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14.8.08

नाव पर सवार हम अस्सी चले

बनारस-भ्रमण का अनुभव साझा करते हुए पिछली किस्त में मैंने बताया था गोदौलिया चौराहे पर मिश्राम्बु में ठंडई पीने का अपना किस्सा. आगे पढिए नाव पर सवार हम अस्सी चले ...

‘हमें जल्दी नहीं है, आप मोटरबोट से इसको अलग कीजिए.’ लेकिन वो भी कम घाघ नहीं थे. हमारे बार-बार चिल्लाने के बाद भी वे बस यही कह रहे थे, ‘हमको कुछो सुनाई नहीं पड़ रहा है.’ हमारा मज़ा किरकिरा हुआ जा रहा था. हमने बड़ी मिन्नते कीं. पर उसने चुप्पी साध ली. अंतत: उसके क़रीब जाकर मैं ज़ोर से चीखा, ‘ठीक है, न सुनिए हमारी बात, मैं छलांग लगा रहा हूं गंगा मैया में. सारी जिम्मेदारी आपकी होगी.’ ये दांव चल गया. बुदबुदाते हुए उन्होंने हमारी नाव को मोटरबोट से अलग किया

अब हम दशाश्वमेध घाट की तरफ़ वापस लौट रहे थे. मैं गोदौलिया जाते हुए संकटमोचन मंदिर और आसपास का इलाक़ा देखने की अपनी इच्छार ज़ाहिर कर चुका था. इसलिए जैसे ही हम उस गली के नजदीक पहुंचे रामजनमजी ने बताया कि जा तो सकते हैं उधर लेकिन समय ज्यादा लग जाएगा. जगह-जगह पुलिस वाले तलाशी लेंगे. देख नहीं रहे हैं यहीं से कैसे पुलिस वाले शुरू हो गए हैं. बाद में अरविंदजी ने भी बताया कि 'पहले वाली बात नहीं रही. अब तो पूरा का पूरा इलाक़ा छावनी बन गया है. ऐसे बंदुक और मशीनगन लेके खड़े रहते हैं पुलिस वाले कि पुछिए मत.' बातचीत का केंद्र थोड़ी देर के लिए मंदिर और ज्ञानवापी, और उसके आसपास की घेरेबंदी तथा बनारस की मिलीजुली तहज़ीब हो गयी. रामजनमजी ने बताया कि कैसे पिछली मर्तबा बिस्फ़ोट के बाद शहर में कुछ शरारती तत्वों ने दंगा भड़काने की कोशिश की थी लेकिन आम बनारसी लोगों ने उसका ऐसा करारा जवाब दिया कि सब दुबक लिए.
बतियाते हुए हम घाट की सी‍ढियां उतर रहे थे और आसपास का नज़ारा ले रहे थे. कहीं हाथों में हाथ डाले प्रेमी युगल दुनिया से बेख़बर आपस में मग्न थे तो कहीं तफ़री करने आए यार-दोस्तों के झूंड ‘घाट का मज़ा’ लूट रहे थे. इस बीच मस्तानी चाल में टहलता कोई सांड उधर से गुज़रता और पल भर की अफ़रातफ़री मच जाती.
अस्सी जाना तय था ही. तय ये भी था सवारी नाव की होगी. हम नीचे की सीढियों पर चल रहे थे. बार-बार कोई न कोई नाविक हमारे पास आता और हमसे नौका-विहार करने का निवेदन करता. हम उसे बताते कि हमें अस्सी तक जाना है. उसका जवाब होता ‘हां, तो चले जाइए न, जा तो रहा है वो नाव.’ फिर हम साफ़ करते कि ‘मोटरबोट से नहीं साधारण नाव से जाना है’. अब्बल तो बिना मशीन वाले नाव पर हमें अस्सी तक ले जाने को तैयार नहीं होता और जो एक-दो तैयार होते भी, पैसे पर आकर उनके साथ बात नहीं बन पाती. आखिरकार एक बुजुर्ग नाविक चलने को तैयार हुए सौ रुपए में. हम उनके नाव में बैठ गए. बुजुर्ग ने अपने दोनों हाथों में चप्पू थाम लिया. इधर हम आपस में बनारस और सारनाथ के अनुभवों में डूबने-उतरने लगे. तभी मेरी दायीं ओर बैठे अविनाशजी ने गर्दन हिलाते हुए कहा, ‘थोड़ा-थोड़ा आनंद आने लगा है’. मुझे शायद कम दी गयी थी या फिर पता नहीं क्यों, कोई ख़ास एहसास नहीं हो रहा था. बातों-बातों में अरविंदजी ने बताया कि सुरेश भाई अच्छा गाते हैं. फिर तो हम सब उनके पीछे पड़ गए. वैसे दिन में शिविर में उन्होंने एक ख़ूबसूरत-सा जनगीत सुनाया था. इसलिए इतने अनजाने भी न थे हम उनकी प्रतिभा से. आखिरकार, उन्होंने मनोज तिवारी ‘मृदुल’ के किसी गीत का एक मुखरा सुनाया और कहा, ‘इतना ही याद है’. उसके बाद अरविंदजी ने उनसे किसी विशेष गीत का आग्रह किया जो वे लोग कभी-कभार आंदोलनों में गाया करते हैं. सुरेश भाई ने निराश नहीं किया. बड़ा प्यालरा गीत था वह.
हम गीत सुनते हुए नाव से गंगा और आसपास के घाटों का नज़ारा देखते चल रहे थे. जैसे ही कोई नया घाट आता, या किसी घाट का नाम लिखा दिख जाता, हममें से कोई न कोई ज़रूर बोल पड़ता. हमारे पीछे से एक मोटर बोट आया, अगर वो बस होता तो उसे शायद हम डबलडेकर कह सकते थे. यानी नीचे उपर, दोनों जगह बैठने की सुविधा थी उस पर. छत पर बिछी कालीन और चादर पर तकियों के सहारे कोई वीआइपी सपरिवार या फिर वीआइपियों का एक जत्था गंगा सेवन कर रहा था. हम उसके बारे में चर्चा कर ही रहे थे कि हमारी नज़र पीछे से आती उस मोटरवोट पर पड़ी जिसके नाविक को हमारे नाविक ने लगभग चिल्लासते हुए कहा, ‘पिछवाड़ा सटाओ’. दो-चार ज़ोरदार चीख के बाद उस मोटरबोट वाले ने अपना निचला हिस्सा हमारे नाव के सिरे से सटा दिया. हमारे नाविक ने नाव की मांगि पर बंधे रस्से का एक छोर मोटरबोट वाले की ओर उछाल दिया. उसने उस रस्से का अपने निचले मांगि पर बांध दिया. हम मोटरबोट की स्पीड से चलने लगे. पर हमें जल्दबाज़ी नहीं थी. हमें सूर्यास्त का आनंद लेना था गंगा में सैर करते हुए. हमने अपने नाविक को कहना शूरू किया, ‘हमें जल्दी नहीं है, आप मोटरबोट से इसको अलग कीजिए.’ लेकिन वो भी कम घाघ नहीं थे. हमारे बार-बार चिल्लाने के बाद भी वे बस यही कह रहे थे, ‘हमको कुछो सुनाई नहीं पड़ रहा है.’ हमारा मज़ा किरकिरा हुआ जा रहा था. हमने बड़ी मिन्नते कीं. पर उसने चुप्पी साध ली. अंतत: उसके क़रीब जाकर मैं ज़ोर से चीखा, ‘ठीक है, न सुनिए हमारी बात, मैं अब छलांग लगा रहा हूं गंगा मैया में. सारी जिम्मेदारी आपकी होगी.’ ये दांव चल गया. बुदबुदाते हुए उन्होंने हमारी नाव को मोटरबोट से अलग कर लिया. फिर से एक बार नॉर्मल्सी लौट आयी थी हमारे बीच. अस्सी अभी दूर था.
क्रमश:

