11.8.08

...शंका लघु ही है, दीर्घ नहीं

पढिए प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल के मंकीमैन के नाम खुला ख़त की अगली किस्त

यह चिट्ठी आपका अमूल्य समय नष्ट करने के लिए नहीं लिखी जा रही, महामहिम मंकी-मानव।

कोई ज्ञानी कहते भए कि आप आई.एस.आई का किरदार हैं तो कोई कहते भए कि आप बजरंगबली का क्रुद्धावतार हैं। किन्हीं ने कहा कि आप कल्पना का चमत्कार हैं तो किन्हीं ने कहा कि आप प्रदूषण के पुरस्कार हैं। एक बोले कि आप उन्हीं को दिखे जिन्होंने नशा किया, दूजे कहे कि आप तो हैं कलेक्टिव हिस्टीरिया जिसने देखते-देखते दिल्ली का दिल जीत लिया।

यों तो मैंने दीवान--सराय के संपादक रविकांत के कहने पर यह तूमार बाँधा, और यों कुछ अर्थसिद्धि का कारोबार साधा। कुछ हो भी गई, कुछ और हो जाए। सराय का चंदा दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जाए। लेकिन इसके अलावा भी एक वजह है, वह यह कि उस दिन एक टीवी प्रोग्राम के चक्कर में श्री बी.पी. सिंघल के दर्शन भए जो नासा के खींचे फ़ोटू के आधार पर रामजी के सेतुबंध का अस्तित्व प्रमाणित कर गए। अपना चित्त प्रसन्न भया। सारा संदेह दूर गया। सिंघल जी निश्चिंत, उनका प्रसिद्ध ‘‘परिवार’’ निश्चिंत कि अब तो रामजी पर अंकल सामजी की मोहर लग गई। अमेरिकी स्वीकृति से बेचारों की राम-कथा समुद्र तर गई। अमेरिका को सुहाते तो पता नहीं इन आजकल के रामभक्तों को राम भाते या भाते! इतना ग्द्गद् कर देने वाला अनुभव था बी.पी. सिंघल साहब की सिंह गर्जना सुनना और ऊपर से उन्ही के श्रीमुख से तुम्हारे आस्तित्व के अकाट्य प्रमाण गुनना कि पत्र लिखे बिना मन नहीं माने। यों कसक तो रह गई मन में कि दिव्य दर्शन आपके नहीं हुए लेकिन कमी पूरी भई प्रवचन से जो प्रवास में सेवक ने नियमित रूप से सुने। कोई ज्ञानी कहते भए कि आप आई.एस.आई का किरदार हैं तो कोई कहते भए कि आप बजरंगबली का क्रुद्धावतार हैं। किन्हीं ने कहा कि आप कल्पना का चमत्कार हैं तो किन्हीं ने कहा कि आप प्रदूषण के पुरस्कार हैं। एक बोले कि आप उन्हीं को दिखे जिन्होंने नशा किया, दूजे कहे कि आप तो हैं कलेक्टिव हिस्टीरिया जिसने देखते-देखते दिल्ली का दिल जीत लिया। ये सब सुनकर अपन को याद भए बरसों पहले के ग्वालियर के श्री चंपतिया। वे भी यों ही आप की ही भाँति अवतरे थे और ग्वालियर निवासियों के हृदय में महीनों तक घर करे थे। हाँ, ये ज़रूर है कि उन्हें टीवी पर चर्चित होने का सुख मिला, वॉशिंगटन पोस्ट में ख़बर बनने का। वक़्त वक़्त की बात है; वक़्त की ही सब ख़ुराफ़ात है। एक वक़्त वो था जब चंपतियाजी सीधे-सीधे डिसमिस होते भए, एक वक़्त ये है जब आप ओवरनाइट सेलेब्रिटी बन गए। दिल्लीवासियों के दिल में बसे सो बस ही गए।
यों तो भैया लोग कहते हैं कि दिल के साथ दानिश भी ज़रूरी है; हृदय के साथ बुद्धि मनुष्य की मज़बूरी है लेकिन अपनी इक्कीसवीं सदी के पोस्ट-मॉडर्न दौर में तो दानिश हो या बुद्घि - वैसे ही कल्चरल मार्जिन पर पहुँच गई हैं, वहीं भली ठहरी - बड़ी दुःखदायी होवे है दानिश ससुरी। सो, प्रभु आप थे कलेक्टिव हिस्टीरिया - अपने लिए तो बन गए आप कल्चरल ऐण्ड पर्सनल नॉस्टैल्जिया, सो अपन ने ये ख़त आपको लिख दिया।
ये सराय वाले दोस्त-यार चाहते थे इस वर्ष इस नगर के कुछ समाचार। पढ़े-लिखे ठहरे। शहर का हाल-चाल, हालात का लेखा-जोखा, सालभर का देखा-भोगा दर्ज करने को पढ़े-लिखे लोग नहीं उत्सुक होंगे तो कौन होगा? लेकिन भैया मंकीमैन अपना ऐसा ठहरा कि अपने पढ़े-लिखे नहीं, बस लिखे-लिखे हैं - सो उठाई क़लम दिलदार, लिख डाला ये हाले जार जिसे अल्ला सुने सुने, तू तो सुन ही रहा है।
ये जो बीच-बीच में कुछ तुकबंदी सी हो गई है बंधुवरइससे उखड़ना मत। ये तो कुछ आउटडेटेड क़िस्म के कवियों की कुसंगति का प्रसाद है - वरना आजकल तो ऐन कविता के बीचोंबीच भी प्रोज़ ही आबाद है। जीवन हो या कविता - नगर हो या महानगरतुक दिखे तब , बची हो अगर!
एक सवाल सदियों से दुःखी किए है तुम्हारे वंशधरों को मित्रवर! लगता है तुम उसका सही उत्तर दे सकते हो। ट्राय मारे में क्या हर्ज है, बात यों है कि तुम सचमुच इस बात के ठोसतरीन प्रमाण हो कि हर वर्तमान में कुछ अतीत तो व्यापा ही रहता है। तुम - ‘‘मैन’’ हो लेकिन मंकी भी हो। नर हो, वानर भी हो। वर्तमान तो हो ही - अतीत के आगर भी हो - बल्कि थोड़ी तुक और झेलो तो भविष्य की गागर भी हो। इसलिए सोचता हूँ कि इस शंका समाधान के लिए तुम्ही को कष्ट दूँ। निश्चिंत रहो मित्रशंका लघु ही है, दीर्घ नहीं।
सो शंका इस प्रकार है। नैमिषारण्य में बैठने वाली ऋषियों की एसेंबली से लेकर सारे ज्ञानियों, सुधियों, बुधियों की चेतना से जो कुछ प्रोडक्ट और बाय-प्रोडेक्ट हमें प्राप्त हुए हैं, उनका सार मैंने यथामति यों समझा है कि मनुष्य के मा.चो. होने

