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24.7.08

ये वो मोहनदास तो नहीं....

फिल्म मोहनदास पर हो रही चर्चा को अब आगे बढ़ा रहे हैं रविन्द्र कुमार चौधरी. रविन्द्र एक ख़बरिया चैनल में काम करते हैं. अच्छी किताबों के अलावा नाटक, फिल्म और शे'--शायरी में उनकी गहरी दिलचस्पी है.

किसी भी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाना बड़े-बड़े फिल्मकारों के लिए एक चुनौती रहा है। ऐसे में मज़हर जैसे लगभग

आजकल ये कुछ चलन सा बन गया है कि चूतिया, भो.... जैसी गालियों को डालने से ही इन फिल्मकारों को लगने लगा है कि तुमने कुछ कलात्मक सी फिल्म बना डाली है। मज़हर भाई केवल गालियां डालने भर से ही सीन में असर नहीं पैदा होता। उन गालियों को बोलने के लिए अच्छे अदाकारों की और अच्छी सिचुएशन की भी ज़रूरत होती है।

अनसुने से नाम द्वारा मोहनदास जैसी कहानी पर फिल्म बनाना निश्चित ही दुस्साहस भरा काम है। लेकिन मज़हर केवल इसी बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि रेस, धूम और टशन जैसी वाहियात फिल्मों के दौर में उन्होंने मोहनदास बनाई। इसके अलावा उन्होंने बधाई लायक कोई काम नहीं किया। बल्कि उन्होंने आने वाले सार्थक फिल्मकारों की राह भी मुश्किल कर दी है। लगता है कि उन्होंने भावुकता में मोहनदास बनाने का फ़ैसला कर लिया। लेकिन इस सारे उपक्रम में उन्होंने सबसे ज़्यादा अन्याय मोहनदास के साथ ही किया। मज़हर ने उस मोहनदास को ही मार दिया, जिसे उदय प्रकाश ने रचा था। मज़हर का मोहनदास कहीं से भी उदय प्रकाश का मोहनदास नहीं है। कस्तूरी के बारे में भी यही कहा जा सकता है। मुझे तो उदय की हालत एक ऐसी निरीह मां जैसी लग रही है, जिससे कोई उसका बच्चा मांग कर ले गया हो कि हम इसे अपना बच्चा समझकर पालेंगे। लेकिन जब वो मां अपने बच्चे की ख़ैर-खबर लेने जाती है, तो अपने कलेजे के टुकड़े के साथ जानवरों जैसा ज़ुल्म होते पाती है।
दोनों लीड एक्टरों के सर पर मज़हर ने एक ऐसी मुसीबत डाल दी, जिसके बोझ तले वो दोनों बेचारे दबकर रह गए। ये भूमिकाएं निभा पाना उनके बूते की बात थी ही नहीं। अगर आप वकील सोनी और जज मुक्तिबोध की भूमिकाओं के लिए श्रीवास्तव और नामदेव जैसे काबिल कलाकारों को ले सकते हैं, तो मोहनदास और कस्तूरी की भी आपने थोड़ी लाज रखी होती।
कुल मिलाकर फिल्म में झोल ही झोल हैं। पूरी फिल्म में मोहनदास का अभाव, उसकी व्यथा कहीं भी इस्टेबलिश नहीं हो पाती। चारों तरफ से लुटा-पिटा उदय का मोहनदास जब घर लौटता है, तो मज़हर के मोहनदास में बदलकर एक खाते-पीते मोहनदास की तरह साफ-सफ्फाक नाइट ड्रेस चेंज करता है। उस मोहना के घर में कहीं कोई खास कलेश नहीं दिखता। फिल्म तभी थोड़ी संभलती दिखती है, जब कोर्ट-कचहरी, जांच-पड़ताल के सीन आते हैं। और यह शायद श्रीवास्तव और नामदेव जैसे कलाकरों के स्क्रीन पर होने से संभव हो पाया। या शायद इस तरह के दृश्यों में हमारी सहज-स्वाभाविक दिलचस्पी के चलते ऐसा संभव हुआ।
मोहनदास, की लाचारी को दिखाने का सबसे सही तरीका मज़हर को यही लगा कि वो बेचारा मकानों की एक जैसी बनावट होने की वजह से बिसनाथ का मकान नहीं ढूंढ पाता। आह! बेचारा!
