2.8.08

‘ओहो आप? इतनी जल्दी? किधर से?’

पिछली किस्त में आपने देखा कि आदर्श सुबह-सुबह बाज़ार पहुंच कर क्या-क्या कर रहे थे. पेश है उसी दिन आदर्श की जवाहर से जल्दी मुलाक़ात का एक वाकिया.

‘एतना सबेरे, आदरसे बाबू हैं न आप? हमर आंख धोखा त नहीं खा रहा है?’ जवाहर ने जैसे आदर्श बाबू को नींद से जगा दिया. ‘ओहो आप? इतनी जल्दी? किधर से?’ आदर्श जवाहर को देखकर सहज नहीं हो पाए थे. जवाहर आज जल्दी बाज़ार आ गए हैं क्योंकि उसे एक ठेलेवाले के लिए पांच हज़ार रुपए का इंतजाम करना है, आठ दिन बाद उसके बहन की शादी है. ‘आरे का कहते हैं सर, बड़कन के देखादेखी छोटको लोग में तिलक-दहेज बहुत बढ़ गया है. अब आपहीं बताइए, जिसके लिए हम भोरे-भोरे पइसा का इंतजाम करने निकले हैं आज उसके घर पर कुछो नहीं है. गाय-भईंस पोसके लोग आपन गुज़ारा करता है. अब इ ठेला चला के पचास हजार रुपिया कहां से देगा. सुनते हैं कि लइकाबाला उसके बाप को बड़ा उल्टा-पुल्टा बोला है.’ जवाहर के बातों से बड़ी बेचैनी झलक रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे उसकी ही लड़की की शादी हो. ‘जा रहे हैं एक-दु गो जान-पहचान बाले दोकनदार के पास. उसके बाद अगर कुछ कमी पड़ा त शिवसागर से कहेंगे कुछ यूनियन-फंड में से देवा देने के लिए. आच्छा आदर्श बाबू हम तनी जल्दी में हैं. काम-धंधा शुरू हो जाएगा त फेर इ कमवा रह जाएगा. आज किसी तरह इंतजाम हो जाएगा पइसा का त काल पुरानिए दिल्ली से ‘अम्रपाली’ धरा देंगे उसको.’ ‘हां, हां. देख लीजिए पहले इस काम को. गपशप तो होती रहेगी’ कहकर आदर्श बाबू ने जवाहर को आश्वस्त किया और बाज़ार से बाहर की तरफ़ चल दिए. ऑटो में लौटते वक़्त वे बार-बार जवाहर के विभिन्न रूपों के बारे में सोचते रहे.

2 comments:

  1. बहुत रोचक शैली में लिखा है। आनन्द आगया।

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  2. उत्साहवर्द्धन के लिए शुक्रिया शोभाजी. पुरानी कोशिश है उसी को पूरा करने की कोशिश एक बार फिर कर रहा हूं.

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