12.8.08

बनारस भ्रमण: अस्सी बाद में, पहले ठंडई


कुछ घंटे बनारस में तफ़री का सुख मुझे भी प्राप्त है. सोच रहा हूं क्यों आपसे भी साझा करूं. लीजिए पेश है पहली खेप:

अपने सामान की तारीफ़ ख़ुद कैसे करें, फिर भी आप पूछ रहे हैं तो हम तो यही कहेंगे कि 20 रुपये वाला पी कर देखिए, अच्छा लगेगा आपलोगों को.’ थोड़ा ठहर कर उन्होंने जोड़ा, 'बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं मेरे दुकान पर शरबत पीने. बंबई-दिल्ली से आते हैं लोग. वइसे एक्सपोर्ट भी होता है यहां से माल.' उनकी सलाह पर रामजनमजी ने ठप्पा लगा दिया. 5 गिलास का ऑर्डर दे दिया गया. वे लग गए अपने काम में. तरह-तरह के द्रव्य और मसालों को मिलाने लगे जग में. कुछ सेकेंड बाद पीछे मुड़कर हमसे मुखातिब हुए, ‘इसमें माल भी मिलाना है?’ ‘हां, हां. उसी लिए तो आए हैं'

शाम के क़रीब छह बजे होंगे. सुरेश भाई ने अपनी मोटरसाइकिल दशाश्वमेध घाट के नज़दीक एक पार्किंग में खड़ी की और ‘अभी और लोगों को समय लगेगा. चलिए तबतक घाट की तरफ़ चलते हैं’ कहते हुए घाट की तरफ़ बढ़ने लगे. मैं उनके पीछे-पीछे था. थोड़ी देर में हम एक घाट की सीढि़यां उतर रहे थे. मैंने पूछा, ‘सुरेश भाई, ये कौन-सा घाट है?’ ‘दशाश्वंमेध घाट. आईए, इधर से चलिए नहीं तो ये लोग तंग कर देंगे.’ उनका इशारा सीढि़यों पर बैठे किस्म-किस्म के भिखारियों की तरफ़ था. उनके कहे मुताबिक़ मैं उनके साथ-साथ चलने लगा. ख़ैर, स्थिति ऐसी थी नहीं कि हम जिधर से गुज़रें उधर भिखारी या साधु-सन्यासी न हों. बस, नज़र ही फेर सकते थे और वो हमने किया.
सामने गंगा तट पर पानी में खड़ी नावों को देखकर नावों के प्लेटफ़ॉर्म-सा एहसास हो रहा था. कई बार हिलकोरे ले रही उन नौकाओं को देखकर लग रहा था मानो वो एक-दूसरे पर चढ़ लेने को बेचैन हैं. घाट पर टहलते हुए हर दो-तीन सेकेंड में कोई व्यक्ति टकराता और कहता, ‘आइए भाई साहब गंगा घुमा लाएं, एकदम वाजि़व पैसा लेंगे.’फिर कोई बहाना बनाकर हम आगे बढ़ जाते. टहलते-टहलते हम एक चबूतरे पर आ पहुंचे. एक बड़ा ही विलक्ष्ण दृश्यग मेरी नज़रों के सामने था. एक बारह-चौदह साल का बिल्कुल देसी लड़का एक एक हसीन गोरी मेम को न केवल घुमा रहा था बल्कि उसे आसपास की चीज़ों के बारे में भी बता रहा था. वो आगे-आगे, मेम पीछे-पीछे. सुरेश भाई ने टोका, ‘क्या देख रहे हैं? यही तो बनारस है. ये लड़का निश्चित रूप से कभी स्कूल नहीं गया होगा, लेकिन इसे मालूम है कि क्या बात करनी है और कैसे. घाट पर आपको ऐसे ही गाईड मिलेंगे. सारी ट्रेनिंग घाट पर उछलते-कूदते ही मिल जाती है इन लोगों को.’
थोड़ी देर बाद हम एक ऐसी जगह आ पहुंचे जहां चार-पांच चौकियों पर आरती की थाल, शंख, घंटियां, पोथियां और कुछ पूजन सामग्री रखी हुई थी. हमारे भौचक्केपन को ताड़ते हुए सुरेश भाई ने साफ़ किया, ‘थोड़ी देर में आरती होगी, पहले नहीं होती थी. ठीक-ठाक आमदनी हो जाती है इससे.’ काफ़ी सारे लोग आसपास की चौकियों पर जमे हुए थे. किसी को नाव पर सैर करना था तो किसी को आरती देखनी थी, बहुत से लोग मेरी तरह घाट पर टहल लेने के बाद थोड़ा सुस्ता लेने के विचार का पालन करते लग रहे थे. इस बीच सुरेश भाई के मोबाइल की घंटी बजी. फ़ोन सुन लेने के बाद उन्होंने बताया, ‘कामरेडजी का फ़ोन था. बेनिया पार कर गए हैं उ लोग. हद से हद पन्द्रह मिनट और लगेगा.’
दरअसल अविनाशजी और मैं सारनाथ स्थित विद्या आश्रम में ‘ज्ञान मुक्ति मंच’ द्वारा आयोजित ‘युवा ज्ञान शिविर’ में भाग लेने पहुंचे थे. वहीं हमारी मुलाक़ात सुरेश भाई, अरबिंद भाई, रामजनमजी समेत अन्य शिविरार्थियों से हुई. बनारस कैंट स्टेशन पर उतरते ही हमने यह तय कर लिया था कि शिविर समाप्त होते ही बनारस घूमा जाएगा. अविनाशजी ने तो ख़ास तौर से एक दिन इसी प्रयोजन के लिए रिजर्व रखा था. तयशुदा कार्यक्रमानुसार शिविर समाप्त होने के बाद बनारस में घाट-दर्शन की योजना को क्रियान्वित किया जा रहा था. पांच लोग थे, लेकिन सारनाथ में तत्काल पांचों के लिए राजेन्द्र प्रसाद घाट की तरफ़ जाने के लिए कोई सवारी न मिलने की स्थिति में सुरेश भाई के फ़ॉर्मूले पर अमल करते हुए मैं उनकी मोटरसाइकिल पर सवार बना, और रामजनमजी, अरविन्द भाई तथा अविनाशजी एक साथ किसी और सवारी से घाट की ओर आ रहे थे.