अभिनेताओं के चयन में मज़हर की ख़ामी उस सीन में और भी शिद्दत से महसूस होती है, जहां पत्रकार सोनाली द्वारा किये गए तंज से व्यथित होकर श्रीवास्तव एक ईमानदार वकील की व्यथा को केवल एक शॉट में बयां कर देते हैं। वहीं, दूसरी ओर नकुल मोहनदास जैसे अपार संभावनाओं वाले पात्र की व्यथा को पूरी फिल्म में एक जगह भी नहीं दिखा सके। उस समय यही खयाल आया कि काश श्रीवास्तव को मोहनदास बनाया होता।
फिल्म देखने के बाद बाक़ी अभिनेताओं, दृश्यों और सिचुएशन से जुड़ी और जो बातें
मेरे जेहन में आई, उन्हें मैं बेतरतीब ढंग से कहे देता हूं। किरदारों की बोली को लेकर मज़हर साहब कतई लापरवाह रहे। कहीं तो उनके किरदार ठेठ गंवई बोली बोल रहे होते हैं, अगली ही लाइन में वो नुक्तों के सही इस्तेमाल वाली ख़ालिस उर्दू बोलते दिखते हैं। दरोगाजी हमेशा बुलेट मोटरसाइकिल पर अकेले ही दिखते हैं और सड़कछाप गुंडे की तरह मोहनदास का पीछा करते रहते हैं। दरोगा को एकाध सिपाही के साथ खटारा सी जीप में(जो शायद ज़्यादा वास्तविक लगता) दिखाने में पता नहीं मज़हर को क्या परेशानी थी। दरोगा का किरदार भी सबसे ज़्यादा कमज़ोर किरदारों में से एक रहा।
अभिनय या स्क्रिप्ट की कसावट के बजाय गालियों के इस्तेमाल पर ज़्यादा ध्यान दिया गया। आजकल ये कुछ चलन सा बन गया है कि चूतिया, भो.... जैसी गालियों को डालने से ही इन फिल्मकारों को लगने लगा है कि तुमने कुछ कलात्मक सी फिल्म बना डाली है। मज़हर भाई केवल गालियां डालने भर से ही सीन में असर नहीं पैदा होता। उन गालियों को बोलने के लिए अच्छे अदाकारों की और अच्छी सिचुएशन की भी ज़रूरत होती है। बिसनाथ के बाप के रूप में आपने अखिलेंद्र मिश्रा को हैरी बावेजा और लॉरेंस डिसूजा की फिल्म के गुलशन ग्रोवर के बाप जैसा बना दिया। इस बीच आपने मोहनदास से जासूसी भी करवा दी, वो छुप-छुपकर रात में कोयले के ट्रकों की चोरी भी देखता है और वहीं पर आम मुंबईया फिल्मों की तरह विलेन उसे पकड़कर पीटते हैं।
वैसे तो मुझे कोई आसार नज़र नहीं आते कि आप इसे पढ़ेंगे, अगर पढ़ लें तो ज़्यादा बुरा ना मानियेगा, क्योंकि अपने पसंदीदा लेखक की रचना के साथ ऐसा सलूक देखकर मैं ऐसा ही लिख सकता था...और अंत में यही कहूंगा कि नकुल और शर्बनी मुखर्जी को मोहनदास और कस्तूरी बनाकर शायद आपने उनसे अपने रिश्ते निभाए हैं। और ऐसा करके आपने जौहरों, चोपड़ाओं और संजय गुप्ताओं की परंपरा को ही आगे बढ़ाया है, जो हर फिल्म में अपने कैंप के दोस्त अभिनेताओं? से रिश्ते निभाते हैं। किरदार चाहे जो हो, निभाएंगे अपने दोस्त ही।
उदय प्रकाश के मोहनदास को पढ़कर इस निर्मम व्यवस्था और इसके उन रहनुमाओं पर ग़ुस्सा आया था, जो मोहनदास करमचंद के नाम पर देश को चट कर रहे हैं। लेकिन मज़हर के मोहनदास को देखकर मोहनदास पर ही ग़ुस्सा आता है।
......इस उम्मीद के साथ ...कि उदय की रचनाओं पर अभी अच्छी फिल्म बाक़ी है मेरे दोस्त!

19.7.08

यह एक शुरुआत है

अब मोहनदास फिल् पर बहस को आगे बढ़ा रहे हैं युवा पत्रकार, लेखक और कहानीकार अभिषेक कश्यप. अभिषेक ढाई साल तक भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' में सहायक संपादक रहे. 'हंस' के खबरिया चैनलों पर केंद्रित बहुचर्चित अंक के अतिथि सहायक संपादक. पिछले साल उनकी पहली किताब 'खेल' (कहानी संग्रह) छप कर आयी. फिलहाल युवा रचनाशीलता पर केंद्रित अनियतकालिक पत्रिका 'हमारा भारत' का संपादन कर रहे हैं.

