हफ़्ताwar
11.8.08
कारगिल किधर है?
पिछली
मर्तबा
आपने
पढ़ा
आदर्श
बाबू
और
उनके
मित्र
की
मुलाक़ात
के
बारे
में
.
आगे
पढिए
जवाहर
के
ठीहे
से
लौटते
वक्त
पिछली
शाम
बाज़ार
में
अचानक
जब
आदर्श
बाबू
कारी
से
टकराए
तो
क्या
हुआ
...
कल शाम जवाहर के ठीहे से लौटते वक़्त जैन मंदिर के सामने सीढ़ियों पर आदर्श बाबु अचानक कारी से टकरा गए।
‘अरे कारीजी कहाँ थे इतने दिनों से। आपके बारे में पूछ-पूछ कर थक गया मैं।’
‘गाँव चले गए थे सर।’
‘ऐसे ही कि कोई काम-वाम था?’
‘नहीं, काम क्या, झुग्गी टूट गयी। एकदम से सड़क पर आ गए थे हमलोग. रहने-सहने का कोई इंतज़ामे नहीं था. इसलिए सोचे घरे से घुर आते हैं। आ घर जाने पर त जानबे करते हैं कि बहत्तर गो काम निकल जाता है।’
‘झुग्गी कब टूटी?’ पूछते हुए आदर्श बाबु की ललाट की रेखाएँ एक-दूसरे पर चढ़ने-उतरने लगी थी।
‘काहाँ हैं आप सर?’ आदर्श बाबु की ओर बड़ी हैरत भरी नज़रों से देखते हुए कारी ने कहा, ‘लगता है आप भी दिल्ली में नहीं हैं दु-तीन महीना से, यहाँ पूरा पुस्ता उजड़ गया और आपको पते नहीं है कि झुग्गी कब टूट गिया।’
पुस्ता सुनते ही लगा कि जैसे आदर्श बाबु की स्मृति पर किसी ने हथौड़े से वार कर दिया।
‘अच्छा, अच्छा अभी अप्रैल-मई में जो डेमोलिशन हुआ है उसी में आपकी भी झुग्गी टूटी है’ कहते हुए आदर्श बाबु के सामने आबाद यमुना पुस्ता की तस्वीरें घुमड़ने लगी।
दिसंबर 2003 का दूसरा इतवार। शनिचर को कारी के साथ तय प्रोग्राम के मुताबिक़ आदर्श बाबु यमुना पुस्ता पहुँच गए थे। वहाँ तक जाने के लिए कारी के बताए मुताबिक़ उन्होंने लाजपतराय मार्केट के सामने से ही रिक्शा लिया था। पुस्ते पर पहुँच कर जब वहाँ का नक़्शा उनके समझ में नहीं आ रहा था तब दो-तीन दुकानदारों से पूछने के बाद एक स्टूडियोनुमा दुकान में पहुँचे थे और टेबल के उस पार कुर्सी पर बिछे एक सज्जन से उन्होंने पूछा था, ‘कारगिल किधर है? मुझे मुंशी राम की झुग्गी में जाना है?’ चेहरे पर थोड़ी-थोड़ी भयावहता और काया पर ख़ूब सारा मोटापा लादे उस सज्जन ने आदर्श बाबु के वहाँ जाने की वजह, और उस व्यक्ति के बारे में जिससे उन्हें मिलना था, से मुतमईन हो जाने के बाद उस टेढ़े-मेढ़े रास्ते को थोड़ा सीध करके कुछ इस तरह बताया था, ‘यहाँ से बाहर निकलकर उल्टे हाथ पर चले जाओ, आगे जाकर एक हलवाई की दुकान आएगी, उससे तीन दुकान छोड़कर दाएँ हाथ पर मुड़ जाना, वहाँ से थोड़ा आगे बढ़ने पर कुछ बंगालियों का घर मिलेगा, मच्छी की बदबू आएगी तो ख़ुद ही समझ जाओगे। वहाँ से दो-चार क़दम आगे बढ़ोगे तो हनुमान मंदिर दिखायी देगा, हनुमान मंदिर के साथ वाले रस्ते के साथ-साथ सीधे चलते जाना। आगे जाकर एक मसजिद दिखायी देगा। उसके आगे चलते जाना, आख़िर में जो झुग्गी दिखेगी वही मुंशीराम की है।’
‘शुक्रिया भाई साहब’ कहकर रोड मैप को याद रखने की कोशिश करते हुए आदर्श बाबु बढने लगे थे मुंशीराम की झुग्गी की तरफ़। इसी बीच उनके दिमाग़ में बीते शाम कारी ने जो कारगिल समझाया था, वह घुमड़ने लगा। यानी अब वो एक साथ दो चीज़ों पर मथगुज्जन करते चले जा रहे थे।
