7.10.07

भयानक त्रासदी के भयावह अवशेष

6 अक्टूबर

आंखें मलते हुए जब सुबह उठा तो कम्बल-तकिए वाले ने कहा, 'सर पटना जंक्शन उतरिएगा न ? बस आ गया, सामान तैयार कर लीजिए.' फटाफट अंगौछा बैग में घुसेड़ा और बेसिन पर जाकर आंखों में पानी झोंका. रेल प्लेटफ़ॉर्म पर आ चुकी थी. ग़लती से सामने की तरफ़ निकल गया. बस स्टैंड के लिए ऑटो नहीं मिल रहा था. दो-एक ऑटो वाला राजी भी हुए तो ज़्यादा पैसे की मांग की. आखिरकार एक रिक्शावाले ने बताया, 'इस सामने जो गल्ली देख रहे हैं, उधरे से निकल जाइए. ओ पार ढेर टेम्पु वाला मिलेगा.' वही किया. ऑटो भी मिला और मैं बस स्टैंड आ गया. मधुवनी जयनगर आवाज़ लगाते एक कंडक्टर/हेल्पर ने पूछा, 'कहां? कहां जाना ?' मुज़फ़्फ़रपुर सुनने के बाद उसने कहा, 'आइए-आइए. समुच्चा सीट त खालिए है. बइठिए, बस अब चलने ही बाली है. टाइम हो गया है.' मैं दाखिल हो गया.

थोड़ी देर में एक आदमी आया और मेरे सामने उस बक्से को खोलकर उसने एक सीडी की पन्नी रखी जिसमें टेलीविज़न रखा था. एक-बार बग़ल में रखे रिमोट से कुछ-कुछ करने के बाद उसने कहा, 'कहां है साला सोहना, बहानचोद मोबाइल चार्ज करता है, अब इ सीडी चलिए नहीं रहा है.' चंद सेकेण्ड में ही वो आदमी आ गया और यह जानकारी ले लेने के बाद कि दिक़्क़त क्या है, अपनी उस्तादी करने लगा और सीडी चालू. दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे हाजीपुर तक मैंने भी देखा. बीच-बीच में कभी-कभार ध्यान इधर-उधर गया वर्ना बड़ी तल्लीनता से देखता रहा था. हाजीपुर में दाखिल होते ही बड़ी त्रासदी के अवशेष दिखने लगे. रेलवे क्रॉसिंग के ठीक बग़ल मे जो नवोदय विद्यालय है, उसके हाते में अब भी 3-4 फ़ीट के क़रीब पानी जमा था. आगे बढ़ने पर देखा - जेल और कचहरी परिसर जलमग्न. थाना भी सड़क पर ही. मेज़-कुर्सी लगाकर बैठे दारोगा साहब और उनके अगल-बगल खड़े दो-चार सिपाही. कहीं-कहीं सड़क पार करता पानी का धार.

ये तब की बात है जब लोग कह रहे हैं बाढ़ समाप्त हो गया है. 75-80 किलोमीटर की दूरी तय करने में बस को क़रीब साढे तीन घंटे लगे, और ऐसा भी नहीं कि पूरा रास्ता ख़राब हो. जगह-जगह जाम. सड़क किनारे बसे कुछ टोलों और गांवों को देखकर बेहद हैरानी हुई. पांच फ़ीट से भी ज़्यादा पानी में कुछ खड़े और कुछ लुढ़के टाट-फूस के घर. किसी की छप्पर झुकी हुई तो किसी की पानी में औंधी पड़ी. लोग कहां गए, सीट पर बैठा सोचता रहा. पर जब कहीं-कहीं सड़क किनारे साड़ी, लुंगी और कटी-फटी प्लास्टिक से तनी सिरकियां दिखीं तो लगा जिन्दा हैं लोग शायद. कहीं-कहीं ऐसी सिरकियां रेलवे लाइनों के किनारे भी दिखे. दरअसल, रेलवे लाइन ही सबसे उंची जगह नज़र आ रही थी.

मुज़फ़्फ़रपुर पहुंचने से थोड़ी देर पहले इन दृश्यों को कैमरे में क़ैद करने की बात ध्यान आयी. पर काफ़ी देर हो चुकी थी और कई बार लगा कि मैं उल्टी तरफ़ बैठा हूं. फिर भी एक-आध तस्वीरें ले पाया, जो इस पोस्ट के साथ लगा रहा हूं.

क्रमश:

2 comments:

  1. राकेशजी,आनंद आ गया। अपना रास्‍ता भी वही है। पटना, मुजफ्फरपुर, हाजीपुर सुनते ही मन में अजीब सी हलचल होने लगती है। बाढ के साथ तो अपन खेले हैं, कूदे हैं, बडे हुए हैं। आपकी भाषा भी सहज, सरल और सुबोध है।

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