26.4.09

पहला मतदान दस बरस की उम्र में

84 की ही बात है. सच्चिदा बाबू वाले स्‍कूल में किसी बात की छुट्टी थी. लिहाज़ा हम (सुधांशु और मैं) धमदाहा में थे. चुनावी गहमागहमी ज़ोरों पर थी. तब फुफाजी जीवित थे. पढ़ा-लिखा परिवार होने के कारण उनकी कद्र थी. सीपीआई से लेकर कांग्रेस तक, सभी दलों के प्रत्‍याशी ज़रूर उनके दरवाज़े पर आते थे. उसी क्रम में एक दिन माधुरी सिन्‍हा के दर्शन का योग बना. श्रीमती सिन्‍हा तब वहां की सांसद थीं और चुनाव में कांग्रेस (इ) की उम्‍मीदवार भी. फुफाजी के कहने पर भाग कर अंगना से स्‍टील वाली कप में रखी चाय को स्‍टील वाली ट्रे पर लाने में गजब की खु़शी हुई थी. जल्‍दी-जल्‍दी चाय ले कर पहुंचने के चक्‍कर में लगभग आधी चाय छलक कर ट्रे में हिलकोरे मारने लगी थी. कुल जमा ये कि फुफाजी के दरवाज़े पर प्रत्‍याशियों का आना-जाना लगा रहता था. फुफाजी सबसे प्‍यार से मिलते थे और अपनी ओर से निश्चिंत होने का भरोसा दिलाते थे.
तो लोकसभा के लिए होने वाले आम चुनाव से पहले वाली शाम को चुनाव संपन्‍न कराने वाले कर्मियों का दल आया. मेरे फुफेरे भाइयों व उनके चचेरे भाइयों ने उनके ठहरने और खाने-पीने का ठीक-ठाक इंतजाम करा दिया. अब उन मछुआरे का नाम याद नहीं जो फुफाजी के घर के पास ही रहते थे और रात-विरात मौक़ा पड़ने पर मछली लेकर हाजिर हो जाते थे. तो उस रात मछली-भात खाने के बाद पोलिंग पार्टी मंदिर के पास नंदकिशोर भइया वाले दालान में लेटने चले गए. बाद में भैया वगैरह उनसे अगले दिन के कार्यक्रम के बारे में बातचीत कर आए. हम बच्‍चों को उस गोष्‍ठी से महरूम रखा गया.
सुबह से ही आस-पास के टोले वाले मंदिर से थोड़ी दूर पर कोसी किनारे टाट-फट्टी वाले स्कूल पर कतारबद्ध जमा होने लगे थे. फुफाजी और उनके कुनबे में जो भी हम चार-छह बच्‍चे थे, उनमें 'भोट' देखने को लेकर बड़ा उत्‍साह था. पर भैया लोगों के डर से हम दूर से ही तमाशा देखने को मजबूर थे. पता नहीं, किधर से संजय भैया आए और बोले, 'हम त भोट गिरा के अइनि ह'. संजय भैया फुफाजी के सबसे छोटे भतीजा थे और हमसे तीन-चार साल बड़े थे. हमारे लिए उनका भोट गिरा कर आना किसी किला फतह करने से कम नहीं था. हम सारे बच्‍चे हिम्‍मत जुटा कर चल पड़े बूथ की तरफ़. भैया लोग और पोलिंग पार्टी दोनों कमरे में व्‍यस्‍त थे. एक-दो भैया लाइन-वाइन ठीक करा रहे थे. और कुछ स्‍कूल के तथाकथित गेट के बाहर बन्‍दूक लेकर निगरानी कर रहे थे. हमारी हिम्‍मत, हम तीनों-चारों अवरोधों को पार करते हुए पहुंच गए अंदर बूथ पर. बड़का भैया देखे और चिल्‍लाए, 'वाह रे भोटर सS! भागS ताड़S कि ना तोहनिं.' मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा और रोते-रोते वोट डलवा देने की विनती करने लगा. हमारी गिरगिराहट से पसीज कर भइया ने मुझे प्रेजाइडिंग ऑफिसर से एक बैलेट पेपर दिलवा दिया. जब तक हम बैलेट को हाथ में लेकर खु़श होते तब तक उन्‍होंने मुहर थमाते हुए कागज पर छपे 'हाथ' के निशान पर मेरा हाथ पकड़ कर ठप्‍पा दिलवा दिया. मेरे उंगली में रोशनाई लगाने की मांग को भी वे मान गए. बग़ल में बैठे किसी साहब में ने मेरी उंगली पर निशान लगा दिया. बड़ा मज़ा आया था. महज़ दस बरस का था तब. आज भी उस वाक़ये को याद करके रोमांचित हो उठता हूं.
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