20.4.09

इ कौन-सी डिमोक्रेसी है सरजी

सिर्फ़ प्रोमो ही देख पाया था. पूरी बातचीत तो बीते इतवार को दस बजे रात को आना था रजत शर्मा वाली 'आपकी अदालत में'. पर जितना देख सका, उससे ज़ाहिर हो गया कि जगदीश टाइटलर को गहरा ठेस लगा है. उनकी आंखों में पानी आ गया था. सुबक भी रहे थे. सुबकते हुए उन्‍होंने सिखों के साथ 84 में हुई ज्‍़यादती के लिए माफ़ी भी मांगी थी. बात आगे बढ़ाने से पहले यह साफ़ कर देना अच्‍छा रहेगा कि मेरी मंशा जगदीश टाइटलर को दोषी या दोषमुक्‍ती का प्रमाणपत्र देना कदापि नहीं है. मुझे नहीं मालूम कि टाइटलर साब कितने दोषी हैं और कितने नहीं. कितने सरदारों का कत्‍ल उन्‍होंने किया और कितनों को ऐसा करने को उकसाया, कितने घर उन्‍होंने ख़ुद फूंके और कितने फुंकवाए... बस मैं तो अपनी स्‍मृतियों को खंघालते हुए कुछ दृश्‍यों के ज़रिए अपनी समझ साझा करने की कोशिश भर करूंगा.

उन दिनों मैं उत्तर बिहार के पूर्णियां शहर में एक आश्रमनुमा स्‍कूल में पढ़ता था, जो उस स्‍कूल के तत्‍कालीन प्रधानाध्‍यापक सच्चिदा बाबू के स्‍कूल के नाम से जाना जाता था. सच्चिदा बाबू ने अपनी सेवानिवृति के बाद अपने ही अहाते में कुछ कमरे बनवाकर उसे स्‍कूल सा शक्‍ल दे दिया था और उनके परिचितों और शिष्‍यों के बच्‍चे वहां ज्ञानार्जन करते थे. ज्‍़यादातर बच्‍चे रहते भी वहीं थे. यानी हॉस्‍टल में. हमारे सच्चिदा बाबू सत्‍याग्रह वगैह में गांधी के साथ रहे थे और कई बार बापू के किस्से सुनाते-सुनाते वे फफक पड़ते थे. माने पक्‍के कांग्रेसी थे. गप-शप (हमारी पढाई-लिखाई इसी शैली में होती थी) के दौरान कई बार वे इंदिराजी की बहादुरी के किस्‍से भी सुना डालते थे. लिहाज़ा अक्‍टूबर 1984 की ही किसी दोपहरी में जब रंगभूमि मैदान में इंदिराजी की जनसभी हुई, तो वे हम बच्‍चों को भी उनका भाषण सुनाने ले गए. याद है उस दिन इस्‍त्री वाली हाफ़ पैंट और कमीज़ बहुत दिनों बाद धारण किए थे बच्‍चों ने. मेरे जैसे कुछ बच्‍चों ने चानी पर कड़ुआ तेल भी थोप लिया था. बस, चप्‍पल फटफटाते बच्‍चे लाइन-बाज़ार के आस पास से पैदल ही पहुंच गए थे रंगभूमि मैदान. याद नहीं है क्‍या-क्‍या बोला था इंदिराजी ने, केवल उनके आधे सफे़द और आधे काल बाल ही याद हैं.

