मैं बाकलनी में दरी पर बैठे अख़बार चाट रहा था. इतवार को मैं बड़ी तबीयत से अखबार चाटता हूं, बाक़ी दिनों में तो जैसे-तैसे नज़र भर मार लेने का भी समय निकालना पड़ता है. दसवीं के इम्तहान के दौरान पिताजी ने पुरज़ोर कोशिश की कि बेटा चार बजे भोर में उठकर पढ़ ले, रिवाइज़ कर ले. बेटा सोता ही था बारह-एक बजे, तो भोर में उठ कैसे जाता! पिटाई-उटाई होती रही पर बेटे ने अपना नियम-भंग नहीं किया. जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गयी, सोने-जगने के समय में देरी बढ़ती गयी. पिता जिस आदत को सुधार नहीं पाए, बेटी ने काफ़ी हद तक सुधार दिया उसे.
ग़रज ये कि अब सात-साढ़े बजे तक उठ जाना पड़ता है. कुल जमा तीन जने हैं परिवार में. 31 महीने की बिटिया, 30 साल की बीवी और चौंतीस की दहलीज़ पर क़दम रखने वाला मैं. नगरी लहज़े में कहें तो तीनों कामकाजी हैं. बीवी कचहरी जाती है. सात बजे से ही उनके फ़ोन की घंटी बजने लगती है. कभी किसी क्लायंट का फ़ोन तो कभी किसी का. साथ में रसोई में गैस पर सब्ज़ी-रोटी का नितांत ज़रूरी काम (इमानदारी से बता रहा हूं कि अब ये काम लगभग पूरी तरह से उन्हीं के जिम्मे है. कभी-कभार एक्सपेरिमेंटल रोल ही रह गया है मेरा, या यूं कहें कि मैंने पल्ला झाड़ लिया है.) और साथ में शांतिजी को बीच-बीच में यह निर्देश कि बर्तन में चिकनाई या साबुन रह न जाए. उधर किलकारी मैडम आठ बजे के आसपास आंख खोलते ही ‘बेड-मिल्क’ की फ़रामइश रखती हैं. मैं अगर रसोई की तरफ़ चल भी पडूं तो उन्हें बड़ी दिक़्क़त हो जाती है, चालू हो जाती हैं अपना ताल-पैंतरा लेकर. इसलिए सुबह-सुबह तो उनसे डर के ही रहना पड़ता है. दूध ख़त्म करते ही बोलती हैं, ‘कारी (किलकारी) को तैयार कर दो. देर हो रही है. आफिस जाएगी कारी. जल्दी तैयार कर दो न पापा. (पापा की जगह मम्मी संबोधन भी हो सकता है).’ दरअसल किलकारी मैडम क्रैश जाती हैं पर बताती ऑफिस ही हैं. और मैं तो हूं ही कामकाजी. इसलिए तीन-तीन कामकाजियों के रहते बाक़ी दिनों में दफ़्तर पहुंचने की जल्दबाज़ी में अख़बार की सुर्खियों से ही संतोष करना पड़ता है.
31 महीने पहले तक चादर तान कर लम्बी सोया करता था. बस दफ़्तर पहुंचने से 15 मिनट पहले उठकर फटाफट तैयार हो जाता था. वर्किंग डेज़ में अख़बार से तब भी सुर्खियों भर का ही रिश्ता था. इतवार तो ख़ैर अपना रहा है हमेशा से. किलकारी के आने के बाद अब इतवार को भी एक ही अख़बार लिया जाता है. हां, तो कल जब मैं अख़बार चाट रहा था तो बीवीजी बोलीं, ‘देखो, किलकारी नहीं मान रही है. ये जिप ठीक कर रहे हैं इसके जैकेट की और मैडम बार-बार छीन ले रही हैं जैकेट इनके हाथ से ...’ मैंने बालकनी में बैठे-बैठे ही समझाने वाले अंदाज़ में कहा, ‘दे दो किलकारी. आपका जैकेट ठीक हो जाएगा.’ नहीं मानी. फिर मैं अन्दर कमरे में गया और पुचकार-पोल्हा कर जैकेट दे दिया चेन की मरम्मत करने वाले भैया को. और बग़ल में बैठकर देखने लगा.
