7.8.08

मंकीमैन के नाम खुला ख़त

साहित्यि और सांस्कृतिक आलोचक, कालेकियो माहिको, मेक्सिको केम्ब्रीज़ युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफ़ेसर, कुछ साल पहले तक भारतीय भाषा केन्द्र, जेएनयू के प्रमुख , संस्कृति, वर्चस्व और प्रतिरोध, तीसरा रुख, विचार का अनंत, निज ब्रह्म विचार, जैसी अमूल्य कृतियों के चयिता तथा फिलहाल संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल के भाषणों ने सांप्रदायिकता संस्कृति को समझने में मेरी ख़ासी मदद की है. हफ़्तावार के पाठकों के लिए पेश है दीवान-ए-सराय02:शहरनामा में प्रकाशित उनके मंकीमैन के नाम खुला ख़त की पहली खेप. इसके लिए दीवान टीम के साथ-साथ अपने सहकर्मी चन्दन का आभार.

माई डियर मंकीमैन,

जय रामजी की! खरी चिट्ठी है भैया यह जिसमें यारी और थोड़ी सी अय्यारी छुट किसी मक्कारी का पुट करने वाले बच के जाएँगे कहाँ? तुम्हारे बुद्धिविदारक कारनामे और हृदयविदारक स्टीलीय नाख़ून कहाँ किसको छोड़ेंगे? हाँ इतना ख़ता ज़रूर है कि यह चिट्ठी जो कॉन्फ़िडेंशियल होनी थी, पब्लिक हो रही है; लेकिन इस ख़त की ज़िम्मेदारी भी मेरी नहीं संपादक की है; सो अगर कुछ पोटा-वोटा लगाना हो या श्री नरेन्द्र मोदी के हवाले करवाना हो या ख़ुद ही चिपट कर मज़ा चखाना हो तो प्रभु भूल मत जाना कि बंदा ट्रांस यमुना में रहता है जो वैसे भी तुम्हारा फ़ेवरिट ऐरिया ऑफ़ इन्फ़्लुएन्स – राष्ट्रभाषा में प्रभावक्षेत्र – था।
मित्र, जब तुम्हारा प्रादुर्भाव तरणि तनूजातट स्थित इंद्रप्रस्थ प्रांत में हुआ जिसे

इसके अलावा भी एक वजह है, वह यह कि उस दिन एक टीवी प्रोग्राम के चक्कर में श्री बी.पी. सिंघल के दर्शन भए जो नासा के खींचे फ़ोटू के आधार पर रामजी के सेतुबंध का अस्तित्व प्रमाणित कर गए। अपना चित्त प्रसन्न भया। सारा संदेह दूर गया। सिंघल जी निश्चिंत, उनका प्रसिद्ध ‘‘परिवार’’ निश्चिंत कि अब तो रामजी पर अंकल सामजी की मोहर लग गई। अमेरिकी स्वीकृति से बेचारों की राम-कथा समुद्र तर गई। अमेरिका को न सुहाते तो पता नहीं इन आजकल के रामभक्तों को राम भाते या न भाते! इतना ग्द्गद् कर देने वाला अनुभव था बी.पी. सिंघल साहब की सिंह गर्जना सुनना और ऊपर से उन्ही के श्रीमुख से तुम्हारे आस्तित्व के अकाट्य प्रमाण गुनना कि पत्र लिखे बिना मन नहीं माने।

यवणोपरांत म्लेछ प्रभावाक्रांत कुजन दिल्ली कहते हैं, मैं दैववशात् सुतल में था। वही सुतल जिसे आर्य विरोधी अनार्यों ने, धर्मद्रोही दुष्टों ने ऑस्ट्रेलिया नाम दे रखा है। तुम्हारे पराक्रमों के समाचार वहाँ मिलते थे तो मन मयूर आनंदमत्त हो नृत्यरत हो उठता था। तुम्हारे विक्रांत विक्रम ने, हे नर-वानर, कैसे-कैसे नरपुंगवों की पुंगी बजा के रख दी! धन्य हो तुम! दुग्धपानकर्ता सर्वविघ्नहर्ता गणेश जी के श्रेष्ठ उत्तराधिकारी हेल्मेटधारी के हाइटेक मर्कटमुख, तुमको शत-शत प्रणाम! जम्बू द्वीपे-भारतखंडे इंद्रपस्थ प्रांतेषु प्रकटने वाले हम सबके भविष्य, भूत और वर्तमान – स्वीकार करो इस परम प्रशंसक का स्तुति गान।
बंधुवर, यों तो आजकल के ज्ञानी ध्यानी हर उस प्राणी को संस्कृत का ज्ञाता मान लेते हैं जिसका नाम ही तनिक सा भी प्राचीनता-पावनता-स्पर्शित हो। अपना तो मामला ऐसा मूर्धन्य है कि जन्म से लेकर आज तक तो अपन इसका सही उच्चारण नहीं कर पाए। लिख भले ही लें, लेकिन बोलने में तो अपनी काया जैसे पृथुल प्रयत्नोपरांत भी ससुरा ‘पुरुसोत्तम’ ही ठहरता है।

