मित्रों, माफ़ी चाहता हूं लंबे समय तक ब्
लॉग से ग़ायब रहने के लिए. कोशिश करूंगा आगे फिर ऐसा न हो. पिछली मर्तबा मुज़फ़्फ़रपुर में आचार्य जानकीवल्लभ शास्
त्रीजी से हुई मुलाक़ात से कुछ आपके साथ साझा कर रहा हूं.शाम के क़रीब 5 बजे. जवाहर सिनेमा से वापसी के वक़्त रिक्शा नहीं लिया. पैदल टहल पड़ा. यह सोचते हुए कि आगे 'शेखर' और 'दीपक' पर भी नज़र मारते चलेंगे.अपने रामदयालु सिंह कॉलेज वाले दिनों में कभी-कभार इन सिनेमाघरों में जाना हुआ है. और वैसे हर स्थान या ठिकाने से मुझे लगाव है जिसके साथ किसी भी तरह का नाता रहा है.


लिहाज़ा चलता रहा. इतना मग्न था, चलते-चलते बाबा मुज़फ़्फ़रशाह के मज़ार से आगे निगल गया. तभी अचानक याद आया, क्यों न शास्त्री से मिलते चला जाए. पिछली बार सन् 1992 में देखा था. तब पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर रामदयालु सिंह कॉलेज ने उनके सम्मान में एक समारोह किया था. मुड़ गया पुरानीं गुदरी रोड की ओर.
सोहल-सत्रह साल बाद गुज़र रहा था उधर था. काफ़ी कुछ बदला-बदला लग रहा था. कम-से-कम वो दो गलियां
ग़ायब मिली जहां मारवाड़ी हाई स्कूल के दिनों में शुक्रबार को डेढ़ घंटे की टिफिन के दौरान हम आया करते थे. उन गलियों में तवायफ़ें रहा करती थीं. हम बड़ों की नज़रों से बचकर उनके नाज़-ओ-अ
दा देखा करते थे, और पकड़े जाने पर अपनी-अपनी साइकिल पर फांदकर भाग पड़ते थे. एक बार फिर से उन स्मृतियों में डू
बते-उतरते आगे बढ़ता जा रहा था. सड़क किनारे घरों के दरवाज़ों पर पहले की तरह 'ममता रानी, सपना रानी, गायिका और नृत्यांगना' जैसी तख़्ती कम ही दिखी. हां, कुछ घरों से ढ़ोलक और तबले की थाप के साथ घुंघरू में सनी स्वरलहरियां ज़रूर आ रही थीं. अब मैं चतुर्भुज मंदिर के बिल्कुल सामने पहुंच चुका था. मुज़फ़्फ़रपुर में रहते हुए होली की शाम दोस्तों के साथ यहां आना होता था. चतुर्भुज की प्रतिमा पर अबीर लगाने वालों का ताता लगा रहता था. चतुर्भुज मंदिर के मुख्य द्वार से दायीं ओर कुछ क़दम की दूरी पर नीली पृष्ठभूमि पर सफ़ेद रंग से उकेरे गए 'निराला निकेतन' वाला बड़ा-सा बोर्ड आज भी यथावत टंगा है. बस नीलापन थोड़ा हल्का हो गया है.
हाते में दाखिल हुआ. एक सत्रह-अठारह साल का नौजवान गायों के नाद की ओर मुंह झुकाए कुछ कर रहा था, शायद दाने में पानी मिला रहा था. पूछने पर उसने बताया कि हां, शास्त्रीजी हैं, सामने ही बैठे हैं. दो-चार क़दम आगे बढ़ा, ग्रिल से घिरे बराम्दे पर तकिए के सहारे शास्त्रीजी बैठे मिले. चरण-स्पर्श किया. बड़े स्नेह से कहा उन्होंने, 'खुश रहिए'. लटपटाती है पर है आवाज़ बुलंद उनकी. अभी मैं उनको निहार ही रहा था कि पूछ बैठे, 'कहिए, रास्ता भूल गए हैं क्या? या किसी ने धक्का दे दिया है इस ओर?' एक पल को लगा जैसे शायद उन्हें मुझसे कोई शिकायत है... पर थोड़ी देर बातचीत के बाद लगा नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. बढती उम्र और स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण कभी-कभी वे झल्ला जाते हैं.
ये सुनने के बाद कि मैं दिल्ली से आया हूं और उनसे मिलने की बड़ी इच्छा थी, शास्त्रीजी मुस्कुराते हुए बोले, 'हूं, अरे,

ऐसा क्या है शास्त्री के पास कि इससे मिलने की इच्छा हो रही थी आपको! हूं, लेकिन आप कहते हैं तो ये तो आपका बड़प्पन है. अच्छा लगा जानकर. पर बताइए दिल्ली कैसी है, क्या कुछ हो रहा है वहां? दिल्लीवालों को भी मेरी याद आती है!' फिर हुं, हुं ... की ध्वनि निकालते हुए मुंह चलाने लगते हैं शास्त्रीजी. 'आपको मालूम है न, मैं अपना पांव तोड़कर बैठा हूं?' कहकर शास्त्रीजी थोड़ा आगे की ओर घिसके और बिस्तर पर गोरथारी में छोटी चौकी पर रखे डिब्बों को हिलाहिलाकर देखने लगे. थोड़ी देर में उन्होंने उन्हीं डिब्बों के नीचे रखे स्टील के एक टिफीन क ढक्कन खोला और उसमें हर डिब्बे में से थोड़ा-थोड़ा सामान निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिया. दो-तीन प्रकार के बिस्कुट, नमकीन, मिठाई, मखान ... इत्यादि मेरे ओर बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, 'क्यों हिचकिचा रहे हैं, ले लीजिए, ये मेरा स्नेह है.' फिर बग़ल में विजयजी की ओर मुखातिब होते हुए बोल पड़े, 'थोड़ा तुम्हारे लिए भी निकालूं?' विजयजी के 'नहीं-नहीं, देर से खाना खाया हूं मैं ...' कहने पर बोल पड़े शास्त्रीजी, 'हूं, तुम तो आज तक लजाते हो!.' बेचारे विजयजी, शर्मा गए.
मैंने नाश्ते की प्याली हाथ में ठीक से संभाला भी नहीं था कि एक कुत्ता मेरी ओर लपका. पूंछ और जी(भ)
से चीर-परिचित हरकत करता हुआ वो कुत्ता मेरी प्याली थाम लेना चाह रहा था. मैं असहज महसूस करने लगा था. हालांकि मैं श्वानप्रेमी नहीं हूं लेकिन पता नहीं क्यों मैं उस कुत्ते को डांट या धमका नहीं पा रहा था. आखिरकार मैंने शास्त्रीजी से पूछा, 'शास्त्रीजी, इसे भी दे दूं एक बिस्कुट?' शास्त्री बोले,
'कितना दीजिएगा, इसकी तो आदत ही यही है. अपने हिस्से का तो खाता ही है, औरों के हिस्से में से भी हिस्सा ले लेता है. ठग है ये ठग. दिन भर लोगों से ठग-ठग कर खाता रहता है. और कोई बात कहो, क्या मजाल कि मान ले! मैं तो इसे मक्कार कहता हूं. यहीं, मेरे बग़ल में, मेरे तकिए पर पड़ा रहता है और मैं देखता रहता हूं...'
फिलहाल इतना ही. अगले पोस्ट में शास्त्रीजी और निराला निकेतन में जुड़ी कुछ और दिलचस्प
जानकारियां साझा करूंगा.