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26.8.08

उनहत्तर वर्षीय शिशु राजेन्द्र यादव

राजेन्द्र यादव पर अब चर्चा को आगे बढ़ा रहे हैं अभिषेक कश्यप. समकालीन कथाप्रेमियों के लिए अभिषेक कश्यप नए नहीं हैं. आम जीवन के बेहद आम कोनों में जाकर झांकना तथा महीन से महीन अनुभवों पर उतनी ही बारीक दृष्टि अभिषेक की कहानियों की ख़ासियतें हैं. अभिषेक को कुछ हद तक राजेन्द्र यादव के कहानी कारख़ाने का प्रॉडक्ट भी कह सकते हैं. ढाई साल तक भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' में सहायक संपादक रहे अभिषेक ने हंस के खबरिया चैनलों पर केंद्रित बहुचर्चित अंक में अतिथि सहायक संपादक की जिम्मेदारी भी निभाई. पिछले साल उनकी पहली किताब खेल (कहानी संग्रह) छप कर आयी. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां प्रकाशित होती रही हैं. फिलहाल वे युवा रचनाशीलता पर केंद्रित अनियतकालिक पत्रिका 'हमारा भारत' का संपादन कर रहे हैं. अभिषेक को और ज़्यादा जानने के लिए गल्पायन पहुंचें. तो पढिए उनहत्तर वर्षीय शिशु राजेन्द्र यादव ...


उनका बहुचर्चित उपन्यास 'सारा आकाश' हिन्दी की बेस्टसेलर पुस्तकों की सूची में शामिल है जिसकी अब तक दस लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. वे मीडिया में सबसे ज़्यादा छाए रहने वाले साहित्यकार हैं. संभोग से समाधि तक हर विषय पर माने हुए सूरमाओं से लेकर हर ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे तक को इंटरव्यू देने को तैयार रहते हैं. शायद इसलिए अशोक वाजपेयी कहते हैं - ''यादवजी ने जान-बूझ कर हिन्दी के सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका अख्तियार कर ली है.