हुआ यूँ था कि जिन दिनों सरहद पार के घुसपैठिए वर्फ से ढके कारगिल में घुस आए थे उन्हीं दिनों मौज़ूदा मुंशी राम की झुग्गी पर भी कुछ लोगों ने हमला बोल दिया था। इरादा यहाँ भी लगभग वही था। क़ब्ज़ाना। सरहद पार से आए घुसपैठिए तो ख़ैर नाकाम रहे अपने मक़सद में लेकिन झुग्गी मुंशीराम की हो गयी। हुई ही नहीं मुंशी राम ने उसे बेच भी दी। कारी ने भी क़रीब आठ-दस महीने पहले बारह हज़ार में झुग्गी ख़रीदी थी। साथ में लाजपतराय मार्केट में झल्लीगिरी करने वाले चार-पाँच ग्रामीण भी रहने लगे।
मसजिद के सामने से गुज़रते हुए हैंड पंप के पास खड़े अधनंगों की टोली से आदर्श बाबु ने ‘कारगिल किधर है? मुंशीराम की झुग्गी में जाना है’ पूछा था।
उनके इतना पूछने भर से हैंड पंप पर छा गए दो पल के सन्नाटे को तोड़ते हुए किसी मटमैले रंग की अमूल जाँघिए में जितना घुस सकता था उतना धर घुसाए उसी से मिलते-जुलते रंग वाले एक पिद्दी पहलवान ने कहा था, ‘यही है, क्या काम है?’
इस बीच बाएँ हाथ में सिर का ढक्कन थामे दायीं हाथ की दो उँगलियों से पसीना पोछ चुके आदर्श बाबु ने कहा था, ‘कारी जी, कारी यादव जी से मिलना है।’
इस पूछताछ के दौरान दो-चार क़दम दूरी पर इधर-उधर बिखरे लोग भी हैंडपंप को घेर चुके थे। शायद उन्हें यह लगा रहा था कि जवाब दे रहे बाँके जवान की हिम्मत बनाए रखने की ज़रूरत है, क्योंकि ऐसे हैट-पैट वाले से तो उनका सामना कम ही होता है या फिर बस्ती में तो ऐसे लोग नहीं ही दिखते हैं, या फिर क्या पता वह जवाब न दे पाए और ऐसे में उनमें से किसी की ज़रूरत आन पड़े। शायद इसीलिए तो दिल की भाषा को समझते हुए उसने अपने लोगों से पूछा था, ‘हये हो, कारी के छय? जानै छहौ?’
उधर से लुंगी में लिपटे किसी ने जवाबी सवाल दाग दिया था, ‘कहाँ क छय? पुछहि न रे।’
उस लड़के के पूछने से पहले ही आदर्श बाबु बोल पड़े थे, ‘सहरसा के हैं।’
‘बरगाही भाई! पूछहि न गाम-थाना के नाम, सहरसा के त सभ्भे छय।’
सुनते ही आदर्श बाबु ने पीठ से बैग उताकर घुटने पर टिका लिया और ऊपर वाली जेब में कुछ टटोलने लगे। शायद कारी का पता।
‘अरे हाँ, कारी ने बताया तो था अपने गाँव का नाम। लेकिन वो तो फील्ड नोट वाली डायरी में है’ सोचकर उन्होंने बड़ी वाली जेब से स्पायरल बाइंडिंग वाली लाल कॉपी निकाल ली। इतने में उसी घेरे में से किसी ने पूछा, ‘कहाँ काम करता है कारी यादव’।
आदर्श बाबु ने सिर उठाकर कहा था, ‘लाजपतराय मार्केट में झल्ली ढोते हैं’।
छुटते ही जवाब आया था, ‘आगे बढ़ जाओ, उ झुग्गी दिखायी दे रहा है न? उसमें खाली झल्लिएवाला रहता है। वहीं पूछ लेना।’
अपना बैग ठीक करते आदर्श अभी बतायी दिशा में दो क़दम भी नहीं बढ पाए थे कि पीछे से तरह-तरह की हँसी एक साथ फूट पड़ी थी। साथ में बहुत सारे बोल भी निकल रहे थे जिसमें सबसे साफ ढंग से वह इसी को सुन पाए थे, ‘बहिनचोद, गेलय करिया अब त। कहय रहिय साला के नेतागिरी में नय पड़। बहिनचोदा सुनबे नय करलय। मार्केट वाला सब भेजलकय हन एकरा! देखियही न गांयर फायर देतै सेठवा सब अब करिया क’!
