ख़ैर, ख़ुशी इस बात की होती थी कि पन्द्रह दिन ही सही, जमकर आम खाएंगे. गांव पहुंचते ही अपने हमउम्र दोस्तों के साथ सीधा गाछी (आम का बगीचा) ...
उन दिनों दिन-दिन भर गाछी में ही रहती थी बच्चों की टोली. बड़ों की भी. तब आम के बगीचे में पेड़ से टपके आम के पीछे एक साथ बच्चे दौड़ पड़ते थे. कभी-कभी उस पछड़ा-पछड़ी में आम केवल गुठली बन कर रह जाती थी. हाथ आते थे केवल रस सने छिलके. यानि पेड़ से टपके आम उस वानर टोली के लिए कम पड़ते थे. फिर रास्ता निकलता था पेड़ पर चढ़कर डाल हिलाकर. कई तीन फुटिए पेड़ पर चढ़ने में बड़े माहिर थे. सेकेंड में ही बंदर की तरह क़ूद कर उंची-उंची फुनगियों पर चढ़ जाते थे और किसी डाढ़ (डाल) को दो बार हिला देते थे. पके आम भड़भड़ा कर ज़मीन पर गिर पड़ते थे. और भी तरीक़े थे आम से पेट भरने के. कभी और चर्चा करेंगे.
गाछी में आम खाने के अलावा और बहुत कुछ करते थे हमलोग. कभी-कभी बोका/बोतू (बकरा) आ जाता गाछी में. टोली का कोई बड़ा लड़का उस पर सवार हो जाता और उसके काम उमेठने लगता था. बोतू घोड़े की तरह उमकने लगता था और बाक़ी बच्चे हो-हो करते उसके पीछे दौड़ पड़ते थे. कई बार इस प्रक्रिया में बोतूसवार गिर भी पड़ता था. हमारी टोली में अकसर उमा शंकर, जो ‘बेला’ के नाम से प्रसिद्ध था: बोतूसवारी किया करता था. हम बच्चों को वो ‘समझा’ देता था कि हम गिर जाएंगे.
आम के महीनों में कभी-कभी शिकार भी होता था. बच्चे पेड़ों की डालियों का मुआयना करते रहते थे कि किस डाल पर पंडूक का घोंसला है और किसमें चूजा या अंडा है. पता लगते ही टोली का कोई बच्चा पेड़ पर चढ़कर घोंसले से चूजे या अंडे उतार लेता था और फिर सामूहिक भोज होता था. कई बार गाछी में ही भून-भान कर खा लिया जाता था. कभी-कभी किसी गाछ (पेड़) पर धामन सांप होने की ख़बर फैल जाती थी. उसके बाद तो बच्चे बांस के लंबे-लंबे फट्ठे लेकर उसको उतारने की कसरत करने लगते थे. कभी-कभार सफलता भी मिल जाती थी. उसके बाद बच्चों में उसे हाथ से छूने की मारामारी होने लगती थी. फिर घुमते-फिरते ये किस्सा आता था कि धामन तो दुधारू पशुओं के पांव छानकर उसका दूध पी लेता है. ऐसे किस्से ख़ूब चलते थे.
पेड़ों के अलग- अलग नाम थे. जैसे बमई (बंबइया), मालदह (लंगड़ा टाइप), किसनभोग (कृष्णभोग), केरवा (केले जैसा लंबा होता है), सेनुरिया (सिंदुरी), बभना (बहुत स्वादिष्ट होता था वो आम, सालों से खाने को नहीं मिला), खजवा (खाजे जैसा मीठा), घिउअहवा (थोड़ा-थोड़ा घी जैसा स्वाद), भदइया (भादो में पकता था, ज़्यादातर अंचार के लिए इस्तेमाल होता था), सबजा (पकने पर इसमें कीड़ा लग जाता था. अंचार बहुत अच्छा होता था उस आम का. किसी को मुफ़्त में देना होता तो घर वाले इसे ही याद करते थे). और भी बहुत थे, नाम भूल गया.
हमारे खजवा और घिउहवा के पेड़ के नीचे गड्ढा था. बारिश होने पर उसमें पानी जमा हो जाता था. कहें तो अकसर गड्ढे में पानी रहता ही था, इसलिए इन दोनों पेड़ों के टपके आम खाने के लिए गड्ढे में जाना ही होता था. उस गड्ढे का एक बड़ा फ़ायदा ये था कि दीर्घशंका-निबटान के बाद पानी के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता था.
अमूमन दोपहर में हमलोग मचान पर लेटे होते थे. सरसराहट की आवाज़ आती थी कभी-कभी. उठकर देखता था कुछ औरतों और लड़कियों की टोली पत्ते बुहार रही होती थी. हम झपट पड़ते थे उनकी तरफ़. उनके पत्ते के ढेर को ढहा देते थे. कहते थे, ‘देखाब कए गो आम नुकैले हते (दिखाओ तुमने कितने आम छुपाए हैं)?’ तब पता नहीं था कि वो कौन औरतें हैं, क्यों पत्ते बुहार ही हैं. अपनी टोली के लड़के फिर बताते थे कि जरना (जलावन) के लिए. वो ग़रीब थीं. ज़्यादातर दलित-पिछड़ी जातियों की. पति दिहाड़ी करने जाया करते थे और ये रात के भोजन के लिए जलावन इकट्ठा करती थीं. अब उस नादानी को याद करके बहुत अपराधबोध होता है.