‘मोहनदास’ पर आपकी भड़काऊ प्रतिक्रिया देखी. आपको याद होगा, उस दिन उस शो में आपके साथ मैंने भी यह फ़िल्म

हम फ़िल्म देखते हुए और उसके बाद भी यही चर्चा करते रहे कि मोहनदास कहानी खुद एक उत्कृष्ट रचना है और इसे फिल्म की भाषा में ढालने के लिए फिल्मकार को कहानी से बाहर जाकर यह लिबर्टी लेने की भी जरूरत नहीं थी. अगर इन एक दो बातों को छोड़ दें तो मुझे लगता है कि मजहर कामरान ने आपनी सारी कमजोरियों के बावजूद कहानी का मूल आस्वाद बनाए रखने की पूरी कोशिश की है. असल में बॉलीवुड कुछ इस तरह चारो तरफ़ छाया है कि उसकी जद से अचानक इतनी आसानी से निकल पाना सम्भव नहीं . क्रॉस ओवर सिनेमा के साथ पिछले कुछ बरसों में जो नए फिल्मकार मुंबई पहुंचे हैं वे भले ही विश्व स्तर की फिल्में नहीं बना रहे, मगर वे डेविड धवनों, यश चोपडा़ओं और सुभाष घइयों की परम्परा से विद्रोह जरूर कर रहे हैं

देखी थी. मै आपकी बातों से सहमत हूँ, मगर आपके शीर्षक से सहमत नहीं कि उदय प्रकाश की कहानी मोहनदास जितनी बढ़िया है फ़िल्म उतनी ही घटिया. मैं तो किसी क्लासिक साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनने के बहुत पक्ष में ही नहीं, जैसा कि विश्वविख्यात लातिन-अमरीकी लेखक मार्केज मानते हैं कि किसी कृति पर फ़िल्म बनने से पाठकों के इमेज का ध्वंस होता है ... मगर जब कृतिकार को ही आपत्ति नहीं और उसकी किसी कहानी पर फ़िल्म बन ही गई तो लेखक और राकेश जी जैसे स्पर्श कातर पाठकों को सेल्यूलाइड पर कहानी या उपन्यास देखने की ग्रंथि से मुक्त होना चाहिए.
राकेश जी की तरह मुझे भी यह देख कर दुःख हुआ कि पुरबन्दरा के दिन-हीन कस्तूरी और काबा का बेटा मोहनदास इतना चिकना कैसे है! ...फिल्मकार ने ब्यूटी और ग्लैमर का रंग घोलने के लिए फ़िल्म को जिस तरह एक ख़बरिया चैनल के दफ्तर से शुरू किया है , वह भी वाहियात लगता है ... हम फ़िल्म देखते हुए और उसके बाद भी यही चर्चा करते रहे कि मोहनदास कहानी खुद एक उत्कृष्ट रचना है और इसे फिल्म की भाषा में ढालने के लिए फिल्मकार को कहानी से बाहर जाकर यह लिबर्टी लेने की भी जरूरत नहीं थी. अगर इन एक दो बातों को छोड़ दें तो मुझे लगता है कि मजहर कामरान ने आपनी सारी कमजोरियों के बावजूद कहानी का मूल आस्वाद बनाए रखने की पूरी कोशिश की है. असल में बॉलीवुड कुछ इस तरह चारो तरफ़ छाया है कि उसकी जद से अचानक इतनी आसानी से निकल पाना सम्भव नहीं . क्रॉस ओवर सिनेमा के साथ पिछले कुछ बरसों में जो नए फिल्मकार मुंबई पहुंचे हैं वे भले ही विश्व स्तर की फिल्में नहीं बना रहे, मगर वे डेविड धवनों, यश चोपडा़ओं और सुभाष घइयों की परम्परा से विद्रोह जरूर कर रहे हैं जो सिनेमा को कला नहीं मनोरंजन मानते हैं और अपनी तमाम मूर्खताओं को हिन्दी सिनेमा के नाम पर पिछले कई दशकों से ग्लोरिफाई करते रहे हैं ... यह एक शुरुआत है और मजहर कामरान की यह पहली फ़िल्म है. राकेश जी जैसे साहित्यप्रेमियों को इस नजरिया से भी सोचना चाहिए.

