने के बाद घी सीट के नीचे फ़र्श पर अपनी जगह बना चुका था। चेहरे का भाव बदला और जुबाँन के शब्द भी। ख़ास मिलिट्री स्टाइल की हिन्दी में पत्नी से कहा, ‘तेरे से कहा था न कि पकड़ के रखना। तेरे समझ में मेरी बात नहीं आती है?’ बात जारी रही उनकी लेकिन शायद सहयात्रियों को हक़ीक़त से अवगत कराना चाह रहे थे, ‘... डेढ़ किलो घी था। एकदम शुठ्ठ। मेरे को मालूम था कि इस भीड़-भाड़ में कुछ--कुछ तो होगा।’ और भी बहुत कुछ कहा उन्होंने। साथ में कुछ बिल्कुल मौलिक और मारक गालियाँ भी बरसाई। उनकी ज़ोरदार चीख सुनकर उनकी पत्नी की गोद में खेल रहे साल-डेढ़ साल के बच्चे की पेशाब निकल गयी और जा छलकी औंधे पड़े घी के डिब्बे के कोर पर। अब तो बचे-खुचे घी को सँभालने का बहाना भी जाता रहा। उनसे रहा न गया। एक ज़ोरदार तमाचा रसीद दिया उस बच्चे की गाल पर। एक बार तो लगा जैसे उसका दम ही निकल गया। क्षणभर बाद उसके मुँह से चीख निकली और फिर देर डिब्बे में उसका क्रंदन चलता रहा।

इधर मुज़फ़्फ़रपुर में घर से निकलने के पहले याद था कि चलते वक़्त लघुशंका से निवष्त हो लूँगा लेकिन जल्दीबाज़ी में यह ज़रूरी काम रहे गया था। स्टेशन पहुँचने पर याद तो आया कि निपट लिया जाए लेकिन रिज़र्वेशन की आख़िरी कोशिश के चक्कर में एक बार फिर रह गए। सोचा, ‘चलो, गाड़ी में आराम से निपटेंगे।’ गाड़ी में सवार होने से लेकर जगह बनाने तक, इतनी मशक्कत करनी पड़ी कि दो-तीन घंटे तक कुछ सूझा ही नहीं। बाद में एक-आध बार महसूस हुआ तो शौचालय तक पहुँचने और फिर वापस आने की चिंता के कारण जाघे दबा कर रह जाना पड़ा। लेकिन बच्चे के पेशाब छलकने के बाद तो क्षणभर भी रोक पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। उधर हवलदार साहब को रह-रह कर घी-बर्बादी की टिस आ रही थी। कभी बीबी तो कभी बच्चों को कुछ सुना डालते थे। गाड़ी लखनऊ पहुँचने ही वाली थी। आख़िरकार मैंने अपने पाँव सीधे किये। आगे बढ़ने के लिए क़दम बढ़ाया ही था की सामने से फ़ौजी महोदय बोल पड़े, कहाँ चले। यहाँ आफ़त आई हुई है और आपको टहलने का सूझ रहा है।’ मैंने कहा, ‘बस अभी आया टॉयलेट से’। उन्होंने कहा, ‘रास्ता कहाँ है वहाँ तक पहुँचने का। अच्छा एक काम कीजिए, नीचे से जाइएगा तो नहीं पहुँच पाइएगा। ऊपर-ऊपर से जाइए। नहीं समझे? अरे साहब एक बर्थ से दूसरे बर्थ, दूसरे बर्थ से तीसे बर्थ इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है।’ उक्ति अच्छी लगी। पहुँच गया शौचालय के दरवाज़े तक। दरवाज़ा अन्दर से बन्द था। दस्तक दिया।

जवाब नहीं आया। दूसरे दरवाज़े पर दस्तक दिया। फिर कोई जवाब नहीं आया। सोचा, शायद लोग दीर्घशंका से निपट रहे हैं। रह-रह कर बारी-बारी से दोनों दरवाज़ों पर दस्तक देता रहा। दो-तीन मिनट बाद जब कोई दरवाज़ा नहीं खुला तो ज़ोर से लात मारी एक दरवाज़े पर। खुला। देखा, तीन-चार जने अन्दर खड़े हैं। हाथ पकड़-पकड़कर उन्हें बाहर निकाला। दरवाज़ा बंद किया औऱ अपनी शंका का समाधान भी। बाहर निकल कर बेसिन की तरफ़ बढ़ा दादी माँ के बक्से में ठुँसी गट्ठरों की तरह महिलाएँ अटी पड़ी थीं बेसिन के अगल-बगल। किसी तरह चेहरे पर पानी मारा और एक बार फिर ऊपरी मार्ग से अपने स्थान की ओर बढ़ा। आज भी उस वाक़ए को याद करके बदन में सिहरन पैदा हो जाती है। शायद किसी छोटे-मोटे रिकॉड बुक में दर्ज कराने लायक़ उपलब्धि तो रही ही होगी।

