साढ़े पांच बजे भोर में स्नान ...
34 की दहलीज़ पर हूं. याद नहीं पिछली बार साढे पांच भोर में कब नहाया था. नहाया भी होउंगा तो पिताजी ने कोई दंड दिया होगा या फिर छठ के भोरवा अरघ की धार्मिक महत्ता के दवाब में.
सोमार को ही डॉ. अम्बेडकर कॉलेज वाले प्रदीपजी ने चेता दिया था, ‘कि साढे पांच बजे गाड़ी तिमारपुर में आपकी कॉलोनी के बाहर जूस वाली दुकान पर खड़ी हो जाएगी. आप तैयार रहिएगा’. मतलब साफ़ था अल्लसुबह दिव्य निपटान समेत तमाम निपटानोपरान्त मुझे बताए गए समय पर जूस की दुकान पर हाजिर हो जाना था. पहले भी एक आध मौक़ों पर मैं बता चुका हूं कि जो वक़्त मेरे जूस की दुकान पर पहुंच जाने के लिए मुक़र्रर किया गया था उस वक़्त पर आज तक इक्के-दुक्के मौक़ों पर जबरिया जगने के अलावा तो सोना ही मुझे प्यारा लगता है. मित्रवत आदेश कहिए या उससे भी ज़्यादा हमारे असाइमेंट की मांग, कोई और चारा नहीं था. उठ गया 5.20 पर. पानी गर्म करने का ब्यौंत करके निपटने चला गया. उसके बाद ब्रश से जल्दी-जल्दी दांतों की रगड़ाई. और फिर नहाया. इस बीच प्रदीपजी का दोबारा फ़ोन आ गया ‘गाड़ी मदर डेयरी पर खड़ी है. हम वहीं हैं’. पहला फ़ोन मेरे जगने के एक-आध मिनट बाद ही आ चुका था. ख़ैर मैंने प्रदीपजी को तसल्ली दिलाते हुए कहा, ‘बस नहा लिया, आ रहा हूं दो मिनट में’. झटपट बैग में एक जोड़ी कपड़े ठूंसा. और स्वेटर कंधे पर रखते हुए बीवी को जगाया, ‘दरवाज़ा बंद कर लो’, निकल पड़ा तेज़ कदमों से.
निर्धारित जगह से कुछ क़दम आगे गाड़ी खड़ी थी. प्रदीपजी चहलक़दमी कर रहे थे. पिछली सीट पर मधुजी और विधिजी बैठी थी. मैं सलाम-नमस्ते टाइप की औपचारिकताओं को निपटाते हुए बीच वाली सीट यानी ड्राइवर सीट के पीछे वाले पर बाएं से बैठ गया. प्रदीपजी पहले से ही दाएं जमे थे. गाड़ी चल पड़ी. प्रदीपजी ने जेब से फ़ोन निकाल लिया, ‘हां रामप्रकाशजी ... तिमारपुर से गाड़ी निकल पड़ी है. मैक्सिमम 15 मिनट में गांधीनगर पहुंच जाएगी.’ मेरी निगाह स्टीयरिंग के नीचे वाहन की गति की सूचना देने वाले गोले पर पड़ी. 120 से उपर-नीचे होते कांटे को देखकर मन ही मन प्रदीपजी की बात को सुधारा, ‘इस रफ़्तार से चली तो दस मिनट भी ज़्यादा होगा पहुंचने के लिए.
प्रदीपजी कुछ-कुछ बताते रहे हलद्वानी-यात्रा के प्रयोजन के बारे में. इससे पहले उन्होंने फ़ोन पर ही एक-दो बार अतिसंक्षिप्त जानकारी दी कि उत्तराखंड ओपन युनिवर्सिटी में मीडिया कोर्स शुरू होने वाला है और उसी से मुताल्लिक किसी मीटिंग के लिए हमें कभी वहां जाना भी पड़ सकता है. तो प्रदीपजी बता रहे थे कि एक खाका तो बना लिया है उन्होंने रामप्रकाशजी के साथ मिल कर. ये भी बताया उन्होंने कि विश्वविद्यालय कितना लाचार है, उसकी न इसी है न एसी. बड़ा झंझट है. बहुत दिनों से वाइस चांसलर कह रहे हैं इस काम को निपटा लेने के लिए ताकि जल्दी से जल्दी पाठ्यक्रम चालू हो सके.
