15 अक्टूबर 07
ये है जी पटना रेलवे जंक्शन के आसपास का. हुआ यूं कि मैं अपने एक मित्र से मिलकर बेली रोड से वापस रिक्शे से आ रहा था. रिक्शावाले ने कहीं बीच से निकाल लिया. यानी ये रास्ता वो वाला नहीं था जिधर से मैं बेली रोड गया था. न इन्कम टैक्स गोलम्बर आया, न मंडल और न ही वीमेंस कॉलेज ... हां तो मैं कह रहा था कि रिक्शावाले ने कहीं बीच से निकाल लिया. मुझे जब ये एहसास हुआ कि ऐसा कुछा हुआ है तो मैंने उनसे पूछा. उन्होंने कहा, ‘आरे सर, सौटकट ले लिए हैं. जल्दी पहुंच जाइएगा अन्ने माहे, वोइसे भी हमलोग का सब दिन का काम है न इ. कुछो गड़बड़ नहीं होगा.’ मैंने कहा, ‘वो तो ठीक है लेकिन हमको किसी मार्केट जैसी जगह के बगल से निकलना था, जहां खाने-पीने की दुकान हो.’ ‘त पहिले बताते न! आच्छा चलिए आगे मिलेगा खाने-पीने का दोकान’ कहकर वह पैडल मारता रहा. बिल्कुल अंधेरा तो नहीं लेकिन अनजान जगह के हिसाब से खलने वाला ज़रूर था. पर जब रास्ते में जब कुछ मंत्रियों के घर और विधान सभा तथा विधान परिषद के स्टाफ़ क्वार्टर्स दिखे तब तसल्ली हुर्इ.
कहां तो पटना जंक्शन के आसपास का एक अनुभव बांट रहा था और कहां मैं रिक्शायात्रा का वर्णन करने लगा. हां तो लौटा जाए जंक्शन के आसपास. पर रिक्शे से ही तो आना है. रिक्शे की गति से ही तो पहुंचना हो पाएगा. मैं रिक्शा पर बैठे-बैठे सड़क पर इधर-उधर खाने और ‘पीने’ के ठिकाने तलाश रहा था. ढंग का एक भी नज़र नहीं आया, रिक्शा ज़रूर हनुमान मंदिर के आसपास पहुंच चुका था. मैंने रिक्शा चालक से कहा, ‘अभी स्टेशन मत ले चलिए, समय है गाड़ी में.’ अब खाने-‘पीने’ के बजाय मेरी दिलचस्पी केवल ‘पीने’ में रह गयी थी. इशारे से पूछा, ‘किधर है पीने की दुकान’. उन्होंने मुंह और संकेत के सहारे दायीं तरफ़ गली में बताया. मैंने कहा, ‘वहीं ले चलिए रिक्शा.’ एक दुकान के सामने पहुंचकर उन्होंने रिक्शा रोक दिया और अपने आप ही बोलने लगे, ‘का जाने काहे बंद किया है दोकनिया आज?’ तब तक अगल-बगल खड़े, बैठे, पसरे हुओं में से किसी ने कहा, ‘ईद है न आज, एही ला बंद है दोकान. ओन्ने चले जाइए ओ गलिया में. पान दोकान के बग़ल में मिल जाएगा. जे चाहिएगा उहे मिल जाएगा.’
गज़ब! एक बंद दुकान के बाहर चहलकदमी करते कुछ लोग. कुछ लोग आसपास फ़ुटपाथ पर लकड़ी से घिरे स्थान में रखे बेंचों पर विविध रंगों वाले पानी के साथ इत्मीनान से बैठे थे. कहीं से आवाज़ आयी, ‘कउ ची चाहिए?’ मैंने अपनी ज़रूरत बतायी और प्रश्नवाचक के हाथ में सौ का एक नोट थमाया.’ नोट को पुन: मेरी हथेली पर रखते हुए उसने इशारे से वो जगह बता दी जहां ये देकर कुछ लेना था. 8x8 इंच से आसपास के एक छिद्र से समस्त कार्रवाई संचालित की जा रही थी. अंदर बल्व की पीली रौशनी में एक व्यक्ति ये काम कर रहे थे. औरों की तरह मैंने भी उनसे अपनी ज़रूरत बतायी, पैसे दिए. चंद सेकेंड में चेहरे पर दिव्य मुस्कान और उससे भी ज़्यादा हृदय ने एक विशेष प्रकार की संतुष्टि का एहसास किया. यहां दिल्ली में तो ड्राई डे वाले दिन आजकल बहुत दिक़्क़त होने लगी है. पहले मजनूं का टीला में आसानी से मिल जाता था पर अब तो घर-घर पूछना पड़ता है. मिलता भी है तो दूनी क़ीमत अदा करने पर और फिर भी ‘माल’ की असलीयत पर संदेह बना ही रहता है. उस छिद्र से तो केवल 3 रुपए अतिरिक्त पर ही तरल मिल गया था और कहें तो ‘एक नंबर’!
ए भइया त नीतीशो बाबू के राज में भी एही सब चल रहा है। असल बात है कि उनखों डर है कि पियक्कड लोगन के भोट न कट जाई। पोलटिस जे न करावे।...
ReplyDeleteभाई जान शुक्रिया माने निकालने के लिए.
ReplyDeleteएक्के गो बात कहना है कि अबहियो दुनिया अगर चल रहा है एतना भ्रष्ट और छल-प्रपंच के बीच त जान जाइए कि कुछ न कुछ त है जे ए में महत्त्वपूर्ण रोल अदा कर रहा है. हमरा विचार से उ है आस्था और रास्ता. हमर दारू पर आस्था था, एहिला रास्ता भी निकला.
सब जगह यही हाल है भाई!!
ReplyDelete"जुगाड़ ही ज़िंदगी है"
rakesh bhai, tariyani wala kahani logo ko kyon nahi sunate ho? jahan tak abhi bihar ki baat hai to kuan hi pyase ke paasm aane ki taiyari kar raha hai ..... the new exice policy 2007 ... ke jariye... namaskar....
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