हम चौकी पर बैठे पूजा-प्रतिष्ठान, तथा अन्य जितनी उत्सुकताएं हो सकती थीं उन पर चर्चा कर रहे थे. तभी सुरेश भाई ने कान से फ़ोन हटाते हुए कहा, ‘कामरेडजी लोग आ गए ... पर दिख नहीं रहे हैं.' तभी मुझे रामजनमजी का कुर्ता दिखा. अपने दोनों हाथ उठाकर मैंने हिलाना शुरू कर दिया. तभी अविनाशजी से मेरी नज़र मिल गयी. क्षण भर में ‘थोड़ा तुम बढ़ो और थोड़ा हम बढें’ का अनुपालन करते हुए सारनाथ में बिछुडे़ हमलोग फिर से मिल रहे थे. इस बार हमलोगों ने घाट का और क़रीब से मुआयना किया. राय बनी ‘अस्सी चला जाय, नाव से. लेकिन पहले ख़ास बनारसी प्रसाद ठंडई पा लिया जाय, आनंद परमानंद हो जाएगा.'. एकमत से मंजूर हुआ. चल पड़े गोदौलिया चौराहे की ओर.
रामजनमजी ने रास्ते में बताया कि कैसे शिवानंद तिवारी जब भी दल बदलते हैं तो बनारस ज़रूर आते हैं बाबा विश्व नाथ का आशीर्वाद लेने. उन्होंने यह भी बताया कि ‘पिछली बार जब वे लालूजी का साथ छोड़कर नितीशजी के साथ जुड़े तो यहीं गोदौलिया पर भेंटा गए. पुराने समाजवादी हैं, आते-जाते हैं तो जानकारी मिल जाती है, हमलोग आ जाते हैं भेंट-मुलाक़ात करने’. बतियाते हुए हम गोदौलिया चौराहे पर आ चुके थे. रामजनमजी जिस दिशा में बढ़ रहे थे अचानक से उधर से आवाज़ आने लगी, ‘आइए, आइए न सर, बढिया माल है इधर, एकदम दिल ख़ुश हो जाएगा’. रामजनमजी सबसे आखिर वाले दुकान में घुसे. और हमलोग उनके पीछे-पीछे. छोटी जगह देखकर हमलोग ठिठक गए. मिश्राम्बु के क़रीब पहुंचकर रामजनमजी ने कहा, ‘आ जाइए अंदर’. हालांकि उस दुकान में मुश्किल से चार लोगों के बैठने की जगह भी नहीं थी, हम पांचों ने ख़ुद को उसमें अंटा दिया. सामने दीवार पर एक रेट‍-लिस्ट टंगी थी, शर्बतों के नाम और उनके आगे उनकी क़ीमत दर्ज थी. नीचे से उपर नज़र मार लेने के बाद दुकानदार से ही पूछा, ‘आपके यहां की सबसे अच्छी चीज़ कौन-सी है?' मैंने जानने की कोशिश की. 'चाहे इ बताइए कि आपके हिसाब से हमलोगों को क्या लेना चाहिए? जादातर आदमी फस्सटाइमर हैं’ सुरेश भाई ने खुलासा किया. ‘अपने सामान की तारीफ़ ख़ुद कैसे करें, फिर भी आप पूछ रहे हैं तो हम तो यही कहेंगे कि 20 रुपये वाला पी कर देखिए, अच्छा लगेगा आपलोगों को.’ थोड़ा ठहर कर उन्होंने जोड़ा, 'बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं मेरे दुकान पर शरबत पीने. बंबई-दिल्ली से आते हैं लोग. वइसे एक्सपोर्ट भी होता है यहां से माल.' उनकी सलाह पर रामजनमजी ने ठप्पा लगा दिया. 5 गिलास का ऑर्डर दे दिया गया. वे लग गए अपने काम में. तरह-तरह के द्रव्य और मसालों को मिलाने लगे जग में. कुछ सेकेंड बाद पीछे मुड़कर हमसे मुखातिब हुए, ‘इसमें माल भी मिलाना है?’ ‘हां, हां. उसी लिए तो आए हैं' संवेद स्वर में हमने कहा. '... बाकी हिसाबे से' अरविंद भाई ने कहा. हर गिलास में सामान मिलाने से पहले दुकानदार ने बारी-बारी से हमें चम्मच दिखाए जिससे वो स्टील के एक डिब्बे में से माल निकाल रहे थे. इस तरह औकातानुसार द्रव्यपान का सामूहिक आनंद लिया गया. अपना पहला तजुर्बा था.
क्रमश:

15.10.07

रेल में पेट का आकार बढ़ जाता है

अजायबपुर स्टेशन, उत्तरप्रदेश

15 अक्टूबर 2007

15 मिनट से अजायबपुर स्टेशन पर गाड़ी खड़ी है. इससे पहले दनकौर स्टेशन पर 25 मिनट से भी ज़्यादा देर तक यह खड़ी रही थी. कुप्पियों में बैठे यात्रियों के सेलफ़ोन की घंटियां रह-रहकर बज रही हैं. कुछ रिंग टोन्स तो बेहद कर्कश हैं जबकि कुछ बेहद मीठी धुनें सुना रहा है. मैंने तो दनकौर में ही अपना लैपटॉप निकाल लिया था. आते-जाते नेटवर्क के बीच कभी जीमेल पर तो कभी सराय.नेट पर मेल चेक कर रहा हूं और रह-रहकर डायरी भी लगता हूं. हमारे बाद वाली कुप्पी में पटना से चढ़ी उस युवती ने जब अपने नोकिया सेट पर ज़ोर-ज़ोर से गीत सुनाना आरंभ कर दिया जो देर रात तक डिब्बे में इधर से उधर करती रही थी, तब मैंने भी मीडिया प्लेयर खोल लिया. इस वक़्त ‘छोर दो आंचल, ज़माना क्या कहेगा ...’ सुन और सुना रहा हूं.

