Showing posts with label पंडित जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री. Show all posts
Showing posts with label पंडित जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री. Show all posts

26.12.08

मेरे भगवान मेरे पिता हैं: शास्‍त्रीजी


''मां को मैंने कभी नहीं जाना. चार बरस का था तब मां गुज़र गयीं. और पिता मेरे इतने बहादुर निकले कि लोगों के लाख कहने और समझाने पर भी दूसरी शादी नहीं की. तो मेरे लिए तो पिता ही बाप और पिता ही मां रहे. पिता ने जो स्‍नेह दिया, मैंने उसी में मां का भी प्‍यार पाया. हर तरह से.'' कहकर शास्‍त्रीजी फिर हूं, हूं करने लगे. और मैं उन्हें न जाने क्‍यों टुकुर-टुकुर ता‍के जा रहा था. शायद मेरे इस तरह ताकने को उन्‍होंने भांप लिया. बोल पड़े, ''अब क्‍या, अब तो समझिए कि उल्‍टी गिनती शुरू हो चुकी है. आज जैसा देख रहे हैं मुझे, मैं वैसा नहीं न था पहले. अब तो कमज़ोर हो गया हूं, कपड़े-लत्ते भी गंदे दिख रहे होंगे. देखना ही चाहते हैं तो ज़रा उधर देख लीजिए ...'' कहकर सामने वाली दीवार पर टंगी तस्‍वीरों की ओर इशारा किया. मैंने भी यह सोचकर कि बाद में याद रहे, न रहे; खड़ा हुआ, नजदीक गया और सारी तस्‍वीरों को अपने कैमरे में उतार लिया. ढंग से तो नहीं उतर पाया, पर जैसा भी हो पाया, हो गया.
शास्‍त्रीजी ने दीवारों पर टंगी तस्‍वीरों के बारे में बताया. इशारा करते हुए कहा कि ये, इधर वाला तब का है जब मैं पटने में था, वो तब का जब मैं बनारस से आया था, वो वाला रिटायरमेंट के थोड़ा पहले का ..... मैं उन सारी तस्‍वीरों को अपने कैमरे में उतार चुकने के बाद फिर उनकी ओर ताकने लगता.

'शास्‍त्रीजी आप अपने पिता के बारे में कुछ बता रहे थे ...' कहकर मैं पुन: एक बार उधर लौटना चाहा. शास्त्रीजी ऐसे शुरू हो गए जैसे तस्‍वीरों वाली बात उठी ही न हो. एकदम ताज़ा. ''कहा न आपको कि मेरे लिए मेरे पिता ही मां थे और बाप भी. जब मैं मुज़फ़्फ़रपुर आ गया तो को भी अपने पास ले आया. ये घर देख रहे हैं न आप, कोई पागल ही इतना बड़ा घर बनाएगा. मैं पाग़ल था और मैंने इतना बड़ा घर बनाया. हां, तो कह रहा था कि पिता को अपने साथ ले आया. उनके लिए दूघ की ज़रूरत को देखते हुए मैंने तब एक गाय ख़रीदी थी. कृष्‍णा नाम था उसका. ये देख रहे हैं न सामने ... कृष्‍णायतन है. कृष्‍णा के रहने के लिए बनवाया था. कृष्‍णा तो रही नहीं पर उसकी संतानें पीढियों से यहां रह रही हैं''. सामने नाद के दोनों और कड़ी से बंधे -बछड़ों की ओर इशारा करते हुए होंने कहा, '' ये सब तीसरी-चौथी पीढ़ी वाले हैं.'' उत्‍सुकतावश मैंने पूछ लिया, ''शास्‍त्रीजी, तब तो बहुत दूध होता होगा? क्‍या होता है दूध का?'' उनकी हूं, हूं हहहा में बदल गयी, 'नहीं, न तो एक बूंद दूध बाहर गया और न कृष्‍णा का कोई संतान कभी बिका.यहां के कुत्ते बिल्लियों से लेकर इंसानों तक, सब दूध खाते हैं, दूध पीते हैं. और कृष्‍णा और उसके मरे हुए संतानों की समाधियां भी इसी हाते के अंदर है. सबकी पक्‍की समाधियां बनी हुई हैं. चाहते हैं तो घूम आइए. देख आइए आंखों से. सामने ही तो है.''
इतने में शास्‍त्री की बिटिया (जो ख़ुद हिंदी की अवकाशप्राप्‍त प्राघ्‍यापिका हैं) जो निराला निकेतन के सामने वाले मकान में रहती हैं, आयीं, पिता को चरण स्‍पर्श किया और बोल पड़ी, ''बाबुजी, आज तो बाबा के सामनेदियाजला दीजिए. जानते हैं आपको दिक्‍़क़त होगी, हमलोग पकड़ लेंगे, लेकिन बाबा के मंदिरवा में दिया तो जला दीजिए आज. छोटी दिवाली है आज.''
''कमाल है गुडिया, मुझे तो किसी ने बताया ही नहीं कि आज छोटी दिवाली है. ये लोग भी नहीं बताए (विजयजी और मेरी ओर इशारा करते हुए उन्‍होंने कहा)''. हूं हूं... करते हुए एक बार फिर मुझसे मुख़ातिब हुए, ''सामने देख रहे हैं न, ये मैंने अपने पिता की याद में मंदिर बनवाया है. मैं कभी मंदिर में नहीं गया और न ही किसी देवता को पूजा. मेरे भगवान मेरे पिता हैं. उन्‍होंने कभी मेरा नाम नहीं लिया. बस एक ही बार बोले, तब चलें जानकी वल्लभ? और चल पड़े''.

