बहुत दिनों बाद मैं गांव में था. अपने एक भाई के साथ मैं किसी दिशा में निकल रहा था. सपाटु वाली दाई के घर के बग़ल से गुज़र रहा था कि आवाज़ आयी, ‘डिट्टू तनी एन्ने आबे त (डिट्टू थोड़ा इधर आओ)’. ये आवाज़ कीचड़ में सनी एक 13-14 साल की लड़की की थी. डिट्टू ने बताया कि ये दाई की पोती है. मैं भी डिट्टू के साथ उनके आंगन में गया. दाई अपने आंगन से कीचड़ साफ़ कर रही थी और वो लड़की डोल (छोटी बाल्टी) से आंगन का पानी निकाल रही थी. पूछने पर पता चला कि वो कीचड़ पिछले तीन महीनों के जल-जमाव का असर है.
दाई का छोटा लड़का रमेश जो रिश्ते में चाचा हैं, दीदी के साथ पढ़ते थे – चारपाई पर बैठे थे. कहा, ‘यहां रहते तुम तब पता चलता कि तीन महीना कैसे गुजरा है लोगों का इस गांव में. बाईस दिन लगातार मुसलाधार बारिश. साग-सब्ज़ी के लिए लोग तरस गया. आना-जाना सब बंद था. देख रहे हो न कि आज तक किस तरह कीचड़ जमा है...’ बात ख़त्म भी नहीं हुई थी कि दाई बोल पड़ी, ‘तीन महीना से जोना घर में सुतई जाई छई लोग ओही में खनो बनई छई. ओहु में कखनियो एन्ने से त कखनियो ओन्ने से टप-टप पानी टपकइते रहलई (तीन महीने से उसी घर में खाना बन रहा है जिसमें सब सोते हैं. उस पर भी कभी इधर से तो कभी उधर से, पानी टपकता ही रहा).’
जिस चूल्हे पर उनका खाना बनता था, आंगन में अब वो जीर्ण-शीर्ण हालत में है. दाई की पोती ने पहले डोल से बचा-खुचा पानी निकाला और उसके बाद दाई अब कीचड़ पर हाथ फेर रही थी. लिपाई कर रही थी. आंगन के चारो तरफ़ यानी टाट-फूस की झड़ी दीवार, नीचे की तरफ़ पर्याप्त सीलन और कहीं-कहीं जमी काई इस बात की गवाही देते हैं कि पानी में ये भी डूबे हुए थे. असोरा (गैलरी) की मिट्टी भी धंस रही थी. उस पर कुछ ईंटें रखी हुई थी, जिस पर पांव रखकर बारिश के दिनों में उनके घर के लोग एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते थे. आंगन के बाहर जो चापाकल है उसका नीचला सिरा भी पानी में डूबा हुआ था. चापाकल से दो कदम दूर एक गबरा (गंदे पानी का जमाव) है जो उस दौरान उपट गया था. यानी उसका पानी भी आंगन में आया होगा. सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितना मुश्किल रहा होगा उस चापाकल से पानी लेना और उसका इस्तेमाल करना! आज भी सड़ांध आती है आंगन से.
तमाम तरह के किटाणुओं और गंदगी के साथ जमे रहे दाई के परिवार वाले. दाई का घर और दरवाज़ा अच्छे दिनों में ख़ुशबूदार फूलों से महकता रहता था. बचपन के दिनों में हम चोर-सिपाही खेलते हुए उनके आंगन में छुपने चले जाया करते थे. दाई के चेहरे पर अब झुर्री आ गयी है. चौदह-पन्द्रह साल पहले नहीं थी. बस समानता एक ही है उनके तब और अब के चेहरे में. जितने सफ़ेद बाल तब थे उनके आज भी कमोबेश उतने ही हैं. दाई बच्चों में अपने उस सपाटु (चीकू) के पेड़ के कारण बहुत लोकप्रिय थीं जिसके बारे में तब ये सुना करता था कि ‘बरमसिया’ (बारहों महीने फलने वाला) है. वैसे तो दाई हम बच्चों को सपाटु ज़रूर देती थीं लेकिन न देने की स्थिति में बच्चे उनके सामने ही ढेले से तोड़ने से नहीं डरते थे. तब दाई बच्चों के पीछे दौड़ पड़ती थीं और जो बच्चा उनकी पकड़ में आ जाता था उसे उसकी मां के पास ले जाती थीं और शिकायत करती थीं. पीटती नहीं थीं. वो काम अकसर बच्चों की मां कर दिया करती थीं.
बहुत दिन हुए उस पेड़ के कटे. शायद ऐसी ही किसी बारिश में या बाढ़ के दिनों में जलावन के लिए उसे काटा गया होगा. पता नहीं इस बरसात में दाई ने जलावन का इंतजाम कैसे किया होगा!
सपातु वाली दाई की व्यथा कथा सुनकर मन बहुत ही व्यथित हुआ. पर क्या किया जाय हमारें यंहा ऐसे ही सब चलता है. गाँव तो बहुत दूर की बात है, कलकत्ता में जंहा हम रहते है वंहा सात दिनों तात पानी जमा था, पुरे चार दिनों तक तो मैं घर से बाहर ही नंही निकल सका. और जो लोग निचे रहते थे उनके तो सब समान लगभग सात-आठ दिनों तक पानी में तैर रहे थे.
ReplyDeleteजीवन फिर भी अपनी गति से चलता ही रहता है.
सपातु वाली दाई के लिए शुभकामना.
Always we got to know our county is developing,but by hearing all these stories (i mean facts)..Lagta hai abhi dilli door hai..
ReplyDeleteGood work ..
मित्रों
ReplyDeleteयही हक़ीक़त है. मुंह नहीं मोड़ सकते हैं. यही समझना चाहता हूं कि आखिर इतनी सुविधाओं के बावजूद गांव के मुक़ाबले शहरों में धैर्य इतना कम होता जा रहा है.
...तो ये है बाढ़ राहत कार्य की तस्वीर। वैसे भी सरकार की डिक्शनरी में बाढ़ से राहत का मतलब जहाज से ब्रेड-बटर नीचे फेंकने से ज्यादा कुछ भी नहीं है फिर मरने पर मुआवजा तो मिल ही जाएगा न तो दिक्कत कहां है। तभी तो नीतीश बाबू जनता दरबार में बोलते रहे और मंत्री लोग सोते रहे, बाढ़ से थके थे सभी।...
ReplyDeleteबहुत कुछ याद आ गया.
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