वे 28 अगस्त को 79 साल के हो जाएँगे मगर जब आप उन्हें बुढापे की याद दिलाएंगे तो वे ज़ोरदार ठहाका लगायंगे - "अपने बुढापे की बात कर रहे हो क्या? मै तो अभी शिशु हूँ." और वाकई सारा जीवन उन्होंने एक शिशु की तरह ही बिताया है. परिवार की जिम्मेदारियों और घर-गृहस्थी की चिंताओं से मुक्त. विवादों, बहसों और अलोचनाओं के बीच वे हमेशा ठहाके लगाते मिल जाएँगे. अंसारी रोड, दरियागंज स्थित उनकी मासिक पत्रिका 'हंस' का दफ़्तर दिल्ली में शायद बौद्धिक अड्डेबाजी की सबसे मुफ़ीद जगह है .
वे हिन्दी के शायद सबसे चर्चित (और विवादित भी) लेखक-संपादक हैं, जिनके लिखे और कहे पर अकसर हंगामा मच जाता है और रामझरोखे बैठ कर वे इन हंगामों का ख़ूब मज़ा लेते हैं. अपने अद्भुत प्रबंध कौशल के बूते अत्यन्त सीमित संसाधनों के बावजूद वे पिछले 22 सालों से 'हंस' जैसे लोकतान्त्रिक मंच को बचाय हुए हैं. 'हंस' के ज़रिए एक तरफ़ आत्मप्रचार से बचकर उन्होंने उत्कृष्ट कथाकारों-गद्यकारों की कई पीढियाँ तैयार की तो दूसरी तरफ़ दलित और स्त्री के सवाल को हाशिए से उठा कर मुख्यधारा में ला दिया.
वे अकसर बताते हैं - "मेरी साठ किताबें हैं और मुझे हर साल पौने दो, सवा दो लाख की रोयल्टी मिलती है." शक की गुंजाईश नहीं, क्योंकि उनका बहुचर्चित उपन्यास 'सारा आकाश' हिन्दी की बेस्टसेलर पुस्तकों की सूची में शामिल है जिसकी अब तक दस लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. वे मीडिया में सबसे ज़्यादा छाए रहने वाले साहित्यकार हैं. संभोग से समाधि तक हर विषय पर माने हुए सूरमाओं से लेकर हर ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे तक को इंटरव्यू देने को तैयार रहते हैं. शायद इसलिए अशोक वाजपेयी कहते हैं - ''यादवजी ने जान-बूझ कर हिन्दी के सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका अख्तियार कर ली है. रामविलास शर्मा पर 'हंस' में लिखे सम्पदाकीय में उन्होंने लिखा - 'रामविलास की जेब में हाथ डालने की आदत नहीं थी. बाद में नामवर सिंह ने इस कला का चरम विकास किया.' मज़े की बात है कि उन्हें भी जेब में हाथ डालने की आदत नहीं. एक-एक रुपया बहुत सोच-समझ कर ख़र्च करते हैं. उनके चाहने वालों की कोई कमी नहीं. हर साल उन्हें थोक में उपहार मिलते हैं - कुरते, घडियां, महँगी स्कॉच-वाइन की बोतलें, इम्पोर्टेड सिगरेट, किताबें, मोबाइल...मगर वे किसी को क्या उपहार देते हैं यह शोध का विषय है. अरसे पहले मन्नू जी ने 'हंस' में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य में नई कहानी आन्दोलन को याद करते हुए लिखा था - 'उन दिनों राजेंद्र बोलने में बहुत पिलपिले थे.' वे आज भी ऐसे ही हैं. 'हंस' के दफ़्तर की महफिलों में सबकी बोलती बंद करने वाले राजेंद्रजी मंच पर पिलपिले ही नज़र आते हैं. नामवर या कमलेश्वर की तरह मंच लूटने का कौशल उन्हें कभी नहीं आया. लालू यादव से लखटकिया पुरस्कार लेने के अपवाद को छोड़ दें तो पुरस्कारों के मामले में उनका दामन बेदाग़ ही रहा है. छोटे-बड़े दर्जनों पुरस्कार उन्होंने ठुकराएँ हैं और अपने मित्र स्वर्गीय कमलेश्वर की तरह राजनेताओं के साथ मंच पर बैठने से परहेज करते हैं. हाँ, नामवर सिंह के साथ वे मंच पर हों तो श्रोताओं को किसी दिलचस्प कॉमेडी फ़िल्म का मनोरंजन उपलब्ध हो जाता है. ये हैं राजेंद्र यादव. हिन्दी साहित्य के इस गॉदफ़ादर के लिए लम्बी उम्र की दुआ कौन नहीं मांगना चाहेगा?