शायद छठ की छुट्टी से लौटे थे धमदाहा से. मेरी फुआ का कामत था वहां. हॉस्‍टल आने पर पता चला कि इंदिराजी को उनके अंगरक्षकों ने गोली मार दी. हॉस्‍टल में सन्‍नाटा पसरा था. हेडमास्‍टर साहब सच्चिदा बाबू बार-बार गमछा से आंखे पोछते रहते थे. हमारी पढ़ाई-लिखाई भी बाधित हो गयी थी. पता नहीं अचानक कहां से पंजाबियों (सरदारों) पर आफत आ पड़ी. फारबिसगंज मोड़ से कचहरी के रास्‍ते में एक 'पंजाब टेंट हाउस' था, रातोंरात उसने बोर्ड पर 'भारत टेंट हाउस' लिखवा लिया. हमारे स्‍कूल के क़रीब ही तत्‍कालीन पूर्णिया शहर के गिने-चुने खू़बसूरत घरों में से एक सरदार मंगल सिंह के घर पर ताबड़तोड़ बमबारी कर दी थी किसी ने. सरदार साहब के परिवार की औरतें बदहवास रोती जा रही थीं. अच्‍छी तरह याद है तब तमाम ग़ैरसरदार न केवल तमाशा देख रहे थे बल्कि सरदारों के खिलाफ़ अफ़वाहों की खेती कर रहे थे. रोज़ नए-नए अफ़वाह! बचपन के आंकलन के मुताबिक तब शहर के ट्रांसपोर्ट व्यवसाय में सरदार ही सबसे आगे थे. शायद वो दिलवाड़ा सिंह थे 'ऐतियाना' वाले, और एक और सिख बस व्‍यवसायी थे. हमारे स्‍कूल में ही किसी बच्‍चे ने कहा था कि दिलवाड़ा सिंह ने अपने अहाते में 50 आतंकवादियों को छुपा रखा है, उनके पास रडार-वडार सब कुछ है. वे लोग डीएम और एसपी को उड़ाने वाले हैं ... महीनों ऐसी अफ़वाहें उड़ती रही थीं.उन्‍हीं दिनों दिसंबर-जनवरी या फरवरी में राजीव गांधी की जनसभा होने वाली थी, अफवाह सुनी, 'फलां सरदार ने अपने छत पर ही मशीनगन सेट कर लिया है, अपने घर से ही भाषण वाले मंच पर राजीव गांधी को टीक देगा.उसके बाद का राजनीतिक घटनाक्रम याद दिलाना मेरे ख़याल से ज़रूरी नहीं है.

एक-आध बातें जो ज़हन में आ रही हैं वो ये कि तब कांग्रेस के लोग इस क़दर भावुक हो गए थे कि वे सही-ग़लत का निर्णय न कर सके. आम लोगों में इंदिरा गांधी की हत्‍या को लेकर रोष था जिसका नाजायज फायदा दंगाइयों ने उठाया. हिन्‍दु कट्टरपंथियों ने कांग्रेस के कुछ लफुओं को आगे करके अपने मन माफिक काम किया जिसका प्रमाण तत्‍काल बाद वाले चुनाव में कांग्रेस का समर्थन करके उन्‍होंने दिया. तब के कई कांग्रेसी आज संघ के विभिन्‍न मंचों और संगठनों के मार्फ़त अपना काम कर रहे हैं. कुछेक विधायक, सांसद और मंत्री भी बनने में कामयाब रहे. मेरे ख़याल से पूर्णिया की तत्‍कालीन सांसद माधुरी सिंहा के सुपुत्र पप्‍पू सिंह ने भी उत्तरार्द्ध में शायद ऐसा ही कुछ किया.

अपनी बात समेटते हुए मैं बस यही कहना चाहूंगा कि दंगाइयों का एक तबक़ा चुनाव से बाहर कर दिया जाए और दूसरा प्रधानमंत्री बनने और बनवाने के लिए अखाड़े में ताल ठोकता रहे. मेरे खयाल से नेचुरल जस्टिस इसे तो नहीं ही कहा जा सकता. इ कौन-सी डिमोक्रेसी है सरजी.

