मोहल्ला लाइव पर टीवी पत्रकार आशुतोष का एक लेख
सर कलम करने की विचारधारा शीर्षक से छपा है,
जिस पर अभी-अभी मैंने अपनी प्रतिक्रिया वहां छोड़ी है.
उसी प्रतिक्रिया को मैं अपने पाठक मित्रों के लिए यहां पुनर्पेश कर रहा हूं.
सर कलम करने की विचारधारा शीर्षक से छपा है,
जिस पर अभी-अभी मैंने अपनी प्रतिक्रिया वहां छोड़ी है.
उसी प्रतिक्रिया को मैं अपने पाठक मित्रों के लिए यहां पुनर्पेश कर रहा हूं.
विश्वसतसूत्र और क्या कहते हैं पता नहीं. पर आशुतोष जैसे लोगों की पत्रकारिता को कम से कम लोकतंत्र की रक्षा में ज़रूर खड़ा होना चाहिए. सारे के सारे लोकतंत्र के ‘वकील’ दो दिन पहले बता रहे थे कि इंदिरा को उनके दो सुरक्षाकर्मियों ने किस किस तरह से गोली मारी और किस तरह सोनिया गाउन में ही दौड़ी, फोतेदार दौड़े, धवन दौरे … एंबुलेंस की गैरमौजुदगी में … कार से तमाम लालबत्तियों को पार करके एम्स ले जाया गया गोलियों से छलनी मैडम गांधी को जो बाद में शहीद के शव में तब्दील हो गया….
भाई-बहनजी लोग उस दिन सुबह से ही चालू हो गए थे. दिन भर इनका तांडव चलता रहा.
मेरे जैसा बकलोल नागरीक देश-दुनिया की खबर देखना चाह रहा था, जानना चाह रहा था कि दो शाम पहले जयपुर के तेल डिपो में लगी आग की क्या हालत है, 6 साल की वो जो लड़की अपने मां-बाप से बिछुड़ गयी थी और मां-बाप दहाड़ मार कर जो रहे थे उनकी स्थिति में क्या कुछ बदलाव हुआ है या कुछ हुआ ही नहीं, इस अग्निकांड के पीछे तेल माफिया तो नहीं है, या फिर चटकारे लेकर मुनिरका में पूर्वोत्तर की एक लड़की की बलात्कार-हत्या को जो ख़बर चंद रोज़ पहले दिखाई थी उस केस में कितनी प्रगति हुई है, और नहीं तो कम से कम आज कल वे सरदार परिवार कैसे जी रहे हैं जिनके घर के बुजुर्गों और जवानों को दिल्ली की सड़कों पर जिंदा आग के हवाले कर दिया गया था या जिनकी पेट से होकर कृपाण गुज़ार दिया गया था. रातोंरात विधवा और अनाथ बना दी गयी उन औरतों और बच्चों का जीवन कैसे चल रहा है …
आंध्र के उस आकाश के नीचे जहां मुख्यमंत्री रेड्डी का हवाई जहाज लापता बताया गया उसके जमीनी इलाके के बारे में सारे लोकतंत्ररक्षी पत्रकारों ने गला फाड़-फाड़ कर बताया और ग्राफिक्स के ज़रिए बताया कि कैसे वहां कभी सरकारी अमला पहुंचा ही नहीं और कैसे वो नक्सलाइट एरिया है; भइया कभी गए हो नहीं, तुमने पहले कभी उस एरिया का नाम लिया नहीं और अचानक तुम्हें वो पूरा का पूरा इलाक़ा नक्सलाइट दिखने लगता है! जियो उस्ताद! है नहीं वर्ना तत्काद दो-चार कट्ठा ज़मीन तुम्हारे नाम कर देते. पत्रकारिता देखिए, नेता के मुंह में अपनी बात ठूंस को बोकरने के लिए फोर्स करते थकते नहीं हैं, पिछले दिनो ऐसे ही एक पत्रकार अरुणाचल प्रदेश पहुंच गए और वहां के किसी लोकल नेता से हालिया चीनी अग्रेशन पर उनकी राय खुद बताने लगे जिससे अंत तक नेताजी अपनी असहमति जाहिर करते रहे. देखिए ज़ीरो से राज ठाकरे को हीरो बना दिया, चटक-मकट ऐसे पेश करते हैं मानो सचमूच की ख़बर दिखा रहे हों. ‘कॉमेडी सर्कस’ के डायलॉग और ‘बिग-बॉस’ की बत्तीसियों पर बुलेटिन तैयार कर देते हैं जबकि राखी के स्वयंवर को प्राइम टाइम का हेडलाइन.
