8.11.07

बिदुरजी नहीं रहे

परसो रात माताजी से फ़ोन पर बातचीत हुई. हालचाल के शुरूआती आदान-प्रदान के बाद उन्होंने बताया कि उनके पैर में एक गांठ बन गयी है, मेरी छोटी मामीजी के साथ वो पटना में किसी डॉक्टर दिखवाकर आयीं हैं. एक महीने बाद फिर बुलाया है.


जानकर राहत मिली. पिताजी के बारे में पूछने पर पता चला कि आजकल गांव में धान की कटाई और तैयारी का काम चल रहा है. उन्होंने ये भी बताया कि खेतों में अब भी पानी है. समय लगेगा और शायद अगले फसल के लिए दिक़्क़त होगी. फ़ोन रखते-रखते माताजी ने बताया कि चनेसर का (चन्देश्वर काका) नहीं रहे, और फिर एकदम से ख़ामोश हो गयीं.


चनेसर का, मेरे लिए चनेसर बाबा हमेशा एक रहस्य रहे. उनकी उम्र मेरे ख़याल से अस्सी के आसपास रही होगी. हो सकता है ज़्यादा भी. छुटपन की स्मृति कहती है कि मैंने सबसे पहले उन्हें ही साइकिल चलाते देखा था. वही मेरे लिए सबसे पहले साइकिल-सवार थे. मेरे गांव में किसानों के घर और बथान/डेरा/घेर में कम से कम से दो किलोमीटर की दूरी थी, कुछ का बथान तो तीन किलोमीटर से भी ज़्यादा दूर था. जैसे हिटलर साहब का. हिटलर साहब, असली नाम तपेश्वर सिंह, रिश्ते में मेरे बाबा लगते थे. कुछ साल पहले वो भी गुज़र गए. एक बार कभी अपनी ज़वानी के दिनों में वे गांव के सरपंच चुने गए थे. उस ज़माने में ग्राम कचहरी का बड़ा रूतबा था. बात-बात में लोगों को न्याय मिलता था. तपेश्वर बाबा के उस त्वरित न्याय-प्रणाली के कारण ही गांव के कुछ लोगों ने उनको हिटलर के खिताब से नवाज़ दिया था, जो आगे चलकर उनके नाम को एक किस्म से स्थानापन्न ही कर दिया. तो हिटलर साहब की हालत तो ऐसी थी कि उनके परिवार में डेरा पर रहने की ड्यटी बांट-सी दी गयी थी कि कौन किस समय डेरा पर जाएगा.


असल में डेरा और घर का एक बेहद जीवन्त और असरदार संबंध हुआ करता था उस ज़माने में. खेती-बाड़ी का सारा काम डेरे के आसपास हुआ करता था, क्योंकि ज़्यादातर खेत-पथार उधर ही थे. माल-मवेशी भी डेरे पर ही. पर कटाई-पिटाई, दौनी-ओसाई के बाद तैयार अनाज घर पहुंचा दिए जाते थे. अब अनाज पर परिवार की बुजुर्ग महिलाओं का स्वामित्व होता था. स्वामित्व इसलिए कि असली मिल्कियत तो डेरा पर बैठे मर्दों की होती थी. डेरा और उसके आसपास खेती संबंधी काम के बाद बन/मज़दूरी के लिए कामगार को एक पर्ची दे दी जाती थी, जो आमतौर पर मेरे परिवार में चाचा देते थे, जिस पर लिखा होता था बन की संख्‍या और बदले में दिए जाने वाले अनाज का वज़न, जैसे तीन बन, 3x3, कुल 9 किलो अनाज. अब उस पर्ची को दादी किसी बच्चे से या फिर आंगन में मेरी मां से पढ़वाती थी और फिर उस कामगार की मज़दूरी तौली जाती थी. अनाज तौलने का काम आम तौर पर वो मज़दूर करता था जिसे मज़दूरी लेनी होती थी.


हम बच्चे तब बेढ़ी/ठेक में कूदने के लिए बेचैन रहते थे. बेढ़ी/ठेक बांस के पतले-पतले फट्ठे से बुना गया एक बड़ा-सा घेरा होता था, जिस पर मिट्टी और गोबर का लेप होता था और उपर छतरीनुमा एक छप्पड़ भी. ईंटों से जुड़ी नींव पर रखे इस घेरे में सामने की तरफ़ एक छोटी सी खिड़की होती थी. कई-कई क्विंटल अनाज उस ठेक में आ जाते थे. जब घर की कोठियों में अनाज समाप्त हो जाता था तब दादी किसी बड़े आदमी से खिड़की का ताला खुलवा देती थी और आसपास चक्कर लगा रहे किसी बच्चे को उसके अंदर घुसकर अनाज निकालने के लिए कहती थीं. बहुत मज़ा आता था अनाज के उस कमरे में. बहुत मजा! तो ये घर और डेरे के संबंध और उन संबंधों के चलने-चलाने के बहुतेरे तरीक़ों में से एक की बानगी थी. कमोबेश हर खेतीहर परिवार में ये होता था.