आदर्श बाबु अब उस झुग्गी में या कहें कि झुग्गियों से घिरे एक छोटे से मैदान में पहुँच चुके थे। उसके बाद जहाँ तक वह देख पा रहे थे वहाँ तक केवल रेतीली ज़मीन और कहीं-कहीं उन पर जैसे-तैसे खड़ी झुलसी, कटीली झाड़ियाँ ही उन्हें दिख रही थी। कौई सौ मीटर की दूरी पर दो गाएँ भी ज़मीन पर इधर-उधर बचे-खुचे घास पर अपनी थुथनें रगड़ रही थीं और पूँछ उठाए तीन कुत्तों का एक झूंड भौंकता हुआ उन गायों की तरफ भागा चला जा रहा था। लग रहा था जैसे उन कुत्तों को सीमा रक्षा का ठेका मिला हुआ था।
झुग्गी-परिसर में दाख़िल होने पर आदर्श बाबु को सामने की तरफ कुछ नहीं दिखा था। मुआयने के अंदाज़ में जब उन्होंने अपनी गर्दन बायीं ओर मोड़ी थी तो एक बार फिर उन्हें ज़मीन में पाँव धंसाए हैंडपंप के दर्शन हुए थे, जो एक अजीब क़िस्म की आध्यामिक शांति से आच्छादित था। तीन तरफ से झुग्गियों से घिरे उस हैंड पंप पर पटरे पर बैठकर कपड़े पर साबून घिस रहे एक नौजवान के अलावा कोई नहीं था वहाँ। घुटने तक अंगोछा लपेटे उस गठीले नौजवान के गिले बालों को देखकर लग रहा था जैसे वह अभी-अभी नहाने के बाद अपने कच्छे की सफाई कर रहा था।
हैंडपंप की दायीं ओर ईंट के छोटे-छोटे टुकड़ों से घेर कर बनायी गयी एक क्यारी में दो मिर्च के, दो टमाटर के, तीन बैंगन के पौधे थे और उनके बीच पसरे धनिए के छोटे-छोटे पौधों की हरियाली यह एहसास करा रही थी जैसे अभी-अभी उस नौजवान ने कोई चादर धेकर सुखने के लिए फैला दिया था। हैंडपंप और क्यारी के बीच एक टीन के बड़े से डिब्बे में जिसकी बाहरी दीवार पर आदर्श बाबु ‘विशुद्ध सरसों का तेल’ पढ़ पाए थे, तुलसीदासजी खड़े थे जिनके चरण के पास दो-चार सींकें थीं जो यह बता रही थी कि कभी ये पूरी अगरबत्तियाँ रही होंगी। एक मिट्टी का दीप भी रखा था वहाँ जिसे देखकर ऐसा लग रहा था शायद कल शाम ही इसमें बत्ती डाली गयी थी।
मुआयना जारी था। आदर्श बाबु ने देखा था कि सामने वाली झुग्गी में दरवाज़े की जगह लटक रहे चट्टी का पर्दा रह-रह हवा के झोंके में हिल जाया करती थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह कभी-कभी ख़ूब ज़ोर से उधिया जाना चाहती थी लेकिन उसका भारी वज़न उसे ऐसा करने से बार-बार रोक देती थी। इसी बीच झुग्गी के अन्दर से ही एक हाथ ने बढकर उसको एक ओर समेट दिया था और अंगड़ाई लेने के साथ दोनों हाथ सीधा करती एक महिला निकलकर बाहर आ चुकी थी। उसके चेहरे पर ख़ुशी, थकावट, संतुष्टि, नींद, तृप्ति और बेचैनी का एक अजीब-सा मिश्रित भाव था। उसके पाँव बाँयी दिशा में बढ चुके थे लेकिन शायद एक बार इधर-उधर देखकर निश्चिंत हो जाने के लिए उसने अपनी गर्दन दायीं ओर मोड़ दी थी। सामने खड़े एक अजनबी को देखकर पल भर के लिए वह ठिठकी थी और फिर जैसे उसे कुछ याद आ गया था। उसका बायां हाथ पीठ की तरफ गया था और लगभग खो चुके आँचल को ढूंढकर दाएँ हाथ को सुपूर्द कर दिया था। दोनों हाथों से आँचल को सिर पर खींच लेने के बाद उसने अपनी बायीं हथेली को आँचल से ढके सिर पर लगभग चिपका-सा दिया था। शायद वह निश्चिंत हो जाना चाह रही थी कि फिर न कहीं खो जाए उसका आँचल। अब उसके क़दम आदर्श बाबु की ओर बढ़ने लगे थे और आदर्श बाबु की छोटी आँखों की जोड़ी उसके चेहरे को एक टक निहारे जा रही थी। बायीं हथेली और सिर के बीच आँचल दबाए उस महिला और आदर्श बाबु के बीच मात्र तीन-चार क़दम की दूरी रह गयी थी। इस बीच आदर्श बाबु की आँखें उसके चेहरे से उतर कर गर्दन पार करती हुई पेट के ऊपर के अवरोध्क जैसे उठान पर आकर रूक गयी थी। अभी आदर्श बाबु की आँखें वहाँ से हिली भी नहीं थीं कि महिला ने हैंडपंप के नीचे बैठे लड़के से कहा,
‘हे रे केकरा खोजय छय इ?’