लंबी यात्रा में रेल देर होने पर सवारियों की जो स्थिति होती होगी, इस वक़्त वही हो रही है. अपने रिश्तेदारों को फ़ोन मिलाना, उन्हें दिलासा दिलाने के अंदाज में ख़ुद को तसल्ली देते हमसफ़रों का चेहरा मुझे एक-सा ही लग रहा है. इस बीच कई और रेल आयी और सांय से चली भी गयी. हम अजायबपुर में ही अजायबघर की चीज़ों की तरह पड़े हैं. मैं तो चाय नहीं पीता पर पीने वालों को ठंडी ही मिल रही है, क्योंकि इस गाड़ी में रसोर्इयान नहीं है. किसी स्टेशन से खाने-पीने की चीज़ें उठा ली जाती है और उसके बाद चाय गरम ..., ब्रेड कटलेट, अंडा ब्रेड टाइप की रटंती चालू. मैं यहां जब ये लिख रहा हूं, अचानक मेरी नज़र सामने वाली खिड़की से बाहर उस दुकान पर चली गयी जहां बड़े-से थाल में केसरिया रंग की जलेबियां सजा कर रखी हुई हैं और हलवाई अभी कोई और चीज़ छान रहा है. शायद समोसा या कोइ नमकीन. अपने जी से बाहर आ रहे पानी को जबरदस्ती वापस जी पार करना पड़ रहा है. डर लग रहा है, किसी तरह कूद के दुकान पर चला जाउं और इस बीच में रेल चल पड़ी तो ...

वैसे मेरा तज़ुर्बा ये कहता है कि रेल यात्राओं के दौरान ख़ास तौर से लोगों के पेट का आकार बढ़ जाता है, उन्हें भूख ज़्यादा लगने लगती है, पाचन शक्ति ख़ूब शक्तिशाली हो जाती है. तभी तो चने-मुंगफली से लेकर भांति-भांति के आकार-प्रकार वाले कटलेट्स, हर तरह के गरमागरम पकवान : खाते ही रहते हैं लोग. बुरा हो इस एसी डिब्बों की खिड़कियों का कि इसके सवारियों को खाने-पीने की ऐसी बहुत से चीज़ों से महरूम रहना पड़ता है.

वही राजधानी जो हमारे गरीब रथ के बाद चलने वाली थी पटना से, अजायबपुर में हमें पछाड़ गयी. लगता है अभी इस गरीब रथ को और पछाड़ खिलाया जाएगा, क्योंकि अब भी इसमें कोई हलचल नहीं हो रही है.

अच्छा पिछली रात की एक घटना बताता हूं. बक्सर से आगे बढ़ने पर मैंने अपना लैपटॉप निकाल लिया और ई मेल वगैरह देखने लगा. इतने में बग़ल वाली कुप्पी से एक अधेड़-से सज्जन आए, मेरा कंधा थपथपाया और कहा, ‘सर इंटरनेट चल रहा है?’ ‘जी’ कह भी नहीं पाया था मैं कि उन्होंने चेहरे पर ‘तात्कालिक शालीनता’ की एक छोटी सी चदरी लपेटे कहा, ‘पता चल जाएगा कि सेन्सेक्स की क्या स्थिति है?’ पल भर के लिए मैं फ़्रीज़ हो गया. ‘होश’ में आया तो नेट की गति का जायजा लिया और बोला, ‘सर नेट चल तो रहा है, पर काफ़ी धीमा है. इस वक़्त तो नहीं लेकिन आगे चल कर यदि स्पीड ठीक हुई तो मैं ज़रूर आपकी मदद कर पाउंगा. हक़ीक़त ये है कि सेन्सेक्स सुनते ही मैं तहे दिल तक जल चुका था. जनाब ने ये भी नहीं सोचा कि सेन्सेक्स का उठान-गिरान, उसकी कबड्डी उनके लिए व्यवसाय है उससे किसी और को भला क्यों दिलचस्पी होने लगी. बहरहाल, जनाव अपनी जगह पर वापस लौट गए और मैं फिर से ब्लॉग-विचरण में लग गया. पर नेटवर्क का नॉटवर्किंग के सिद्धांत पर अपनी मर्जी से आना-जाना लगा रहा.

5.10.07

ये तो फ़ौजी डिब्बा है!

एक्सक्यूज़ मी सर, यहाँ बैठ सकते हैं?टीटी () साहब मुख़ातिब हो रहे थे। नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस, सैकेंड एसी कंपार्टमेंट, नितांत अकेला, जनसत्ता लग-भग चाट चुका था। छूटते ही कहा, ‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं, अकेला इतनी जगह में थोड़े ही बैठूँगा!’ महाशय ने खिड़की की तरफ़ से सामने वाली सीट ली और उनके साथ अन्य चार काले कोट वाले सज्जन आमने-सामने की सीटों पर बँट गए। मेरे बगल वाले सज्जन ने सफ़ाई-सी दी, ‘‘सा है सर कि लाँग रूट की गाड़ी में कई बार सवारी परेशान हो जाती है। और फिर ये तो सैकेंड एसी है, इसमें तो बैठते ही बड़े-बड़े लोग हैं...।’ बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि सामने वाली सीट पर रिज़र्वेशन चार्ट में चश्मे समेत नज़र धँसाए एक महानुभाव ने कहा, ‘अरे ओ श्रीवास्तव जी याद नहीं है उ प्रयागराज वाली घटना जब मिश्रा पर लुबध गया था एसी थ्री का सवारी सब कानपुर में। बताइए साहब, जब जगहिया खाली है तो बइठने में का दिक्कत है। टीटी सब तभ सवारिए लोग के न लाई के लिए न है। लेकिन इभबात सब सवारी नहीं समझती है। ख़ास करके एसी-वेसी वाले तो एकदमे नहीं।’