हर किसान परिवार का कोई न कोई पुरुष रात को डेरे पर ज़रूर रहता था. शायद यह एक अनकहा नियम ही था. अगली सुबह वही आदमी दूध, सब्जी, जलावन, फल इत्यादि लेकर गांव (गांव में घर को गांव ही संबोधित करते हैं लोग आज भी) पहुंचता था. कुछ मामलों में ढुलाई का यह काम चरवाहा भी करता था. चरवाहे अमुमन डेरे के आसपास के दलित परिवारों के बच्चे होते थे. इक्के-दुक्के बच्चियां भी चरवाही का काम करती थीं. हमारे परिवार के लिए ये काम मेरी याद्दाश्त में चिकरना (कैलाश राम), और नथुनिया यानी नथुनी राम ने किया. ये चरवाहे सिर पर बड़ी-सी टोकरी में दूध का डोल और थोड़ी-बहुत सब्ज़ी लेकर हवेली (किसानों के घर को जन-मज़दूर हवेली कहा करते थे) पहुंचते थे. टोकरी उतारने के बाद चरवाहे हाथ-मुंह धोकर आते थे और साथ में केले का पत्ता भी लाते थे, जिस पर आम तौर पर रात की बची-खुची रोटी और सब्ज़ी रख दी जाती थी. बहुत कम ही परिवार थे जो ताज़ा खाना खिलाते थे चरवाहे को. मेरी चचेरी दादी तो अकसर बासी भोजन ही चरवाहे के पत्ते पर रख देती थीं. इक्के-दुक्के परिवारों में आज भी यही प्रैक्टिस जारी है. मैं जब भी ऐसा देखता हूं, बड़ी पीड़ा होती है मुझे, गुस्सा भी आता है. कभी-कभी लगता है नादानी में कितने अपराधों का हिस्सा रहा हूं मैं!


हां तो मैंने जिस साइकिल सवार को सबसे पहले जाना, वे 20-22 बरस पहले भी मुझे ज़्यादा उम्र के लगते थे. तब उनके घर में उनके अलावा उनकी एक बहन जो शादी के कुछ सालों बाद अपने ससुराल से वापस आ गयीं और फिर कभी लौटी ही नहीं, पिछले कुछ सालों से उनकी मानसिक स्थिति भी ख़राब रहने लगी है, रहती थीं, सफ़ेद बालों वाली उनकी मां और बेहद सुन्दर और शांत स्वभाव की उनकी पत्नी रहती थीं. उनकी पत्नी जिनको हमलोग फुआजी पुकारते हैं, उम्र में चनेसर बाबा से आधी या आधी से थोड़ी कम थीं. चनेसर बाबा के छोटे भाई केदार बाबा जो बड़काकाना, हज़ारीबाग में सीसीएल में फ़ौरमैन थे, वहीं परिवार समेत रहते थे. उनको रिटायर हुए भी 6-7 बरस हो गए होंगे, अब भी बड़का काना में ही रहते हैं. घर-परिवार के बड़े-बूढ़ों से सुना है कि चनेसर बाबा के परिवार में खेत-पथार कम था. वे ज़्यादा पढे-लिखे भी नहीं थे. केदार बाबा लगनशील और मेहनती थे. आज भी बड़े कर्मठ लगते हैं मुझे. मुज़फ़्फ़रपुर से आईटीआई का कोर्स कर लिया था किसी तरह, जिसकी वजह से उन्हें तब झारखंड के जंगल में नौकरी मिल गयी थी. वहां उन्होंने नौकरी के अलावा एक दुकान भी शुरू कर दी थी जिसको चलाने के लिए वे अपने रिश्‍तेदारों को साथ ले जाते थे या बुलवा लेते थे. बाद में चनेसर बाबा का बड़ा बेटा यानि केदार बाबा का बड़ा भतीजा बिट्टु जो मुझसे 4-5 साल छोटा होगा, दुकान चलाने के लिए बड़काकाना गया और वहीं रह गया. सुनते हैं अब वो दुकान बिट्टु की ही है.