पिछली मर्तबा जब गांव गया था तो देखा अब वो गाछी नहीं है. पिछले दस-बारह साल से जो बाढ़ आए उसमें सारे पेड़ ख़राब हो गए, गिर गए. दो-एक बचे थे उसको टोले के लोगों ने जलावन और चौखट-किवाड़ के लिए काट दिया. अब केवल रेत है उस जगह पर जहां कभी दूर-दूर तक गाछी ख़त्म नहीं होती थी. पहले मधु भैया की गाछी, फिर हमारे दादा की, केदार बाबा की, टुना बाबा की, पत्ती की, राणा बाबा की, बच्चाजी की, मठवाले की, किरपाल (कृपाल) बाबा की, उधर श्रीनारायण सिंह के खानदान की, उसके बाद बिपुलवा की, ... वैसे भी हमारी गाछी तो परबाबा (पिताजी के दादा) या फिर उनके पिताजी ने लगवायी थीं. इसीलिए तो लगभग टोले भर की गाछी एक ही जगह पर थी.
अब वहां गाछी नहीं है. गांव में पत्ता बुहारने वाली अब भी हैं. बहुत दूर जाना पड़ता है उन्हें. हाई स्कूल के आगे. पिछली मर्तबा चचेरे भाइयों ने बताया दो-तीन साल पहले हाई स्कूल के आगे वाली गाछी में पत्ता बुहारने वाली औरतों के साथ जोर-जबरदस्ती की थी गांव के कुछ नए रईसज़ादों ने.
फणीश्वर नाथ रेणु की माटी का असर अभी बीता नहीं है, आसा है, बीतेगा भी नहीं। आपके ब्लॉग ने गांव की याद बिल्कुल ताजी कर दी। हां, मेरा सौभाग्य रहा कि मैं स्कूली पढ़ाई के दिनों गांव में ही रहा, सो मुझे उन सुखों की दीघॅ अनुभूति हुई, जिसकी कसक आपने जताई है। आंचलिक शब्दों का अंजुरी भर-भर कर किया गया प्रयोग मन को छू गया। आमों के नाम-----ये तो मेरे लिए भी बस इतिहास की ही बातें हैं। हृदय के अन्तस्तल से कोटिशः साधुवाद।
ReplyDeleteबड़ा जीवंत चित्रण करते हो राकेश भाई. एक एक दृश्य उभरता है चलचित्र की तरह. बहुत उम्दा. तभी तो इन्तजार लगा रहता है.
ReplyDeleteयह भी मजेदार रहा:
सबजा (पकने पर इसमें कीड़ा लग जाता था. अंचार बहुत अच्छा होता था उस आम का. किसी को मुफ़्त में देना होता तो घर वाले इसे ही याद करते थे).
हा हा!!! :)
शुक्रिया मित्रों हौसलाअफ़ज़ाई के लिए.
ReplyDeleteऐसा लगता है, जब भी गांव जाता हूं गांव की एक-एक चीज़ें बुलाकर कुछ कहती है, शिकायत करती है. देखो मैं किस हाल में पहुंच गयी, क्या-क्या किया तुम्हारे घर, परिवार और समाज वालों ने हमारे साथ ...
मुझे लगता है तेज़ी से बदलती इस दुनिया में एक शहर-गांव का फ़र्क मिट-सा गया है और ग्रामीण संस्कार और सम्पदा नए विकास के लिए जबरन क़ुर्बान किए जा रहे हैं.
ख़ैर, यदा-कदा आपको झेलाता रहूंगा :))
आपका पोस्ट पढ़कर अपने भीतर एक कॉम्प्लेक्स पैदा होता है कि मैं भी गांव से क्यों न हूं और जो लोग गांव के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं आपका पोस्ट इन्हें बताता है कि गांव में भी गर्व करने की कई चीजें है। ये गुड़गांव के फार्महाउस मेंबी जाकर नहीं मिलेगा भाई।
ReplyDeleteऐसा सुन्दर व जीवन्त वर्णन किया है कि हम भी लगता है आपकी गाछी घूम आए ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
आपके गाछी के बारे में जान के बहूत मज़ा आया , और वो बोतू की सवारी वो तो और भी मजेदार थी .आजकल किसकी सवारी कर रहे हैं बेला जी ?
ReplyDeleteविनीत भाई, नहीं कॉम्पलेक्स न पालिए. चाहिएगा त अगली मर्तबा आपको भी लिए चलेंगे अपने गांव और फिर देख-परख कर दो-चार बात आप गोहे-बगाहे पर लिख दीजिएगा.
ReplyDeleteघुधूती बासूतीजी आपको अच्छा लगा मेरा ये खेप, जानकर मुझे भी अच्छा लगा. बस आते रहिए इस द्वारे भी. गांव-जवार में ऐसे ही टहलाता रहूंगा.
अमरजी शुक्रिया आपका. बेलाजी चालीस को छूने वाले हैं. अब बोतूसवारी की उम्र नहीं रही उनकी. टरेक्टर की सवारी कर रहे हैं आजकल वो. डराइबर हैं. ऐसे ही आते रहिएगा हफ़्तावार पर.
नॉस्टैल्ज़िया से भरा आत्मीय चित्रण .
ReplyDeleteअपने बचपन के गांव में पहुंच गया . पर क्या अब जाने पर गांव और गांव की अमराइयां वैसी मिलेंगी हमें ?
राकेश भाई मैं भी तरियानी छपरा का हूं। तरियानी छपरा में आप किस टोला के हैं ? पिताजी का नाम क्या है ? वैसे मैं भी लगभग २० वर्ष पहले अपने गांव तरियानी छपरा गया था। अपने गांव को बहुत Miss करता हूं।
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