16.7.08

सेहत, स्फूर्ति और जोश का पूरा ख़जाना

पेश है शुद्धब्रत सेनगुप्‍ता के लेख अ‍कथ कथन अर्थात ज़ेहन के गुप्‍त रोग की अगली खेप.पिछली खेप के बाद कल देर रात तक पाठकों के फ़ोन आते रहे. ज़्यादातर लोगों का कहना था कि लेख तो बढिया है पर शीर्षक भ्रामक है. मित्रों अच्छा लगा कि आपने फ़ोन किया, पर इस गंभीर मसले पर बातचीत शुरू हो पाती अगर आप लगे हाथ अपनी प्रतिक्रिया यहीं देते. तो आईए बढ़ते हैं अगली कड़ी की ओर.


‘‘ख़ुशहाल वैवाहिक जीवनः गुप्त रोग से छुटकारे के लिए ख़ुद आकर मिलें या निज़ी तौर पर ख़त लिखें’’ - इन शब्दों से उसके प्रोग्राम का पता चलता था। एक आम सात साल के लड़के की तरह कुछ समय के लिए मुझे इस बात का पूरा यक़ीन होने लगा था कि बदक़िस्मती से फख़रूद्दीन अली अहमद नहीं बल्कि यही आदमी भारत का राष्ट्रपति है, मेरे आसपास की दुनिया का सबसे बुलंद शख़्स।

‘सेक्स’ - ज़िन्दगी में पहली बार यह शब्द मैंने एक विशालकाय इश्तहार पर पढ़ा था। उस वक़्त मेरी उम्र सात साल रही होगी। मेरे स्कूल जाने के रास्ते में सड़क किनारे एक बड़ा सा इश्तहार लगा हुआ था जिस पर एक निहायत अहम से दिखने वाले शख़्स की तस्वीर बनी थी। उसकी लंबी ऐंठदार बेहद नुकीली मूँछें थी। उसने एक सूट और टाई पहनी हुई थी। होठों को देख कर तो ऐसा लगता था मानो उसने लिपस्टिक भी लगा रखी हो। उस तस्वीर की सबसे दिलचस्प बात उस आदमी की पगड़ी थी जो क़रीब-क़रीब उसके चेहरे जितनी ही बड़ी थी और पठानी शैली में सिर पर मुड़े हुए पंखे की तरह बंधी थी। ये ख़ानदानी शफ़ाख़ना वाले हक़ीम हरकिशन लाल (‘‘हमारी कोई ब्रांच नहीं’’, ‘‘हक़ीम जी की नक़ली तस्वीरों के झाँसे में न आएँ’’ वाले हक़ीम साहब) की तस्वीर थी।
और क्या तस्वीर थी! उसका क़द पाँच फुट भी नहीं रहा होगा मगर फिर भी मेरे लड़कपन में दिल्ली के आसमान पर उसी का राज था। रूरीटेराई तानाशाहों की तरह उसकी तस्वीर मुझे मानो शहर के हर चौराहे पर लटकी दिखाई देती थी। ‘‘विश्व प्रसिद्ध सेक्स स्पेशलिस्ट’’ - ये शब्द उसके मिशन का बयान करते थे और ‘‘ख़ुशहाल वैवाहिक जीवनः गुप्त रोग से छुटकारे के लिए ख़ुद आकर मिलें या निज़ी तौर पर ख़त लिखें’’ - इन शब्दों से उसके प्रोग्राम का पता चलता था। एक आम सात साल के लड़के की तरह कुछ समय के लिए मुझे इस बात का पूरा यक़ीन होने लगा था कि बदक़िस्मती से फख़रूद्दीन अली अहमद नहीं बल्कि यही आदमी भारत का राष्ट्रपति है, मेरे आसपास की दुनिया का सबसे बुलंद शख़्स।
अफ़सोस अब हक़ीम जी हमारे बीच नहीं रहे। मगर अब शहर के ज़्यादातर चौराहों पर उनके जैसे सेक्स विशेषज्ञों की एक लंबी-चौड़ी गारद ने उनकी जगह ले ली है। इन सबके इश्तहारों पर मूँछों से लैस या सफ़ाचट, मगर लाज़िमी तौर पर सूट-बूट में सजा एक गबरू आदमी ज़रूर दिखाई देता है। इन इश्ताहरों को देखकर ऐसा लगता है कि आपातकाल के दिनों में चलाए गए नसबन्दी अभियान के दौरान दिल्ली के मर्दों में नामर्दी का जो ख़ौफ़ पैदा हुआ था, उसने हमारे शहर की दीवारों पर एक अमिट निशान छोड़ दिया है।
इन हकीमजियों के पास नामर्दी, संतान प्राप्ति में दिक़्क़त और शुक्राणुओं की कमी (निल शुक्राणु) के जादुई व फ़ौरी असर करने वाले इलाज मौज़ूद हैं। उनके पास ‘‘सेहत, स्फूर्ति और जोश’’ का पूरा ख़जाना है।
अख़बारी इश्ताहारों और सार्वजनिक पेशाबघरों की शोभा बढ़ाने वाले स्टिकरों से उनके चेहरे हैं। शौचालयों की दीवारों पर उन्हें इतनी ऊँचाई पर लगाया जाता है जहाँ से वह सीधे हमारी नज़र के दायरे में आ जाते हैं। उनके इर्द-गिर्द कुछ जिस्मानी