क़रीब बारह बजे रात को गाड़ी कानपुर पहुँची। हमसफ़र फ़ौजी महोदय बीबी-बच्चों समेत उतरने लगे। उतरते वक़्त उनसे दुआ-सलाम भी हुई। उन यात्रियों के चेहरों पर राहत की रेखाएँ उभर आयी थीं जो अब तब खड़े थे और जिन्होंने फ़ौजी परिवार का स्थान ग्रहण किया था। कानपुर से गाड़ी चलने के बाद कभी-कभी जलती बीड़ी की गँध ने परेशान ज़रूर किया, पर कोई आवाज़ सुनने को नहीं मिली। अब तक की सबसे किफ़ायती यात्रा थी वह। केवल एक रुपया चाय में ख़र्च हुआ था। जेनरल डिब्बे की ऐसी मज़ेदार यात्रा का फिर दुबारे मौक़ा नहीं मिला।

इस वृतांत के आरंभ में टीटी महोदय की जिस शालीनता से मैंने आपकी मुलाक़ात करवायी आम तौर पर ऐसा नहीं दिखता है। राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस जैसी गाड़ियों के टीटीयों को अपवाद मानें। कभी-कभी साधारण शयनायन श्रेणी में बिना रिज़र्वेशन सफ़र कर रहे सवारियों से जुर्माना वसूली का उनका अंदाज़ हैरतेगेज़ होता है।

एक बार की बात है। मैं और श्रीमति जी मुज़फ़्फ़रपुर से सप्तक्रांति एक्सप्रेस से आ रहे थे। टिकट चेक करते हुए टीटी महोदय हमारे पास आए। हमने अपनी टिकट उनकी तरफ़ बढ़ा दी। कलम से एक लकीर खींच कर उन्होंने हमें टिकट वापस दे दी। अब सामने वाले यात्री ने टिकट बढ़ाई। टिकट हाथ में लेकर अपनी चार्ट से उसका मिलान करते हुए दो-तीन बार उन्होंने उस सवारी को ग़ौर से देखा। पूछा, ‘कहाँ से लिया है ये टिकट?’ ‘अस्टेशन से’ उसने कहा। ‘अच्छा, अभी आते हैं’ कहकर टीटी साहब आगे बढ़ गए। क़रीब एक घंटे बाद जब लौटे तो उनके साथ दो और टीटी अभी थे। एक ने पहले वाले टीटी से पूछा, ‘हाँ, कौन है?’ उन्होंने उस सीधे-सीधे आदमी की ओर इशारा किया। नए टीटी ने उससे पूछा, ‘हाँ रे, सच-सच बता कहाँ से लिहले ही टिकटवा? सच-सच बता न त जेहले जेंगे अभी तुमको। साला नक़ली टिकट लेकर ऐश कर रहा है।’ एक मिनट के लिए हमें भी हैरानी हुई। माज़रा समझ नहीं आ रहा था। टीटियों ने उससे कहा, ‘आओ हमारे साथ, चलो सुप्रीटेंडेंट के केबिन में।’ आगे-आगे तीनों टीटी और पीछे-पीछे वो आदम, चल पड़े। लगा, सचमूच कुछ गड़बड़ है। अचानक उसके रोने की आवाज़ आयी। आगे बढ़ा, देखा तीनों शौचालय के पास उसे घेरे खड़े थे, साथ में एक रेलवे पुलिस का जवान भी था। थोड़ा क़रीब गया और खड़ा होकर सुनने लगा उनकी बातचीत। उन्हें उस आदमी की कमर में खुंसा बटुआ हाथ लग गया था। वो आदमी अपना बटुआ वापस माँग रहा था। हैरत की बात है कि बगल वाली कुप्पी में बैठे किसी भी यात्री ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि एक आदमी जो अच्छा-भला इनके पीछे चलकर आया था, क्यों रो रहा है। मैंने उनके बीच में हस्तक्षेप किया, ‘क्या बात है?’ उनमें से एक बोल पड़ा, ‘अरे जाइए न भाई साहब, काहेइ पचड़ा में पड़ रहे हैं। साला ग़लत टिकट पर ट्रेवल कर रहा है।’ मैंने कहा, ‘ठीक है तो जो भी क़ानूनी कार्रवाई हो सकती है वो कीजिए। बताइए तो मैं भी मदद करूँ। पर इसके साथ ज़ोर-जबरदस्ती क्यों कर रहे हैं?’ इतना बोलना था कि वे मेरे ऊपर चढ़ने लगे, ‘जाइए न, ढेर क़ाबिल न बनिए, बहुत देखे हैं आप जैसे। चुपचाप अपने जगह पर जाकर बइठ जाइए।’ मेरी अभी आवाज़ थोड़ी ऊँची हो गयी। इतने में कुछ और सवारियाँ आ गईं। अंत में टीटी और रेलवे का सिपाही उसका बटुआ और टिकट उसे थमाकर वहाँ से दफ़ा हो गए। वापस लौटकर उसने बताया,उ लोग कह रहा था कि मेरा टिकट जनानी टिकट है। तीनगुना जुर्माना माँग रहा था हमसे । हमरा बटुआ भी छीन लिया था।’ बाद में यात्रियों ने टीटियों के क़िस्से सुनाने शुरू किए। एक ने बताया कि एक बार स्टेशन पर पंजाब से लौटते हुए एक यात्री को टीटी ने यह कह कर रोक लिया था कि उसके पास बक्से का तो टिकट ही नहीं है।