बातचीत रफ़्तार पकड़ने लगी थी। क़रीब आधे घंटे बाद एक नौजवान आया, ‘एक्सक्यूज़ मी’ उच्चारित किया और टीटी साहब से बोल पड़ा, ‘सर मैं आपको खोजते-खोजते यहाँ आया हूँ।’ अचानक उसका अंदाज़ गिरगराऊ हो गया, ‘सर उस लड़की का बर्थ कनफ़र्म कर दीजिए न। उसको कुचबिहार तक जाना है, वो अकेली है, और सफ़र लंबा है सर।’ एक कुटिल मुस्कान टीटी साहब के चेहरे पर आकर ...चली गई। उन्होंने अपनी भंगिमा बदली, कंधे से कोट उतारा और कहा, ‘अकेली कहाँ है, तुम लोग जैसे नौजवान के रहते कौनो लड़की भला अकेली रह सकती है!’ तेज़ी के साथ उन्होंने अपनी गर्दन सहकर्मियों की तरफ़ मोड़ी। ‘एक लड़की है बाईस-चौबीस साल की एस एट में। आठ बज़े से कम से कम दस लड़के आ चुके मेरे पास उसका बर्थ कंफ़र्म करवाने। ये जनाब ग्यारहवें हैं’’ कहकर गर्दन उचका कर उस नौजवान से पूछा, ‘हाँ भाई, तुम बताओ, तुम कैसे जानते हो उस लड़की को? घंटा भर पहले तो नहीं थे तुम वहाँ?’ इससे पहले कि वो कोई जवाब दे पाता, एक टीटी महोदय ने कहा, ‘तुम भी एस एटे में हो न? जाओ, अपनी सीट पर बैठो। थोड़ी देर में वहीं आ रहे हैं हम।’ लड़का कुप्पी से बाहर गया भी नहीं था कि टीटी समूह में एक हल्की-सी फुसफुसाहट हुई और ज़ोरदार ठहाका गुँजा। ‘साला, जवान लड़की देख के सब सटना चाहता है उससे। देखने में त सुंदर है! का जाने कैसी है!’ देश की इस ‘गंभीर’ समस्या पर काफ़ी देर तक बातचीत चलती रही। उनका सुनाने का अंदाज़ निराला था।

मिज़ाज से मैं मूलतः शनयान श्रेणी का यात्री हूँ जिसे बोलचाल में स्लीपर कहते है। मौक़ा विशेष पर या फिर मज़बूरी में यदा-कदा वातानुकुलित श्रेणी में भी सफ़र कर लेता हूँ जैसा कि बीते अप्रैल में हुआ। जौनपुर से एक मित्र का फ़ोन आया। कहा, ‘पिछले पाँच बरस से हमारी संस्था जौनपुर और आसपास के इलाक़े में काम कर रही है, लेकिन एक भी बार हमारा इवेल्यूएशन नहीं हुआ है। प्लीज तुम आ जाओ एक सप्ताह के लिए। सारा काम देख-समझ के अपना फ़ीडबैक दे देना।’ उन्होंने पता-ठिकाना बताने के बाद कहा, ‘देखो, एसी टू से आना, इस मद में संस्था के पास पैसे हैं, रिइंबर्समेंट हो जाएगा।’ मन नहीं मन कहा, रिइंबर्समेंट तो हो जाएगा लेकिन इन्वेस्टमेंट तो अपना ही करना पड़ेगा पहले।

तो मित्रों, उस एसी टू के डिब्बे में पाँव रखते ही तरह-तरह के ख़याल मेरे मन में आने लगे थे। मेरी पहली यात्रा थी वह। एक ख़ास क़िस्म का कौतूहल लिए मैं अपनी जगह पर पहुँचा था। मैं पहला यात्री था उस कंपार्टमेंट में। सोचा अभी पन्द्रह-बीस मिनट समय है गाड़ी चलने में, लोग आ जाएँगे। मेरा साचना ग़लत सिद्ध हुआ। गाड़ी चल पड़ी। अकेला, यह कैसा सफ़र होगा, सोचकर कुलबुला गया था। ढाई घंटे में केवल एक बार मानुष दर्शन हुआ था। गाड़ी नई दिल्ली स्टेशन से छुटने के थोड़ी देर बार एक आदमी तकिया, कंबल और चादरों की एक पैकेट फैंक गया था सीट पर। उस भयावह मुर्दाशांति के कारण कई बार घबरा भी जाता था। अपने-आप को कोसने की भी लगता था। ‘भगुतो, एसी टू की यात्रा। क्या मिला! चुप्पी, अकेलापन! नज़रबंदी ऐसी ही होती होगी?’ एक-डेढ़ घंटे के दौरान न कोई चाय वाला, न पेपर सॉप वाला, न जंज़ीर वाला, और न ही कर्र-कर्र करता बच्चों को ललचाता एभ के सैंतालिस वाला। कहने को एक-आध बार परदा सरका कर बाहर का नज़ारा भी देख लेता था लेकिन खिड़की से जन्म-जन्मांतर के लिए फ़िक्सड काँच के कारण थोड़ा बदरंग दिख रहा था। आख़िरकार स्वीकरार करना पड़ा, ‘बेटा तुम्हें अकेला ही सफ़र तय करना है।’ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से ख़रीदा जनसत्ता खोल लिया था।

टीटी समुदाय का आघमन एक बार तो मुझे रेगिस्तान में पानी मिलना जैसा लगा था। उन्होंने बातचीत के जिस सिलसिले को आग़ाज़ किया था, लगा था सफ़र कट जाएगा इत्मीनान से। लेकिन जल्दी ही मैंने अपने आप को उस दायरे से बाहर पाय। निर्जन था मैं, रेल के उस डिब्बे में।

सोचने लगा, पिछली मर्तबा लखनऊ से लौटते वक़्त शताब्दी एक्सप्रेस में तो ख़ूब चहल-पहल थी। वर्ल्ड सोशल फ़ोरम, मुंबई से लौटते वक्त राजधानी के एसी थ्री डिब्बे में थे हम लोग। ज़्यादातर यात्री हम जैसे ही थे जो स्लीपर में भी सफ़र करते हैं और एसी थ्री में भी। तब भी एक हद-तक गहमा-गहमी थी डिब्बे में। पिछली बैंगलोर यात्रा के दौरान हमारे सामने की सीटों पर बैठा परिवार छुट्टियाँ मनाने जा रहा था। सामने वाले कंपार्टमेंट में बिंदास युवा लड़के-लड़कियों की एक टोली थी। रह-रह कर उनके बीच से ज़ोरदार ठहाका फूट पड़ता था। बीच-बीच में वे गाने लगते थे। सामने बैठी महिला से रहा न गया था। झल्ला पड़ी थी, ‘कितना शोर कर रहे हैं ये लोग। बिल्कुल स्लीपर बना दिया है। इनकी वजह से हमारा एसी का मज़ा ख़राब हो रहा है। पता नहीं कहाँ तक जाएँगे ...’

