कॉमनवेल्थ खेलों से पहले भारत की राष्ट्रीय मीडिया की परेशानी का सबस मुझे भली-भांति याद है! स्टेडियमों के अधूरे निर्माण सड़कों की खस्ताहाली, कैटरर्स की नियुक्ति न हो पाने, बारिश, बाढ़ में डूबे खेलगाँव, डेंगू और मलेरिया के डर और इन सबके ऊपर कुछ देशों द्वारा खेल दल न भेजे जाने की ध्मकी को लेकर अख़बार से लेकर ख़बरिया चैनल तक ः सब किस क़दर बेचैन थे। रहमान का ‘इंडिया बुला लिया ...’ भी खिलाड़ियों और सैलानियों को बुला पाने की गारंटी नहीं दे पा रहा था। संसद से सड़क तक भ्रष्टाचार का अलापे जा रहे राग को देखकर ऐसा महसूस होता था मानो अबकी बार और कुछ हो न हो, देश से भ्रष्टाचार का सपफाया हो कर रहेगा।
हुआ क्या! खेल शुरू होते-होते कुछ दिन बदइंतजामी छायी रही। बाद में ‘रंगारंग उद्घाटन’ और खिलाड़ियों की ‘सपफलताओं’ ने सब ‘झाँप’ दिया। खेल ख़त्म हुए तो घोटालों और जाँच के नाम पर तहलका मचा। अब ‘तहलका’ में से ‘त’ ग़ायब हो चुका है और सब हल्का-हल्का लग रहा है।
इन सबके तले जो अहम मसले दब कर रह गए, कुछेक अपवादों को छोड़ कर उन पर न तब किसी ने मुँह खोला और न अब ही किसी को इसकी ज़रूरत महसूस हो रही है। खेलों के ‘सहज’ और ‘सपफल’ आयोजन के लिए दर्जनों बस्तियाँ उजाड़ी गयीं। हज़ारों बेघर कर दिए गए। उनकी रोज़ी-रोटी छीन ली गयी। शहर-ए-दिल्ली ने उन्हें जबरन दरबदर कर दिया। खेलों के दौरान गली-नुक्कड़ों में यह आम चर्चा थी कि किस तरह दिल्ली पुलिस के लोग ग़रीब-गुर्बे को रेलों और बसों में ठूँस रहे थे। इस ध्मकी के साथ कि ‘खेल ख़त्म होने तक दिल्ली में दिख मत जइये’। ये वही लोग थे जो शहर को चमकाऊ, लुभाऊ और बिक़ाऊ बनाने में ख़ून-पसीना एक कर रहे थे। लेकिन शहर को सुरक्षित, साप़फ-सुथड़ा, ख़ूबसूरत, ग़रीबमुक्त और संपÂ पेश करने के नाम पर इन्हें बाहर खदेड़ दिया गया। न केवल खदेड़ा गया बल्कि इनकी वापसी और बसाहट की संभावनाओं को भी हरसंभव ख़त्म करने का जाल रचा गया।
ग़ौरतलब है कि इस महाआयोजन में दिल्ली के चुने हुए पॉश इलाक़ों को ही और पॉलिश किया गया। साथ में कुछ नए पॉश ठिकाने आबाद करने की कोशिश की गयी। यमुना किनारे खेल-गाँव इसी कड़ी में तामीर हुआ। बेशक इस नयी बसावट की जद में राजनीतिक और व्यावसायिक समीकरण को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। वर्ना कोई वजह नहीं थी दिल्ली के अन्य इलाक़ों में कोई ढाँचागत विकास नहीं हो सकता था? यमुना पार का भजनपुरा इलाक़ा खेलों से जुड़ी कई परियोजनाओं की शुरुआत का गवाह रहा है जो खेल शुरू होते-होते ‘यमुना एक्शन प्लान’ की परियोजनाओं में तब्दील कर के ठंडे बस्ते में डाल दी गयीं। कम से कम निर्माण स्थलों पर लगे तब और अब के बोर्डों से तो यही स्पष्ट होता है। बु( विहार, मंडोली, बवाना, नांगलोई, नरेला, मुलड़ बाँध्, कैर जैसे इलाक़े क्या दिल्ली में नहीं आते? खेलों से जुड़ी कुछ परियोजनाएँ इन इलाक़ों में भी लायी जा सकती थीं।
दरअसल, यह पूरा मसला नीति से ज़्यादा नियत है। ये वे इलाक़े हैं जिनमें ‘हूज़ हू’ ;सत्ता और शक्तिवान लोगद्ध नहीं बसते हैं। लेकिन उन्हें सुख-सुविध देने वाले कारिन्दे यहीं बिखरे पड़े हैं। दरअसल हर शहर में केन्द्र और परिध् िका स्पष्ट विभाजन होता है। दोनों के विकास की गति और पैटर्न अलग-अलग होती है। केन्द्र और परिध् िके बीच हमेशा से शोषण और दोहन का रिश्ता रहा है। केन्द्र परिध् िका विस्तार करता है। वहाँ असीमित अनध्किृत निर्माण कराता है पिफर उनके अध्किरण और सुविधएँ मुहैया कराने के नाम पर तरह-तरह के करतब करता है। पर हर हाल में विषमता को बरकरार रखना चाहता है।
एक तरप़फ ‘जवाहरलाल नेहरू अर्बन रिन्यूअल मिशन’ और खेलों की आड़ लेकर लो फ्ऱलोर लाल-हरी बसों का बेड़ा उतारा जाता है। कुछेक सड़कों पर विशेष साइकिल ट्रैक बनाये जाते हैं। तो दूसरी ओर असली साइकिल चालकों के इलाक़ों में सड़कें भी नहीं होतीं। वे तो आरटीवी और चैंपियनों में ध्क्के खाने के लिए विवश हैं। असली सिटीमेकर्स जो कि ईंट-दर-ईंट जोड़ कर शहर बनाते हैं, कूड़ा चुनते हैं, साप़फ-सप़फाई करते हैं, रेहड़ी-पटरी पर रोज़ी कमाते हैं, घरेलू काम करते हैं, दुकानों, कारख़ानों, कंपनियों, दफ्ऱतरों, मॉल्स और मल्टीप्लेक्सों में रोज़मर्रा की ज़रूरियात निपटाते हैंऋ वे इस कॉमनवेल्थ खेल की पूरी अवधरणा से न केवल बाहर रहे बल्कि इसका शिकार भी बने। ऐसे में भला चंद पदकों के दम पर अपनी पीठ थपथपा कर हम कैसे ख़ुश हो लेंगे और हमारे कंठ से कैसे पूफठ पड़ेगा ‘दिल्ली मेरी जान’! अकेले थीम सॉघõ के लिए रहमान को पाँच करोड़ दिए गए जबकि इससे आध्े ख़र्चे पर दिल्ली के तमाम बेघरों के लिए रैनबसेरों का इंतजाम हो सकता था। शायद रहमान इस पर ऐतराज़ भी न करते।
29.12.10
इंडिया बुला लिया ... इंडिया भुला दिया!
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