पिछले हफ़्ते जागरणी जर्नलिस्ट जरनैल सिंह ने चितंबरम जैसे धाकड़ नेता पर जूते उछाले. चिदंबरम सर को किसी प्रकार की चोट नहीं आयी और उन्होंने गांधी की राह पर चलते हुए जरनैल को माफ़ कर दिया. पर दिल्ली के दो दिग्गज आज भी रह-रह कर जरनैली जूते की चोट को सहलाने लगते हैं. बेचारों का राजनीतिक जायक़ा ख़राब हो चुका है. न जाने कब तक इन्हें राजनीतिक पनाह की बाट जोहनी पड़ जाए. 1984 में इंदिरा अम्मा की हत्या के बाद राजधानी में सिख विरोधी दंगे भड़काने के आरोपी इन दोनों कांग्रेसी नेताओं की टिकटें न कटतीं तो ख़ुद कांग्रेस को चुनाव परिणाम से प्राप्त होने वाली कुल सीटों में दो और का इज़फ़ा तय माना जा रहा था. यानी संभव है कि जरनैल के जूते का असर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर पड़ जाए.
दिल्ली से चले जरनैली जूते चंद रोज़ बाद कुरुक्षेत्र पहुंचे. अबकी ये सख़्त सोल वाले मास्टरी थे और इसकी जद में आए देश के जाने-माने उद्योगपति, शौकिया पोलो खिलाड़ी और निवर्तमान कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल साहब. जिंदल साहब वही हैं जो दिल्ली हाई कोर्ट से आदेश प्राप्त करने के बाद हमेशा अपनी जेब पर तिरंगा टांगे रहते हैं. पर ये जूते नियत डेस्टिनेशन से पहले ही गुरुत्वाकर्षण के नियमों के चंगूल में फंस कर चंद क़दम की दूरी पर वापस धरती को ही कुछ चोट पहुंचा गए. उसके बाद स्थानीय लोगों (कुछ लोगों के मुताबिक़ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं) ने सरकार से क्षुब्ध सेवानिवृत्त उस मास्साब पर न्यूटन के तीसरे नियम का पालन करते हुए तब तक लात-घुसों की बारीश करते रहे जब तक कि पुलिस न आ गयी. शाम को टेलीविज़न पर ख़्ाबर देखते हुए ज्ञात हुआ कि जिंदल साहब ने मास्साब का लिहाज़ करते हुए उन पर कोई मुक़दमा दायर नहीं करवाया है, हां पुलिस अपनी कार्रवाई करने के लिए आज़ाद है जो कि होकर रहेगी.
कल पता चला कि बीते कुछ दिनों में कुछ हज़ार किलोमीटर का सफ़र तय करके कुछ जूते मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश कर गए हैं. पता ये भी चला कि कुछ ने तो अपनी शक्ल भी बदल ली है. प्रधानमंत्री बनने के लिए उतावले माननीय लालकृष्ण आडवाणी जी पर जो चरण पादूका कल कटनी में उछाली गयी थी दरअसल टेलीविज़न स्क्रीन पर देखने से वो दादाजी के ज़माने की पीत चट्टी प्रतीत हो रही थी. लकड़ी के सोल पर रबर की पट्टी लगी इस प्रकार की चट्टी को जानकार धार्मिक दृष्टि से बेहद शुद्ध और पवित्र मानते हुए खड़ाउं की श्रेणी में रखते हैं. 'पंडिताई' की शुरुआत में रंगरुटिए को चट्टी पहनने की ही सलाह दी जाती है क्योंकि सीधे पैर की उंगलियों में खड़ाउं का अंकुसा फंसाने भर की कोशिश से ही पैर के चोटिल हो जाने का ख़तरा बना रहता है. बचपन में ऐसी चट्टियों पर हम खेल-कूद कर घर लौटने के बाद पैर धोया करते थे.
कल समाचारों से ज्ञात हुआ कि भारत के पूर्व गृहमंत्री, एक समय यहीं के उपप्रधानमंत्री, निवर्तमान लोकसभा में विपक्ष के नेता और आज प्रधानमंत्री बनने के लिए अधीर व व्याकुल वृद्ध माननीय लालकृष्ण पर उस पीत-चट्टी का प्रहारक उनकी ही पार्टी का कार्यकर्ता था (हालांकि भारत के दो बड़े राजनीतिक दलों में परिस्थितियों व पारिवारिक पृष्ठभूमियों के हिसाब के कुछ नौजवानों के लिए कार्यकर्तागिरी करना आवश्यक नहीं रह गया है. उदाहरण के लिए सिंधिया व गांधी परिवार से संबद्ध राजनीतिपसंद लोग) वैसे जब पुलिस उसके कमर में हाथ डाल कर ले जा रही थी उस वक़्त उसने अपने गले पर पीतांबरी अंगवस्त्र (या कहिए कि थोड़ा गाढ़ापन लिए) धारण किया हुआ था.