टीटी समूह के ख़ास गप-शप के कारण हाशिये पर धकेला गया मैं कुप्पी में बैठे-बैठे नवरूपांतरित मध्यवर्ग का रेखाचित्र खींच ही रहा था कि अचानाक एक पुरानी रेल यात्रा याद आ गई।

दूसरी या तीसरी मर्तबा दिल्ली आ रहा था। दो-तीन में ही वापसी यात्रा तय हुई थी, लिहाज़ा रिज़र्वेशन नहीं मिल पाया था। मुज़फ़्फ़रपुर से जैसे-तैसे वैशाली एक्सप्रेस के एक डिब्बे में लद गया। तिल रखने की भी जगह नहीं थी। कंधे पर एक थैला था। गिरते-उठते एक कुप्पी में पहुँचा। गेट और रास्ते के मुक़ाबले थोड़ी कम भीड़ थी। धीरे-धीरे सरक कर खिड़की के क़रीब गया। एक बच्चे को खिसका कर अपने-आप को उसके बगल में लग-भग कोंचने में कामयाब हो गया। इतने में फ़ौजी वर्दी धारण किए एक अधेड़ ने छलांग लगाई और दाहड़ पड़ा, ‘‘तेरे को दिखता नहीं कि यह फ़ौजी कंपार्टमेंट है। तूने इस बच्चे को खिसका कैसे दिया? चल जल्दी से खिसक यहाँ से ...।’ ख़ैर कहिए कि झूठ का एक टुकड़ा कहीं से मेरे दिमाग़ में आ गया। मैंने भी अपने-आप को एयर फ़ोर्स का इंटर्न बता दिया। उसके बाद मुझसे कोई पूछताछ नहीं हुई। मुझसे संतुष्ट होने के बाद सैनिक महोदय ने कंपार्टमेंट में व्यवस्था बनाने की ज़िम्मेदारी अपने कंधे पर ले ली और यात्रियों से पूछताछ करनी आरंभ कर दी। कहने लगे, ‘... पता नहीं है ये आर्मी बॉगी है कैसे चढ़ गए तुम लोग? साले सब को बेल्ट निकाल कर दो-दो लगाएँगे तब सब उतर कर भागेगा।’ क़रीब चालीस मिनट तक वे इस काम में व्यस्त रहे। उसके बाद उन्होंने मेरे सामने वाली बर्थ पर से एक बच्चे को गोद में लिया और खुद उस स्थान पर टिक गए। उसके बाद पानी पीया और मेरे बगल में बैठी अपनी पत्नी से कहा, ‘कनी हौंकु न यो।’’

इधर मेरी असली परीक्षा अब होने वीली थी। ख़ुद को उस खाँचे में बनाए रखना वाक़ई तपस्या लगने लगा था जो मैंने उस बच्चे को खिसका कर बनाया था। हिलना-डुलना तक मुमकिन नहीं था। कछ-मछ करने के सिवाय कोई चारा नहीं था। इस उहापोह में गाड़ी कब गोरखपुर पहुँच गयी, पता ही नहीं चला, बीच में लोगों ने खाना भी खाया। पर मेरे लिए अपने थैले से वो रोटी और करैले की भुजिया निकालना भी मुश्किल था जो मेरी बुआजी ने माता जी की अनुपस्थिति में पैक किया था। शायद इस बीच एक बार ‘चाय गरम’ ली थी। गोरखपुर में गाड़ी आधा घंटा रुकती है। सामने प्लेटफ़ॉर्म पर अंडा वाले की रेहड़ी पर लोगों को पत्तल पर अंडा-ब्रेड खाते देख कई बार मेरा भी जी मचला लेकिन स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं उतर कर वहाँ जा पाऊँ। उतरने की जितनी फ़िक्र नहीं थी उससे ज़्यादा चिंता थी कि वापस अपनी जगह पर सही-सलामत पहुँचने की।

बस मैं खिड़की से इधर-उधर टुकुर-टुकुर ताक रहा था। इसी बीच एक दिलचस्प नज़ारा दरपेश हुआ। हमारे बगल वाले डिब्बे के दरवाज़े पर लोग बेतरतीब लटके पड़े थे। एक दुबला-पतला लड़का बार-बार लोगों को धकियाते हुए डिब्बे में चढ़ता था और दो मिनट में फिर उतर जाता था। इस क्रम में उसने कुछ जेबतराशियाँ भी की। शायद उसे अपने मिशन में सफलता मिल गयी थी क्योंकि थोड़ी ही देर में वह प्लेटफ़ॉर्म पर चहलक़दमी करने लगा था। एक बार हमारी नज़रें मिल गयीं। मैंने इशारे से उसे अपने क़रीब बुलाया। बड़े भोलेपन से वो मेरे पास आ गया।

मैंने पूछा, ‘और भाईजान, कितना बन गया।’ शायद उसे मेरा सवाल समझ नहीं आया या फिर उसने न समझने का नाटक किया। गर्दन उचका कर मेरे सवाल का मतलब पूछा। मैंने कहा, ‘कितनी जेबें तलाश लीं इतनी देर में जो इत्मीनान से टहल रहे हो?’ इतना कहना था कि वह गूँगा-बहरा हो गया! क्षणभर में ही कहाँ विलीन हो गया पता ही नहीं चला। थोड़ी देर में रेलवे का एक सिपाही डंडा पटकता सामने से गुज़रा। मैंने संक्षेप में उसे जेबतराशी की घटना बतायी और उस लड़के का हुलिया भी। ‘अभी पकड़ते हैं साले को’ कहकर वह चला गया। सहयात्री फ़ौजी महाशय को बाद में मैंने पूरा क़िस्सा सुनाया।

