14.8.08

नाव पर सवार हम अस्सी चले

बनारस-भ्रमण का अनुभव साझा करते हुए पिछली किस्त में मैंने बताया था गोदौलिया चौराहे पर मिश्राम्बु में ठंडई पीने का अपना किस्सा. आगे पढिए नाव पर सवार हम अस्सी चले ...

‘हमें जल्दी नहीं है, आप मोटरबोट से इसको अलग कीजिए.’ लेकिन वो भी कम घाघ नहीं थे. हमारे बार-बार चिल्लाने के बाद भी वे बस यही कह रहे थे, ‘हमको कुछो सुनाई नहीं पड़ रहा है.’ हमारा मज़ा किरकिरा हुआ जा रहा था. हमने बड़ी मिन्नते कीं. पर उसने चुप्पी साध ली. अंतत: उसके क़रीब जाकर मैं ज़ोर से चीखा, ‘ठीक है, न सुनिए हमारी बात, मैं छलांग लगा रहा हूं गंगा मैया में. सारी जिम्मेदारी आपकी होगी.’ ये दांव चल गया. बुदबुदाते हुए उन्होंने हमारी नाव को मोटरबोट से अलग किया

अब हम दशाश्वमेध घाट की तरफ़ वापस लौट रहे थे. मैं गोदौलिया जाते हुए संकटमोचन मंदिर और आसपास का इलाक़ा देखने की अपनी इच्छार ज़ाहिर कर चुका था. इसलिए जैसे ही हम उस गली के नजदीक पहुंचे रामजनमजी ने बताया कि जा तो सकते हैं उधर लेकिन समय ज्यादा लग जाएगा. जगह-जगह पुलिस वाले तलाशी लेंगे. देख नहीं रहे हैं यहीं से कैसे पुलिस वाले शुरू हो गए हैं. बाद में अरविंदजी ने भी बताया कि 'पहले वाली बात नहीं रही. अब तो पूरा का पूरा इलाक़ा छावनी बन गया है. ऐसे बंदुक और मशीनगन लेके खड़े रहते हैं पुलिस वाले कि पुछिए मत.' बातचीत का केंद्र थोड़ी देर के लिए मंदिर और ज्ञानवापी, और उसके आसपास की घेरेबंदी तथा बनारस की मिलीजुली तहज़ीब हो गयी. रामजनमजी ने बताया कि कैसे पिछली मर्तबा बिस्फ़ोट के बाद शहर में कुछ शरारती तत्वों ने दंगा भड़काने की कोशिश की थी लेकिन आम बनारसी लोगों ने उसका ऐसा करारा जवाब दिया कि सब दुबक लिए.
बतियाते हुए हम घाट की सी‍ढियां उतर रहे थे और आसपास का नज़ारा ले रहे थे. कहीं हाथों में हाथ डाले प्रेमी युगल दुनिया से बेख़बर आपस में मग्न थे तो कहीं तफ़री करने आए यार-दोस्तों के झूंड ‘घाट का मज़ा’ लूट रहे थे. इस बीच मस्तानी चाल में टहलता कोई सांड उधर से गुज़रता और पल भर की अफ़रातफ़री मच जाती.
अस्सी जाना तय था ही. तय ये भी था सवारी नाव की होगी. हम नीचे की सीढियों पर चल रहे थे. बार-बार कोई न कोई नाविक हमारे पास आता और हमसे नौका-विहार करने का निवेदन करता. हम उसे बताते कि हमें अस्सी तक जाना है. उसका जवाब होता ‘हां, तो चले जाइए न, जा तो रहा है वो नाव.’ फिर हम साफ़ करते कि ‘मोटरबोट से नहीं साधारण नाव से जाना है’. अब्बल तो बिना मशीन वाले नाव पर हमें अस्सी तक ले जाने को तैयार नहीं होता और जो एक-दो तैयार होते भी, पैसे पर आकर उनके साथ बात नहीं बन पाती. आखिरकार एक बुजुर्ग नाविक चलने को तैयार हुए सौ रुपए में. हम उनके नाव में बैठ गए. बुजुर्ग ने अपने दोनों हाथों में चप्पू थाम लिया. इधर हम आपस में बनारस और सारनाथ के अनुभवों में डूबने-उतरने लगे. तभी मेरी दायीं ओर बैठे अविनाशजी ने गर्दन हिलाते हुए कहा, ‘थोड़ा-थोड़ा आनंद आने लगा है’. मुझे शायद कम दी गयी थी या फिर पता नहीं क्यों, कोई ख़ास एहसास नहीं हो रहा था. बातों-बातों में अरविंदजी ने बताया कि सुरेश भाई अच्छा गाते हैं. फिर तो हम सब उनके पीछे पड़ गए. वैसे दिन में शिविर में उन्होंने एक ख़ूबसूरत-सा जनगीत सुनाया था. इसलिए इतने अनजाने भी न थे हम उनकी प्रतिभा से. आखिरकार, उन्होंने मनोज तिवारी ‘मृदुल’ के किसी गीत का एक मुखरा सुनाया और कहा, ‘इतना ही याद है’. उसके बाद अरविंदजी ने उनसे किसी विशेष गीत का आग्रह किया जो वे लोग कभी-कभार आंदोलनों में गाया करते हैं. सुरेश भाई ने निराश नहीं किया. बड़ा प्यालरा गीत था वह.
हम गीत सुनते हुए नाव से गंगा और आसपास के घाटों का नज़ारा देखते चल रहे थे. जैसे ही कोई नया घाट आता, या किसी घाट का नाम लिखा दिख जाता, हममें से कोई न कोई ज़रूर बोल पड़ता. हमारे पीछे से एक मोटर बोट आया, अगर वो बस होता तो उसे शायद हम डबलडेकर कह सकते थे. यानी नीचे उपर, दोनों जगह बैठने की सुविधा थी उस पर. छत पर बिछी कालीन और चादर पर तकियों के सहारे कोई वीआइपी सपरिवार या फिर वीआइपियों का एक जत्था गंगा सेवन कर रहा था. हम उसके बारे में चर्चा कर ही रहे थे कि हमारी नज़र पीछे से आती उस मोटरवोट पर पड़ी जिसके नाविक को हमारे नाविक ने लगभग चिल्लासते हुए कहा, ‘पिछवाड़ा सटाओ’. दो-चार ज़ोरदार चीख के बाद उस मोटरबोट वाले ने अपना निचला हिस्सा हमारे नाव के सिरे से सटा दिया. हमारे नाविक ने नाव की मांगि पर बंधे रस्से का एक छोर मोटरबोट वाले की ओर उछाल दिया. उसने उस रस्से का अपने निचले मांगि पर बांध दिया. हम मोटरबोट की स्पीड से चलने लगे. पर हमें जल्दबाज़ी नहीं थी. हमें सूर्यास्त का आनंद लेना था गंगा में सैर करते हुए. हमने अपने नाविक को कहना शूरू किया, ‘हमें जल्दी नहीं है, आप मोटरबोट से इसको अलग कीजिए.’ लेकिन वो भी कम घाघ नहीं थे. हमारे बार-बार चिल्लाने के बाद भी वे बस यही कह रहे थे, ‘हमको कुछो सुनाई नहीं पड़ रहा है.’ हमारा मज़ा किरकिरा हुआ जा रहा था. हमने बड़ी मिन्नते कीं. पर उसने चुप्पी साध ली. अंतत: उसके क़रीब जाकर मैं ज़ोर से चीखा, ‘ठीक है, न सुनिए हमारी बात, मैं अब छलांग लगा रहा हूं गंगा मैया में. सारी जिम्मेदारी आपकी होगी.’ ये दांव चल गया. बुदबुदाते हुए उन्होंने हमारी नाव को मोटरबोट से अलग कर लिया. फिर से एक बार नॉर्मल्सी लौट आयी थी हमारे बीच. अस्सी अभी दूर था.
क्रमश:

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