चाची ने उसे बिठाया और उससे बातचीत शुरू कर दी. बातचीत इतनी उंची आवाज़ में हो रही थी कि मेरे लिए सोने की कोई भी कोशिश करना बेकार था. उठकर बाहर आ गया. देखा, एक वृद्ध ठठेरा एल्युमिनियम के वर्तनों को एक बड़े से जाले में लिए बैठा था. चाचीजी और उनके बातचीत के दौरान पता चला कि वह पड़ोस के गांव बेलहियां का रहने वाला है. ख़ैर चाचीजी ने उससे एक कड़ाही दिखाने को बोला. उन्होंने कड़ाही दिखाई. समय आ गया था मोलभाव करने का. ठठेरे ने जो भी क़ीमत बतायी थी कि चाचीजी ने बड़े नाटकीय अंदाज़ में उसे खारिज करते हुए कहा, ‘बुझाई अ उमिर के जौरे-जौरे बुढ़वा के अकिलो घटल जाई छई. अंहेर बतियाई छि. भल न ओई अंगना में 130 के लेलथिन ह कड़ाही. अई से लमहरे होतई.’ ठठेरे ने कहा, ‘त हम कहां कहइले कि लेईए लिउ अतेक में. आहां न बताउ कि कतेक देबई?’ चाचीजी ने जो भी क़ीमत लगाया, ठठेरे को वो मंजूर नहीं था. उन्होंने कहा, ‘ठीक हई, आहां दाम लगा न लेली. जहां मिलत एतना में उंहें से ले लेब. काहे ला बेसी पइसा जियान करब.’ इसी के साथ उन्होंने से कड़ाही मांगी. ‘काहे ला हड़बड़ाई छि. रुकू न पूछवा देइले भाव’ कहकर चाचीजी ने किसी बच्चे से पड़ोस की एक दूसरी चाचीजी को बुलावा भेजा. थोड़ी देर वो चाचीजी भी आ गयीं. एक बार फिर मोलभाव शुरू हुआ. अब दो चाचियों के सामने एक अकेला बुजुर्ग ठठेरा! क़ीमत और कड़ाही की क्वालिटी को लेकर दोनों पक्षों के बीच जिरह होती रही. इस बीच सामने से एक भाभीजी आ गयीं. रह-रह कर भाभीजी भी जिरह में अपना योगदान देती रहीं.
क़ीमत संबंधी जिरह हो ही रही थी कि चाचीजी ने उनसे पूछा, ‘त अनाजो त ले न लेब हो बुढ़ा?’ बुढ़े ने कहा, ‘न, नगद लागत. लेबे के है त लिउ न त जाए दिउ. आउरो जगह जाए के है हमरा.’ चाचीजी का अपना ये अस्त्र भी जाता दिखा. उन्होंने ज़ोर देकर कहा, ‘है अनाज न काहे लेब? धान देब. आहां स के गांव में है धान?’ ठठेरे ने कहा, ‘न है त कि भेलई. एखुन कुंटल (एक-एक क्विंटल) चाउर (चावल) न मिललई ह रिलीफ़ में, आ उपर से पांच-पांच सौ रुपइयो मिललई ह. कि करबई हम धान लेके?’
उसके बाद, गांव-जवार में धान की फसल कैसी है इस बार - चर्चा होने लगी. आखिरकार ठठेरे ने अनाज लेने से मना कर दिया. चाचीजी इस फिराक में थीं कि किसी तरह क़ीमत पर चर्चा हो जाती है, तो कुछ पैसे और कुछ अनाज देकर वो कड़ाही ले लेंगी. पर बात न बनती देख उन्होंने उस बूढ़े ठठेरे को ये बताना शुरू किया कि वो तो ‘लोकल’ सामान इस्तेमाल ही नहीं करती हैं, ये तो त्यौहार (नवरात्रे) आ रहा हैं इसीलिए वो ये कड़ाही ले लेना चाह रही थीं. इसी बहाने एक वर्तन हो जाता. वर्ना मुज़फ़्फ़रपुर तो रोज़ का आना-जाना है, वहीं से मंगवा लेंगी. ठठेरा बार-बार ये कहते रहे, ‘ओहो, जाउ न त मुजफरेपुर से मंगवा लेब, हम कहां कहइले कि हमरे से ले लिउ. हमरा जाए दिउ आउरो जगह जाए के हैं.’ मोलभाव में एक घंटा से भी ज़्यादा समय गुज़र गया. नतीजा वही रहा जिसका ठठेरे को संदेह था. चाचीजी ने कड़ाही नहीं ली.
ए भइया, हम ठेठ शहरवालों को आप कदम से बूडबक समझते हैं का। बात किए कडाही के और फोटू दिखा रहे हैं भात पकावेवाला तसला के। अच्छा इ बताइ इ तसला के का दाम पड़ी,एगो खरीद के रख लेम।जे दिन हॉस्टल बंद रहतै, उ दिन झोल भात पकाइव।
ReplyDeleteमान गए सर, आपकी हर पोस्ट हमें जबरदस्ती बचपन में ठेलती है। चाची की जगह मेरी मां होती तो कहती कि आपही के लि चरचल्ला से उतर के आएं हैं और दाम कम नहीं करिएगा और फिर कोशिश करती कि दूकान के रिजेक्टेड कपडे से कडाही बदलकर ले ले ।
मजा आ गया सर, लेकिन फोटू यही सबका लगाइए, गांव में बिकनेवाली गुलाबी हवा मिठा की नहीं, अपने को रोकना मुश्किल होगा।
आंय हो विनीत जी?इ आपको तसला दिखता है , उकी चाची अभियो kadhahii पकडले ही हैं और उ बर्तानमा बला sametiyo रहा है और भुन्भुनाइयो रहा है की न लेना है त दीजिये न चले अब.
ReplyDeleteक्या चित्र खींचा है मित्र-एकदम जीवंत. मुझे लग ही रहा था कि चाची लेंगी नहीं कड़ाही-और बुढऊ का समय अलग खराब होगा. सब चाची ऐसी ही होती हैं क्या?? गाँव की याद हो आई. बहुत खूब. मजा आ गया.
ReplyDeleteमित्रों
ReplyDeleteअच्छा लगा कि आपको ये संस्मरण लगा. दोस्त वैसे तो हम सारे शहरी बाबू हो गए हैं लेकिन गांव जाने पर एक-एक चीज़ लगता है कि बुला कर कुछ कह रही है. शोध-वोध की दुनिया का जीव हूं तो मुझे तो हर चीज़ और प्रतीक जो गांव में दिखती है, शोध के लायक़ माकूल जान पड़ता है. अच्छा लगता है जब आप जैसे मित्र हौसलाअफ़जाई करते हैं तब. और तो और गांव-जवार से निकलने वाले अख़बार भी नहीं लिखते हैं अब इन चीज़ों के बारे में. मुझे अच्छा लगता है ये लिखना. कोशिश करूंगा कि निरंतरता बनी रहे.
शुक्रिया