25.8.08

अस्सीवें साल में दाखिल हो रहे राजेन्द्र यादव


राजेन्द्र यादव हिन्दुस्तान या हिन्दी-साहित्य के कौन हैं कौन नहीं हैं, काफ़ी कुछ कहा गया है और कहा जाता रहेगा. मैंने इस सख़्स को सबसे पहले 'कांटे की बात' के ज़रिए जाना. ऐसा कांटा कि एक बार हल्का भी चुभ जाए तो टीस गहरी होती है और सबसबाती देर तक है. जुलाई-अगस्त 1990 में मंडल विरोधी 'आंदोलन' पर कांटे की बात में राजेन्द्र यादव की एक बात अकसर याद आ जाती है कि दिल्ली की लड़कियां हाथों में तख्तियां लिए सड़कों पर उतर आयी थीं, जिन पर चिंता ज़ाहिर की गयी थी कि आरक्षण के कारण अब उनकी शादी नहीं हो पाएगी क्योंकि उनके माता-पिता को नौकरीशुदा दुल्हे नहीं मिल रहे हैं(असल उद्धरण नहीं, अपनीस्मृति से). संघ का अयोध्या कांड रहा हो या तालिबान का बामियान कांड, कांटा सबने चुभोया. ऐसे कितने सवाल/मसले कांटे की बात में उठाए राजेन्द्र यादव ने. सब पर कलमदराज़ी की. रोशनाई बनकर हंस पर टपके उनके गुस्सैल आंसुओं ने किसकी संवेदना को नहीं झकझोरा. मैं हर बार राजी होता रहा. मतभेद कम रहा या रहा ही नहीं.
कांटों से बिंध जाने के बाद मन हुआ श्रव्यसुख पाने का. 97-98 की बात होगी. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोगेसिव स्टूडेंट्स युनियन का हिस्सा था. संघ-संप्रदाय के संगठनों से गुत्थम-गुत्थी रोज़मर्रा का हिस्सा-सा बन गयी थी. नागपुर और रानी झांसी रोड से उनके पुरोधा आते थे और अगलगुला उगल कर चले जाते थे. उसके बाद परिसर में राष्ट्रगीत का मुखड़ा चीख़ और चुहल की गिरफ़्तारी में छटपटाने लगते थे. ऐसे में अमनपसंदों को अकसर हंस दफ़्तर की याद आती और राजेन्द्र यादव कैंपस आते. कभी 22 नंबर में तो कभी 56 नंबर में. कभी उन्होंने ये नहीं पूछा कि कितने लोग आ जाएंगे, या किस सभागार में होगी चर्चा. अब यह सोचता हूं कि आखिर ऐसा क्यों था. एक-आध बार दिल्ली विश्वविद्यालय से ही जब किसी चर्चित निरपेक्ष व्यक्तित्व को बुलाने की कोशिश की तो उन्होंने कोई-न-कोई बहाना बना कर टाल दिया. याद नहीं है कि यादवजी ने कभी बहानेबाज़ी की हो. हद से हद यही कहा 'किसी को भेज देना मुझे लेने के लिए, समय बच जाएगा'. यानी मेरे लिए यादवजी कभी न कॉम्प्रोमाइज़ करने वाले योद्धा ठहरे. यही कारण है कि उनकी ठनी भी ख़ूब: व्यक्तियों से लेकर संस्थाओं तक से. प्रसारभारती को तो उन्होंने प्रचारभारती कहा ही.
साहित्य मेरा बेहद कमज़ोर है. बहुत कम पढ़ाई-लिखाई की है. पर जो भी मोटी समझ है उसके आधार पर यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि यादवजी ने हमेशा साहित्य का एजेंडा तय किया है. कोई भी विमर्श ले लें, हंस नामक मंच से ही उसकी शुरुआत हुई है. एक ही अंक में धूर-विरोधी मत और फिर उस पर चलती बहसों की श्रृंखला: हंस के अलावा नहीं दिखा कभी. पाठकों ने जो खिंचाई की वो अलग. राजेन्द्र न डमगाए. कभी न डगमगाए. ज़रूरत पड़ने पर सफ़ाई दी पर पोजिशन न बदली. हंसीय हलचल का असर भारतीय राजनीति पर भी दिखा. विशेषकर दलित और स्त्री अगर आज भारतीय राजनीति के केंद्र में है तो इसका श्रेय हंस को जाता है, राजेन्द्र यादव को जाता है. हंस के ज़रिए बौद्धिक जगत में जो भी सुगबुहाट हुई, भारतीय राजनीति को उसने बार-बार आइना दिखाया. और आइने में इस राजनीति ने अपने काले चेहरे को देख उसको साफ़ करने की कई बार दिखाउ ही सही, पर कोशिश ज़रूर की और आज भी कर रहे हैं.
नए रचनाकर्मियों के लिए राजेन्द्रजी से बड़ा प्रोत्साहक और कौन होगा. पोल्हा कर, डांट कर, और तो और गरिया कर उन्होंने नौजवानों से लिखवाया और लिखवा रहे हैं.
दो दिन बाद यानी 26 अगस्त 2008 को राजेन्द्र यादव अस्सीवें साल में दाखिल हो रहे हैं. हफ़्तावार की ओर से उन्हें इस मौक़े पर ढेर सारी बधाइयां और उनके इस सफ़र के और मानीख़ेज और लंबा होने के लिए सहश्र शुभकामनाएं. इस अवसर पर हफ़्तावार राजेन्द्र यादव के जीवन-कर्म पर एक चर्चा आरंभ कर रहा है. निजी संस्मरण हो तो और बढिया, अन्यथा आपकी हर राय और प्रतिक्रिया का स्वागत है.