5.8.08

फेर काल एगो झल्लीवाला को पीट दिया

पिछली बार जब आदर्श पहुंचे थे जवाहर के ठीहे पर उस वक़्त जवाहर बहुत जल्दीबाज़ी में थे. उस संक्षिप्‍त मुलाक़ात से आदर्श बाबू के मन में कई सवाल घुमड़ने लगे थे. देखिए आगे अब कहानी किस दिशा में बढ़ रही है.
आदर्श बाबु आज अपने स्वभाव के विपरीत सुबह छह बजे ही उठ गए थे। उन्हें अपने पिताजी को लेने स्टेशन जाना था।

देख लिए न सर, इ भोंसड़ी वाला सब अइसहिए तंग करता है। सब जानते हैं कि इहां बुकिंग होती है, माल बुक करने वाले जितने ठीकदार हैं सबके पास लाइसेंस है। बजार के असोसिएशन ने दिया सबको लाइसेंस। अब आप ही बताइए कि जहां माल बुक होगा उहां ठेला खड़ा नहीं होगा और माल नहीं रखा रहेगा कहां रहेगा। भीड़ त होइबे करेगा इहां। इ स्साला स को महीना में पइसा भी बंध हुआ है सबसे, तभियो आ जाता है तंग करने। अभी तो कुछो नहीं किया है, इ सब तो बहुत बुरा वेहवार करता है हमलोगों के साथ। बहुत ख़राब-ख़राब गाली बकता है और उटपटांग ढंग से लाठियो भांज देता है कभी-कभी)

पिछली बार जब आदर्श गांव गए थे तो देखा था कि पिताजी पहले से काफी कमज़ोर हो गए हैं। यह भी पता चला था कि पिछले कुछ दिनों उनकी तबीयत भी ख़राब चल रही है। लौटते समय उन्होंने पिताजी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि गेहूं की कटनी हो जाने के बाद कुछ दिनों के लिए वे दिल्ली आ जाएं। एम्स में चेक-अप’ करवा लिया जाएगा और कुछ दिन वहां शांति से स्वास्थ्य-लाभ भी हो जाएगा। खेती-बाड़ी का काम तो जैसे-तैसे हो ही जाएगा। चाचा और आस-पड़ोस के लोगों से कहकर थोड़ा-बहुत काम तो मां भी करवा ही सकती हैं। आज पिताजी का आगमन आदर्श के उसी प्रस्ताव की स्वीकारोक्ति है। प्लेटफॉर्म टिकट लेकर आदर्श अपनी पत्नी स्मृति के साथ अभी प्लेटफॉर्म पर दाख़िल भी नहीं हुए थे कि दायीं ओर कीट-पतंगों से विंधे मकड़ी की जाले और धूल-मिट्टी