हर ऐतबार से बेहूदी फिल्म है मोहनदास

नरेश गोस्वामी दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं और भारतीय समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) दिल्ली से संबद्घ पीएचडी फ़ेलो भी. कांवड़ संस्कृति पर बारीक निगाह थामे नरेशजी धर्म के कारोबार को समझना चाहते हैं . अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन भी करते हैं. पेश है ''मोहनदास'' पर उनकी राय:



कामरान मजहर की फ़िल्म " मोहनदास" हर ऐतबार से बेहूदा है. सबसे पहले मुख्य पात्र मोहनदास को ही लें. मूल कहानी में मोहनदास को दुरंगी चप्पल और कई साल पहले सिलवाये कपडों में दिखाया गया है. उसकी बदहाली का ज़िक्र करते हुए उदयप्रकाश बताते हैं की वह पैंतीस साल की उम्र में पचास का दिखने लगा था. फ़िल्म का मोहनदास इतना चिकना और चाकलेटी है कि ऐसे बाँके और गबरू जवान को तो साला कोई बिना योग्यता के ही नौकरी पर रख ले. इस मोहनदास की देह-भाषा में कहीं भी एक पीड़ित, वंचित और हर ढंग से पिटे आदमी का विषाद नहीं है. फ़िल्म में मूल कहानी का वह घर कहीं नहीं दिखता जिसमें ग़रीबी और बेबसी हर सुख को चाट गई है और जिसमें मोहनदास का पिता हर दम खांसता रहता है.
क्या दहशतज़दा और कभी न आनेवाली बारी के इंतजार में घुलता आदमी इतना संयत और संतवत दिख सकता है? इतना निर्देशकीय कौशल तो कामरान साहब किसी भी राह चलते आदमी से ले सकते थे कि डरे हुए आदमी कैसे दिखाया जाना चाहिए. पर हमारा यह फिल्मी मोहनदास तो इस दहशत के बीच भी सफ़ेद बुर्राक कुर्ता पहनना नही भूलता. इस मोहनदास पर कुपोषण का कोई असर नही पड़ा है. वह शुरू से लेकर आख़िर तक उतना ही गठीला क्यों दिखता है? फ़िल्म के

वह दृश्य याद कीजिये जिसमें मोहनदास के कमरे के आगे चैनल वाले दरवाज़ा खुलने के इंतज़ार में खड़े हैं. यहाँ माहौल कुछ इस तरह का बनाया गया है कि भीतर से एक थकी-हारी परेशान हडि़यल-सी काया नमूदार होगी पर मोहनदास इस भाव से निकलते हैं मानो अभी प्राणायाम और स्वाध्याय करके निपटे हैं. यही नहीं महिला पत्रकार मोहनदास के पीछे इस तरह डरते और सहमते हुए जाती है जैसे वह कोई बनैला पशु हो.

भीतर तो उससे कहीं ज़्यादा तनावग्रस्त चेहरा उस नकली मोहनदास का दिखता है जो असली मोहनदास के नाम पर ऐश कर रहा है. फ़िल्म के मोहनदास को देखकर दर्शक के मन में मुश्किल से ही सहानुभूति पैदा होती है जबकि कहानी में पाठक को बार बार रूलाई रोकनी पड़ती है. क्या फ़िल्म बनते ही कोई कहानी इतनी बेजान हो जाती है? मुझे लगता है कि कामरान "मोहनदास" कि मूल संवेदना तक पहुँच ही नही पाये. उन्हें बस शायद कुछ "हट के" बनाना था जिसके चक्कर में सब कुछ कूड़ा हो गया. मुझे नहीं पता कि किसी फिल्मकार को मूल कहानी के डिटेल्स को फ़िल्म में गूंथने में क्या-क्या दिक्कतें आती हैं. पर यारों अगर निर्देशक के पास वह सलाहियत नही थी तो इतना संवेदनशील काम हाथ में लेने के लिए किसने कहा था?
एक पल के लिए फ़िल्म को कहानी का विस्तार मानने के बजाय एक स्वायत्त रचना भी मान लें तो भी फ़िल्म के अहम किरदार किसी भी तरफ़ से जेन्यूइन नहीं लगते. शुरुआती शॉट में मोहनदास की माँ का पत्रकारों को लताड़ना गले नही उतरता. कोई दलित औरत जो ग़रीबी के साथ अपने इकलौते बेटे का दुःख भी ढो रही हो किसी ताक़तवर एजेंसी के साथ इस तरह पेश नहीं आ सकती. इस दृश्य में मेलोड्रामा भी इतना लाउड है कि खीज उठने लगती है.
ट्रीटमेंट के स्तर पर भी फ़िल्म में नाकाबिल-ए-बर्दाश्त झोल हैं. वह दृश्य याद कीजिये जिसमें मोहनदास के कमरे के आगे चैनल वाले दरवाज़ा खुलने के इंतज़ार में खड़े हैं. यहाँ माहौल कुछ इस तरह का बनाया गया है कि भीतर से एक थकी-हारी परेशान हडि़यल-सी काया नमूदार होगी पर मोहनदास इस भाव से निकलते हैं मानो अभी प्राणायाम और स्वाध्याय करके निपटे हैं. यही नहीं महिला पत्रकार मोहनदास के पीछे इस तरह डरते और सहमते हुए जाती है जैसे वह कोई बनैला पशु हो. मोहनदास के मामले में तो लगभग हर दृश्य में ऐसा लगता है जैसे वह अपने बारे में नहीं किसी दूसरे की तकलीफ़ बयां कर रहा है. अपनी पीड़ा के प्रति आदमी इतना परमहंस हो जाए तो न्याय-अन्याय का यह लफ़ड़ा ही ख़त्म हो जाए.
... थोडी खीझ कम हो तो और लिखूंगा.