‘‘क्या आप अपने सामान के आकार से चिंतित हैं? क्या आपको कमज़ोरी की वजह से बार-बार शर्मिंदगी होती है? क्या आप शर्तिया लड़का पैदा करना चाहते है? वैवाहिक जीवन का आनंद लेना चाहते हैं? क्या स्वप्नदोष ने आपकी नींद हराम कर रखी है? क्या आपको गैस, मोटापा, भगंदर या बवासीर की शिकायत है? हमारे यहाँ इन गुप्त रोगों की तमाम गुप्त परेशानियों को पूरी तरह गुप्त तौर पर हल किया जाता है।’’

हिस्सों की शौक़िया चित्रकारी भी दिखाई देती है जो गुफ़ाओं में की जाने वाली चित्रकारी की ख़त्म हो चुकी प्राचीन विधा का एकमात्र समकालीन अवशेष मालूम पड़ती है। तस्वीरों का मक़सद ऐकांतिक चिन्तन की प्रेरणा देना है।
गुफ़ाचित्रों की तर्ज़ पर बनाए गए ये चित्र भी हमारी कल्पनाओं के साथ मिल कर एक जादुई असर पैदा करते हैं। इन चित्रों के कलाकारों को संभोगरत जोड़ों की अर्द्ध-यथार्थवादी तस्वीरें बनाने में ख़ासा मज़ा आता है। मगर आमतौर पर इन चित्रों के रचनाकार वृत, त्रिकोण, शंकु और अंडाकार ज्यामितीय रूपकों से ही काम चला लेते हैं। वैसे भी, इंसानी ज़िस्म के बहुत सारे अंगों को जब वह इन्हीं बिम्बों के सहारे अभिव्यक्‍त कर सकते हैं तो और ज़्यादा दक्षता की उन्हें ज़रूरत ही क्या है। ये चित्रकार अपने चित्र के ऊपर दो-चार लाईन की कविता भी पेल देते हैं जिससे पता चलता है कि वह आदमी क्या चाहता है (जी हाँ, फ़ोन बूथ के पास बने संदेशों के लेखकों के विपरीत इन चित्रों का चित्रकार कोई मर्द ही होता है), वह कहाँ क़ामयाब रहा है और कहाँ नाक़ामयाब हुआ है। इन कविताओं में मेरी पसन्दीदा कविता वह है जो मैंने लाजपत नगर की एक सार्वजनिक मूतरी में देखी थी। कविता कुछ इस तरह थीः
चूतिया चोदा चौदह साल, आशिक़ दीवाना बेमिसाल गुप्त रोग का रोगी रोया, दिल्ली के सब कुछ खोया।।
‘गुप्त रोगों’ के शहीदों को दी गई इस श्रद्धाजंलि से पता चलता है कि शहीद का कामुक करतबों से भरा जीवन बड़े त्रासद ढंग से ख़त्म हुआ था। संभव है कि जहाँ यह कविता थी वहाँ उसे परोपकार की भावना से किसी ने ‘जनहित में’ चिपकाया हो। इसके बग़ल में ही एक स्टिकर लगा हुआ है जिस पर गुप्त रोगों का जादुई इलाज करने वाले डॉ. रोशन का विज्ञापन छपा है। बुधवार और शुक्रवार को घंटाघर के पास अपने मरीजों का इलाज करने वाले डॉ. रोशन का यह विज्ञापन गागर में सागर से कम नहीं है।‘‘क्या आप अपने सामान के आकार से चिंतित हैं? क्या आपको कमज़ोरी की वजह से बार-बार शर्मिंदगी होती है? क्या आप शर्तिया लड़का पैदा करना चाहते है? वैवाहिक जीवन का आनंद लेना चाहते हैं? क्या स्वप्नदोष ने आपकी नींद हराम कर रखी है? क्या आपको गैस, मोटापा, भगंदर या बवासीर की शिकायत है? हमारे यहाँ इन गुप्त रोगों की तमाम गुप्त परेशानियों को पूरी तरह गुप्त तौर पर हल किया जाता है।’’
पढ़ने वाले को एक बार फिर आगाह किया जाता है कि वह ख़ुफ़िया तौर पर ही हक़ीम जी को ख़त लिखे या ख़ुद आकर मिलें ताकि उसकी समस्या पर ‘‘ख़ास तवज्ज़ो दी जा सके।’’
क्रमश:

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