लड़के ने कहा ‘के?’
‘आन्हर छे?’ महिला के चेहरे पर झल्लाहट थी।
उस लड़के ने एक बार फिर अपने अंगोछे की गाँठ ठीक की थी और आदर्श बाबु की आँखों में आँखें डालकर पूछा था, ‘किससे मिलना है आपको’?
‘कारीजी से, कारी यादव जी जो लाजपतराय मार्केट में झल्ली ढोते हैं’ कहते हुए आदर्श बाबु जरा सहज दिखना चाह रहे थे।
लड़के ने कहा था, ‘वो तो नहीं हैं, कहीं गए हुए हैं’।
‘लेकिन उन्होंने तो मुझे आज बुलाया था’ कहा था आदर्श बाबु ने।
‘काम क्या है बताइए न?’ पूछा था उस लड़के ने।
‘कुछ नहीं, उनसे कुछ बातचीत करनी थी’ कहकर आदर्श बाबु किसी उधेड़बून में पड़ गए थे। शायद उन्हें यह लगने लगा था कि कारी से एक्सक्लुसिव बातचीत का उनका यह वेलथॉट प्लान आज फेल होने वाला है। इसी बीच तीसरे कोण पड़ खड़ी महिला ने दूसरे कोण पर यानी आदर्श बाबु के सामने खड़े उस लड़के से पूछा था - ‘बुझैलौ रे, किय आयल छय इ?’
जब तक वह लड़का जवाब दे पाता तब तक महिला ने एक और शंका व्यक्त कर दी थी, ‘हे रे, कथि के लिखा पढ़ी करै छय?’ शायद आदर्श बाबु के हाथ में पड़ी नोटबुक को देखकर उसके मन में यह सवाल आया था।
यह सोचकर कि शायद उनके वहाँ आने की वजह वह लड़का ठीक से नहीं समझा पाएगा, आदर्श बाबु ने एक बार फिर से अपने आने की वजह को साफ-साफ उनके सामने रख दिया था। इसके बावजूद न तो वह महिला और न ही अंगौछे में लिपटा वह लड़का आदर्श बाबु के वहाँ होने की वजह को समझ पाए थे। आदर्श बाबु ने सोचा था, चलो कोई बात नहीं, कारी न सही शिवन तो होगा, शिवन नहीं होगा तो वो क्या नाम है उसका 232 नंबर बिल्ला वाले का- रामखिलावन! वो तो होगा। हर किसी से तो अच्छी जान-पहचान है। इनमें से कोई भी मिल जाए तो बात बन जाएगी। मन ही मन इस पर विचार करते हुए आदर्श बाबु ने पूछ दिया था उस लड़के से इन सबके बारे में। आदर्श बाबु के मुँह से इन लोगों का नाम सुनकर जैसे उसे आदर्श बाबु पर एक क़िस्म का भरोसा होने लगा था। वह इस बात से निश्चिंत हो गया था कि सामने खड़े इंसान से बातचीत की जा सकती है।
‘इस समय खाली शिवने है इहाँ, बाकी सब कहीं गिया हुआ है’ कहकर उसने सामने वाली झुग्गी की तरफ इशारा करते हुए बताया था, ‘इसके पीछे जो झुग्गी है न उसी में उ लोग रहता है। जाके देख लीजिए।’ आदर्श बाबु से निबटकर वह अपने सामने खड़ी महिला से मुख़ातिब हुआ था, ‘हे गे त्वें कि जानबहि इ जायन क, आयल त छय कारी दादा आर से भेंट करे। जो न अप्पन काम कइर ग न।’
झुग्गी के फाटक पर आदर्श बाबु की थपकी के जवाब में आवाज़ आयी थी-
‘के छय रे? आएब जो।’
‘मैं हूँ’ कहकर आदर्श बाबु फाटक के ओट पर खड़े हो गए थे।
अगले ही पल फाटक खुला और एक बच्चा बाँस की छोटी चैखट से अपने सिर को बचाते हुए बाहर निकला था। इससे पहले कि बच्चा कुछ पूछ पाता, आदर्श बाबु ने कहा था,
‘शिवनजी छथिन।’
आदर्श बाबु को जवाब देने बजाय उसने पीछे मुड़कर कहा था,
‘हय हो कक्का तोरा पुछै छौ हो।’
ज़मीन से उठकर ‘कक्का’ अपनी लुंगी सरियाते हुए फाटक खोल चुके थे। ‘आरे, आप हैं सर। आइए, आइए। भीतर आइए ...।’
No comments:
Post a Comment
Newer Post
Older Post
Home
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment