अजायबपुर स्टेशन, उत्तरप्रदेश
15 अक्टूबर 2007
15 मिनट से अजायबपुर स्टेशन पर गाड़ी खड़ी है. इससे पहले दनकौर स्टेशन पर 25 मिनट से भी ज़्यादा देर तक यह खड़ी रही थी. कुप्पियों में बैठे यात्रियों के सेलफ़ोन की घंटियां रह-रहकर बज रही हैं. कुछ रिंग टोन्स तो बेहद कर्कश हैं जबकि कुछ बेहद मीठी धुनें सुना रहा है. मैंने तो दनकौर में ही अपना लैपटॉप निकाल लिया था. आते-जाते नेटवर्क के बीच कभी जीमेल पर तो कभी सराय.नेट पर मेल चेक कर रहा हूं और रह-रहकर डायरी भी लगता हूं. हमारे बाद वाली कुप्पी में पटना से चढ़ी उस युवती ने जब अपने नोकिया सेट पर ज़ोर-ज़ोर से गीत सुनाना आरंभ कर दिया जो देर रात तक डिब्बे में इधर से उधर करती रही थी, तब मैंने भी मीडिया प्लेयर खोल लिया. इस वक़्त ‘छोर दो आंचल, ज़माना क्या कहेगा ...’ सुन और सुना रहा हूं.
लंबी यात्रा में रेल देर होने पर सवारियों की जो स्थिति होती होगी, इस वक़्त वही हो रही है. अपने रिश्तेदारों को फ़ोन मिलाना, उन्हें दिलासा दिलाने के अंदाज में ख़ुद को तसल्ली देते हमसफ़रों का चेहरा मुझे एक-सा ही लग रहा है. इस बीच कई और रेल आयी और सांय से चली भी गयी. हम अजायबपुर में ही अजायबघर की चीज़ों की तरह पड़े हैं. मैं तो चाय नहीं पीता पर पीने वालों को ठंडी ही मिल रही है, क्योंकि इस गाड़ी में रसोर्इयान नहीं है. किसी स्टेशन से खाने-पीने की चीज़ें उठा ली जाती है और उसके बाद चाय गरम ..., ब्रेड कटलेट, अंडा ब्रेड टाइप की रटंती चालू. मैं यहां जब ये लिख रहा हूं, अचानक मेरी नज़र सामने वाली खिड़की से बाहर उस दुकान पर चली गयी जहां बड़े-से थाल में केसरिया रंग की जलेबियां सजा कर रखी हुई हैं और हलवाई अभी कोई और चीज़ छान रहा है. शायद समोसा या कोइ नमकीन. अपने जी से बाहर आ रहे पानी को जबरदस्ती वापस जी पार करना पड़ रहा है. डर लग रहा है, किसी तरह कूद के दुकान पर चला जाउं और इस बीच में रेल चल पड़ी तो ...
वैसे मेरा तज़ुर्बा ये कहता है कि रेल यात्राओं के दौरान ख़ास तौर से लोगों के पेट का आकार बढ़ जाता है, उन्हें भूख ज़्यादा लगने लगती है, पाचन शक्ति ख़ूब शक्तिशाली हो जाती है. तभी तो चने-मुंगफली से लेकर भांति-भांति के आकार-प्रकार वाले कटलेट्स, हर तरह के गरमागरम पकवान : खाते ही रहते हैं लोग. बुरा हो इस एसी डिब्बों की खिड़कियों का कि इसके सवारियों को खाने-पीने की ऐसी बहुत से चीज़ों से महरूम रहना पड़ता है.
वही राजधानी जो हमारे गरीब रथ के बाद चलने वाली थी पटना से, अजायबपुर में हमें पछाड़ गयी. लगता है अभी इस गरीब रथ को और पछाड़ खिलाया जाएगा, क्योंकि अब भी इसमें कोई हलचल नहीं हो रही है.
अच्छा पिछली रात की एक घटना बताता हूं. बक्सर से आगे बढ़ने पर मैंने अपना लैपटॉप निकाल लिया और ई मेल वगैरह देखने लगा. इतने में बग़ल वाली कुप्पी से एक अधेड़-से सज्जन आए, मेरा कंधा थपथपाया और कहा, ‘सर इंटरनेट चल रहा है?’ ‘जी’ कह भी नहीं पाया था मैं कि उन्होंने चेहरे पर ‘तात्कालिक शालीनता’ की एक छोटी सी चदरी लपेटे कहा, ‘पता चल जाएगा कि सेन्सेक्स की क्या स्थिति है?’ पल भर के लिए मैं फ़्रीज़ हो गया. ‘होश’ में आया तो नेट की गति का जायजा लिया और बोला, ‘सर नेट चल तो रहा है, पर काफ़ी धीमा है. इस वक़्त तो नहीं लेकिन आगे चल कर यदि स्पीड ठीक हुई तो मैं ज़रूर आपकी मदद कर पाउंगा. हक़ीक़त ये है कि सेन्सेक्स सुनते ही मैं तहे दिल तक जल चुका था. जनाब ने ये भी नहीं सोचा कि सेन्सेक्स का उठान-गिरान, उसकी कबड्डी उनके लिए व्यवसाय है उससे किसी और को भला क्यों दिलचस्पी होने लगी. बहरहाल, जनाव अपनी जगह पर वापस लौट गए और मैं फिर से ब्लॉग-विचरण में लग गया. पर नेटवर्क का नॉटवर्किंग के सिद्धांत पर अपनी मर्जी से आना-जाना लगा रहा.
भायजी एक कहावत है, चल जाओ चाहे नेपाल रहेगा वही कपाल तो सेनसेक्सवाले भाई साहब अगर पहाड़ पर भी जाएंगे तो चाहेंगे कि लुढ़कने और उछलने की खबर कोई देता रहे, क्या कीजिएगा,आप अपना काम ठीक कर रहे थे, हम ब्लौगियन का ब्ल़ग पढ़ रहे थे।.
ReplyDeleteविनीत भाई
ReplyDeleteआपकी बातो मारक होती है. बड़ा विलक्षण दिमाग़ पाया है आपने. इ का मिशनरी शिक्षा का असर है. सुनते हैं मिशनरी सब त आदमी को इसाई बना देता है...
आउर का, हमलोग अपना काम न करें त उ भाईजी के उठान-गिरान में हेरा जाएं!