10.12.08

'दिल्‍लीवालों को भी मेरी याद आती है?' : आचार्य जानकी वल्‍लभ शास्‍त्री

मित्रों, माफ़ी चाहता हूं लंबे समय तक ब्लॉग से ग़ायब रहने के लिए. कोशिश करूंगा आगे फिर ऐसा हो. पिछली मर्तबा मुज़फ़्फ़रपुर में आचार्य जानकीवल्‍लभ शास्त्रीजी से हुई मुलाक़ात से कुछ आपके साथ साझा कर रहा हूं.


शाम के क़रीब 5 बजे. जवाहर सिनेमा से वापसी के वक्‍़त रिक्‍शा नहीं लिया. पैदल टहल पड़ा. यह सोचते हुए कि आगे 'शेखर' और 'दीपक' पर भी नज़र मारते चलेंगे.अपने रामदयालु सिंह कॉलेज वाले दिनों में कभी-कभार इन सिनेमाघरों में जाना हुआ है. और वैसे हर स्‍थान या ठिकाने से मुझे लगाव है जिसके साथ किसी भी तरह का नाता रहा है.
लिहाज़ा चलता रहा. इतना मग्‍न था, चलते-चलते बाबा मुज़फ़्फ़रशाह के मज़ार से आगे निगल गया. तभी अचानक याद आया, क्‍यों न शास्‍त्री से मिलते चला जाए. पिछली बार सन् 1992 में देखा था. तब पचहत्‍तर वर्ष पूरे होने पर रामदयालु सिंह कॉलेज ने उनके सम्‍मान में एक समारोह किया था. मुड़ गया पुरानीं गुदरी रोड की ओर.
सोहल-सत्रह साल बाद गुज़र रहा था उधर था. काफ़ी कुछ बदला-बदला लग रहा था. कम-से-कम वो दो गलियां ग़ायब मिली जहां मारवाड़ी हाई स्‍कूल के दिनों में शुक्रबार को डेढ़ घंटे की टिफिन के दौरान हम आया करते थे. उन गलियों में तवायफ़ें रहा करती थीं. हम बड़ों की नज़रों से बचकर उनके नाज़-ओ-अदा देखा करते थे, और पकड़े जाने पर अपनी-अपनी साइकिल पर फांदकर भाग पड़ते थे. एक बार फिर से उन स्‍मृतियों में डूबते-उतरते आगे बढ़ता जा रहा था. सड़क किनारे घरों के दरवाज़ों पर पहले की तरह 'ममता रानी, सपना रानी, गायिका और नृत्‍यांगना' जैसी तख्‍़ती कम ही दिखी. हां, कुछ घरों से ढ़ोलक और तबले की थाप के साथ घुंघरू में सनी स्‍वरलहरियां ज़रूर आ रही थीं. अब मैं चतुर्भुज मंदिर के बिल्‍कुल सामने पहुंच चुका था. मुज़फ़्फ़रपुर में रहते हुए होली की शाम दोस्‍तों के साथ यहां आना होता था. चतुर्भुज की प्रतिमा पर अबीर लगाने वालों का ताता लगा रहता था. चतुर्भुज मंदिर के मुख्‍य द्वार से दायीं ओर कुछ क़दम की दूरी पर नीली पृष्‍ठभूमि पर सफ़ेद रंग से उकेरे गए 'निराला निकेतन' वाला बड़ा-सा बोर्ड आज भी यथावत टंगा है. बस नीलापन थोड़ा हल्‍का हो गया है.
हाते में दाखिल हुआ. एक सत्रह-अठारह साल का नौजवान गायों के नाद की ओर मुंह झुकाए कुछ कर रहा था, शायद दाने में पानी मिला रहा था. पूछने पर उसने बताया कि हां, शास्‍त्रीजी हैं, सामने ही बैठे हैं. दो-चार क़दम आगे बढ़ा, ग्रिल से घिरे बराम्‍दे पर तकिए के सहारे शास्‍त्रीजी बैठे मिले. चरण-स्‍पर्श किया. बड़े स्‍नेह से कहा उन्‍होंने, 'खुश रहिए'. लटपटाती है पर है आवाज़ बुलंद उनकी. अभी मैं उनको निहार ही रहा था कि पूछ बैठे, 'कहिए, रास्‍ता भूल गए हैं क्‍या? या किसी ने धक्का दे दिया है इस ओर?' एक पल को लगा जैसे शायद उन्‍हें मुझसे कोई शिकायत है... पर थोड़ी देर बातचीत के बाद लगा नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. बढती उम्र और स्‍वास्‍थ्‍य ठीक न रहने के कारण कभी-कभी वे झल्‍ला जाते हैं.
ये सुनने के बाद कि मैं दिल्‍ली से आया हूं और उनसे मिलने की बड़ी इच्‍छा थी, शास्‍त्रीजी मुस्‍कुराते हुए बोले, 'हूं, अरे, ऐसा क्‍या है शास्‍त्री के पास कि इससे मिलने की इच्‍छा हो रही थी आपको! हूं, लेकिन आप कहते हैं तो ये तो आपका बड़प्‍पन है. अच्‍छा लगा जानकर. पर बताइए दिल्‍ली कैसी है, क्‍या कुछ हो रहा है वहां? दिल्‍लीवालों को भी मेरी याद आती है!' फिर हुं, हुं ... की ध्‍वनि निकालते हुए मुंह चलाने लगते हैं शास्‍त्रीजी. 'आपको मालूम है न, मैं अपना पांव तोड़कर बैठा हूं?' कहकर शास्‍त्रीजी थोड़ा आगे की ओर घिसके और बिस्‍तर पर गोरथारी में छोटी चौकी पर रखे डिब्‍बों को हिलाहिलाकर देखने लगे. थोड़ी देर में उन्‍होंने उन्‍हीं डिब्‍बों के नीचे रखे स्‍टील के एक टिफीन क ढक्‍कन खोला और उसमें हर डिब्‍बे में से थोड़ा-थोड़ा सामान निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिया. दो-तीन प्रकार के बिस्‍कुट, नमकीन, मिठाई, मखान ... इत्‍यादि मेरे ओर बढ़ाते हुए उन्‍होंने कहा, 'क्‍यों हिचकिचा रहे हैं, ले लीजिए, ये मेरा स्‍नेह है.' फिर बग़ल में विजयजी की ओर मुखातिब होते हुए बोल पड़े, 'थोड़ा तुम्‍हारे लिए भी निकालूं?' विजयजी के 'नहीं-नहीं, देर से खाना खाया हूं मैं ...' कहने पर बोल पड़े शास्‍त्रीजी, 'हूं, तुम तो आज तक लजाते हो!.' बेचारे विजयजी, शर्मा गए.
मैंने नाश्‍ते की प्‍याली हाथ में ठीक से संभाला भी नहीं था कि एक कुत्ता मेरी ओर लपका. पूंछ और जी(भ) से चीर-परिचित हरकत करता हुआ वो कुत्ता मेरी प्‍याली थाम लेना चाह रहा था. मैं असहज महसूस करने लगा था. हालांकि मैं श्‍वानप्रेमी नहीं हूं लेकिन पता नहीं क्‍यों मैं उस कुत्ते को डांट या धमका नहीं पा रहा था. आखिरकार मैंने शास्‍त्रीजी से पूछा, 'शास्‍त्रीजी, इसे भी दे दूं एक बिस्‍कुट?' शास्‍त्री बोले, 'कितना दीजिएगा, इसकी तो आदत ही यही है. अपने हिस्‍से का तो खाता ही है, औरों के हिस्‍से में से भी हिस्‍सा ले लेता है. ठग है ये ठग. दिन भर लोगों से ठग-ठग कर खाता रहता है. और कोई बात कहो, क्‍या मजाल कि मान ले! मैं तो इसे मक्‍कार कहता हूं. यहीं, मेरे बग़ल में, मेरे तकिए पर पड़ा रहता है और मैं देखता रहता हूं...'

