17.10.07

मोबाइल फ़ोन के लिए कसरत


सात बज रहे होंगे. मैं दातून की तलाश में लल्ला (चचेरे चाचा) की घर की तरफ़ जा रहा था. तभी अचानक ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ आने लगी, ‘जोर से बोलिए न ... नहीं सुनाई दे रहा है आपका आवाज ... बोलिए न ... जोर से बोलिए न ...’ मैं इधर उधर ताकता रहा लेकिन मुझे पता नहीं चल पाया कि आवाज़ किधर से आ रही है. मैं अब लल्ला के घर की मुहार पर था. फिर एक बार वैसी ही आवाज़ आयी. मैं दो क़दम पीछे आया. देखा, रामदेव बाबा की छत पर कोई लड़का कान से सेलफ़ोन चिपकाए तेज़ क़दमों से इधर से उधर कर रहा था.

मैंने लल्ला के आंगन में मिनी जो लल्ला के बड़े भाई की पोती है, मेरी भतीजी लगती है – से कहा, ‘मिनी ए गो दतुअन दे न’. उसने हंसते हुए कहा, ‘जा, कहां है दतुअन! हम स त बरस से मुंह धोई छी.’ ‘जा, गांव में रहके तु स दतुअन न रखई छे. केहन बुड़बक छे गे हे’ कहकर मैं आंगन से निकलने लगा. तभी आंगन में घुसते हुए कान में जो आवाज़ आयी थी उसके बारे में मैंने मिनी से पूछ लिया. ‘काहे अतेक ज़ोर-ज़ोर से बोलइत रहलई ह ओई छत पर से कोनो?’ मिनी ने बताया, ‘फ़ोन पर न बतियाइत रहलई ह. न नु न मिलइत रहई छई फ़ोन. नेटबर्के न पकड़ईत रहई छई हालि.’ ‘ओ’ कहकर जाइए औरो केकरो घरे दतुअन खोजे कहकर मैं वहां से निकल पड़ा. ख़ैर, मुझे प्रभु बाबा के घर में जुलुम सिंह की मां से एक दातून मिली. उनसे दो-चार बातें करके मैं अपने दरवाज़े की ओर वापस आ गया. पर फ़ोन वाली बात रह-रह कर मेरे दिमाग़ में आती रही.

मेरे चचेरे भाई ने बताया कि मोबाइल पर बात करने के लिए गांव में बहुत कसरत करनी पड़ती है. उसने अपना ही उदाहरण दिया और कहा कि उसने अपने मोबाइल को कोने वाले कमरे में एक ख़ास स्थान पर रख दिया है. जब भी घंटी बजती है तो वहीं जाकर बात करते हैं उसके घरवाले. उसने यह भी बताया कि बात भी ख़ास ऐंगल से कान को गर्दन को मोड़कर ही करनी पड़ती है, अन्यथा बीच में ही फ़ोन कट जाता है. उसने बताया कि एक बार उसके मोबाइल की घंटी ख़राब हो गयी, यानि फ़ोन आने पर घंटी नहीं बजती थी. तब उसे फ़ोन सुनने के लिए ख़ास इंतजान करना पड़ा था. ‘एक थाली में पतली पेंदी वाली कटोरी उल्टा करके रखा और फिर कटोरी की पेंदी पर फ़ोन. फ़ोन का वायब्रेटर ऑन कर दिया. होता ये था कि जब भी कोई कॉल आता था तो वाइब्रेटर की वजह से कांप-वांप के फ़ोन कटोरी पर से नीचे थाली में गिर जाता था, फिर झनाक से आवाज़ आती थी और जो भी आंगन में होता था वो आके फ़ोन रिसीव कर लेता था. जब तक घंटी ठीक नहीं हुआ तब तक ऐसे ही चला.’

एक रात मेरे फ़ोन की घंटी बजी. देखा, बाबु लिखा आ रहा था. सुनने के लिए कुंजी दबाया और हेलो, हेलो करने लगा. अंदर कमरे में चाचा सो रहे थे. शायद हेलो, हेलो से आंख खुल गयी होगी. बोल पड़े, ‘बाहर चल न जो’ न त छत पर चल जो, उहां साफ़-साफ़ सुनाई देतउ अवाज.

अगले दिन मिनी के घर गया. पीढ़ा पर बैठा ही था कि निगाह छप्पड़ के अगले सिरे से टंगी सेलफ़ोन पर गयी. पूछा तो बताया उसने, ‘कखनियो घंटी बजई छई त सुनाई पड़ जाई छई आ अई तर नेटबर्को ठीक पकड़ई छई. ’

4 comments:

  1. गजब साईन्टिफिक तरीका इजाद किया कटोरी वाला. सही कहा गया है कि आवश्यक्ता ही अविष्कार की जननी है. मजा आया मोबाईल गाथा पढ़कर. दातून की और याद दिला दी. जमाना गुजरा बरस से घीसते घीसते. :)

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  2. शुक्रिया समीरभाई


    ऐसे ही आते रहिए. बहुत सी चीज़ें हैं शेयर करने के लिए.

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  3. कटोरी वाले कॉन्सेप्ट से तो मुझे विश्वास होने लगा है कि अगर गांव वाले थोड़ी मेहनत करें तो फुलनेटवर्क वाला मोबाइल ईजाद कर सकते हैं,वैसे छप्पर पर लटके मोबाइल को देखकर गांव की याद आ गयी। सही में गांव के लोग चीजों का अपने ढ़ंग से इस्तेमाल करते हैं ,उनका अपना समाजशास्त्र होता है।

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  4. Rakeshji,

    sach me maza aaya padkar aur apni nani
    ke gaon ki yaad bhi. achha likha he

    chandra

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