अरे, वो भैया तो बिल्कुल नहीं थे. नीली पैंट और काई रंग की जरसी पहने उस भैया की उम्र तेरह-चौदह साल से ज़्यादा नहीं होगी. मासूमियत कम थी उनके चेहरे पर ग़ज़ब की शालीनता थी. अपना नाम विशाल बताया भैया ने. यह भी बताया कि उसने यह काम अपने बड़े भाई से सिखा है. तीन भाइयों में सबसे छोटा है विशाल. जिस भाई ने उसे ये हुनर सिखाया, अब वह जिंस के कारख़ाने में काम करता है. सबसे बड़े भाई भी जिंस सिलाई का ही काम करते हैं. पिताजी फेरी पर साड़ी बेचते हैं. मां घर में रहती हैं. विशाल भाई की एक बहन है जो सेकेंड इयर की विद्यार्थी हैं, मामा के घर पर रहकर ही पढ़ाई कर रही हैं. विशाल का पुश्तैनी घर और ननिहाल एटा जिले में है. एटा मैनपुरी के पास है. मैनपुरी उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी का चुनाव-क्षेत्र है. मौक़ा पड़ने पर विशाल भई गांव भी जाते हैं. ‘कल ही तो आया हूं भैया दुज पर बहन से मिलकर.’
मैंने पूछ लिया कि चेन-मरम्मती से कितनी आमदनी हो जाती है? ठस्स-सा जवाब मिला ‘डेढ सौ, दौ सौ, ढाई सौ भी हो जाता है.’ फिर अपने-आप उन्होंने बताया कि ये काम वो केवल संडे को ही करते हैं. बाक़ी दिनों में स्कूल जाते हैं. राजकीय सर्वोदय विद्यालय नाम है उनके स्कूल का. भजनपुरा के उस स्कूल में विशाल आठवीं दर्जे के विद्यार्थी हैं. बीवीजी ने विशाल से पूछा, ‘भैया कहां-कहां जाते हो चेन मरम्मत करने?’ विशाल भाई का जवाब आया, ‘खाली तिमारपुर में करते हैं.’ तिमारपुर में ही अपनी रिहाइश भी है. दो साल से इतवार के इतवार विकास भाई ये काम कर रहे हैं. सोमार से शनीचर तक जिस बैग में किताब-कॉपियां लेकर वे स्कूल जाते हैं, इतवार को उसमें स्टील के दो लंच बॉक्स, और एक पिलाशनुमा कोई उपकरण होता है. और कुछ रखते होंगे वो तो मुझे नहीं मालूम. ये दो डिब्बे तो दिख गए थे मुझे. एक में ख़राब लॉक (लॉक माने जिसे पकड़ कर हम उपर-नीचे सरकाते हैं) और दूसरे में अच्छा लॉक रखते हैं. किलकारी के चेन का लॉक ठीक करने में उन्हें 4 मिनट लगे होंगे. पूछने पर उन्होंने बताया कि 5 मिनट से ज़्यादा शायद ही कभी ख़र्च होता है एक लॉक की मरम्मती में.
इतवार को जो भी कमाते हैं विशाल भाई उसमें से पचास-साठ रुपए रखकर बाक़ी घरवालों को दे देते हैं. इसी पचास-साठ से उनके कॉपी-कलम-किताब का ख़र्च निकल जाता है. आम तौर पर अपनी पढ़ाई-लिखाई के लिए वे घरवालों से पैसा नहीं लेते हैं. जब ज़्यादा पैसों की ज़रूरत होती है तब ही वे बड़े भाइयों या पिता से पैसे की बातचीत करते हैं.
विशाल भाई भविष्य में मोबाइल फ़ोन का कारीगर बनना चाहते हैं. लोगों से सुना है उन्होंने कि मोबाइल रिपेयरिंग के काम में अच्छा पैसा बन जाता है.
जीने का जज्बा ऐसे लोगों से सीखना चाहिए. खुशकिस्मत हैं वो लोग जिनका बचपन एश आराम से बीता.
ReplyDeleteतस्वीर भी आपने ऐसी लगाई की बस...
पुनीत भाई शुक्रिया आपका. मुझे तो लग रहा था कि विशाल भाई की कहानी लोगों को बहुत उबाउ लगी. आपने नोटिस किया और सही फ़रमाया कि जीने का जज्बा ऐसे लोगों से सीखा जाना चाहिए.
ReplyDeleteदोनों तस्वीरें विशाल भाई की ही हैं. दूसरी वाली में किलकारी मैडम भी हैं.
Good massage for the young generation.We have to learn from Vishal...
ReplyDelete"JINA ISSI KA NAAM HAI"