अब हम गांधीनगर मार्केट पहुंच चुके थे. किसी ज़माने में गांधीनगर रेडिमेंट गारमेंट्स के मामले में एशिया का नम्बर वन बाज़ार माना जाता था. रूमाल से लेकर बड़े-बड़े जैकेट तक, डिज़ाइन, आकार-प्रकार, क़ीमत, इत्यादि संबंधी वैविध्य से परिपूर्ण. दिलचस्प ये कि ख़ूब ही सस्ता! पहली दफ़ा इसी सस्ते के चक्कर में गया था 1993 में. मुझ जैसे एक-दो पीस के ख़रीदारों के लिए ‘सस्ता’ अर्थहीन निकला. दुसरी बार शायद 1996 में गया था. पिंकी मुज़फ़्फ़रपुर से आ रही थी. माताजी ने किसी को कहकर रेल में उसकी सीट के नीचे आम का एक कार्टन रखवा दिया था और पिंकी से कहा था कि राजू ले लेगा स्टेशन से. पर पिंकी के बिदा हो जाने के बाद माताजी ने मुझसे संपर्क करने की बहुत कोशिशें कीं. असफल रहीं. तीन-चार दिनों बाद जब मैंने उनसे संपर्क किया तब उन्होंने मुझे एक नंबर दिया और बताया आम भेज दिया है. दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने महान क्रांतिकारी कामों के चक्कर में दो दिन तक संपर्क भी नहीं कर पाया. तीसरे दिन जब नंबर मिलाया तब पता चला आम गांधीनगर पहुंच चुका है. दूसरी तरफ़ से सज्जन ने गली और मकान नंबर बताया और कहा कि 4 बजे के बाद मैं बताए गए पते पहुंच जाउं. लोहे के पुल से यमुना पार करके पहुंचा. पिंकी के नाना जो मुज़फ़्फ़रपुर में हमारे पड़ोस में शादी से पहले तक रहने वाली लड़की टिंकु और उससे छोटी-बड़ी चार-पांच और बहनों के भी नाना हैं, जिनके अपने शहर में रहते एक-आध दीदार मैं कर चुका हूं, वहां मिल गए. पिंकी उसी के साथ आयी थी. पिंकी का पति जो अब उसे छोड़ी चुका है, तब किसी नर्सिंग होम में कम्पाउंडरी करता था. वो भी मिला. किसी बच्चे ने अंदर के कमरे से एक कार्टन को घसीटता मेरे सामने पेश किया. कार्टन के निचले हिस्से में आम के बह जाने की वजह से कुछ सीलन आ गयी थी. उस फ़कीरी के दौर में सत्तर रुपए लिए थे ऑटो वाले ने नेहरु विहार तक आम समेत मुझे पहुंचाने के. दबा कर खाया था पीएसयू के साथियों ने. बेहिसाब खा लेने की वजह से कमलेशजी का तो पेट ही ख़राब हो गया था.
गांधीनगर तीसरी बार रामप्रकाशजी को लेने गए दल का सदस्य बनकर पहुंचा था 20 नवम्बर की सुबह. प्रदीपजी बार-बार फ़ोन मिला रहे थे, पर मिल नहीं रह था. मैं गाड़ी से उतरकर बिजली और टेलीफ़ोन के खंभों पर टंगे बैनर्स निहारने लगा था. एक बैनर किसी बंगाली पाशा तांत्रिक का था. सफ़ेद कपड़े पर छपे अक्षर मिर्गी से शर्तिया मुक्ति का दावा कर रहे थे. बायीं ओर दुकानों के फ़र्श को देखकर लग रहा था जैसे वहां गोश्त और मछलियां बिकती हैं. रामप्रकाशजी से पूछुंगा. कुछेक मिनट बाद प्रदीपजी की उनसे बात हो गयी. उन्होंने बताया था कि गाड़ी मोड़कर उपर वाली सड़क पर ले आयी जाए, वे सीधे वहीं पहुंचेंगे. दुसरे ही मिनट गाड़ी बताये स्थान पर जा लगाई संजय भाई ने. रामप्रकाशजी सफ़ेद चेक वाली कमीज़ और शायद जिंस की पैंट पहने दायें हाथ में अटैची थामे चले आ रहे थे. उन्होंने हमसे (प्रदीपजी और राकेश से) आत्मीय हाथमिलाई और पिछली सीट बैठी मित्रों मधुजी और विधिजी से दुआ-सलाम की. संजय भाई ने उनकी अटैची को पिछली सीट के पीछे अन्य सामानों के साथ टिकाया. प्रदीपजी ने इशारा करते हुए कहा, ‘रामप्रकाशजी आप आगे बैठें और हमारा नेतृत्व करें’.
संजय भाई स्टीयरिंग थाम चुके थे. हम पुश्ता पार कर रहे थे. सड़क पर गाडियों की संख्या बढ़ने लगी थी. हमारी बातचीत में दिल्ली शहर की सड़क की बढ़ती ट्रैफिक, कॉमन वेल्थ गेम और इसके साथ दिल्ली को ख़ूब सुंदर बनाने की ‘अभिजात’ क़वायद, अक्षरधाम, इंद्रप्रस्थ पार्क ... जैसे सार्वजनिक मसले आते-जाते रहे. किसी सड़क पर आकर संजय भाई ने पूछा, ‘किधर से निकलना है?’ रामप्रकाशजी और प्रदीपजी ने कोई संतोषजनक जवाब देकर संजय को रास्ता बताया. गाड़ी दिल्ली पार कर चुकी थी.
क्रमश:
मस्त लिखे गुरू. तुम्हारा लिखा पढ़ने के लिए मजबूर कर देता है. अच्छा अनुभव रहा. क्रमश: कितनी बार और लिखोगे:)
ReplyDeleteअगले का इंतजार रहेगा