यहां उद्देश्य उपर्युक्त वर्णित जूतेबाज़ी के चारों उदाहरणों से कुछ सबक निकालना है. मुंतजर के जूते अमेरिका के हाथों इराक की हुई बर्बादी के विरोध में थे, जरनैल के जूते 84 के दंगा-पीडितों के साथ हो रही नाइंसाफ़ी की मुखालफ़त कर रहे, मास्साब के जूते हरियाणा सरकार के प्रति उनके आक्रोष का प्रतिविंबन कर रहे थे. यहां तक तो बात समझ आ रही है, पर कटनी में आडवाणीजी पर चट्टी का प्रहारक तो संघ संप्रदाय का ही हिस्सा था. उस भले आदमी ने ऐसा क्यों किया?
मेरी शंकाएं इस प्रकार निम्न हैं :
- आडवाणीजी उन्हें पसंद न हों,
- आडवाणीजी के क्रियाकलाप उन्हें पसंद न हों,
- आडवाणीजी ने कभी कोई ऐसा अपराध किया हो जिसका दंड वे भरी सभा में देना चाह रहे हों,
- आडवाणीजी ने कभी किसी तरह उनका अपमान किया हो, जिसका बदला लेने का वे मौक़ा तलाश रहे हों,
- आडवाणीजी के मन में कोई खोट हो,
- आडवाणीजी की कथनी और करनी में नाबर्दाश्तग़ी की हद तक उन्होंने फ़र्क़ महसूस किया हो,
- आडवाणीजी से संरक्षणप्राप्त नेताओं से उन्हें चीढ हो,
- आडवाणीजी ने उनसे कभी कोई कोई वायद किया हो और बाद में मुकर गए हों,
- आडवाणीजी के हस्तक्षेप से उनको कभी मिलने वाला चुनावी टिकट कट गया हो,
- आडवाणीजी का पाकिस्तान में जिन्ना के मज़ार पर कशीदा पढ़ना उन्हें चुभ गया हो,
- आडवाणीजी का राम के नाम परा वोट मांग कर राम का घर आज तक न बनवा पाना उन्हें सालता रहा हो,
- निवर्तमान संसद में आडवाणीजी का सार्थक हस्तक्षेप न देख कर क्रोध आ गया हो,
- आडवाणीजी की लिडरई में भाजपा द्वारा जबरन हिन्दुत्व का ठेका हथिया लेने पर हज़ारों हिन्दुओं की तरह उनकी आस्था पर भी चोट पहुंची हो,
- आडवाणीजी की लिडरई में 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस उन्हें नागवार गुज़रा हो,
- आडवाणीजी का वाजपेईजी के कैबिनेट पर दूसरे नंबर पर होने के बावजूद उड़ीसा में ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को बजरंगियों द्वारा जिंदा जला देने पर भी आडवाणीजी का चुप्पी साधे रखना उन्हें याद आ गया हो,
- आडवाणीजी के गृहमंत्री रहते देश के विभिन्न हिस्सों में ननों के साथ हुए बलात्कार को उन्होंने धर्म के खांचे में बांटकर देखने के बजाय स्त्री जाति और मानवता पर हमला मान लिया हो,
- आडवाणीजी की भागीदारी वाली सरकार के दिनों में गुजरात में वहां की सरकार के नेतृत्व में मुसलमानों के नरसंहार का दृश्य उन्हें याद आ गया हो,
- आडवाणीजी की भागीदारी वाली सरकार के दौर में झज्जर में गोहत्या का आरोप लगाकर दलितों की मार देने की घटना एक बार फिर उनके ज़हन को झकझोर गयी हो,
- आडवाणीजी की भागीदारी वाली सरकार के दिनों में ग़रीबों पर हुए अत्याचार के नमूने उनके नज़र में नाच गए हों,
- आडवाणीजी द्वारा भारतीय संविधान की अक्षुण्ण्ता बनाए की सौगंध खाने के बाद अपने देश का नाम हिन्दुस्थान उच्चारित करना उन्हें बिल्कुल नागवार गुज़रा हो,
- आडवाणीजी द्वारा हाल में वरूण गांधी वाले प्रकरण में वरूण को निर्दोष करार दिये जाने से वे क्षुब्ध हों,
- आडवाणीजी द्वारा अचानक बीच चुनाव में काले धन की बात करके असली मुद्दे से जनता को बरगलाना उन्हें न भाया हो क्योंकि पिछले पांच साल जब वे विपक्ष के नेता थे तब उन्होंने एक बार भी इस मसले का संसद के किसी सदन में न ख़ुद उठाया और न ही किसी से उठवाया,
- आडवाणीजी के उस विज़न से उन्हें दिक़्क़त हो जिससे भारत में तानाशाही को बल मिलता हो.
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