छह बजे गोरखपुर स्टेशन से गाड़ी चल पड़ी थी। स्टेशन से दो-चार और फ़ौजी अपने बाल-बच्चों के साथ डिब्बे में आ चुके थे। लिहाज़ा हमारे फ़ौजी महोदय पर एक बार फिर व्यवस्था बनाने की स्वाभाविक ज़िम्मेदारी आ गयी थी। इस बार तो उन्होंने बाक़ायदा नये सवारियों का आइडेंटिटी कार्ड चेक किया। उनके मापदंड के हिसाब से इस बार कोई भी सवारी अवांछित नहीं थी। चुपचाप अपनी जगह पर वापस आ गए। जब-जब उनका ग़ैरफ़ौजी तलाशी मुहिम शुरू होता था मेरे मन में कँपकँपी होने लगती थी। सोचने लगता था अगर एयर फ़ोर्स के बारे में कुछ पूछ दिया तो क्या बताऊँगा, यहाँ तो ‘फ़ोर्स’ के बारे में भी बल से ज़्यादा कुछ नहीं मालूम है। इसलिए जब भी मौक़ा मिलता था या वो मुझसे मुख़ातिब होते थे, मैं जान-बूझकर उनको इधर-उधर की बातों में उलझाए रखने की कोशिश करता था या फिर फ़ौज की प्रशंसा। मिशाल के तौर पर ‘हिन्दुस्तानी फ़ौज वाक़ई दुर्गम स्थानों पर रहती है, बहुत बड़ी कुर्बानी देते हैं फ़ौजी अपने देश के लिए, हिन्दुस्तानी फ़ौज का जवाब नहीं, यह दुनिया में नंबर एक है, कैंटीन में चीज़ें कितनी सस्ती मिलती है, मेरे घर में पहला प्रेशर कूकर आर्मी से आया था’। फिर क्या था, महोदय फुले नहीं सामते थे और अपनी जाबाजियों के एक-आध टूकड़ा उछाल देते थे। मैं ऐसे विषय छेड़ने के बाद एक अनुशासित श्रोता की मुद्रा धारण कर लेता था।

बस्ती के आसपास गाड़ी में बत्ती जली। पता चला कि हवलदार साहब के सामने रखे एक बोरे पर कोई तरल पदार्थ गिरा हुआ है। उन्होंने झुक कर जायज़ा लिया। पाया, समस्तीपुर से जिस डब्बे में डेढ़ किलो घी ले कर वो चले थे, लुढ़का पड़ा है। बोरे के कोने से उतर कर उनके जूते और बच्चों की चप्पलों पर पर्याप्त चिकनाई बिखेर देने के बाद घी सीट के नीचे फ़र्श पर अपनी जगह बना चुका था। चेहरे का भाव बदला और जुबाँन के शब्द भी। ख़ास मिलिट्री स्टाइल की हिन्दी में पत्नी से कहा, ‘तेरे से कहा था न कि पकड़ के रखना। तेरे समझ में मेरी बात नहीं आती है?’ बात जारी रही उनकी लेकिन शायद सहयात्रियों को हक़ीक़त से अवगत कराना चाह रहे थे, ‘... डेढ़ किलो घी था। एकदम शुठ्ठ। मेरे को मालूम था कि इस भीड़-भाड़ में कुछ--कुछ तो होगा।’ और भी बहुत कुछ कहा उन्होंने। साथ में कुछ बिल्कुल मौलिक और मारक गालियाँ भी बरसाई। उनकी ज़ोरदार चीख सुनकर उनकी पत्नी की गोद में खेल रहे साल-डेढ़ साल के बच्चे की पेशाब निकल गयी और जा छलकी औंधे पड़े घी के डिब्बे के कोर पर। अब तो बचे-खुचे घी को सँभालने का बहाना भी जाता रहा। उनसे रहा न गया। एक ज़ोरदार तमाचा रसीद दिया उस बच्चे की गाल पर। एक बार तो लगा जैसे उसका दम ही निकल गया। क्षणभर बाद उसके मुँह से चीख निकली और फिर देर डिब्बे में उसका क्रंदन चलता रहा।

इधर मुज़फ़्फ़रपुर में घर से निकलने के पहले याद था कि चलते वक़्त लघुशंका से निवष्त हो लूँगा लेकिन जल्दीबाज़ी में यह ज़रूरी काम रहे गया था। स्टेशन पहुँचने पर याद तो आया कि निपट लिया जाए लेकिन रिज़र्वेशन की आख़िरी कोशिश के चक्कर में एक बार फिर रह गए। सोचा, ‘चलो, गाड़ी में आराम से निपटेंगे।’ गाड़ी में सवार होने से लेकर जगह बनाने तक, इतनी मशक्कत करनी पड़ी कि दो-तीन घंटे तक कुछ सूझा ही नहीं। बाद में एक-आध बार महसूस हुआ तो शौचालय तक पहुँचने और फिर वापस आने की चिंता के कारण जाघे दबा कर रह जाना पड़ा। लेकिन बच्चे के पेशाब छलकने के बाद तो क्षणभर भी रोक पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। उधर हवलदार साहब को रह-रह कर घी-बर्बादी की टिस आ रही थी। कभी बीबी तो कभी बच्चों को कुछ सुना डालते थे। गाड़ी लखनऊ पहुँचने ही वाली थी। आख़िरकार मैंने अपने पाँव सीधे किये। आगे बढ़ने के लिए क़दम बढ़ाया ही था की सामने से फ़ौजी महोदय बोल पड़े, कहाँ चले। यहाँ आफ़त आई हुई है और आपको टहलने का सूझ रहा है।’ मैंने कहा, ‘बस अभी आया टॉयलेट से’। उन्होंने कहा, ‘रास्ता कहाँ है वहाँ तक पहुँचने का। अच्छा एक काम कीजिए, नीचे से जाइएगा तो नहीं पहुँच पाइएगा। ऊपर-ऊपर से जाइए। नहीं समझे? अरे साहब एक बर्थ से दूसरे बर्थ, दूसरे बर्थ से तीसे बर्थ इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है।’ उक्ति अच्छी लगी। पहुँच गया शौचालय के दरवाज़े तक। दरवाज़ा अन्दर से बन्द था। दस्तक दिया।

