21.7.08

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जब दिल्ली की बस में कोई आदमी किसी औरत को टटोलता है तो अक़सर एक ही जवाब आता है - ‘‘घर में माँ-बहन नहीं हैं क्या?’’ हालाँकि इस जवाब से कई बार औरत को वक़्ती राहत मिल जाती है लेकिन इस बात पर सोचना फिर भी ज़रूरी है कि क्या यह ‘माँ-बहन अवधारणा’ भी सार्वजनिक स्थान पर यौन-उत्पीड़न को बढ़ावा देने वाला एक अहम कारण नहीं है? यह तर्क़ कुछ इस तरह आगे बढ़ता हैः गुप्त प्रसंगों ने पहले ही तय कर दिया है कि माँ और बहन (न कि पिता और भाई) के भीतर सेक्स का कोई स्रोत नहीं होता, उनको एक स्वायत्त यौन इकाई माना ही नहीं जा सकता। यह एक स्वाभाविक और मानी हुई बात है कि माँ और बहन कभी सेक्स के बारे में बात नहीं करेंगी और न ही उनसे सेक्स के बारे में कोई बात करेगा। यह सोच औरतों के साथ बनने वाले तमाम ताल्लुक़ात में एक दोहरी विकृति पैदा कर देती है। पहली बात तो यह कि बाक़ी तमाम औरतों (अपनी माँ-बहन के अलावा) को बेइंतेहा यौन आकर्षण का स्वाभाविक निशाना मान लिया जाता है (आख़िर वे तो किसी और की माँ-बहन हैं न)। और दूसरी, क्योंकि उनके साथ किसी भी तरह की नज़दीकी लाज़िमी तौर पर गुप्त प्रसंग के दायरे में ही आती है (क्योंकि किसी औरत के साथ यौन संवाद की प्रत्यक्ष और खुली अभिव्यक्ति असंभव है), इसलिए चोर-उच्चके की तरह हाथ साफ़ करना ही मर्दों के लिए सबसे आसान विकल्प बन जाते हैं। बल्कि गुप्त प्रसंग का ही एक और नतीजा ये भी हो सकता है कि दाब-भींच की शिकार औरत ख़ुद ही इन हरकतों के प्रति एक अनजान की मुद्रा अपनाने लगे।
मेरे ख़याल में दिल्ली की औरतें यौन मुक्ति के दायरे को और फैलाने के लिए तभी दबाव डाल सकती हैं जब वह इस बात के लिए आवाज़ उठाएँ कि उन्हें हर दुराचारी पुरुष की सांकेतिक माँ या बहन न माना जाए। यानी ज़रूरत इस बात की है कि हर हरकरत की स्वतंत्र तौर पर पड़ताल की जाए और उसे गुप्त ज्ञान के रहस्यमयी नियमों के साथ जोड़कर न देखा जाए।
मर्द और औरत अपनी सेक्शुअलिटी का निषेध करके नहीं बल्कि उसका हक़ जताकर ही यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनके बीच होने वाली हर मुठभेड़ और आदान-प्रदान को सेक्स की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि तब सेक्स दीगर इंसानी गतिविधियों की तरह सामान्य हो जाएगा जिनके बारे में खेल, राजनीति, पीने के पानी के इंतज़ाम और एक बेहतर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की तरह आसानी से बात की जा सकती है। अगर ऐसे दायरे गढ़े जाएँ जहाँ अज़नबी एक-दूसरे से मिल सकें और एक-दूसरे में दिलचस्पी का इज़हार कर सकें, अगर यह सुनिश्चित किया जा सके कि वयस्क उम्र की कोई भी महिला (न कि सिर्फ़ ऐसी महिलाएँ जो ज़ाहिरा तौर पर जवान और सम्पन्न दिखाई देती हैं) पुरुषों की तरह और उनसे आज़ाद रहते हुए सामाजिक जीवन जी सकती है, तो शहर के चेहरे पर पड़ा यह नक़ाब हट जाएगा। शहर की सड़कों पर हर किसी को आवाग्मन की सुरक्षित और सस्ती सुविधा उपलब्ध कराने के लिए सड़कों पर बेहतर रोशनी और एक सुविधाजनक परिवाहन व्यवस्था की माँग उठाकर ही सड़कों पर आनंद के नए दायरे रचे और ढूँढ़े जा सकते हैं। या, जैसा कि लेनिन ने कभी एलैक्ज़ेंद्रा कोलंताई से कहा था, मर्दों और औरतों के बीच यारी दोस्ती व सहवास के लायक़ मोहब्बत और जिस्मनी ताल्लुक़ात के नए नीतिशास्त्र का रास्ता लाज़िमी तौर पर ‘आवास के सवाल’ तक जाना चाहिए – आज आप शहर की किसी भी अकेली औरत (या मर्द) से पूछिए कि उसकी निज़ी यौन स्वायत्तता के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट क्या है तो पचा चलेगा कि मक़ान मालिकों द्वारा थोपी गई शुचिता/ब्रह्मचर्य या बनावटी शादियों की समस्या उन चीज़ों की फ़ेहरिस्त में काफ़ी ऊपर आएगी, जिनका वे फ़ौरन हल चाहते हैं। अनुभवों की एक नई ज़बान तभी रची जा सकती है जब इंसानी ज़िस्म और जिस्मानी तजुर्बों के अवमूल्यन को चुनौती देने के लिए हम रोज़-ब-रोज़ की बोलचाल में कामोत्तेजक और खिलंदड़ई का सहारा लेंगे क्योंकि यह ज़बान ज़िस्म का अवमूल्यन नहीं करती। तब जाकर शायद वाणी दीवार पर लिखे अपने संदेश के ज़रिए सेक्स के अलावा और चीज़ों के बारे में सोचेने-विचारने व बात करने के लिए भी न्यौता दे पाएगी।

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