इस मध्यान्तरीय भूमिका की आवश्यकता यों पड़ी मान्यवर कि अब आगे यह संगणकोपयुक्त देवभाषा अपने से संभाले नहीं संभलेगी, सो भलाई इसी में है कि अब अपन अपनी औक़ात – अर्थात् आर्यभाषा - अर्थात् हिन्दी माता की अंगुली पकड़ कर आगे बढ़ें। यो भी भाषा में क्या रखा है? आजकल तरह-तरह के ‘अंत’ हुए चले जा रहे हैं तो भाषा भी ससुरी कहाँ तक बचेगी? और भैया, हमें तो तुम्हारे वंडरफुल – बल्कि बंदरफुल कारनामों से ही मतलब है - सो हिन्दी में ही वापस जाएँ!
इतना तो सब जानते है; कोई-कोई मानते भी हैं कि ये ज़माना ही भाँत-भाँत की वापसियों का है। हालाँकि इन वापसियों का राज़ क्या है - यह न मानने वाले जानते हैं, न जानने वाले। धर्म की वापसी हो रही है, जात की वापसी हो रही है, पहचान की वापसी हो रही है ... और तो और एन.आर.आईज़ की वापसी हो रही है। दनादन दे दनादन। हालाँकि इनडायेरेक्टली। एन.आर.आईज़ की आईज़ जब मदरलैंड की हीट ऐण्ड डस्ट की याद से और पावर लस्ट की फ़रियाद से गीली होती हैं तो बेचारे भरे गले से गा उठते हैं - ‘आई लव माय इंडिया’ ... ‘ऐक्शन का इंडिया ...’ अंत-पंत

आपकी तो एकदम बेसिक – बल्कि रैडिकल वापसी थी बॉस! एकदम टू द रूट्स – अकबर इलाहाबादी की शिकायत, ज्ञानी ज़ैलसिंह की मलामत और डार्विन क्रिएशनिस्टों की हजामत के बावजूद – डार्विन को सही मानें तो एकदम टंच वापसी थी बॉस, एकदम टंच! ऊपर से मज़ा यह कि थिंक ग्लोबल-ऐक्ट लोकल कॉर्पोरेट प्लस एन.जी.ओ. प्रमाणित इडियम के सर्वथा अनुकूल भी। बाक़ी वापसियाँ डिफ़रेंट और स्पेसिफ़िक की वापसियाँ हैं, आइडेंटिटी की वापसियाँ हैं - आप तो पूज्यवर हम सबकी यूनिवर्सैलिटी और उसकी रूट्स – जड़ों की वापसी थे।

आई तो वहीं ग्रीनकार्ड के ग्रीन पास्चर में हरी-हरी चरता रहता है और ‘लव’ इंडिया माई की छाती पर मूँग दलने चला आता है ; मूँग दलने का ऐक्शन कभी मंदिर फ़ंड का रूप ले लेता है तो कभी इकनॉमिक मिरेकल के स्टंट का! कुछ लोगों के पास वापस पहुँचने का कोई ठौर नहीं बचा तो जड़ों की ओर ही वापस लपक लिए हैं। अब इस लपक-झपक में जड़प्रेमी जड़मति हो जाए तो बुरा मानने की क्या बात? और कोई बुरा मान ही जाए तो परवाह करे अपना कुतका लात।
सो, वापसियों के थोक के थोक वापस चले आ रहे हैं। ऐसे में आपकी तो एकदम बेसिक – बल्कि रैडिकल वापसी थी बॉस! एकदम टू द रूट्स – अकबर इलाहाबादी की शिकायत, ज्ञानी ज़ैलसिंह की मलामत और डार्विन क्रिएशनिस्टों की हजामत के बावजूद – डार्विन को सही मानें तो एकदम टंच वापसी थी बॉस, एकदम टंच! ऊपर से मज़ा यह कि थिंक ग्लोबल-ऐक्ट लोकल कॉर्पोरेट प्लस एन.जी.ओ. प्रमाणित इडियम के सर्वथा अनुकूल भी। बाक़ी वापसियाँ डिफ़रेंट और स्पेसिफ़िक की वापसियाँ हैं, आइडेंटिटी की वापसियाँ हैं - आप तो पूज्यवर हम सबकी यूनिवर्सैलिटी और उसकी रूट्स – जड़ों की वापसी थे। लेकिन साथ ही क्या कहने इस वापसी के अनमिस्टेकेबल लोकल टच के, हेल्मेट विभूषित आपका मुखमंडल बंधु भव्य बल्कि इरॉटिक तो लगता ही था - ख़ास दिल्ली की ख़ास पहचान भी तो बताता था। आपने याद दिलाया हम दिल्ली वालों को हमारा भविष्य कि बिना हेल्मेट पहने अब अपने घर में क्या बिस्तर में घुसना भी सेफ़ नहीं रहने वाला। हालाँकि हेल्मेट भी किसी का क्या उखाड़ लेगा, लाला? यह भी तो आपने ही अपने कपोलविदारक हृदयद्रावक तीक्षण नख समूह से सिद्घ कर डाला। इसलिए अपन कहते भए कि आप ग्लोबल की भी वापसी थे, लोकल की भी। साइलेंट की वापसी थे, वोकल की भी।

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर लिखा है। भाषा एकदम सरल और व्यंग्य तीखा। आपकी लेखनी की धार तेज है बहुत अच्छा और मज़ेदार लिखा है। बधाई स्वीकारें।

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