ये अफ़सोस तो बना ही रह गया कि आपके प्रभाव से प्रेरित और आपकी व्याप्ति से विलक दिल्ली नगरिया का वातावरण प्रत्यक्ष सुन पाए देख पाए। कुछ महीने और रुक जाते तो क्या हर्ज था गुरु? कहाँ बिलाए गए? बता तो जाते कि गए कहाँ और क्यों? असर यज्ञ-हवन का पड़ा या पुलिस ऐक्शन का? प्रभाव महामानवसागर वासी भारत जन का पड़ा या जॉर्ज जी के, मोदी के परमप्रिय ऐक्शन-रिऐक्शन का? रौब तुमने होम मिनिस्टर के बयान का खाया या ज्ञानियों के ज्ञान का?

में तो कोई संदेह है नहीं। प्रश्न केवल यह है कि मनुष्य मा.चो. मूलतः है या भूलतः? इस प्रश्न पर अपन आगे भी लघु-दीर्घतर-नातिदीर्घ विमर्श करेंगे लेकिन सोचो ज़रूर इस पर - इस यक्ष प्रश्न पर कि मनुष्य मूलतः मा.चो. है या भूलतः?
माचो समझ गए ? वो आंग्ल-भाषा वाला नहीं - फ़ारसी देशज के समास वाला! यों तो ये सराय वाले मित्र अपनेओरलके बड़े साधक हैं, सो ओरल ट्रैडिशन के इस परमलोकप्रिय पद को बिना संकेत के भी लिखा जा सकता है, लेकिन भैया संस्कार बड़े से बड़े साधक के यहाँ बाधक बन जाते हैं - सो जो लिखा वही पढ़ना - मा.चो. को ठीक से गढ़ना और इस मूलचूल, बुनियादी फ़ंडामेंटल सवाल पर ग़ौर करना। इंतज़ार करेंगे - आप के प्रज्ञापूर्ण प्रत्युत्तर का।

वैसे, ये अफ़सोस तो बना ही रह गया कि आपके प्रभाव से प्रेरित और आपकी व्याप्ति से विलक दिल्ली नगरिया का वातावरण प्रत्यक्ष सुन पाए देख पाए। कुछ महीने और रुक जाते तो क्या हर्ज था गुरु? कहाँ बिलाए गए? बता तो जाते कि गए कहाँ और क्यों? असर यज्ञ-हवन का पड़ा या पुलिस ऐक्शन का? प्रभाव महामानवसागर वासी भारत जन का पड़ा या जॉर्ज जी के, मोदी के परमप्रिय ऐक्शन-रिऐक्शन का? रौब तुमने होम मिनिस्टर के बयान का खाया या ज्ञानियों के ज्ञान का?
चलो, कोई बात नहीं, ज़रूरत तो हमें तुम्हारी, तुम जैसों की, बार-बार पड़ेगी - मुलाक़ात इस बार नहीं तो फिर किसी बार होगी ही। तब तक पत्राचार ही सही - ‘मूलतभूलतः वाली गुत्थी पर तुम्हारी राय का इंतज़ार ही सही!

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