ओढ़े खंभे पर टंगे एक डिब्बे से उद्घोषिका की आवाज़ आयी मुज़फ़्फरपुर से चलकर, मोतिहारी, बेतिया, गोरखपुर, लखनऊ, कानपुर होती हुई दिल्ली तक आने वाली 2557 सप्तक्रांति एक्सप्रेस अपने नियत समय से तीन घंटे बिलम्ब से चल रही है, यात्रियों को होने वाली असुविध के लिए हमें खेद है।’ उस खेद भरी उद्घोषणा से आदर्श और स्मृति समेत प्लेटफॉर्म पर अपने परिजनों की अगुवाई के लिए आने वालों के चेहरों पर अचानक बढ़ी बेचैनी आराम से देखी जा सकती थी। स्मृति ने कहा, यार मुझे आज ज़ल्दी कोर्ट जाना है, बेल मैटर है, समय पर नहीं पहुंची तो मेरा क्लाइंट अंदर चला जाएगा। तीन घंटे बिलंब का मतलब है साढ़े नौ बजे, और यदि उसके बाद भी बिलम्ब हुई तो वो बेचारा तो गया।’ आदर्श बाबु ने समझाया, कोई बात नहीं तुम नौ बजे चली जाना यहां से, तब तक इंतजार कर लो, टाईम पास हो जाएगा।’ क़रार के मुताबिक नौ बजे स्मृति वहां से चली गयी। गाड़ी आधे घंटे और बिलम्ब के साथ दस बजे प्लेटफॉर्म पर दाख़िल हुई। कुलियों की दौड़-भाग में एस-11 कोच तक पहुंचते-पहुंचते दस मिनट लगे आदर्श बाबु को। दाएं हाथ में अपनी अटैची और बाएं में एक जुट का थैला थामे पिताजी की नज़रें शायद आदर्श को ही तलाश रही थीं. खड़े थे वे। चरण स्पर्श करके आदर्श बाबु ने पिताजी का थैला अपने हाथ में थाम लिया. ‘कोई दिक्कत तो नहीं हुई, काफी लेट हो गयी ट्रेन।’ आदर्श बाबु पिताजी को लेकर तिमारपुर आ गए। ‘स्मृति नहीं दिख रही है?’ पिताजी ने पूछा। ‘हां, आज उसका ज़रूरी मैटर था इसलिए ज़ल्दी गयी होगी। गयी तो थी मेरे साथ स्टेशन लेकिन जब गाड़ी लेट होने का एनाउंसमेंट हुआ तो वो वापस आ गयी।’ पिताजी को चाय देने के बाद उनके नास्ते का इंतजाम करने में जुट गए आदर्श बाबु। नास्ता-पानी करने के बाद दोनों गांव-घर का हालचाल बतियाते लगे, लेकिन हालचाल का वह सिलसिला एक-आध घंटे में ही सिमट गया। अब बीते कल जवाहर के