6 comments:

  1. आप के ही अंदाज में कहूं तो- इहे है इंडियन डेमोक्रेसी। पूरे पोस्ट को एक घोंट में पीया हूं, आपने 84 के बहाने आंखों में पूर्णिया को जीवंत कर दिया। खासकर पंजाब-भारत टेंट हाउस वाली बात। मेरा मानना है कि आम लोगों में इंदिरा गांधी की हत्‍या को लेकर रोष था जिसका नाजायज फायदा दंगाइयों ने उठाया और जो हुआ उसकी राजनीति आजतक और शायद कबतक जारी रहेगी, कहना मुश्किल है।

    और हां, पूर्णिया का सांसद पप्पू सिंह भी रातों-रात हाथ से कमल हो गया। दरअसल बात इ है कि वह अटल प्रवाह में कमल के बैनर तले संसद पहुंचा था। शायद इस बार भी पहुंच जाए, क्योंकि पूर्णिया में पप्पू यादव भी पहुंच गया है तो वोट का काटम-काट तो होगा ही और जाति की लेब्रोटरी में फिर पप्पू जीत जाएगा।

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  3. बहुत सटीक अंदाज में सुनाया अपना संस्मरण भाई और सच्चे कहें तो इहे डिमाक्रेसी है-गिरीन्द्र की हाँ में सुर मिलाते. :)

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  4. "एक-आध बातें जो ज़हन में आ रही हैं वो ये कि तब कांग्रेस के लोग इस क़दर भावुक हो गए थे कि वे सही-ग़लत का निर्णय न कर सके. आम लोगों में इंदिरा गांधी की हत्‍या को लेकर रोष था जिसका नाजायज फायदा दंगाइयों ने उठाया. हिन्‍दु कट्टरपंथियों ने कांग्रेस के कुछ लफुओं को आगे करके अपने मन माफिक काम किया"

    हैरत होती है, कोई शख्स एसा भी लिख सकता है!
    आपके ऊपर हंसा जाय
    आपकी नादानी पर रहम खाया जाय
    या आपको इग्नोर किया जाय

    किसी जमाने में बिहार में दुनियां के सबसे बड़े गणराज्य थे आज समझ सकता हूं कि वे कैसे मिट गये!
    हे प्रभु, सराय और सफर के विदेशी धन के चक्कर में इस गणराज्य को हानि मत पहुंचाओ

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  5. हे सखा, आपके नाम पर क्लिक करने से निम्‍‍नलिखित टेक्‍स्‍ट वाला पन्‍ना खुल रहा है.
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    If you're a Blogger user, we encourage you to enable access to your Profile.

    अब आप ही बताइए कि गणराज्‍य छद्म धारण करने से जीवित होगा या खुलकर अपनी राय करने से. आप हम पर रहम, तरस, दया में से कुछ खाइए या न खाइए, कम से कम जो खाइए वो इमानदारी से खाइए. आपका और गणराज्‍य का सेहत अच्‍छा रहेगा.


    भले विचारों के लिए आपका शुक्रिया.

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  6. "एक-आध बातें जो ज़हन में आ रही हैं वो ये कि तब कांग्रेस के लोग इस क़दर भावुक हो गए थे कि वे सही-ग़लत का निर्णय न कर सके. आम लोगों में इंदिरा गांधी की हत्‍या को लेकर रोष था जिसका नाजायज फायदा दंगाइयों ने उठाया. हिन्‍दु कट्टरपंथियों ने कांग्रेस के कुछ लफुओं को आगे करके अपने मन माफिक काम किया", यानी कि यह दोष भी हिन्दू कट्टरपंथियों के सिर मढ़ना चाहते हैं आप? वाकई तब तो आप कांग्रेसियों को ठीक से नहीं जानते… या तो आप फ़ुल्टू कांग्रेसी हैं या फ़िर नादान हैं जो कांग्रेसियों की फ़ितरत नहीं जानते… थोड़ा इतिहास में पीछे जाइये, गोडसे के कारण महाराष्ट्र के ब्राह्मणों पर कांग्रेसियों ने जो कहर बरपाया था उसे पढ़िये… तब आप उन्हें समझेंगे…

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