फिलहाल इतना ही. अगले पोस्‍ट में शास्‍त्रीजी और निराला निकेतन में जुड़ी कुछ और दिलचस्‍प जानकारियां साझा करूंगा.

1.11.08

आचार्य से मिले पृथ्‍वीराज

हालिया बिहार यात्रा के दौरान एक शाम मैं आचार्य जानकीवल्ललभ शास्‍त्री से मिलने मुज़फ़्फ़रपुर स्थित उनके घर 'निराला निकेतन' गया. 93-94 वर्ष की उम्र का वजन लादे शास्त्रीजी थक गए दिखते हैं, पर असल में वे थके नहीं हैं. पंडित मदनमोहन मालवीय, बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, निराला, दिनकर, अध्यापकी, कविताई, मौज-मस्ती, पितृ-भक्ति, गौसेवा ....: लगता है अभी-अभी निबट कर आए हैं सबसे. उनसे हुई मुलाक़ात पर लम्बा आलेख लिखूंगा. तब तक पृथ्वीराज कपूर से शास्त्रीजी के संबंध पर देखिए ख़ुद वे ही क्या कह रहे हैं:


पुरानी बात है. कलकत्ते में कोई कार्यक्रम था. कुछ लोगों के बोल लेने के बाद मुझे बुलाया गया था भाषण करने के लिए. भाषण समाप्त होने के बाद एक सज्जन आए. कहा, मेरी बातें उन्हें अच्छी लगी. अपना नाम उन्‍होंने पृथ्वीराज बताया और ये भी बताया कि वे नाटक वगैरह करते हैं. उसके बाद तो समझिये कि ऐसी दोस्ती हो गयी हमारी कि एक-दूसरे के घर आना-जाना शुरू हो गया.
एक बार पृथ्वीराज अपनी नाटक टोली के साथ यहां आए. दस दिनों तक लगातार जगह-जगह उनके नाटक होते रहे. लोगों ने बड़ा सराहा उनके नाटकों को. बड़े अच्छें दिन थे वे. पृथ्वीराज तो आए ही, राज और शशि भी आते रहे ‘निराला निकेतन’. यहीं गाय, कुत्ते, बिल्लियों के बीच हमारी मंडली जमती. मैं भी बंबई उनके घर जाया करता था. कई बार लंबी छुट्टी उनके घर पर बिताई है मैंने.
फिल्‍म में काम? कभी ऐसी बात मेरी दिमाग़ में नहीं आयी. न, न ... लोकप्रिय होने का कोई काम मैंने अपने जीवन में नहीं किया. किसी ने कहा भी हो तो मुझे याद नहीं, पर मैंने कभी नहीं चाहा....

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