आरे, का कहते हैं सर, इ मार्किट वाला स जीना हराम कर दिया है। फेर काल एगो झल्लीवाला को पीट दिया और उसका बिल्ला भी छीन लिया। चाचाजी गए हैं नेताजी के साथ थाना में समझौता कराने।

साथ हुई आदर्श बाबु की बातचीत में शिवसागर और यूनियन फंड वाला प्रसंग बार-बार उनके दिमाग़ में घुमड़ने लगा। अपनी आदत के मुताबिक आदर्श बाबु फिर अपनी दायीं हथेली से सिर सहलाने लगे। सिर पर हथेली की कसरत शुरू होने का मतलब आम तौर पर यही होता है कि आदर्श बाबु किसी प्रकार की चिंता या बेचैनी में हैं। लम्बे समय से परिवार से दूर रहने के कारण उनके पिता उनकी इस आदत से वाक़िफ नहीं थे। बोल पड़े, ‘सिर तो साफ ही दिख रहा है फिर ये ख़ुजली क्यों हो रही है? किसी डॉक्टर से दिखाओ। ज़रूर कोई बीमारी होगी। मुझे तो लगता है इसी वजह से तुम्हारे सारे बाल भी झड़ गए हैं।’ पिताजी की राय सुनकर उनकी हथेली फ़्रीज़ हो गयी लेकिन वे अपनी हंसी को नहीं रोक पाए. ‘आप भी न! सिर क्या सहलाया कि मुझे बीमारी हो गयी। कुछ नहीं, मैं तो वैसे ही कुछ सोच रहा था।’ पिताजी ने पूछा, तुम्हें ऑफिस नहीं जाना है?’ आदर्श बाबु की तो जैसे मुराद ही पूरी हो गयी। ‘हां, जाना है लेकिन पहले आपके खाने-पीने का कुछ इंतजाम कर दूं’ कहकर वे किचेन में चले गए। क़रीब दो बजे खाना-पीना के बाद ‘अच्छा मैं अब चलता हूं, मुझे फील्ड-वर्क पर जाना है। स्मृति पांच बजे के आसपास आ जाएगी। हो सकता है मैं लेट हो जाऊं। इस बीच में यदि आपको कहीं टहलने जाना हो तो आप चले जाईएगा। स्मृति के पास चाभी है वो खोल लेगी घर’ कहकर पीठ पर थैला लटकाए आदर्श बाबु निकल पड़े बाज़ार की ओर। शिवसागर और यूनियन फंड सोचने में इतना मशगूल हो गए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि बाज़ार कब पहुंच गए। ऑटो वाले से किराए का हिसाब-किताब करने के बाद वे सीधे जवाहर के ठीहे पर पहुंचे।
‘आइए सर, आज इस समय किधर से आ रहे हैं?’ हाथ मिलाते हुए मुन्नाजी ने पूछा। ‘घर से ही आ रहा हूं। जवाहरजी नहीं दिख रहे हैं?’ इधर-उधर ताकते हुए आदर्श बाबु ने कहा। ‘आरे, का कहते हैं सर, इ मार्किट वाला स जीना हराम कर दिया है। फेर काल एगो झल्लीवाला को पीट दिया और उसका बिल्ला भी छीन लिया। चाचाजी गए हैं नेताजी के साथ थाना में समझौता कराने।’ लग रहा है मुननाजी अभी और बोलना चाहते हैं। उनकी बातों को सुनकर आदर्श बाबु लगता है फिर किसी उधेड़-बुन में पड़ गए हैं। उनके चेहरे पर हो रहे उतराव-चढ़ाव को आसानी से देखा जा सकता है। कुछ बोलना चाहते हुए भी बिल्कुल ख़ामोश हैं। ‘बैठिए न सर, चाचाजी अब आने वाले ही होंगे’, मुन्नाजी ने शायद उनकी ख़ामोशी तोड़ने की कोशिश की। ‘और, काम-धंधा कैसा चल रहा है?’ सहज दिखने की कोशिश कर रहे हैं आदर्श बाबु। ‘ठीके चल रहा है, आप सुनाइए आपका किताब का काम कहां तक पहुंचा?’ सवाल के जवाब में मुन्नाजी ने ये सवाल दागा। आदर्श बाबु किसी उधेड़-बुन में पड़ गए। पास में रखे पानी के बोतल को उठा लिया. इससे पहले कि वे बोतल को मुंह में लगाते मुन्नाजी बोल पड़े, ‘सर इ पानी बहुत देर का है, गरम हो गया होगा। अभी मंगवाता हूं ठंडा पानी। थोड़ी देर बाद एक बच्चा पानी की दूसरी बोतल लेकर आता है। आदर्श बाबु मुंह ऊपर करके एक ही सांस में आधी बोतल उड़ेल लेते हैं और जेब से रूमाल निकालकर मुंह पोंछते हैं। मुन्नाजी सामने एक कार्टून पर बैठकर पर्ची बना रहे हैं। बगल में अमित कार्टूनों पर पत्ती लगा रहा है। इसी बीच सामने से डंडा पटकते दो पुलिस वाले आ रहे हैं। एक पुलिस वाला एक ठेले पर ज़ोर से

का सोच में पड़ गए सर, गलत नहीं न कहे हैं। आप त बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं, बहुत विचारबान आदमी हैं। समझना चाहिएगा त एके मिनट में सब सच्चाई समझ लीजिएगा आप। जाइए न बजार में काम करने वाला किसी भी आदमी से पूछ लीजिएगा, आपको पता चल जाएगा कि इहां के मजदूर कौन हालत में काम करता है

