12.8.08

शाम के क़रीब छह बजे होंगे. सुरेश भाई ने अपनी मोटरसाइकिल दशाश्वमेध घाट के नज़दीक एक पार्किंग में खड़ी की और ‘अभी और लोगों को समय लगेगा. चलिए तबतक घाट की तरफ़ चलते हैं’ कहते हुए घाट की तरफ़ बढ़ने लगे. मैं उनके पीछे-पीछे था. थोड़ी देर में हम एक घाट की सीढि़यां उतर रहे थे. मैंने पूछा, ‘सुरेश भाई, ये कौन-सा घाट है?’ ‘दशाश्वंमेध घाट. आईए, इधर से चलिए नहीं तो ये लोग तंग कर देंगे.’ उनका इशारा सीढि़यों पर बैठे किस्म-किस्म के भिखारियों की तरफ़ था. उनके कहे मुताबिक़ मैं उनके साथ-साथ चलने लगा. ख़ैर, स्थिति ऐसी थी नहीं कि हम जिधर से गुज़रें उधर भिखारी या साधु-सन्याशसी न हों. बस, नज़र ही फेर सकते थे और वो हमने किया.
सामने गंगा तट पर पानी में खड़ी नावों को देखकर नावों के प्लेटफ़ॉर्म-सा एहसास हो रहा था. कई बार हिलकोरे ले रही उन नौकाओं को देखकर लग रहा था मानो वो एक-दूसरे पर चढ़ लेने को बेचैन हैं. घाट पर टहलते हुए हर दो-तीन सेकेंड में कोई व्यक्ति टकराता और कहता, ‘आइए भाई साहब गंगा घुमा लाएं, एकदम वाजि़व पैसा लेंगे.’ फिर कोई बहाना बनाकर हम आगे बढ़ जाते. टहलते-टहलते हम एक चबूतरे पर आ पहुंचे. एक बड़ा ही विलक्ष्ण दृश्यग मेरी नज़रों के सामने था. एक बारह-चौदह साल का बिल्कुल देसी लड़का एक एक हसीन गोरी मेम को न केवल घुमा रहा था बल्कि उसे आसपास की चीज़ों के बारे में भी बता रहा था. वो आगे-आगे, मेम पीछे-पीछे. सुरेश भाई ने टोका, ‘क्या देख रहे हैं? यही तो बनारस है. ये लड़का निश्चित रूप से कभी स्कूल नहीं गया होगा, लेकिन इसे मालूम है कि क्या बात करनी है और कैसे. घाट पर आपको ऐसे ही गाईड मिलेंगे. सारी ट्रेनिंग घाट पर उछलते-कूदते ही मिल जाती है इन लोगों को.’
थोड़ी देर बाद हम एक ऐसी जगह आ पहुंचे जहां चार-पांच चौकियों पर आरती की थाल, शंख, घंटियां, पोथियां और कुछ पूजन सामग्री रखी हुई थी. हमारे भौचक्केपन को ताड़ते हुए सुरेश भाई ने साफ़ किया, ‘थोड़ी देर में आरती होगी, पहले नहीं होती थी. ठीक-ठाक आमदनी हो जाती है इससे.’ काफ़ी सारे लोग आसपास की चौकियों पर जमे हुए थे. किसी को नाव पर सैर करना था तो किसी को आरती देखनी थी, बहुत से लोग मेरी तरह घाट पर टहल लेने के बाद थोड़ा सुस्ता लेने के विचार का पालन करते लग रहे थे. इस बीच सुरेश भाई के मोबाइल की घंटी बजी. फ़ोन सुन लेने के बाद उन्होंने बताया, ‘कामरेडजी का फ़ोन था. बेनिया पार कर गए हैं उ लोग. हद से हद पन्द्रह मिनट और लगेगा.’

