पहले गांव में ख़ूब फेरीवाले आया करते थे. एक लंबा सांवला-सा आदमी जिसकी उम्र 30-35 के आसपास रही होगी, हर दूसरे दिन साइकिल के कैरियर पर बरफ (आइसक्रीम) का वक्सा लादे आता था. टोले में घुसते ही किसी खंभे या दीवार के सहारे वह अपनी साइकिल टिकाकर डमरू बजाना शुरू कर देता था. डमरू की आवाज़ सुनते ही बच्चे जमा होने लगते थे, और बरफ़ मांगने लगते थे. फिर वो बरफवाला कहता, ‘जा न, घरे से पइसा ले आब.’ बच्चे अपने-अपने घर की तरफ़ दौड़ पड़ते थे. अब कोई अपनी दादी की साड़ी पकड़े तो कोई अपनी मां की पल्लू खींचते, तो कोई बड़ी बहन की उंगली पकड़े बरफवाले के पास आता था.
मैं अकसर ऐसे मौक़ों पर अपनी मां से पैसे मांगा करता था. मां अगर कुछ बहाना बनाती, जो कि वो अकसर बनाती थीं – तो मैं उन्हें बहुत तंग करने लगता था. ज़मीन पर लोट कर हाथ-पांव पटकने से लेकर ज़ोर-ज़ोर से चीखने तक का नाटक करता था. आखिरकार मां को बिस्तर के नीचे से निकालकरं चवन्नी देनी पड़ती थी, और मैं सिसकता, आंसू पोछता हुआ सीधे बरफवाले के पास पहुंचता था. आम वाला बरफ या फिर बेल वाला मुझे बहुत पसंद था. मैं इन दोनों में से ही कोई लेता था. बरफवाले के पास दस पैसे से लेकर आठ आने तक का बरफ होता था. आठ आने में दूध वाला मिलता था.
एक बार की बात है. मैं किसी छुट्टी में हॉस्टल से घर आया था. एक सुबह मुझे मां के तकिये के नीचे दस रुपए का एक नोट दिख गया. मैंने उसे उठा लिया और अपने पैजामे के नाड़े में छुपा लिया. सोचा, अब जब आएगा बरफवाला तो ख़ूब बरफ खाउंगा. पर कुछ देर में ही मां ने किसी काम से तकिया पलटा. नोट न देखकर वो गुस्सा हो गयीं. उन्होंने मुझसे पूछा. मैंने साफ़ इंकार कर दिया. उसके बाद यह कहते हुए कि घर में और कोई आया ही नहीं तो ले कौन जाएगा रुपया, उन्होंने मेरी पिटाई करनी शुरू कर दी. मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा. मेरी चीख सुनकर ईया (अपनी दादी को मैं और मेरे चचेरे भाई लोग ईया ही कहते थे) आ गयीं. ईया ने मां को धक्का-सा दिया, दो-चार गालियां दीं और मुझे गोद में उठा लिया. मुझे पुचकारते हुए वो मां को गालियां पढ़े जा रही थीं. उन्होंने मां से कहा, ‘ख़ुद कहीं रखकर भूल गयी है और बच्चे पर आरोप मढ़ रही है.’ मैं भीतर-भीतर ख़ुश और दुखी दोनों हो रहा था. ख़ुश इसलिए कि तत्काल दादी ने बचा लिया और दुख इसलिए कि मेरी वजह से मां को दादी ने ख़ूब गालियां दी.
ख़ैर, दादी मुझे गोद में लेकर आंगन से बाहर निकल गयीं. कुछ देर बाद जब मैं बाहर से आया तो मां ने नहलाने के लिए मेरे कपड़े उतारने शुरू कर दिए. कमीज़ खोल दी, बनियान उतार दी. जब वो मेरा पाजामा उतारने लगी तो मैं सहम गया. जैसे ही उन्होंने नाड़ा खींचा, दस रुपए का वो नोट ज़मीन पर गिरा. मैं रोने लगा और फिर कभी दुबारे ऐसा न करने की बात ख़ुद ही बोल गया. मां नहलाते हुए मुझे समझाते रहीं. आज उस घटना के लगभग 25 साल हो चुके हैं. जब भी याद आता है तो दादी द्वारा बचाए जाने से लेकर मां द्वारा समझाए जाने तक, एक-एक बात और घटना याद करके मैं यह सोचने लगता हूं कि यदि मैं तब दसटकिया चोरी नहीं किया होता तो शायद आज बड़ा चोर होता.
Bikul sahi likha hai aapne,,Bachpan me jo adat lag jati hai wahi rah jati hai,,accha huaa jo aapka nara khul gaya aur aap pakde gaye nahi toh ,,aaj ek nami choor zaroor hote..
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ji bachpan mein aksar bachche ek baar zaroor chori kerte hain ...bahut hi badhiya vernan kiya hai aapne
ReplyDeleteji bachpan mein aksar bachche ek baar zaroor chori kerte hain ...bahut hi badhiya vernan kiya hai aapne
ReplyDeleteमाँ और आपके दोनों के लिए बहुत कठिन समय रहा होगा वह । मैं तो बच्चे पर ही विश्वास कर खुद की याददाश्त पर शक करती ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
yaar hamlog to papa ke pocket par hi hath saf karte the. kabhi kabhi bade note bahut dino tak kahin rakhkar ashwasht hote the ki kahi chori pakri to nahi gayee but amesha neeraj(my younger)se ladai ke dauran BHED APNE AAP KHOOL JATA THA.
ReplyDeleteBAHUT maja aaya bhachpan aur papa ki yaad dila diya. thanks....
शायद ही ऐसा कोई शख्स हो जिसने बचपन में छोटी-मोटी चोरी ना की हो. इतने साल बाद अपने अपराध का सार्वजनिक स्वीकार कर आपने तो साहस दिखा डाला. ऐसा कुछ करते रहिए.
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