दो डंडा बजाता है और दूसरा ‘कौण से यो, भैनचोद इसे दिख्खे कोई ना, बाप की सड़क समझ के सड़क पर ठेला लगा राख्खया है। चल हटा इन्हें’ कहता ठेले की हवा निकालने लग जाता है। इसी बीच अंगौछा संभालता एक आदमी आता है और ठेला आगे बढ़ाने लगता है। पुलिस वाला उसे एक डंडा लगा देता है। आसपास खड़े ठेलेवालों में भी अफरा-तफरी शुरू हो जाती है। देखते-देखते सड़क खाली हो जाती है। ‘देख लिए न सर, इ भोंसड़ी वाला सब अइसहिए तंग करता है। सब जानते हैं कि इहां बुकिंग होती है, माल बुक करने वाले जितने ठीकदार हैं सबके पास लाइसेंस है। बजार के असोसिएशन ने दिया सबको लाइसेंस। अब आप ही बताइए कि जहां माल बुक होगा उहां ठेला खड़ा नहीं होगा और माल नहीं रखा रहेगा कहां रहेगा। भीड़ त होइबे करेगा इहां। इ स्साला स को महीना में पइसा भी बंध हुआ है सबसे, तभियो आ जाता है तंग करने। अभी तो कुछो नहीं किया है, इ सब तो बहुत बुरा वेहवार करता है हमलोगों के साथ। बहुत ख़राब-ख़राब गाली बकता है और उटपटांग ढंग से लाठियो भांज देता है कभी-कभी।’ मुन्नाजी ने गुस्से में तमतमाते हुए कहा। आदर्श बाबु का बाज़ार के इस पक्ष से पहली बार सामना हो रहा था। उनके अंदर का चिंतक एक बार फिर जग गया और वहीं बैठे-बैठे विचार करना शुरू कर दिया। ‘आपलोगों ने कभी पुलिसवालों की इन हरकतों की शिकायत उनके ऊपर वालों से नहीं की?’ आदर्श बाबु ने मुन्नाजी से पूछा। आरे साहब, छोट आदमी शिकायत करने के लिए नहीं होता है, उसको तो बस लात-गारी खाकर चुपचाप अपना काम करते रहना है। शिकायत-उकायत के चक्कर में पड़ेगा त केतना दिन रह पाएगा उ बाज़ार में।’ मुन्नाजी के जवाब ने जैसे आदर्श बाबु को निःशब्द कर दिया है। आगे कुछ न बोल पाए। रह-रहकर उनके अंतर्मन पर आदर्शवाद हावी होने लगा। मुन्नाजी के एक-एक शब्द से इस वक़्त उन्हें चुनौती और शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। उन्हें ऐसा लग रहा है जैसे बुद्ध, मार्क्स और गांधी के दर्शनों से वे बुरी तरह घिर गए हैं। उनके चेहरे से यह झलक रहा है जैसे कोई जघन्य अपराध करने के बाद वे अपनी ही नज़रों से बचने की नाकाम कोशिश रहे हैं। ‘का सोच में पड़ गए सर, गलत नहीं न कहे हैं। आप त बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं, बहुत विचारबान आदमी हैं। समझना चाहिएगा त एके मिनट में सब सच्चाई समझ लीजिएगा आप। जाइए न बजार में काम करने वाला किसी भी आदमी से पूछ लीजिएगा, आपको पता चल जाएगा कि इहां के मजदूर कौन हालत में काम करता है’, मुन्नाजी की इस बात ने तो जैसे उन्हें हिलाकर ही रख दिया। अब आदर्श बाबु के लिए वहां एक भी पल बैठना मुश्किल हो गया। वहां से निकलने की जुगत बनाते हुए ‘लगता है जवाहरजी कहीं दूर निकल गए हैं। मुझे जल्दी निकलना है आज’ कहकर आदर्श बाबु ने बैग अपनी पीठ पर टांग लिया।

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।

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  2. हौसलाअफ़ज़ाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया शोभाजी आपका.

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  4. लवलीजी शुक्रिया यहां आने के लिए. पर मैं समझ नहीं पाया, आप कहना क्या चाह रही हैं?
    बहरहाल, फ़ायदा ये हुआ कि मैं आपके ब्लॉग पर टहल आया. अच्छा लगा. जितना सुन्दर ब्लॉग उतनी अच्छी सामग्री. बधाई स्वीकारें.

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  5. ji abhi dekh pai hu aapki badhai ..bahut aabhar ..kripadristibanaye rakhen ..aur maine kaha tha aapne achchha likha hai :-)

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