नौकरी लगने के बाद केदार बाबा की शादी हो गयी. उनका ससुराल और मेरा ननिहाल एक ही गांव में है. मुज़फ़्फ़रपुर और दरभंगा जिले के सीमांत गांव पिपरा में. बचपन से सुनते आ रहा हूं कि अपनी शादी के कुछ सालों बाद केदार बाबा ने अपने ही ससुराल में बड़े भाई यानि चनेसर बाबा की शादी के लिए एक लड़की का इंतजाम किया. लड़की मेहनती थी, शायद ग़रीब थे मां-बाप. लगभग दो गुने उम्र के दुल्हे के साथ अपनी लड़की ब्याहने के लिए वे राजी हो गए. चनेसर बाबा को दो बेटे हैं. बिट्टू बड़काकाना में दुकानदारी करता है और छोटा जुगनू गांव में ही रहकर खेतीबाड़ी करता है और परिवार की देखभाल भी.


चनेसर बाबा बहुत मेहनती थे. जवानी के दिनों में कई हाथों का काम उनके दो हाथ करते थे और बहुतेरे पावों के काम में उनकी साइकिल के दो पहिए उनकी दोनों पैरों की मदद करते थे. खेती से जो भी धान, गेहूं, दलहन, तिलहन इत्यादि उपजता था, उनमें से अच्छे-अच्छे अनाज वे बड़का काना पहुंचा देते थे या फिर वहां के लिए बचा कर रखवा देते थे कि केदार के भेज दिअहु. कुछ साल पहले केदार बाबा ने डेरे पर ही घर बनवाया था. चनेसर बाबा परिवार समेत वहीं रहते थे.


हर गांव में होती है, या किसी-किसी गांव में नहीं होती होगी, मेरे गांव में एक ख़ास परंपरा है, चाल और चेहरे के अनुरूप कुछ लोगों को उपाधियां दी जाती थीं. हिटलर साहब तो थे ही बिदुरजी भी थे. हमारे चनेसर बाबा को बिदुरजी का खिताब मिला था. अबकी जाउंगा तो पता करूंगा किन विशेषताओं के कारण चनेसर बाबा बिदुरजी कहे जाते थे.बिदुरजी के नहीं रहने से डेरा पर रात बिताने की परंपरा को भारी नुक़सान हुआ है.

4 comments:

  1. kaffi accha likha hai aapne,apne gawn ke bare me ,,,aur woh aapke gawn ke kuch kirdar ke naam ..
    "HITLER","BIDUR" they r Intresting...
    Good Work ....Keep writing..waiting for your articles..always

    ReplyDelete
  2. अपनी तरफ एक कहावत है, सारी खुदाई एक तरफ और जोरु का भाई एक तरफ। सारी दुनिया मार मॉल और मल्टीप्लेक्स में विचर रही है और आप हैं कि बार-बार दिल्ली में रहकर भी गांव ठेले जा रहे हैं। इरादा बहुत खतरनाक है सरजी। कहीं आप भी हिन्दूवादी कट्टर पार्टियों की तरह देश की जनता को ग्रामीण जनता में कन्वर्ट कर देने के चक्कर में तो नहीं हैं।

    ReplyDelete
  3. चनेसर बाबा की आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करते हैं. बहुत शिद्दत से आपने उनके साथ पूरे गाँव के दिन याद किये. पढ़कर लगता रहा मैं भी आप संग डेरा पर, फिर डेरा से गाँव..घूम रहा हूँ. जीवंत चित्रण है, राकेश भाई.

    जब भी आपको पढ़ो, आनन्द आ जाता है.

    आप एवं आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  4. मित्रों उम्मीद है आपकी दिवाली अच्छी रही होगी. मैं दो-तीन दिनों के लिए इस जालीय दुनिया से बाहर था इसलिए समय पर आपसे रू-ब-रू नहीं हो पाया.

    बिल्कुल अमर भाई, समय-समय पर मैं लिखता रहूंगा अपने गांव-समाज के बारे में. मेरी कोशिश है कि इस चमक-दमक भरी दुनिया में जो चीज़ें छूट रही हैं या छोड़ दी जा रही हैं उन्हें आपके सामने लाउं. शहरों पर भी लिखुंगा.

    विनीत भाई, डरिये मत. हिन्दूवादी कट्टर पार्टियां देश की जनता को ग्रामीण जनता नहीं पुरातन जनता बनाना चाह रही हैं. विवेकहीन और अंधविश्वासी बनाना चाह रही है ताकि पाखंड और आडंबर पर वे अपनी सत्ता पर खड़ा कर सकें. आगे कभी बताउंगा कि कैसे कई मौकों पर ऐसी कोशिशों का हमारी ग्रामीण जनता ने मुंहतोड़ ज़वाब दिया.

    समीर भाई आपसे बड़ी प्रेरणा मिलती है. आपकी बातें हमें बार-बार विषय चयन और लेखन में हमारी मदद करते हैं. शुक्रिया आपका. मार्गदर्शन करते रहिएगा.

    ReplyDelete