जवाब नहीं आया। दूसरे दरवाज़े पर दस्तक दिया। फिर कोई जवाब नहीं आया। सोचा, शायद लोग दीर्घशंका से निपट रहे हैं। रह-रह कर बारी-बारी से दोनों दरवाज़ों पर दस्तक देता रहा। दो-तीन मिनट बाद जब कोई दरवाज़ा नहीं खुला तो ज़ोर से लात मारी एक दरवाज़े पर। खुला। देखा, तीन-चार जने अन्दर खड़े हैं। हाथ पकड़-पकड़कर उन्हें बाहर निकाला। दरवाज़ा बंद किया औऱ अपनी शंका का समाधान भी। बाहर निकल कर बेसिन की तरफ़ बढ़ा दादी माँ के बक्से में ठुँसी गट्ठरों की तरह महिलाएँ अटी पड़ी थीं बेसिन के अगल-बगल। किसी तरह चेहरे पर पानी मारा और एक बार फिर ऊपरी मार्ग से अपने स्थान की ओर बढ़ा। आज भी उस वाक़ए को याद करके बदन में सिहरन पैदा हो जाती है। शायद किसी छोटे-मोटे रिकॉड बुक में दर्ज कराने लायक़ उपलब्धि तो रही ही होगी।

क़रीब बारह बजे रात को गाड़ी कानपुर पहुँची। हमसफ़र फ़ौजी महोदय बीबी-बच्चों समेत उतरने लगे। उतरते वक़्त उनसे दुआ-सलाम भी हुई। उन यात्रियों के चेहरों पर राहत की रेखाएँ उभर आयी थीं जो अब तब खड़े थे और जिन्होंने फ़ौजी परिवार का स्थान ग्रहण किया था। कानपुर से गाड़ी चलने के बाद कभी-कभी जलती बीड़ी की गँध ने परेशान ज़रूर किया, पर कोई आवाज़ सुनने को नहीं मिली। अब तक की सबसे किफ़ायती यात्रा थी वह। केवल एक रुपया चाय में ख़र्च हुआ था। जेनरल डिब्बे की ऐसी मज़ेदार यात्रा का फिर दुबारे मौक़ा नहीं मिला।

इस वृतांत के आरंभ में टीटी महोदय की जिस शालीनता से मैंने आपकी मुलाक़ात करवायी आम तौर पर ऐसा नहीं दिखता है। राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस जैसी गाड़ियों के टीटीयों को अपवाद मानें। कभी-कभी साधारण शयनायन श्रेणी में बिना रिज़र्वेशन सफ़र कर रहे सवारियों से जुर्माना वसूली का उनका अंदाज़ हैरतेगेज़ होता है।

एक बार की बात है। मैं और श्रीमति जी मुज़फ़्फ़रपुर से सप्तक्रांति एक्सप्रेस से आ रहे थे। टिकट चेक करते हुए टीटी महोदय हमारे पास आए। हमने अपनी टिकट उनकी तरफ़ बढ़ा दी। कलम से एक लकीर खींच कर उन्होंने हमें टिकट वापस दे दी। अब सामने वाले यात्री ने टिकट बढ़ाई। टिकट हाथ में लेकर अपनी चार्ट से उसका मिलान करते हुए दो-तीन बार उन्होंने उस सवारी को ग़ौर से देखा। पूछा, ‘कहाँ से लिया है ये टिकट?’ ‘अस्टेशन से’ उसने कहा। ‘अच्छा, अभी आते हैं’ कहकर टीटी साहब आगे बढ़ गए। क़रीब एक घंटे बाद जब लौटे तो उनके साथ दो और टीटी अभी थे। एक ने पहले वाले टीटी से पूछा, ‘हाँ, कौन है?’ उन्होंने उस सीधे-सीधे आदमी की ओर इशारा किया। नए टीटी ने उससे पूछा, ‘हाँ रे, सच-सच बता कहाँ से लिहले ही टिकटवा? सच-सच बता न त जेहले जेंगे अभी तुमको। साला नक़ली टिकट लेकर ऐश कर रहा है।’ एक मिनट के लिए हमें भी हैरानी हुई। माज़रा समझ नहीं आ रहा था। टीटियों ने उससे कहा, ‘आओ हमारे साथ, चलो सुप्रीटेंडेंट के केबिन में।’ आगे-आगे तीनों टीटी और पीछे-पीछे वो आदम, चल पड़े। लगा, सचमूच कुछ गड़बड़ है। अचानक उसके रोने की आवाज़ आयी। आगे बढ़ा, देखा तीनों शौचालय के पास उसे घेरे खड़े थे, साथ में एक रेलवे पुलिस का जवान भी था। थोड़ा क़रीब गया और खड़ा होकर सुनने लगा उनकी बातचीत। उन्हें उस आदमी की कमर में खुंसा बटुआ हाथ लग गया था। वो आदमी अपना बटुआ वापस माँग रहा था। हैरत की बात है कि बगल वाली कुप्पी में बैठे किसी भी यात्री ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि एक आदमी जो अच्छा-भला इनके पीछे चलकर आया था, क्यों रो रहा है। मैंने उनके बीच में हस्तक्षेप किया, ‘क्या बात है?’ उनमें से एक बोल पड़ा, ‘अरे जाइए न भाई साहब, काहेइ पचड़ा में पड़ रहे हैं। साला ग़लत टिकट पर ट्रेवल कर रहा है।’ मैंने कहा, ‘ठीक है तो जो भी क़ानूनी कार्रवाई हो सकती है वो कीजिए। बताइए तो मैं भी मदद करूँ। पर इसके साथ ज़ोर-जबरदस्ती क्यों कर रहे हैं?’ इतना बोलना था कि वे मेरे ऊपर चढ़ने लगे, ‘जाइए न, ढेर क़ाबिल न बनिए, बहुत देखे हैं आप जैसे। चुपचाप अपने जगह पर जाकर बइठ जाइए।’ मेरी अभी आवाज़ थोड़ी ऊँची हो गयी। इतने में कुछ और सवारियाँ आ गईं। अंत में टीटी और रेलवे का सिपाही उसका बटुआ और टिकट उसे थमाकर वहाँ से दफ़ा हो गए। वापस लौटकर उसने बताया,उ लोग कह रहा था कि मेरा टिकट जनानी टिकट है। तीनगुना जुर्माना माँग रहा था हमसे । हमरा बटुआ भी छीन लिया था।’ बाद में यात्रियों ने टीटियों के क़िस्से सुनाने शुरू किए। एक ने बताया कि एक बार स्टेशन पर पंजाब से लौटते हुए एक यात्री को टीटी ने यह कह कर रोक लिया था कि उसके पास बक्से का तो टिकट ही नहीं है।