दरअसल अविनाशजी और मैं सारनाथ स्थित विद्या आश्रम में ‘ज्ञान मुक्ति मंच’ द्वारा आयोजित ‘युवा ज्ञान शिविर’ में भाग लेने पहुंचे थे. वहीं हमारी मुलाक़ात सुरेश भाई, अरबिंद भाई, रामजनमजी समेत अन्य शिविरार्थियों से हुई. बनारस कैंट स्टेशन पर उतरते ही हमने यह तय कर लिया था कि शिविर समाप्त होते ही बनारस घूमा जाएगा. अविनाशजी ने तो ख़ास तौर से एक दिन इसी प्रयोजन के लिए रिजर्व रखा था. तयशुदा कार्यक्रमानुसार शिविर समाप्त होने के बाद बनारस में घाट-दर्शन की योजना को क्रियान्वित किया जा रहा था. पांच लोग थे, लेकिन सारनाथ में तत्काल पांचों के लिए राजेन्द्र प्रसाद घाट की तरफ़ जाने के लिए कोई सवारी न मिलने की स्थिति में सुरेश भाई के फ़ॉर्मूले पर अमल करते हुए मैं उनकी मोटरसाइकिल पर सवार बना, और रामजनमजी, अरविन्द भाई तथा अविनाशजी एक साथ किसी और सवारी से घाट की ओर आ रहे थे.
हम चौकी पर बैठे पूजा-प्रतिष्ठान, तथा अन्य जितनी उत्सुकताएं हो सकती थीं उन पर चर्चा कर रहे थे. तभी सुरेश भाई ने कान से फ़ोन हटाते हुए कहा, ‘कामरेडजी लोग आ गए ... पर दिख नहीं रहे हैं.' तभी मुझे रामजनमजी का कुर्ता दिखा. अपने दोनों हाथ उठाकर मैंने हिलाना शुरू कर दिया. तभी अविनाशजी से मेरी नज़र मिल गयी. क्षण भर में ‘थोड़ा तुम बढ़ो और थोड़ा हम बढें’ का अनुपालन करते हुए सारनाथ में बिछुडे़ हमलोग फिर से मिल रहे थे. इस बार हमलोगों ने घाट का और क़रीब से मुआयना किया. राय बनी ‘अस्सी चला जाय, नाव से. लेकिन पहले ख़ास बनारसी प्रसाद भंग पा लिया जाय आनंद कई गुना बढ़ जाएगा'. एकमत से मंजूर हुआ. चल पड़े गोदौलिया चौराहे की ओर.
रामजनमजी ने रास्ते में बताया कि कैसे शिवानंद तिवारी जब भी दल बदलते हैं तो बनारस ज़रूर आते हैं बाबा विश्व नाथ का आशीर्वाद लेने. उन्होंने यह भी बताया कि ‘पिछली बार जब वे लालूजी का साथ छोड़कर नितीशजी के साथ जुड़े तो यहीं गोदौलिया पर भेंटा गए. पुराने समाजवादी हैं, आते-जाते हैं तो जानकारी मिल जाती है, हमलोग आ जाते हैं भेंट-मुलाक़ात करने’. बतियाते हुए हम गोदौलिया चौराहे पर आ चुके थे. रामजनमजी जिस दिशा में बढ़ रहे थे अचानक से उधर से आवाज़ आने लगी, ‘आइए, आइए न सर, बढिया माल है इधर, एकदम दिल ख़ुश हो जाएगा’. रामजनमजी सबसे आखिर वाले दुकान में घुसे. और हमलोग उनके पीछे-पीछे. छोटी जगह देखकर हमलोग ठिठक गए. ‘मिश्राम्बु’ नामक एक शरबत की दुकान के क़रीब पहुंचकर रामजनमजी ने कहा, ‘आ जाइए अंदर’. हालांकि उस दुकान में मुश्किल से चार लोगों के बैठने की जगह भी नहीं थी, हम पांचों ने ख़ुद को उसमें अंटा दिया. सामने दीवार पर एक रेट‍-लिस्ट टंगी थी, शर्बतों के नाम और उनके आगे उनकी क़ीमत दर्ज थी. नीचे से उपर नज़र मार लेने के बाद दुकानदार से ही पूछा, ‘आपके यहां की सबसे अच्छी चीज़ कौन-सी है?' मैंने जानने की कोशिश की. 'चाहे इ बताइए कि आपके हिसाब से हमलोगों को क्या लेना चाहिए? जादातर आदमी फस्सटाइमर हैं’ सुरेश भाई ने खुलासा किया. ‘अपने सामान की तारीफ़ ख़ुद कैसे करें, फिर भी आप पूछ रहे हैं तो हम तो यही कहेंगे कि 20 रुपये वाला पी कर देखिए, अच्छा लगेगा आपलोगों को.’ थोड़ा ठहर कर उन्होंने जोड़ा, 'बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं मेरे दुकान पर शरबत पीने. बंबई-दिल्ली से आते हैं लोग. वइसे एक्सपोर्ट भी होता है यहां से माल.' उनकी सलाह पर रामजनमजी ने ठप्पा लगा दिया. 5 गिलास का ऑर्डर दे दिया गया. वे लग गए अपने काम में. तरह-तरह के द्रव्य और मसालों को मिलाने लगे जग में. कुछ सेकेंड बाद पीछे मुड़कर हमसे मुखातिब हुए, ‘इसमें माल भी मिलाना है?’ ‘हां, हां. उसी लिए तो आए हैं. पर हिसाब से ही डालिएगा’ संवेद स्वीर में हमारी राय उनके सामने रख दी गयी. उन्होंछने भी हर गिलास में सामान मिलाने से पहले बारी-बारी से हमें चम्मनच दिखाए जिससे वो स्टी्ल के एक डिब्बेग में से माल निकाल रहे थे. इस तरह औकातानुसार द्रव्यपान का सामूहिक आनंद लिया गया. अपना पहला तजुर्बा था वो.

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