Kasturi acts like a Gauri missile ...

राहुल पंडिता हमारी पीढ़ी के जाने-माने लेखक और पत्रकार हैं. आजतक, ज़ी न्यूज़, इंडियन एक्सप्रेस, संडे इंडियन समूह के साथ काम करते हुए इन्होंने हमेशा बेलौस और संजीदगी के साथ लिखा है. और राहुल के बारे में और ज़्यादा जानने के लिए टहलें सैनिटीसक्स पर. यहां पेश है फिल्म मोहनदास पर उनकी राय. हालांकि राहुल अच्छी हिन्दी लिखते हैं, पर मेरी नादानी की वजह से आपको उनकी राय अंग्रेजी में पढ़नी पड़ेगी क्योंकि मैंने उनसे उनकी राय मांगते वक्त हिन्दी में लिखने का जिक्र नहीं किया था. अनुवाद किया जा सकता था पर अंग्रेजी भी हमारे लिए अनजान नहीं है. तो पढ़े और अपनी राय भेजें.

For about a decade now, ever since I developed the sensibilities of appreciating good cinema, I have been wishing that filmmakers in India take care of minor details and make films which are based on reality and which do not only cater to the aspirations of a majority of filmgoers who have grown up on the staple diet of Karan Johar cinema.

Though, while leaving, I voted for the film, giving it five stars, that was more of an encouragement and support to a new filmmaker than getting overwhelmed by his debut film. Afterall, in which viillage in India does a husband touch the cheeks of his wife in front of the "janata-janardhan" and that too while it is raining?



In Swades, for instance, Ashutosh has taken care of the practical aspects of life. Shahrukh Khan, an engineer from NASA, though he loves the heroine, is not willing to leave his pending assignments and go on hugging his beloved after alighting from a running train. Since he has come on a short holiday, he is shown wearing the same set of clothes; continuity, you see, has been taken care of. He has done his research unlike Kunal Kohli, who in a film about a Kashmiri terrorist attributes the most famous quote on the valley by Jahangir to, if I remember correctly, Aurangzeb. Come on, Kunal, we begin reading that quote from 3rd standard onwards, thanks to insipid NCERT textbooks.

In Mohandas, which I saw recently, the director has tried to make a sincere film. But right from casting itself, something just doesn't feel right. Nakul Vaid, the actor, is a complete misfit in the role of a "Valmiki" boy whose only aim in life is to get a job after graduation. His wife, who only looks alright in a swimming pool (as long as she doesn't open her mouth) acts like a Gauri missile for the film. And just because she has three marks on her chin doesn't make her a village girl. As a journalist, Sonali Kulkarni, changes her shoes thrice during a short rural assignment. Show me one journalist, even if she is from a glamorous TV channel, who carries three pairs of shoes to Sonbadhra. The judge, who has been named after Muktibodh – well, I just didn't understand what the director expected out of that character.

The only consolation is the new artist, who plays the role of a TV stringer. He is brilliant. The lyrics of the songs are brilliant, but in the film, no justice has been done to them – both musically and visually.

Though, while leaving, I voted for the film, giving it five stars, that was more of an encouragement and support to a new filmmaker than getting overwhelmed by his debut film. Afterall, in which viillage in India does a husband touch the cheeks of his wife in front of the "janata-janardhan" and that too while it is raining?