एक ‘स्पेशल’ बना देते विदर्भ, पंजाब या आंध्र के ही किसानों की आत्महत्या पर! चाहे नितीश बाबु के राज में क्राइम, करप्शन, कमिशनख़ोरी और कनबतियों की क्या स्थिति रही; इसी पर स्पेशल रिपोर्ट बना देते. बताते कि मोदीजी के यहां जो मुसलमान काटे, भोंके, जलाए, उजाड़े गए थे उनके सर्वाइवरों का क्या हुआ! एक दिन थोड़ा दिखा देते कि बाहरी दिल्ली की जिन दो-चार पुनर्वास बस्तियों में कुछ दिन पहले चिकनगुनिया फैली थी, वहां इलाज-बात की क्या व्यवस्था हो पाई है. या ये बताते कि कैसे आनन-फानन में कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी के बहाने ग़रीब-गुर्बा को शहर के फुटपाथों, गलियों और सार्वजनिक पार्कों से खदेड़ा जा रहा है, कैसे मिठाई पुल के नीचे एक औरत खुले आसमान में बच्चा जनती है! कैसे यहां का कोई पुलिसकर्मी बावर्दी बिना हेल्मेट के मोटरसाइकिल की सवारी करता है और कैसे साहब के सामने हवलदार रिक्शा पलटकर उसकी रिम पर हुमचता है और रिक्शा वाले के मां-बहन के साथ सरेआम संबंध स्थापित करता है या कर लेने की धमकी देता है! क्यों जाएगा इन बातों पर ध्यान, ये सब तो लोकतांत्रिक आदर्श हैं! होते रहना चाहिए चहल-पहल बना रहता है! वैसे भी ग़रीबों का काम तो टहल-उहल करते रहना होता है क्या करेगा वो गरिमा और आत्मसम्मान जैसी सभ्यता के प्रतीकों का! वो तो मेट्रो और फ़्लायओवरों के निर्माण के दौरान हादसों का शिकार होकर बुनियाद मजबूत करने के लिए होते हैं, खुले आसमान में सोने के लिए होते हैं, सोते हुए सड़क पर कुचल दिए जाने के लिए होते हैं.
कभी नर्मदा घाटी से, कभी नेतरहाट से, कभी गुमला और खूंटी से जबरन खदेड़ने के लिए होते हैं. उनकी ज़मीन पर उनका हक़ क्यों हो! ज़मीन रख कर ही क्या कर लिया सालों से! बना दो बांध, दे दो इत्तल-मित्तल, जिंदल-उंदल को. कुछ में फैक्ट्री लगा देंगे और कुछ लोहा-उहा निकालने की जगह हो जाएगी. क्या कहे , आदिवासियों की ज़मीन उनसे पूछे बिना नहीं ले सकते ? बड़ा उलझाउ काम है? होगा उलझाउ, पर पूछना क्यों है. क़ानून? धत्त तेरे की, उसकी धज्जी न उड़ेगी तो संविधान की इज्जत कितने पैसे की रह जाएगी! चूं-चपड़ होने पर देखे नहीं कैसे-कैसे सलटा दिए जाते हैं. देखे नहीं कैसे बस्तर में कैसे-कैसे सिखाए जाते हैं पाठ ऐसे लोगों को. कमल पासवान एक साधारण जेपीआइट थे, कैसे सन् 1989 में अपने भाषण में कहते थे कि 80 साल के बुधन महतो के गुप्तांग में दबंगों ने लाठी घुसेड़ दी थी …
तात्पर्य ये कि ग़रीबों के साथ होने वाली हिंसा की गिनती कुछ और में होनी चाहिए पर पुलिस कमिश्नर साहब के कुत्ते का डाक्टरी ज़रूर होना चाहिए क्योंकि कुछ घंटों के लिए बेचारा घर से बाहर था! लाज देखिए लोकतंत्र के प्रहरियों का, हर ख़बर के साथ ब्रेकिंग न्यूज़ का पट्टा टांगे रहते हैं. और तो और पीआईबी में हो रही किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस का लाइव प्रसारण भी इनके हिसाब से ब्रेकिंग न्यूज़ होता है.
रही बात भैया लेनिन की चिट्ठी और माओ की हिंसा की, तो मैं भी इस पर और खुलासा के पक्ष में हूं. कुछेक और प्रमाण हो तो सबको साथ लेकर एक लंबा आलेख पेश किया जाए और बाक़ायदा संदर्भ दिया जाए ताकि ज़रूरत पड़ने पर इस्तेमाल किया जा सके!